पुस्तक चर्चाः हल्ला बोल
रंग हो हबीब का …
व्यंग्य
परसाई सा …
IPTA लखनऊ और आल इण्डिया
कैफ़ी आज़मी अकादमी द्वारा 8 और 9 जुलाई, 2023 को
आयोजित इस कार्यक्रम की एक और उपलब्धि रही जन नाट्य मञ्च, दिल्ली
के रङ्गकर्मी, (अभिनेता, निर्देशक, फ़िल्मकार, और संगठनकर्ता और साहित्यकार) सुधन्वा
देशपाण्डे की किताब ‘हल्ला बोल’. समारोह के प्रथम दिवस, 8 जुलाई,
2023 को सुधन्वा देशपाण्डे को सम्मानित भी किया गया, इस अवसर
पर उनकी यह किताब बिक्री के लिए उपलब्ध थी. किताब हिन्दी और अंग्रेजी में है, स्पष्ट
है कि मैंने हिन्दी में ही खरीदी.
किताब प्रख्यात रङ्गकर्मी,
सफ़दर हाश्मी के व्यक्तित्व और कृतित्व का बयान करती है. सुधन्वा उनके दल में उनके साथ
थे, बाद में भी ‘जनम’ (जन नाट्य मञ्च’) में रहे, संवेदनशील और
समर्थ लेखक भी हैं तो सफ़दर हाश्मी को समझने के लिए, न केवल सफ़दर हाश्मी को बल्कि उस
दौर के और उसके बाद की रङ्गमञ्चीय गतिविधियों, राजनीति और परिवर्तन को समझने के लिए
यह किताब एक प्रमाणिक दस्तावेज़ की तरह है, एक सन्दर्भ ग्रंथ है.
किताब 1 जनवरी, 1989 के उस
काले दिन से शुरू होती है जब दिल्ली के झण्डापुर में नुक्कड़ नाटक, ‘हल्ला बोल’ किया
जाना था. नाटक मज़दूरों की समस्याओं पर था शायद इसलिए और इसलिए भी कि चुनाव होने थे
और ‘सीटू’ कॉमरेड रमानाथ झा के समर्थन में थी. नाटक के पहले सुधन्वा देशपाण्डे ने लोगों
को नाटक के बारे में बताया और उनसे निवेदन किया कि वे कॉमरेड रमानाथ झा को वोट दें.
नाटक के साथ यह अपील भी सत्ताधारियों को खलती, चिढ़ाती और आशङ्कित करती थी किंतु इन
सबके बावजूद इस बात पर अब तक यकीन नहीं होता कि यह उन्हें इस कदर डरायेगी कि वे नाटक
के दौरान और तितर बितर होने के बावज़ूद ढूँढ ढूँढ कर जानलेवा हमला करेंगे, इस कदर निडरता
से कि लोगों की मौत हो जाए. बुरी तरह घायल होने के बाद सफ़दर हाश्मी की भी 2 जनवरी,
1989 को अस्पताल में मौत हो गयी. सत्ता समर्थित होने से हमलावर
गुण्डे इस कदर बेखौफ़ थे कि पुलिस भी अनदेखा करती रही और हमले की सूचना
देने गये एक कार्यकर्ता को थाने पर शाम तक हिरासत में बैठा लिया गया. यह सब आज भी लोमहर्षक
और अविश्वसनीय सा लगता है. सुधन्वा
देशपाण्डे बराबर उनके साथ रहे तो यह बयान उस समय से साक्षात कराता है. किताब
शुरू करने के बाद स्तब्ध होते हुए भी आप आगे पढ़ते जाने से रुक नहीं पायेंगे.
किताब के बारे में आनंद पटवर्धन,
फ़िल्मकार के यह शब्द सही हैं,
हल्ला बोल को आप बीच में छोड़ नहीं सकते.
ये एक तेज़ रफ़्तार, सजीव शब्द चित्रों, घनी सरगर्मियों से भरी किताब है. इसे पढ़ कर आपका
दिल बैठने लगता है, मगर यह फ़िक्शन नहीं है. यह एक हरदिल अज़ीज़ इंसान की कहानी है – एक
ऐसा कॉमरेड जिसके लिए इंसानियत पार्टी से बड़ी थी; एक कलाकार, शायर, लेखक, अदाकार, कार्यकर्ता;
एक ऐसा इंसान जो अपनी उपलब्धियों के बोझ से भी कभी राह से नहीं डिगा…
किताब तीन भागों में विभाजित
है – भाग एक ‘हल्ला बोल’ के मञ्चन के दौरान हमले, सफ़दर हाश्मी की
मौत, उसके बाद फिर 4 जनवरी, 1989 को उसी जगह ‘हल्ला बोल’ के प्रदर्शन और बाद में ‘जनम’
के हालात तक है.
भाग दो नुक्कड़ नाटक की विवेचना करता है,
‘जनम’ का जन्म, इमरजेंसी, नुक्कड़ नाटक के सिद्धांत, ऋत्विक घटक, टेलीविज़न और डॉक्यूमेंट्रीज़
आदि का गंभीर विवेचन है.
भाग तीन हबीब तनवीर, जोहरा सहगल, चमेलीजान,
एक्टिंग, दिल्ली का मज़दूर वर्ग और मज़दूर संगठन, हड़ताल की तैयारी, चक्का जाम और कई नाटकों
की बात करती है.
अंत में नुक्कड़ नाटक ‘हल्ला
बोल’ की स्क्रिप्ट भी दी है और कई महत्वपूर्ण चित्र भी.
किताब,
जैसा कि आनंद पटवर्धन ने कहा कि यह फ़िक्शन नहीं है. फ़िक्शन न
होते हुए भी रोचक किताब है. रङ्गकर्मी और तत्कालीन, विशेषतः ‘जनम’
और उस विचारधारा के नाटक, तत्कालीन परिवेश, राजनीति और तमाम लोगों के बारे में जानकारी
देती है. नाटक और उस दौर में रुचि रखने वालों के लिए तो ज़रूरी किताब है ही, जो नाटक
व उस विचारधारा में रुचि न रखते हों उनके लिए भी रोचक साबित होगी. समय से साक्षात का
यह महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है. यदि इन सबसे साक्षात
करने में रुचि रखते हों तो उद्वेलित करने वाली यह विचारप्रधान किताब अवश्य पढ़ें.
पुस्तक
– ‘हल्ला बोल’
लेखक
– सुधन्वा देशपाण्डे
विधा
– कथेतर
प्रकाशक
– वाम (2254/2A, शादी खामपुर, न्यू रंजीत नगर, नई दिल्ली - 110 008 leftword.com)
अन्य
– पेपरबैक, हिन्दी व अंग्रेजी में, 273 पृष्ठ, दाम 325/- ( हिन्दी संस्करण )
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