शगुन – अशगुन विचार
रामचरित मानस व अन्य किताबों में शगुन - अशगुन संकेत
पिछली
पोस्ट में ‘श्रीरामशलाका प्रश्नावली’ के माध्यम से भविष्य का संकेत पाने के लिए प्रश्न
विचार पर चर्चा की गयी. प्रश्न विचार के अलावा स्वप्न फल और विभिन्न पशु –पक्षियों
व व्यक्तियों के दर्शन व अन्य संकेतों से शगुन – अशुगुन विचार की परिपाटी रही है और आज तक चली आ रही है. कार्य कारण
का कोई स्पष्ट व तार्किक सम्बन्ध न होने पर भी पढ़े –लिखे व प्रगतिशील विचारों तक के
बहुतेरे लोग भी इन पर विश्वास करते हैं और पालन करते हैं. विश्वास न करें / ऐसा कहें
तो भी एक बार मन में शङ्का तो उत्पन्न हो ही जाती है. कहीं जाते समय किसी के छींक देने
पर, बिल्ली के रास्ता काट जाने पर, काने व्यक्ति के दर्शन होने पर एक बार तो ठिठक ही
जाते हैं व पानी पीकर या कुछ देर ठहर कर या रास्ता बदल कर अशगुन का निवारण करते हैं
तो जल भरे पात्र के दिखने पर, दही – मछली के उच्चारण या दर्शन पर कार्य सिद्ध होने
का भाव उत्पन्न होता है. शगुन – अशगुन की कोई तार्किकता नहीं, ये मनोवैज्ञानिक प्रभाव
डालते हैं जिससे आचरण प्रभावित होता है और तद्नुरूप कार्य.
यहाँ इनकी तार्किकता पर चर्चा नहीं कर रहा हूँ अपितु श्रीरामचरित मानस व अन्य
किताबों में जो शगुन – अशगुन वर्णित किये हैं, उन्हें दिखा रहा हूँ.
रामजी
ने धनुष भङ्ग किया तो स्वतः ही सीता जीसे उनका विवाह हो गया किंतु वे साधारण लोग तो
थे नहीं. एक तो दोनों पक्ष राजा, दूजे राम, लक्ष्मण, सीता अवतारी सो लौकिक विधि से
भी तो उछाह के साथ भव्य विवाह होना था –
कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना।
रहा बिबाहु चाप आधीना॥
टूटतहीं धनु भयउ बिबाहू। सुर नर
नाग विदित सब काहू॥
तदपि जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु।
बूझि
बिप्र कुलबृद्ध गुर बेद बिदित आचारु॥
सो
जनक ने दशरथ के पास दूत पठाए, बारात का निमंत्रण दिया और अयोध्या से बारात चली. अब
यह अति शुभ कार्य था तो बारात प्रस्थान के समय शुभ शगुन होने ही थे. देखिए, तुलसीदास
जी ने बारात प्रस्थान के समय कौन –कौन शुभ
शगुन गिनाये हैं –
बनइ न बरनत बनी बराता। होहिं सगुन सुंदर सुभदाता॥
चारा चाषु बाम दिसि लेई। मनहुँ सकल मंगल कहि
देई॥
दाहिन काग सुखेत सुहावा। नकुल दरसु सब काहूँ
पावा॥
सानुकूल बह त्रिबिध बयारी। सघट सबाल आव बर
नारी॥
लोवा फिरि फिरि दरसु देखावा। सुरभी सनमुख सिसुहि
पिआवा॥
मृगमाला फिरि दाहिनि आई। मंगल गन जनु दीन्हि
देखाई॥
छेमकरी कह छेम विसेषी। स्यामा बाम सुतरु पर
देखी॥
सनमुख आययु दधि अरु मीना। कर पुस्तक दुइ बिप्र
प्रबीना॥
मंगलमय कल्यानमय अभिमत फल दातार।
जनु सब साचे होन हित भए सगुन एक बार॥
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बालकाण्ड ३०२ / १ से ४
बारात ऐसी सजी है कि वर्णन
करते नहीं बनता. ऐसे अवसर पर सब सुंदर शुभदायक
शगुन होने लगे. चलते समय नीलकण्ठ पक्षी बायीं ओर चारा चुगते दिखा मानों संपूर्ण
मङ्गल की सुचना दे रहा हो. दाहिनी ओर सुंदर खेत में कौआ शोभा पा रहा है तो सबको नेवले
का दर्शन भी हुआ. त्रिविध ( शीतल, मन्द और सुगन्धित ) हवा अनुकूल दिशा में बह रही है
तो सुहागिन स्त्रियां भी भरे हुए घड़े और गोद में बालक लिए आ रही हैं. लोमड़ी बार – बार
दिख रही है तो गाय भी सामने खड़ी बछड़े को दूध पिलाती दिखी. हिरनों की टोली दाहिनी ओर
से निकल कर गयी, मानो सभी मङ्गलों का समूह दिखायी दिया. क्षेमकरी (सफेद सर वाली चील)
बोल रही है मानों विशेष रूप से क्षेम ( कुशल
) कह रही हो. श्यामा चिड़िया बायीं ओर सुंदर पेड़ पर दिखायी पड़ी दही – मछली और दो विद्वान
ब्राह्मण हाथ में पुस्तक लिए सामने से निकले. सभी मङ्गलमय कल्याणकारी फल देने वाले
शगुन मानों सच्चे होने के लिए ही प्रकट हुए.
