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Saturday, 28 October 2023

वंस मोर

 




अख़्तरी बाई का पहला नाटक था मुंशी दिल का लिखा- ‘नई दुल्हन’. इसमें एकएक गाने पर सात-सात, आठ-आठ बारवंस मोरहुआ था. यह नाटक तीन साल चला. उस समय नाटक सप्ताह में तीन दिन होते थेबुधवार, शनिवार और इतवार. इस नाटक के बाद अख़्तरी बाई का लखनऊ आना-जाना लगा रहा

-          अटल तिवारी की किताबबेगम अख़्तर का ज़िदगीनामासे.

 

इस वाकये मेंवंस मोरनाटकों में पुरानी परम्परा की याद दिलाता है जो दर्शकों, उनमें भी कला रसिक और सम्पन्न वर्ग के दर्शकों, द्वारा शुरू की गयी और संगीत प्रधान नाटकों के सुनहरे दौर तक जीवित रही. पुराने दौर में नाटक मण्डलियां, जिन्हें कम्पनी/थियेटर कम्पनी कहा जाता था, ऐसे नाटक करती थीं जिनमें गीत-संगीत-नृत्य की प्रधानता होती थी. पार्श्व गायन का रिवाज़ न था. मुख्य अभिनेता अभिनय के साथ गाने में प्रवीण होता था और लोग नाटक से अधिक उसका गाना सुनने आया करते थे. ये नाटक रात-रात भर, बल्कि भोर पहर तक, चलते थे. नाटक में जब गीत लोगों को पसन्द आता था तो शोर सा उठता था, ‘वंस मोरअर्थात इस गीत की एक बार और प्रस्तुति की जाए. अभिनेता ( बहुधा स्त्री पात्र पुरुष निभाते थे ) फिर से वही गीत गाता था. फिर-फिरवंस मोरका शोर उठता और अभिनेता फिर-फिर वही गीत गाता. सात-सात, आठ-आठ बार वंस मोरहोता और नाटक के बजाय वही गीत चलता रहता. इस पर खूब इनाम-इकराम आता. जब बहुत बार ऐसा हो चुकता तो कम्पनी का मैनेजर स्टेज पर आता और हाथ जोड़ कर रसिक दर्शकों से नाटक आगे बढ़ाने की विनती करता. तब कहीं नाटक आगे बढ़ता. रसिक दर्शक दूसरे-तीसरे दिन भी नाटक देखने आते, गाना सुनने के लिए बारबार नाटक देखते. गाना ही नहीं किसीकिसी दृश्य विशेष पर भीवंमोरहोता और अभिनेता फिर से इन्ट्री लेता, वही दृश्य / संवाद बार-बार होता.

नाटक में गानों में ही नहीं बल्कि प्रवेश करने, भङ्गिमा विशेष और पहले ही दृश्य पर ‘वंस मोर’ खूब हुआ है, यह हुआ है जीवन काल में ही किवदन्ती बन चुके, मराठी नाट्य गायक और अभिनेता, ‘बाल गन्धर्व’ ( मूल नाम नारायण श्रीपाद राजहंस – जीवनकाल 1888 से 1967 तक  ) के नाटकों में. उन्होंने नाटकों में स्त्री पात्र निभाया. स्त्री पात्र के रूप में वे इतने पटु थे कि अपनी क्षमता की परख के लिए सम्भ्रांत घरों में माङ्गलिक उत्सव में स्त्री वेष में चले जाते थे और कोई उन्हें पहचान नहीं पाता था. मेजबान स्त्रियां उन्हें कोई सम्भ्रांत अतिथि समझ कर मान देती थीं, उनके वैभव, सौंदर्य और पात्र के निर्वाह के कारण कोई उनसे परिचय भी नहीं पूछता था. वे सोचती थीं कि वे पहचान नही रही हैं और परिचय पूछने पर ये बुरा न मान जाए. तो ऐसा होता था पात्र को जीना !

