“दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे … “
बहज़ाद
लखनवी की यह ग़ज़ल जब बेगम अख़्तर ने रिकॉर्ड करवाई ( 1924-25 में
) तो इस ग़ज़ल ने लोगों को वाकई दीवाना बना दिया, इस ग़ज़ल ने या बेगम अख़्तर की आवाज़ ने. वैसे दोनों का मेल
था – कॉरिंथियन थियेटर में काम करने के दौरान जब तीन–चार रिकॉर्ड जो उनके तैयार हुए वो सब एक – एक कर
फ्लॉप होते गये. ऐसे में कम्पनी को घाटा लगा और कम्पनी से उन्हें छुट्टी दे दी गयी
तो उनकी अम्मी (तब बेगम अख़्तर बमुश्किल 10-11 साल की किशोरी थीं ) के सामने फिर आर्थिक दिक्कतें सर
उठाने लगीं तो वे उन्हें कलकत्ते से लेकर सीधे अपने पीर–ओ–मुर्शिद बरेली शरीफ़ की दरगाह तक गयीं. रो-रोकर अपनी हालत
बयां की तो पीर साहब ने अख़्तरी बाई को देख कर कहा –“बेटा जो
किताब तू लेकर आयी है, उसे खोल ! हम हाथ रखते हैं. जब अख़्तरी
ने पन्ना खोला, तो वही पन्ना खुला, जिस
पर बहज़ाद लखनवी की अम्मी के हाथ से लिखी हुई ग़ज़ल, ‘दीवाना
बनाना है तो दीवाना बना दे’ मौजूद थी. पीर साहब ने उस पर हाथ
रखा और कहा- ‘ले बरेली शरीफ़ हाथ रखता है, जा कामयाब हो.’ इतना कहने के बाद पीर साहब ने अख़्तरी
से कहा- ‘जा इस ग़ज़ल को रिकॉर्ड कर बेटा. शोहरत और दौलत तेरी
बाँदी बनकर रहेगी और दुनिया तेरे पीछे दीवानों की तरह पागल होगी.’ इसके बाद उन्होंने मुश्तरीबाई से कहा – मुश्तरी सीधे
जाओ और इसी को रिकॉर्ड करवाओ. घर मत जाना, सीधे कलकत्ते जाकर
पहले जाकर गाना रिकॉर्ड करवाओ.’
इसके
बाद तो वही हुआ जो पीर साहब ने कहा था लेकिन पीर साहब की दुआ के साथ बात बेगम अख़्तर
की आवाज़ में भी थी. वो आवाज़ ही है जिसने आज तक लोगों को दीवाना
बना रखा है. क्या ख़ूबी है इस आवाज़ में ! यह ख़ूबी के साथ-साथ खामी भी है, बल्कि यह खामी ही ख़ूबी बन गयी है.
उनकी आवाज़ जो एक सीमा पर जाकर फट सी जाती है ( महीन आवाज़ के लिहाज़ से कहें तो बेसुरी ) वही उनकी आवाज़
की ख़ूबी है, सब उसी के दीवाने हैं. अगर
उनकी आवाज़ पतली / महीन / लरज़ती सी होती
तो शायद वे तमाम अच्छा गाने वालों में से एक होतीं, आवाज़ की यह
विकृति ही उन्हें खास बनाती है. यह बड़े
उस्तादों का भी कहना है.
उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ां साहब फरमाते हैं – “बेगम अख़्तर के में एक अजीब कशिश थी. जिसको कहते हैं ‘अकार की तान’ उसमें ‘अ’ करने पर उनका गला कुछ फट जाता था, और यही उनकी ख़ूबी थी. मगर शास्त्रीय संगीत में यह दोष माना जाता है. एक बार हमने कहा कि “बाई कुछ कहो, ज़रा कुछ सुनाओ.” वे बोलीं, “अमाँ क्या कहें, का सुनायें.” हमने कहा कुछ भी. बेगम गाने लगीं, “निराला बनरा दीवाना बना दे.” एक दफे, दो दफे कहने के बाद जब उनका गला खिंचा, तो हमने कहा, “अहा, यही तो सितम है तेरी आवाज़ का.” वो जो गला दुगुन-तिगुन के समय लहरा के मोटा हो जाता था, वही तो कमाल था बेगम अख़्तर में.”
इतिहासकार सलीम किदवई बताते हैं कि “यह कोई नहीं जानता था कि बेगम अख़्तर की अदायगी में वह स्थिति एकदम निश्चित तौर पर कब श्रोता महसूस करेंगे, मगर इतना अवश्य है कि ऐसा कोई जतन बेगम जानबूझकर नहीं करती थीं.”
उनके गले की आवाज़ का विशेष
अन्दाज़ चूँकि नैसर्गिक और लगभग अप्रत्याशित था – शायद इसी कारण उस ज़माने से लेकर आज
तक बेगम की ग़ज़लों को सुन-सुनकर जवान होती पीढ़ी में उस अप्रत्याशित विद्रूप की खनक बसी
हुई है. कुदरत से पायी हुई यह विकृति ही, बेगम अख़्तर की गायकी का अलंकार बन गयी है.
फिर चाहे वह ‘दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे’ सुनकर कोई महसूस करे, चाहे ‘ज़रा धीरे
से बोलो, कोई सुन लेगा’ और ‘हमरी अटरिया पे आओ संवरिया’ जैसे दादरे सुनकर; सभी कुछ
उनके अन्दाज़े-बयाँ में बिल्कुल अनूठा था, जिसकी नकल सम्भव नहीं थी.
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यतीन्द्र मिश्र की किताब
‘अख़्तरी-सोज़ और साज़ का अफ़साना’ में यतीन्द्र मिश्र
के लेख ‘अख़्तरीनामा – ज़िन्दगी और संगीत सफ़र के अँधेरे उजाले’ से.
बेगम अख़्तर की आवाज़ में एक अलग सप्तक में प्रवेश है, जो सुगम है और जहाँ से ऊपर उठ कर सुर टूटता है और उस टूटने में ही लुत्फ़ आता है. इस ‘पत्ती’ या आवाज़ टूटने का इन्तज़ार सभी करते.
- यतीन्द्र मिश्र की किताब ‘अख़्तरी-सोज़ और साज़ का अफ़साना’ में डॉ. प्रवीण झा के लेख ‘बेगम की आवाज़’ से.
आवाज़ की दुनिया की मलिका की आज, ३० अक्टूबर, को पुण्यतिथि है. इस अवसर पर उनकी आवाज़ की इस ख़ूबी को याद करते हुए नमन.
सादर नमन...
ReplyDeleteधन्यवाद विकास जी पोस्ट पढ़ने के लिए.
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