आज बहुत दिनों बाद चचा दिखे. मैं छज्जे पर खड़ा था कि एक कैब घर के पास आकर रुकी. देखा कि उसमें से चचा निकल रहे हैं. चिंता मिश्रित आश्चर्य हुआ क्योंकि चचा अमूमन तो पैदल ही आते हैं. बकौल उनके कि दसियों जगह तो जाना होता है, घर से निकलो तो पचासों लोग तो सलाम करने, हाल पूछने, चुहुल करने को टकराते हैं तो कहाँ-कहाँ गाड़ी रोकें, खड़ी करें, उतरें, फिर बैठें, स्टार्ट करें और गेयर बदल कर उस पर से हाथ भी न हटाया कि कोई न कोई, ‘वाह चचा ! ऐसे ही बिना मिले निकले जा रहे हैं !’ कहता गाड़ी रोक ले – इससे तो पैदल भला. कैब से उतरते देख आश्चर्य हुआ था, चचा को चलते देख चिंता हुई. देखा चचा कमर पर दोनों हाथ धरे, बल्कि पीछे ऐसे टेके और ढपक कर चलते हुए जैसे कमर को सहारा देकर ला रहे हों, चले आ रहे थे. देख कर चिंता हुई कि क्या हो गया चचा को. तब तक पास आ चुके थे. बोले, “ऊपर तो न आ पाऊँगा, या तो नीचे का कमरा खोलो या फिर चलो पार्क के मन्दिर में बैठते हैं, पंखा तो वहाँ लगा ही है.”
“अरे आप यहीं रुकें. मन्दिर में
क्यों बैठना, नीचे का कमरा खोल रहा हूँ.” कहता हुआ नीचे को चला.
चचा
को तो आप जानते ही हैं. याद भले न हो किन्तु पहले भी मिल चुके हैं कई बार. इस बार बहुत
दिन बाद आए हैं तो याद न आ रहा होगा. बता दूँ कि चचा जो हैं वो चचा की तीन प्रमुख श्रेणियों
– चाचा बुज़ुर्गवार, चचा यार और चचा बर्खुरदार में से चचा यार श्रेणी के हैं. पहनावा
पुराने लखनउव्वों का सा है – बुर्राक सफेद कुर्ता, अलीगढ़ी पायजामा और सर पर दुपल्ली
टोपी और पैर में नागरा जूता, चप्पल, चमरौधा
आदि में से कुछ पहनते हैं. पान खाते हैं. शायरी/ कविता की समझ है मगर इनसे परहेज़ करते
हैं. बतरसिया हैं, मुरहे हैं, ऊटपटांग काम भी करते हैं, भाषा भी मनमौज़ी और लच्छेदार
होती है. घण्टी-वण्टी ( डोरबेल) न बजा कर ऐसी आवाज़ देते हैं कि आधा मोहल्ला जान जाए
कि चचा फलां के यहाँ आये हैं. इनकी हाँक सुनकर
कुछ लोग सचेत भी हो जाते हैं और कहलाने को तैयार कर देते हैं कि ‘चचा सलाम. ये/ पापा
तो घर पर हैं नहीं, बता कर नहीं गये कि कहाँ जा रहे हैं.’ ये इसलिए कि चचा के आने पर
घण्टे – दो घण्टे बाद तक वो काम तो हरगिज नहीं किया जा सकता जो
कर रहे हों या करने कि सोच रहे हों, दिमाग़ का दही कर देते हैं.
चचा
कमरे में दाख़िल हुए तो ध्यान दिया कि मू तो वही था मगर चाल के साथ हुलिया भी बदला हुआ
था. बजाय कुर्ता – पायजामा और टोपी के जींस और गोल गले की प्रिण्टेड टी शर्ट धारे थे.
सर नंगा था और पैर में स्पोर्ट्स शू थे. ऐसी ढपकती हुई चाल, मुह से ‘हाय-आह, मर गया,
अरे दादा रे’ टाइप की कराह, बैठने में भी लगा कि कमर या उसके बालिश्त भर नीचे चोट लगी
है. घबरा गया और हुलिया के बजाय हाल पूछा –
“चचा
! क्या हुआ ? कराह क्यों रहे हैं ? चोट-वोट लग गयी क्या ? चची से कोई बात तो नहीं
!”
“अरे
नहीं ! पैर धो रहे थे कि गिर पड़े और चोट लग गयी. फूटा-फाटा तो नहीं मगर दर्द है.”
“
पैर धोने में गिर गये ! उसमें इतनी चोट ? अरे बहुत ऊँचे पर बैठे होंगे तो भी पीढ़े या
बाथरूम वाली चौकी पर बैठे होंगे. उससे स्लिप हुए होंगे तो उसमें कैसे इतनी चोट ? कोई
और बात है चचा जो बतलाने लायक नहीं है.”
