रामजन्म का बखान राधेश्याम रामायण में
तुलसीदास जी ने भी रामायण, रामचरित मानस, लोक के लिए ही रची थी. इससे पहले भी रामायण थी किंतु वह संस्कृत में थी ‘ वाल्मीकि रामायण’ सो स्वाभाविक ही उस पर पण्डितों / विद्वानों का कब्जा था. जनता को वह सुलभ न थी. जितना पण्डित जी कृपा कर सुना देते थे, वह ही जन सामान्य को पता था. पढ़ने का तो प्रश्न ही नहीं. पण्डितों ( ब्राह्मणों ) के अलावा अन्य को छूने का अधिकार न था और धर्मग्रन्थ था सो साहित्य की भांति पठन – पाठन / चर्चा न होती थी. यह उत्तर भारत या जिसे मिश्रित भाव से ‘हिंदी पट्टी’ कहा जाता है – उसकी स्थिति थी अन्यथा तो बांग्ला में ‘कृतिवास रामायण’ तुलसी से पहले लिखी गयी, दक्षिण में, जैनियों में … देश भर में अनेक रामायण पाठ / कथा भेद के साथ थीं. यहाँ ‘हिंदी पट्टी’ के विचार से ही बात हो रही है.
तुलसीदास जी
को अंतःप्रेरणा हुई / ईश्वर का भी परोक्ष आदेश मिला कि रामकथा
‘भाषा’ में करो. तुलसीदास जी पर अमृतलाल नागर जी का
‘मानस का हंस’ भी इन दिनों समानांतर पढ़ रहा हूँ, उसमें भी ‘भाषा’ में रचना करने
की प्रेरणा का प्रसङ्ग है. चित्रकूट में तुलसीदास जी को स्वप्न में माता सीता
के दर्शन हुए, उम्होंने अयोध्या जाने का आदेश दिया. फिर उन्हें साक्षात हनुमान जी दिखाई
दिये, धरती से आकाश तक कनक भूधराकार शरीरा वली छवि में. फिर वे सामान्य आकार में आ गये और सहसा बाल्मीकि
जी बन गए – कपीश्वर के स्थान पर कवीश्वर. आदिकवि के रूप में हि निहोरा किया या आज्ञा
की –
“ भाषा में रामायण की रचना कर. इससे तेरा और लोक
का कल्याण होगा. कवीश्वर फिर कपीश्वर के रूप में दिखलाई देते हैं. गगन स्वर गूंजता
है – अयोध्या जा, रामायण की रचना कर … “
बागों में कलियों के गुच्छे, खिल उठे खिलकर
फूल हुए॥
शीतल सुगंधियुक्त मन्द-मन्द, मलयानिल का संचार हुआ।
त्रिभुवनपति के स्वागत को, जग ऋतुमति होकर
तैयार हुआ॥
उपहार सजाती थी पृथ्वी, बालियाँ खेत में ला – लाकर।
ग्रह – चक्र अवध पै वारी था, लंका पर चक्कर
खा – खाकर॥
नक्षत्र, वार, तिथि, योग लग्न, मांगलिक भविष्य
बताते थे।
छा गए विमानों पर सुरगण, नभ से जयकार सुनाते
थे॥
वह चैत्रशुक्ल नवमी का दिन, अब भी त्योहार
हमारा है।
साकेतधाम का दिव्य तेज, लेकर अवतार पधारा है॥
मण्डलेश्वर योग था, अभिजित समय ललाम।
कौशल्या के धाम में, प्रकटे शोभाधाम॥
कैकेयी के भी हुआ, एक
पुत्र उत्पन्न।
गोद सुमित्रा की हुई,
दो सुत से संपन्न॥
चमके जब घर में चार चंद्र, चौगुना हर्ष आनन्द
हुआ।
चौथेपन में चारों सुत पर, राजा को परमानंद
हुआ॥
घर द्वार न था ऐसा कोई, जिसमें उस दिन त्योहार
न हो।
परिवार न था ऐसा कोई, जिसमें
उस दिन त्योहार न हो॥
बढ़ता विलोककर सुर्यवंश, भगवान सूर्य भी मुदित
हुए।
हो गया महीने भर का दिन, इस भाँति दिवाकर चकित
हुए॥
तीनों लोकों का गुप्त तेज, छाया उस समय अयोध्या
में।
दर्शन करने को सुरदल भी, आया
उस समय अयोध्या में॥
ब्रह्मा आनन्द देखने को, तब ब्रह्मभाट थे बने
हुए।
शंकर भी बूढ़े बाबा बन, नृप के द्वारे थे खड़े
हुए॥
अवलोका बहुत विराटरूप, देखा विकरालरूप प्रभु
का।
