ब्रज पर घन धमंड करि आए।
अति अपमान बिचारि आपनो कोपि सुरेस पठाए ||
दमकति दुसह दसहुँ दिसि दामिनि, भयो तम गगन गँभीर।
गरजत घोर बारिधर धावत प्रेरित प्रबल समीर।|
बार-बार पबिपात, उपल घन बरषत बूँद बिसाल।
राखहु राम कान्ह यहि अवसर, दुसह दसा भइ आइ।
नंद बिरोध कियो सुरपति सों, सो तुम्हरोइ बल पाइ।|
सुनि हँसि उठ्यो नंद को नाहरू, लियो कर कुधर उठाइ।
तुलसिदास मघवा अपनी सो करि गयो गर्व गँवाइ।|
कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा का दिन था. नन्दबाबा
और सारे ग्रामवासी बड़े उत्साह से इन्द्र पूजा की तैयारी कर रहे थे. कृष्ण ने यह देखा
और तैयारी का कारण पूछा कि यह कौन सा पर्व है और किस देवता का पूजन करने की तैयारी
है. नन्द बाबा ने बताया कि इन्द्र की पूजा का दिन है यह. इन्द्र वर्षा के देवता हैं.
वे ही वर्षा करते हैं, वे वर्षा न करें तो खेती न हो, वन और चरागाहों में तिनका भी
न उगे, न हमारे खाने को कुछ हो और न ही पशुओं के. पशु भूख से दुर्बल हो जायें तो दूध
न हो और दूध न हो तो दही, माखन, घी आदि कुछ भी न हो. हम और पशु तो मर ही जायें. इन्द्र
कुपित हों तो अतिवृष्टि कर दें. चारों ओर पानी ही पानी हो. फसल नष्ट हो जाये, कहीं
रहने का थौर न हो सो इन्द्र को प्रसन्न रखना बहुत आवश्यक है.
कृष्ण को बात चुभ गयी. वर्षा के अधिपति इन्द्र की
यह क्षमता और उस पर नियन्त्रण रख कर सबको डराना उन्हे अनाचार और अभिमान लगा. उन्हे
वर्षा की व्यवस्था करनी है या अतिवृष्टि या अनावृष्टि से पृथ्वीवासियों को डरा कर रखना
है. उन्हे तो उपयुक्त मात्रा में और उपयुक्त समय पर वर्षा करनी है कि पृथ्वी भरपूर
वनस्पति उगाये न कि यह कि जब वे कुपित हों तो बहुत पानी बरसा के सब तहस-नहस कर दें
या बिल्कुल अनावृष्टि करके सूखा कर दें. जब उनका मन हो तब वैसी वर्षा करें न कि ज़रूरत
के हिसाब से . यह तो मनमानी हो गयी. कृष्ण ने अनुभव किया कि इन्द्र पूजन में इन्द्र
के प्रति प्रेम, भक्ति और श्रद्धा नही बल्कि भय है. यह तो डर है जो वे उनकी पूजा कर
रहे हैं और वर्षा के अधिपति होने से इन्द्र को अभिमान हो गया है कि पृथ्वीवासी जीवन
के लिये उनकी दया पर निर्भर हैं. उन्हे इन्द्र का घमण्ड तोड़ना और गोकुलवासियों के
मन से उनका डर निकालना बहुत ज़रूरी लगा.
कृष्ण ने प्रस्ताव रखा कि इन्द्रपूजा के बदले हम क्यों
न गोवर्धन की पूजा करें. यह हमारा अन्नदाता और रक्षक है. इसके तले हम रहते हैं. हमारी
गौवें इस पर चरती हैं. यह हमें भरपूर अन्न और पशुओं के चरने को वनस्पति देता है तो
पूजा का पात्र यह है न कि इन्द्र. अब कृष्ण भले ही बालक रहे हों किन्तु उन्होनें काम
ऐसे अलौकिक किये थे कि लोग उन्हे नायक और अवतार मानने लगे थे सो उन्होनें गोवर्धन की
पूजा की. अब इन्द्र ने यह देखा तो उन्हे बड़ा क्रोध आया कि उनकी अवहेलना करके गोवर्धन
की पूजा हो रही है. उन्होने कृष्ण, सारे ग्रामवासियों और गोवर्धन को सबक सिखाने के
लिये गरज-चमक के साथ धारासार वर्षा शुरू कर दी. अब सब जगह पानी ही पानी, घर में ठौर
नही और बार-बार बिजली भी गिर रही थी लोगों
ने कृष्ण को बरजा, उलाहने दिये कि तुम्हारे करण इन्द्र कुपित हो गये हैं और हमें जलप्रलय
द्वारा नष्ट कर देने पर तुले हैं. कृष्ण ने उन्हे गोवर्धन की शरण में चलने को कहा और
सब गाय व अन्य सामान के साथ गोवर्धन पर चले आये. वर्षा रुकती न देख कर कृष्ण ने सखा
ग्वाल-बालों को प्रेरित किया, कृष्ण का प्रोत्साहन और सामूहिक बल व भावना – उन्होनें
गोवर्धन के नीचे खाली जगह में लकुटियाँ लगायीं और गोवर्धन को उठा लिया, कृष्ण ने भी
सहारे और कौतुक रूप में अपनी कनकी उँगली लगायी और त्रिभंगी मुद्रा मे खड़े हो गये.
