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Tuesday 14 February 2023

दो छोर !


गाड़ी पोर्टिको में रुकते रुकते एक बावर्दी अटेण्डेण्ट आ गया और दरवाज़ा खोला. हम गाड़ी से उतरे और अन्दर दाखिल हुए, पीछे से अटेण्डेण्ट हमारा सामान लेकर आया. सामान के नाम पर एक बड़ा सूटकेस भर था, एक हैण्डबैगनुमा फोल्डर था जो हम हाथ में ही लिए हुए थे. रिसेप्शन पर अपनी बुकिंग के बारे में बताया तो एक अटेण्डेण्ट साथ में चला और सामान वाला अटेण्डेण्ट सूटकेस को लगेज लिफ़्ट में लेकर चला. हमारा सुईट नम्बर 1401 था, मतलब 14वीं मंज़िल पर 1 नम्बर सुईट. वहाँ पहुँच कर पाया कि 1401 नम्बर देने की ज़रूरत ही न थी क्योंकि उस मंज़िल पर एक ही सुईट था. खैर, अटेण्डेण्ट ने सामान दाखिल किया और हम ख़ुद ही दाखिल हो गए. अन्दर अजब हाल था, इतना नामचीन होटल, हमारी बुकिंग भी थी, आने का वक़्त भी कन्फर्म था मगर वहाँ सफाई चल रही थी. हाउस कीपिंग और रिसेप्शन में तालमेल ही न था कि हमें नीचे ही रोक लेते, जब सफाई हो जाती तब ही भेजते. नाम बड़े दर्शन छोटे का भाव आया और चेक आउट का फीडबैक अभी से मन में आकार लेने लगा. एक मिनट बाद ही सफाई भी कम्पलीट हो गयी तो चारों तरफ नज़र दौड़ायी. सब ठीक था. बेड, चादर-तकिया, पर्दे, मेज़कुर्सी, सोफा सेन्टर टेबलजो जो ज़रूरी था, वो सब था. साईड टेबल पर वेलकम ड्रिंक और फल आदि थे, एक छोटा फ्रिज़ भी था. बेडरूम की एक पूरी दीवार शीशे की थीबिना बॉलकनी में जाये, कमरे के अंदर से ही बाहर का नज़ारा किया जा सकता था. दीवार के पास दो शानदार कुर्सियां और एक छोटी मेज़ पड़ी थी. ड्रिंक लेकर बैठा और चुसकते हुए बाहर का नज़ारा करने लगा. जानापहचाना नज़ारा सामने था, सआदत अली खां और मुशीरज़ादी का मकबरा हरे कालीन जैसे लॉन पर उगा सा था. वैसे भी वह बहुत मेण्टेन पार्क है, इतनी ऊँचाई से और भी खूबसूरत लग रहा था. बांयी तरफ जेमिनी होटल की बिल्डिंग और दांयी तरफ नज़र घुमाने पर बेगम हज़रत महल पार्क की छतरी और ग्लोब दिख रहा था. हज़ार बार देखा नज़ारा पहली बार देखे की तरह मोहक ! थोड़ी देर बैठा, फिर फ्रेश होकर बाहर निकला. जिस मीटिंग के लिए आया था, वह कल होनी थी सो आज वैसे भी कुछ करने को खास न था. लिफ़्ट के बगल पूरी चौड़ाई में शीशे की अपारदर्शी दीवार थी जिस पर फूल पत्ती बने थे. दीवार के पास गया कि शायद नजदीक से उस पार का कुछ दिख जाए कि शीशा सरक कर दीवार में पैबस्त हो गया. तो यह दीवार सेन्सरयुक्त दरवाज़ा थी. अमूमन ऐसे दरवाज़े बीच से दोनों तरफ सरक कर खुलते हैं किंतु यह एक ही तरफ सरक कर खुला. बाहर निकला तो उसी तरह निःशब्द सरक कर दीवार में समा गया. बाहर तो अजब नज़ारा था, जैसे दूसरे ही युग में पहुँच गया. उस पार अत्याधुनिक होटल और यह जैसे मध्ययुग का परिवेश. ऊबड़ खाबड़, अनगढ़ से पत्थरों का फर्श था, जैसा हुसैनाबाद हरिटेज ज़ोन में है. केवल फर्श ही नहीं, बाक़ी सब भी उसी से मैच करता हुआ था. लंबे चौड़े आँगन के बाद दो सीढ़ियां चढ़ कर एक मीटर चबूतरा और गुफा जैसी गोल छत वाली चौड़ी गली सी. वह गली वस्तुतः बाज़ार थी,  बीच में रास्ता और दोनों तरफ दुकानें. एक तरफ नानबाई की दुकान थी, दूसरी तरफ ममीरा की, तख़्त पर तमाम तरह के हुक्के और चिलम भी सजे हुए थे, अंदर और भी दुकानें थीं. दुकानदार भी पुराने समय जैसे. लम्बा चोगा सा पहने और सर पर पगड़ी, कमर में फेंटा सा बंधा हुआ. ग्राहक भी वैसी ही ड्रेस में आजा रहे थे. कोई चोगा पहने तो कोई अचकन. पगड़ी या लम्बी टोपी सबके सर पर थी, कुछ के सर पर बटी  हुई रस्सियों की पगड़ी थी तो वैसा ही फेंटा, जूते भी चमरौधे. सब छह फुट या उससे भी लम्बे और तगड़े थे व कोई न कोई हथियार तो सभी बांधे हुए थे. इस तरह के लोगों के बीच जींसटी शर्ट पहने मैं बेमेल लग रहा था मगर किसी का ध्यान मेरी तरफ न था. ये लोग आ-जा कहाँ से रहे थे, होटल की तरफ या नीचे तो ऐसे लोग न दिखे और न ही ऐसा परिवेश. दुकानों की तरफ पीठ की तो एक गोल छत वाली गुफा सी ( जैसा रेलवे का ओवरब्रिज का मुहाना होता है ) दिखी जिसमें सीढ़ियां नीचे को उतर रही थीं, उसी से लोग ऊपर आ रहे थे और नीचे उतर रहे थे. ये सीढ़ियां इसी मंज़िल तक थीं, इससे ऊपर जाने का कोई रास्ता न था किंतु छत बंद थी, ऊपर आसमान नहीं दिख रहा था. मैंने सोचा बड़ा जीवट है इन लोगों में जो चौदह मंज़िल चढ़उतर रहे हैं, फिर सोचा कि जिस युग के ये लग रहे हैं उसमें तो ये मीलों पैदल यात्रा किया करते रहे होंगे. उसके बगल एक और गोल छत वाली गैलरी सी दिखी जिसका दूसरा छोर नहीं दिख रहा था. उसमें आने-जाने की जगह छोड़ कर तमाम लोग लेटे-बैठे थे. उनके हाव भाव से लग रहा था कि वे सिर्फ लेटे-बैठे ही नहीं बल्कि रहते भी यहीं हैं, उनका सामान भी दिख रहा था. दांयी तरफ पूरी दीवार पारदर्शी शीशे की खिड़की थी जिससे मेट्रो स्टेशन, स्टेडियम और पुल पर पटरियां दिख रही थीं जिस पर एक ट्रेन भी आती हुई दिखी. यह देखते हुए सर चकराने लगा. यह बात कल्पना से भी परे थी कि ऐसे होटल के अंदर और चौदहवीं मंज़िल पर ये चौदहवीं सदी सा मंज़र होगा. सोचा कि फोटो खींचूँ तो जेब में न मोबाईल था और न पर्स, शायद अन्दर मेज पर ही रखा रह गया. थकान भी हो रही थी, शारीरिक से अधिक मानसिक और भूख भी लग रही थी तो सुईट में जाने को उस दीवार की तरफ गया किंतु पास जाने पर वह सरकी नहीं. शायद इधर सेंसर न लगा था, शायद इसलिए कि उधर वाला तो इधर आ सके किंतु इधर का कोई उधर न जा सके. अब तो घबराहट हुई. दरवाज़ा बीच से खुला होता तो किसी तरह खोलने की कोशिश भी करता किंतु वो तो दीवार में समाया था जहाँ कोई गैप नहीं था. दीवार पर थपकियां दीं, मुक्के भी मारे, आवाज़ें भी दीं किंतु कोई फायदा नहीं, न उधर से कोई रिस्पॉन्स और न इधर से किसी ने ध्यान दिया. हताशा में सर पकड़ कर फर्श पर बैठ गया और आंखें मुंदने लगीं, कब बेहोश होकर गिर गया, पता नहीं. जब आंख खुली या यूँ कहें कि होश आया तो सांस तेज़ तेज़ चल रही थी और शरीर पसीने से तर था जैसे मीलों दौड़ता हुआ आया होऊँ. मैं बिस्तर पर था और होटल में नहीं, अपने घर में और अपने कमरे में था.