 

फिलहाल बात ‘वंस मोर’ की ! दो वर्णन देखें –

              … उन्हें एहसास हुआ कि वे रुक्मिणी बनते जा रहे हैं. फिर वे रंगमंच के पास आए और उन्होंने मंच पर प्रवेश किया. मानों अपने आप उनके मुख से शब्द फूट पड़े, “भैया, वे आ गए ?” रुक्मिणी का पहला ही वाक्य. उस वाक्य में छिपी गंधर्व की अधीरता, शालीनता, सौंदर्य और शान … वाक्य खत्म भी नहीं हुआ था कि ऐसी तालियों की गड़गड़ाहट शुरू हुई कि रुकने का नाम नहीं. गंधर्व कुछ पल रुके कि फिर वही वाक्य बोलकर आगे कुछ कहेंगे, पर फिर तालियां … फिर गंधर्व ने वह वाक्य बोल और फिर तालियां … फिर तालियां. ज़िंदगी में पहली बार गंधर्व ने पहले वाक्य पर तालियां और वंस मोर लिया था …

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… “सखि अनसूया, प्रियंवदे …” और उसके हाव-भावों ने दर्शाया कि एक भ्रमर उसके पीछे पड़ा है. दर्शक स्तब्ध. अनाघ्रात सौंदर्य का अनुपम अविष्कार ! और अचानक शकुन्तला थम गयी. अरे, इसका तो पल्लू फँस गया है कटसरैया की टहनी में. उसने उसे निकाला. उसका धड़कता हुआ सीना … और हौले से हूक उठने का भाव चेहरे पर. शकुन्तला ने अपना भार एक पैर पर तौलते हुए दूसरा पैर धीमे से उठाया. तलुवे में गड़ा काँटा आहिस्ता-आहिस्ता निकाला और मिरज का प्रेक्षागृह तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा …

-         बाल गंधर्व के जीवन पर आधारित मराठी उपन्यासकार, अभिराम भडकमकर, ( हिंदी अनुवाद गोरख थोरात द्वारा ) के उपन्यास,  ‘बाल गंधर्व’ से.

                   

अब तो नाटकों में ( या किसी कंसर्ट में भी ) ‘वंस मोरकी कल्पना ही नहीं कि जा सकती. न वैसे रसिक दर्शक / श्रोता हैं और न ही वैसे निर्देशक/ प्रबन्धक/ अभिनेता जो उसी प्रदर्शन में दृश्य / गीत / नृत्य आदि दोहराएं. समयबद्ध प्रस्तुति से बंधे प्रदर्शन में ऐसा होना सम्भव नहीं. समय के साथ परम्परा बदलती है ही.  

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बेगम अख़्तर अभिनीत नाटक “नई दुल्हन” मुंशी दिल लखनवी द्वारा लिखा गया है. इस नाटक का नाम  शरीफ़ दुल्हन उर्फ़ घर की लक्ष्मी” है. उस समय नाटकों के उर्फ़ के साथ कई शीर्षक हुआ करते थे. सम्भव है यह यही नाटक हो जो लखनऊ में “नई दुल्हन” नाम से खेला गया क्योंकि मुंशी दिल लखनवी के जो नाटक मिलते हैं उनमें “नई दुल्हन” नाम का कोई नाटक नहीं है, “शरीफ़ दुल्हन उर्फ़ घर की लक्ष्मी” नामक नाटक अलबत्ता है. यह नाटक उर्दू में हैं और जे. एस. संत सिंह एण्ड सन्स ताजिरान-ए-कुतुब, लाहौर द्वारा प्रकाशित किए गये हैं. ये नाटक ‘रेख़्ता’ वेबसाइट पर भी उर्दू में उपलब्ध हैं. नाटक का कवर पेज और मुंशी दिल लखनवी की फोटो भी उसी साइट से ली गयी है.

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2 comments:

  1. दिलचस्प लेख. मैंने प्रत्यक्ष कभी नाटक देखा नहीं है पर नाटक पढ़ना मुझे बहुत अच्छा लगता है. आपने जैसी व्याख्या की कि पूरा खाका खिंच गया मन में वन्स मोर बोलती पब्लिक का, बार बार वही गीत वही संवाद दुहराते अभिनेताओं का. बहुत सुन्दर लेख. जानकारियों से भरा हुआ. 👏

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  2. बहुत बहुत आभार पढ़ने और टिप्पणी का. नाटक देखना लिखे/पढ़े को सहज और जीवन्त कर देता है किन्तु नाटक पढ़ना भी विलक्षण अनुभव है. अब 'वंस मोर' नहीं होता किन्तु पढ़ने में मनपसन्द/प्रभावी सीन आप जितनी बार चाहें 'वंस मोर' कर सकते हैं. अपना नाम भी लिखते तो और ख़ुशी होती.

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