प्रकारांतर से तुलसीदास जी ने बताया कि कहीं जाते समय ये सब दिखना शुभ सङ्केत है, कार्य सिद्ध होगा.
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इसी प्रकार स्वप्न विचार
द्वारा भी भावी का सङ्केत सुंदरकाण्ड में सीता – त्रिजटा संवाद
में है. सीता को सांत्वना देते हुए त्रिजटा कहती है कि मैनें सपना देखा एक वानर ने
लङ्का जला दी और राक्षसों की सारी सेना को मार डाला. रावण नग्न अवस्था में गधे पर बैठा
दक्षिण दिशा (यम की दिशा में, मृत्यु की ओर ) जा रहा है. उसके सर मुंडे हुए हैं और
बीसों भुजाएं कटी हुई हैं. इस विकराल व दयनीय्त अवस्था में वह दक्षिण दिशा में जा रहा
है और विभीषण को लङ्का का राज्य मिल गया है.
ऐसा
स्वप्न रावण व उसके कुल के लिए अनिष्ट व सीता के लिए सौभाग्य का सूचक है.
त्रिजटा नाम राच्छसी एका। राम चरन रति निपुन
बिबेका॥
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना। सीतहि सेइ करहु
हित अपना॥
सपने बानर लंका जारी। जातुधान सेना सब मारी॥
खर आरूढ़ नगन दससीसा। मुंडित सिर खंडित भुज
बीसा॥
एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई। लंका मनहुँ बिभीषन
पाई॥
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सुन्दरकाण्ड / १०/ १ से ३
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ऐसे ही जब रावण युद्ध करने चला तो अनेक अशगुन
होने लगे किंतु उन्हें जान कर भी रावण अभिमानवश उन्हें किसी गिनती में नहीं ले रहा.
आयुध अपने आप ही हाथ से गिर जा रहे हैं. रथ से योद्धा गिर जा रहे हैं और घोड़े – हाथी
चिक्कारते हुए साथ छुड़ा कर भाग रहे हैं. सियार, गीध, कौए और गधे विकराल स्वर कर रहे
हैं और कालदूत के समान उल्लू भयङ्कर शब्द कर रहे हैं.
अर्थात युद्ध या किसी विजय यात्रा पर जाते समय हथियार हाथ से गिरे या स्वयं
वाहन से गिर पड़े या वाहन खराब हो जाए ( साथ छोड़ दे ) अशगुनिए पशु – पक्षी बोलने लगें
तो यह अनिष्ट का सूचक है.
असगुन अमित होहिं
तेहि काला। गनइ न भुजबल गर्ब बिसाला॥
अति गर्ब गनइ न सगुन असगुन स्रवहिं
आयुध हाथ ते।
भट गिरत रथ ते बाजि गज चिक्करत भाजहिं
साथ ते॥
गोमाय गीध कराल खर रव स्वान बोलहिं
अति घने।
जनु कालदूत उलूक बोलहिं बचन परम भयावने॥
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लङ्काकाण्ड ७७/५
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राम जी जब रावण का वध करने को उद्वत होते हैं,
31 बाणों का सन्धान करते हैं तो रावण के लिए अनेक अशगुन होने लगे मानों रावण को चेतावनी
दे रहे हों. गधे , सियार और कुत्ते रोने लगे ( यह तो आज भी अशगुन माना जाता है ) नाना
प्रकार के पक्षी एकत्र होकर आर्त शब्द करने लगे और दिन में ही तारे और धूमकेतु दिखने
लगे. दसों दिशाओं में आग लगी दिखने लगी और पत्थर की प्रतिमाएं भी आंसू बहाने लगीं.