अभिलाषा आज सुरों में थी, निरखेंगे बालरूप
प्रभु का॥
किया नृपति ने जिस समय, ‘जात- कर्म
संस्कार’।
वेदों ने तब सूत बन, की यों जय
– जयकार॥
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1907-08 तक वयस्क होते-होते हिन्दी, उर्दू, अवधी और ब्रजभाषा के प्रचलित शब्दों के सहारे अपनी खास गायन शैली में उन्होंने जो ‘राधेश्याम रामायण’ रची, वह शहरी-कस्बाई व ग्रामीण धार्मिक लोगों में इतनी लोकप्रिय हुई कि उनके जीवनकाल में ही उसकी हिन्दी-उर्दू में कुल मिलाकर पौने दो करोड़ से ज्यादा प्रतियां छप व बिक चुकी थीं। उनके निधन के वर्षों बाद भी यह सिलसिला थमा नहीं है। बाद में उन्होंने ‘कृष्णायन’, ‘महाभारत’, ‘शिवचरित’ और ‘रुक्मिणी मंगल’ वगैरह की भी रचना की। यह बात और है कि उन्हें वैसी लोकप्रियता नहीं प्राप्त हो पायी।
रामकथा
वाचन की उनकी विशिष्ट शैली का प्रताप तो ऐसा था कि पंडित मोतीलाल नेहरू ने अपनी
पत्नी स्वरूपरानी की बीमारी के दिनों में पत्र लिखकर उन्हें ‘आनंद भवन’ बुलाया, चालीस दिनों
तक कथा सुनी और बेशकीमती भेंटें आदि देकर विदा किया था। एक
समय उनसे अभिभूत नेपाल नरेश ने उन्हें अपने सिंहासन से ऊंचे आसन,
स्वर्णमुद्राओं की कई थैलियों और चार बाल्टियों में भरे चांदी के सिक्कों के साथ ‘कीर्तन कलानिधि’ की उपाधि दी थी। ‘साहित्यवाचस्पति’ और ‘कथाशिरोमणि’
जैसी उपाधियां भी उनके पास थीं।
अलवर नरेश ने महारानी के साथ उनकी कथा सुनी तो एक स्मृति पट्टिका प्रदान की,
जिस पर लिखा था-समय समय पर भेजते संतों को श्रीराम, वाल्मीकि तुलसी हुए, तुलसी राधेश्याम! रावलपिंडी में
तो उन्होंने बिना माइक के पचास हजार लोगों की भीड़ को शांत व एकाग्र रखकर कथा
सुनाने का करिश्मा कर दिखाया था। 1922
में लाहौर में हुए विश्व धर्म सम्मेलन का श्रीगणेश पंडित राधेश्याम के गाये
मंगलाचरण से हुआ और बौद्धगुरु दलाईलामा ने दुशाला, तलवार
व वस्त्रादि भेंट करके उनका सम्मान किया था। लाहौर में ही हिंदी साहित्य सम्मेलन
के बारहवें अधिवेशन में ‘वर्तमान नाटक तथा बायस्कोप कंपनियों
द्वारा हिंदी प्रचार’ विषय पर अपना बहुचर्चित व्याख्यान दिया
था। लाहौर की एक सड़क को उनके नाम पर ‘राधेश्याम कथावाचक
मार्ग’ कहा जाता था। तो ये था पण्डित
राधेश्याम कथावाचक और ‘राधेश्याम रामायण’ का जलवा.
इसमें
आठ काण्ड ( बाल काण्ड, अयोध्या काण्ड, अरण्य – काण्ड, किष्किंधा – काण्ड, सुन्दर काण्ड,
लंका काण्ड, उत्तर – काण्ड और लव- कुश – काण्ड ) हैं. पूर्व के सात काण्ड रामचरित मानस
में भी हैं किंतु लव- कुश – काण्ड या लव
कुश की कथा रामचरित मानस में नहीं है. इसके 25 भाग हैं जिनकी
व्याप्ति इन्हीं आठों काण्डों में है. इसके मुद्रण और प्रकाशन का अधिकार रणधीर प्रकाशन,
हरिद्वार के पास है. यह धार्मिक किताबें बेचने वालों, कुछ बुक स्टोर्स और अमेजन पर
भी उपलब्ध है और नेट पर इसकी pdf भी उपलब्ध है. मेरा अनुरोध है कि इसे भी पढ़ें, और
मुद्रित प्रति ही खरीद कर पढ़ें. इतना सरल काव्य है कि अर्थ समझने में कुछ कठिनाई न
होगी और राम कथा तो है ही.
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