“फिर
वही बात ! कोई और बात नहीं और हमारे में छुपाने लायक ऐसा कुछ नहीं. हम तो पिछले दिनों
फेसबुक कितौ मेटा को नोटिसौ नहीं दिए कि भई कर प्रकाशित जो करना है, ऐसा क्या कौन सा
गेट काण्ड या ‘मी टू’ वाला कुछ किए बैठे हैं. और तुमसे क्या छुपाना ! वो कहे हैं ना,
‘लालयेत पंचवर्षाणि दशवर्षाणि ताडयेत्।प्राप्ते तु षोडशे वर्षे
पुत्रं मित्रवदाचरेत्।।‘ तुम सोलह के तो हो गये हो ना कि अभी नहीं हुए ?”
“आप
भी चचा ! तक्लीफ़ में हैं और बातें छौंक रहे हैं. अरे ! छोटी बिटिया भी उन्नीस की हो
गयी है. सीधे से बताईए कि पैर धोने में इतनी
चोट कैसे ? क्या रेलिंग पर बैठे पैर धो रहे थे ?”
“अरे
नहीं, धो तो बाथरूम में ही रहे थे. वाश बेसिन में धो रहे थे …
“वाश
बेसिन में ! वाश बेसिन में कौन पैर धोता है ? क्या आपके पैर नट-वोल्ट से फिट हैं जो
निकाल कर धो रहे थे ?” बात काटते हुए हमने कहा.
“हम
धोते हैं वाश बेसिन में ! और आज से नही, बहुत दिन से धोते हैं. तब से, जब से हमारा
पैर वाश बेसिन तक पहुँचना शुरू हुआ. होता ये है कि हम एक पैर उठा कर वाश बेसिन पर रख
कर अच्छी तरह धोते हैं, दूसरा पैर फर्श पर रहता है. जब वह धुल जाता है तो उसे फर्श
पर और दूसरा पैर वाश बेसिन पर रख कर धोते हैं. अभी परसों कि नरसों हुआ ये कि एक पैर
तो वाश बेसिन पर था, वह धुल चुका तो ध्यान रहा नहीं और वापस उसको नीचे उतारे दूसरा
पैर भी ऊपर रखने को उठा दिया. जब तक संभलें-संभलें कि धड़ाम से बिथर गये. आवाज़ सुनी
तो चची ने,’अब क्या तोड़ा ?’ की आवाज़ लगायी. जवाब न मिलने पर आकर देखा तो हम पड़े थे.
उठाया तो बाद में, पचास बातें पहले सुनायीं कि ऐसे भी कोई पैर धोता है. हज़ार दफा मना
किया मगर मानते ही नहीं. उठा कर खड़ा किया तो गनीमत कि हड्डी-वड्डी नहीं टूटी.
बस इतनी सी बात है जिसका बतंगड़ बना रहे हो.”
“आप
भी चचा ! करते तो अनोखे काम हैं. पिछले दिनों भी तो आपका होंठ ऐसे ही अनोखी हरकत में
कट गया था. ज़रा फिर बताईये तो सब लोग सुनें.”
“अरे
सुनाना क्या ! वो भी कोई अनोखा तरीका थोड़े न है बस तुम लोगों को लगता है. “
“अच्छा
नार्मल तरीका ही सही. बताईये तो.”
“तो
सुनो. आम का सीजन था. दशहरी आम तो हम चाकू से काट कर खाते हैं. हम क्या, सभी ऐसे ही
खाते होंगे. तो चाकू से फांक काटते और उसी चाकू से मुह से धरते. अब गफ़्लत में हुआ यह
कि धार वाला हिस्सा होंठ में फिर गया और खून निकलने लगा. हफ़्ता-दस दिन में ठीक भी हो
गया. डॉक्टर भी ससुरा चुहुल कर रहा था कि इतना और ऐसा किसने काट लिया होंठ पर !”
“वो
तो करेगा ही चुहुल. उसके भी तो चचा हैं आप और फिर करते भी ऐसा कुछ न कुछ रहते हैं कि
लोग चुहुल करें. समझ में नहीं आता कि ‘च्च च’ करें कि मुह दबा कर हँसें कि खुल कर.”
“अच्छा
! तुम भी ऐसा कहोगे! ब्रूटस तुमहू !! अब हम नहीं रुकने वाले, जाय रहे हैं. अब ऐसा करो
कि ओला के ऊबर बुलाय देव, तुमरे साथ भी न जाएंगे, कहीं हँसते- हँसते गिरा देव तो !”
अब
मैं क्या कहता. कुछ कहता तो चचा और बिदकते, तुनक कर कहीं पैदल ही न चल देते सो ऊबर
बुक करने लगा.
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