धरती हिलने सी लगी और आकाश से रक्त – मांस गिरने लगा.
यह सब तो भीषण युद्ध और जनहानि के लक्षण हैं ही.
सुनत विभीषन बचन कृपाला। हरषि गहे कर बान कराला॥
असुभ होन लागे तब नाना। रोवहिं खर सृकाल बहु
स्वाना॥
बोलहिं खग जग आरति हेतू। प्रगट भए नभ जहँ तहँ
केतू॥
दस दिसि दाह होन अति भारी। प्रतिमा स्रवहिं
नयन मग बारी॥
प्रतिमा रुदहिं पबिपात
नभ अति बात बह डोलति मही।
बरषहिं बलाहक रुधिर कच
रज असुभ अति सक को कही॥
उतपात अमित बिलोकि नभ
सुर बिकल बोलहिं जय जए।
सुर सभय जानि कृपाल रघुपति
चाप सर जोरत भए॥
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लङ्काकाण्ड / १०१/ ३ से ५
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ये
तो मानस में शगुन -अशगुन और अमङ्गल के सङ्केत हैं, कई उपन्यासों में भी ऐसे सङ्केत
और शगुन विचार मिलता है. अब होते हैं या नहीं किंतु यह लोकव्याप्ति है. भीष्म साहनी
के उपन्यास ‘तमस’ में एक पात्र चीलें मंडराती देख कर अनिष्ट की आशङ्का से ग्रस्त होता
है जो सही भी सिद्ध होती है.
अशगुन
/ अमङ्गल सङ्केतों की चर्चा बहुत हो ली, यह शुभ नहीं. तो अब चर्चा करें शगुन विचारने
की एक प्रणाली की जिसका वर्णन शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी के वृहद उपन्यास, “ कई चांद थे सरे
– आसमां” के एक प्रसङ्ग में है . कुछ नाम या इस आशय की पवित्र किताब को औचक खोल कर
पन्ने पर लिखे के अनुसार भविष्य / प्रश्न के संकेत ग्रहण किया जाता है. इसे ‘रमल’ भी
कहते थे, ‘फाल’ निकालना भी.
उपन्यास
में एक प्रमुख पात्र है, वज़ीर. जीवनयापन, केवल जीवनयापन भर नहीं बल्कि विलासिता पूर्ण
जीवनशैली, के लिए वह वेश्यावृत्ति अपनाती है किन्तु साधारण वेश्याओं की तरह जिस-तिस
के लिए नहीं बल्कि शासक ( नवाब ) की रखैल बनने का. इसके लिए वह उच्च वर्ग की महफ़िलों
में पैठ बनाती है और नवाब से शारीरिक संपर्क कर लेती है किन्तु उसे संशय रहता है कि
यह एक् दो बार / कभी-कभी का सिलसिला होगा या नवाब साहब उसे ‘रख लेंगे’. ऊहापोह में
वह ‘फाल निकलवाने’ का आसरा लेती है और इसके निष्णात हैं पण्डित नन्द किशोर.
पण्डित जी आते हैं. आव भगत आदि के बाद पण्डित
जी कहते हैं –
“ अच्छा, किसी फूल का नाम लो.” उन्होंने कहा.
“जूही,” उसके मुंह से बेइख़ित्यार निकला.
पण्डित नंद किशोर ने आंखें बंद कर लीं. तस्बीह
के कुछ दाने फिराए, फिर एक पल बाद बोले, “ देहली के उत्तर-पश्चिम में , यहां से बहुत
दूर भी नहीं, नवाबी रियासत है, रियासत के मालिक का नाम, … “उन्होंने कुछ पल ख़ामोशी
रखी, “ … शम्सुद्दीन अहमद ख़ां है.”
