पुस्तक चर्चा
( पुस्तक – जो
मुझे बिल्कुल
भी पसंद
/ समझ नही
आयी )
पुस्तक - घोआस
लेखक – काशीनाथ
सिंह
विधा – नाटक
प्रकाशक – साहित्य
भण्डार .
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पा-सी - वह
नहीं, छोड़ो
उसे. तुम
यह क्या
कर रहे
हो ? .... हाय
घीसा ( लम्बी
साँस लेता
है ) वह
यहाँ
नहीं
...
घीसा - फिर, फिर
कहाँ है
?
पा-सी - इधर
आओ, यहाँ
मेरा सिर.
शायद वह
सिर में
है. मेरा
माथा फट
रहा है
भन्ना रहा
है घीसा.
( घीसा
उठ कर
उसके सिर
के पास
आता है
)
घीसा - माथे
में टांगे
कैसे आ
सकती हैं
? और
तुम कह
रहे हो
कि वह
काट-काट
कर टाँगें
पसारने
की
जगह बना
रहा है
...
पा-सी - बेशक
! वह कुतर
रहा है, उसे
कुतर रहा
है और
मैं बर्दाश्त
नही कर
पा रहा
हूँ ...
घीसा - क्या
तुम्हे
चूहा जैसी
कोई चीज
लग रही
है ?
पा-सी - ओफ, घीसा, मैं
चूहा जानता
हूँ और
यह भी
जानता हूँ
कि चूहा
आग नही
होता.
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यह
एक
अंश
है
नाटक
“घोआस” का.
नाटक
में
तीन
अङ्क
हैं
और
छह
पात्र
हैं
–
पा-सी, घीसा, मास्सा, फूजी, नाजी
और
चरमन.
इनके
अलावा
एक
अदृश्य
पात्र
भी
है
जिसके
बारे
में
नाटक
में
बात
होती
रहती
है, बल्कि
नाटक
उसी
पर
केन्द्रित
है.
कहानी
एक
कस्बे
की
है.
पात्रों
के
नाम
भी
उतने
ही
अजीब
हैं
जितनी
उनकी
बातें.
कथा
क्या
है
?
क्या
कहने
का
प्रयास
किया
गया
है
?
प्रतीक, रूपक
आदि
क्या
हैं
... कम से
कम
मै
तो
न
समझ
सका
जबकि
नाटक
डेढ़
बार
पढ़ा
–
एक
बार
पहले
और
आधी
बार
यह
लिखते
समय.
यह
न
कॉमेडी
है, न
प्रतीकात्मक, न
किसी
सामाजिक
समस्या
पर
... पता नही
किस
पर
है.
अब
डेढ़
बार
ढिठाई
मे
पढ़ा
तो
कुछ
तो
कथा
समझ
में
आयी.
एक
कस्बा
या
कस्बे
के
निकट
का
गाँव
है
जिसमें
एक
कुँआ
है
जिसके
पास
मुख्य
पात्र, पा-सी, एक
खांचे
मे
पड़ा
( अधलेटा ) रहता
है.
वह
आंय-बाँय
बका
करता
है
और
वैसी
ही
बातें
उसका
साथी, घीसा, व
अन्य
पात्र
करते
हैं.
किसी
भी
संवाद
का
मतलब
मुझे
समझ
नही
आया
जो
समझ
आया
वो
यह
कि
कोई
उन
पर
नज़र
रखे
है
( बिग ब्रदर
की
तरह
) वह अदृश्य
पात्र
पूरे
परिवेश
में
मौजूद
है, सब
देख
रहा
है.
सब
उससे
बचने
की
कोशिश
करते
हैं
किन्तु
बच
नही
पाते.
एक
पात्र
की
हत्या
हो
जाती
है
और
मुख्य
पात्र, पा-सी, मर
जाता
है
–
बस
! खतम नाटक.
यह
नाटक
ऐसे
ही
काशीनाथ
सिंह
का
नाम
देख
कर
नही
खरीद
लिया
बल्कि
और
किताबों
की
तरह
उलट-पलट
कर, डस्ट
जैकेट
व
बीच
बीच
से
पढ़
कर
खरीदा.
वैसे
तो
लेखक, काशीनाथ
सिंह, ने
ख़ुद
ही
निर्देशक, राजीव
गोविल
( हाँ भई, इसका
मञ्चन
भी
हुआ
है
) को लिखी
चिठ्ठी
में
लिखा
है,
“ ... बरसों
पहले यह
छपा था
लेकिन किया
किसी ने
नही. दरअसल
यह नाटक
है ही
नही और
मैं इसे
अपने लिखे
से ख़ुद
ही ख़ारिज़
कर चुका
हूँ ...
“
इसके बावजूद
इसे
पढ़ने
की
उत्सुकता
जगी
कि
शायद
यह
कथन
उत्सुकता
जगाने
की
चाल
हो.
ठहरिये, इतने
भर
से
ही
इसे
नही
लिया
बल्कि
निर्देशक
का
वक्तव्य
भी
पढ़ा.
वे
इसे
‘यथार्थवादी
शैली
का
बताते
हैं
और
इसकी
‘
एबसर्डिटी’ उन्हे
न
सिर्फ
लुभा
रही
थी
बल्कि
खदबदा
रही
थी.
डस्ट
जैकेट
पर
आशीष
त्रिपाठी
ने
इसे
सेमुअल
बेकेट
के
नाटक, ‘ गोदो
के
इंतजार
में’ की
याद
दिलाने
वाला
कहा
,
धूमिल
की
विख्यात
कविता, ‘पटकथा’ और
आलोक
धन्वा
की
‘जनता
का
आदमी’ जैसा
असरदार
बताया.
अब
इसे
समझने
के
लिये
इन
दोनों
कविताओं
का
और
सेमुअल
बेकेट
के
नाटक, ‘ गोदो
के
इंतजार
में’ का
गहन
अध्ययन
करना
होगा
जो
फिलहाल
मुझसे
न
हुआ.
यह
काशीनाथ
सिंह
का
इकलौता
नाटक
है.
मैनें
इतना
खुलकर
बता
दिया
है
फिर
भी
आप
पढ़ना
चाहते
हैं
तो
अपने
रिस्क
पर
पढ़ें.
लखनऊ
के
मित्र
मुझसे
उधार
ले
सकते
हैं
और
जो
सुधी
मित्र
इसे
पढ़
और
समझ
लें
–
मुझे
ज़रुर
समझायें, उनका
समुचित
सम्मान-सत्कार–आभार
किया
जायेगा.
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