सबने हर्षध्वनि की और कहा, ‘अरे ! कान्हा ने तो कनकी उँगली पर गोवर्धन उठा लिया.’ क्यों
न कहें ऐसा, उनकी प्रेरणा , जुगत लगाने और उत्साह बढ़ाने से ही तो गोवर्धन उठाया जा
सका. वे मुरलीधर तो थे ही, गिरिधर भी हो गये. गोवर्धन इतना उठा लिया कि उसके नीचे इतनी
जगह हो गयी कि सब अपनी गायों और गृहस्थी के साथ उसके नीचे खड़े हो गये. अब वर्षा का
डर नही. इन्द्र नें खूब बिजलियां गिरायीं, खूब धारासार पानी बरसाया किन्तु गोवर्धन
को कुछ हानि न हुई और उसके नीचे सब सुरक्षित रहे. इन्द्र ने बहुत प्रयास कर लिये किन्तु
कृष्ण व ग्रामवासियों का कुछ न बिगाड़ सके. उनका अभिमान चूर-चूर हो गया और वे कृष्ण
की शरण में आये.
उसी अलौकिक घटना की स्मृति स्वरूप दीपावली के अगले
दिन, कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को गोवर्धन पूजन, गौ-पूजन के साथ-साथ अन्नकूट पर्व
भी मनाया जाता है. अब हर जगह पहाड़ तो नही और न ही कोई ऐसे नायक हैं और न ही ज़रूरत
कि पहाड़ उठाया जाय सो लोग प्रतीक रूप में गोबर का पहाड़ सा बना कर उस पर दिया जलाते
हैं और करवा-चौथ की सींकें उसमें खोंसते हैं. कुछ जगह भूमि पर गोवर्धन चौक बनायी जाती
है जिसमें गोबर से कृष्ण लीला व अन्य अंकन किया जाता है. अब पता नही कैसे इस पर्व पर
गोबर का उपयोग होने लगा. सम्भवतः गोवर्धन को अपभ्रंश रूप में गोबरधन कहते-कहते उससे
गोबर शब्द ले लिया और गोबर से पूजन होने लगा. यह प्रसंग गायों से जुड़ा है और उनका
गोबर कण्डे के रूप में ईंधन और खाद के रूप में काम आता है, गोबर से कच्ची ज़मीन भी
लीपते हैं सो गोवर्धन पूजन में गोबर शामिल हो गया. जो भी हो, यह प्रकृति पूजन और गोधन
पूजन का दिन है.
इस प्रसंग को साहित्य में भी प्रचुर स्थान मिला और कला में भी और
लोक में भी. ऊपर दिया हुआ पद तुलसीदास जी का है और “कृष्ण गीतावली” से लिया गया है.
गोवर्धन प्रसंग का भित्ति शिल्प महाबलीपुरम
में एक चट्टान को काटकर बनाई गई कृष्ण मंडप गुफा के चट्टान पर उकेरा है जिसमें श्री
कृष्ण गोवर्धन पर्वत उंगली पर उठाए दिखाए गए हैं. पेण्टिंग में इसी प्रसंग को हरिवंश
पुराण के फारसी अनुवाद में अकबर के दरबारी कलाकार मिस्कीन ने 1590-95 में कागज पर स्याही
और अपारदर्शी रंग से 28.9 x 20 सेमी माप में चित्रित किया था, जो अब मेट्रोपॉलिटन म्यूजियम
ऑफ आर्ट, न्यूयॉर्क के संग्रह में है और भूमि पर गोबर से रंगोली के रूप में लोक कला
है जो बहुत लोग बनाते हैं.
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