वज़ीर का चेहरा शर्म से गुलाबी हो गया. वो सिर
झुकाए – झुकाए बोली, “ सरकार के लिए ज़ाहिर का बयान क्या, लेकिन मेरा जी बहुत डरता है
कि … “
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“ … कि इस वक़्त क्या किया जाए ? क्यों, ऐसा
ही है न ? नवाब की तरफ से सिलसिला शुरू होने का इंतज़ार कर रही हो ?”
“ जी, वो तो हो चुका. लेकिन इसके बाद अब मैं
क्या करूं ? और इंतज़ार करूं या उनके क़दम पर क़दम बढ़ाऊं, मेरी तो अक़्ल काम नहीं कर रही.
“ यह कहते हुए वज़ीर की आंखों में आंसू छलक आए.
“ तो इसमें घबराने की क्या बात है ? बीबी,
बात तो सामने की है लेकिन चलो, तुम्हारे इत्मीनान के लिए ख़्वाजा साहब से पूछ लेते हैं.”
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इसके बाद ख़्वाजा साहब से पूछने का उपक्रम हुआ जो ‘श्रीरामशलाका प्रश्नावली’
जैसा ही है. ‘दीवाने – हाफ़िज’ को मंगवाया गया. मगर ठहरें, मंगवाने से पहले माहौल बनाया
गया – कमरा फिर से ख़ुशबू, इतर, लोबान वगैरह से पाक किया गया, ‘पाक – साफ़ हाथों’ से पाक काग़ज का एक ताव, पाक रोशनाई
की दवात, नए नरकुल का एक टुकड़ा मंगाया गया. ‘दीवाने – हाफ़िज’ की एक प्रति को अख़रोट
की लकड़ी के नक़्क़ाशीदार रिहल पर रख कर लाया गया, दरवाज़े सब बंद कराए गए और लिसानुल –
ग़ैब ( ग़ैबी आवाज़, ख़्वाजा हाफ़िज – जिनका इंतक़ाल सदियों पहले हो चुका था – का ध्यान करने
को कहा गया. फाल निकालने के ग्रह – नक्षत्रों की दिशा- दशा विचारी गयी, जब दूसरा पहर
लग गया तो पण्डित जी ने ख़्वाजा साहब के सामने सवाल मन में रख कर दीवान का पन्ना ( कोई
भी ) खोला और एक हर्फ़ पर उंगली रखी. यह हर्फ़ था ‘दाल’ ( उर्दू में ‘द’ ) बीबी से काग़ज पर दाल लिखने को कहा. फिर कुछ गिनतियां
कीं और कहा, अब लिखो ‘रे’, फिर गणना के बाद आया’अलिफ़’ , फिर ‘छोटी हे’ … वज़ीर निर्देशानुसार लिखती गयी तो दीवान में मजूद ग़ज़ल का
मतला बना –
ऐ पै के – रास्तां
ख़बरे – सर्वे – मा बिगो
अहवाले – गुल
ब – बुलबुले – दस्तां सरा बिगो.
( ग़ज़ल फारसी में है, इस मतला का अर्थ हुआ,
‘ ऐ सच्ची ख़बरें देने वाले, हमारे सरों की ख़बर कह, गुलाब के फूल का हाल चहचाती हुई
बुलबुल से कह )
इसका संकेत पण्डित जी ने ऐसे बताया –
उन्होंने मज़े की हालत में ज़ानूं पर हाथ मारा
औरर फ़रमाया, “ख़्वाजा – ए- शीराज़ ने तुम्हें बादशाह और उन्हें भिखारी ठहराया है. सिर्फ़
यही नहीं कि तुम उनसे बातचीत करो, बल्कि यूं बातचीत करो जिस तरह दुनिया के बादशाह अपनी
चौखट पर आए भिखारियों से बात करते हैं. तुम चाहने वाली नहीं, चाही जाने वाली हो. अल्लाह
मुबारक करे.
इस
भविष्यफल के बाद वज़ीर का मनोबल खूब बढ़ा, उसने वो मुकाम हासिल किया जो वह चाहती थी.
( उपन्यास का यह प्रसङ्ग भी कई पेजों में फैला
है. शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी की शैली किस्सागोई / दास्तानगोई की है
जिसमें सब कुछ इतने विस्तार से बयान किया जाता है कि तस्वीर सी खिंच जाती है. विस्तार
भय से मैंने किताब में लिखा हू ब हू बहुत ही कम बयान किया है, छोड़ – छोड़ कर और अपने
शब्दों में, संक्षेप में बताया है )
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