                                                                                      तो यह सब सपना था. सपना ही होगा बल्कि सपना ही था क्योंकि कहाँ है उस होटल में ऐसी जगह. बड़ा अजीब सपना था. मगर ठहरिये, यह सपना नहीं था. फिर कुछ ऐसा हुआ जिससे इसके सपना होने पर सन्देह होने लगा, लगा कि यह सपना नहीं, कुछ तो है ऐसा हकीकत में ! हुआ ये कि बाहर से एक मित्र एक मीटिंग में आये थे तो उसी होटल में ठहरे. उनकी फ्लाईट दूसरे दिन की थी और मीटिंग से शाम को फारिग हो गये तो फोन किया और मैं मिलने गया. उनसे मिला, बातें हुईं और निकला तो उसके परिसर में ही स्थित बाज़ार में गया. लगभग हर बड़े होटल में कुछ शोरूम होते हैं जिन्हें बाज़ार का नाम दे दिया जाता है. इनमें अधिकतर सजावटी सामान, शहर का प्रतिनिधित्व करने वाली कलाकृतियां, कपड़े व कुछ ऐसा ही अल्लमगल्लम मिलता है जिसकी होटल में ठहरे लोगों को कोई खास ज़रूरत तो नहीं होती फिर भी बिक्री तो होती ही है. इनमे सामान चुनिन्दा और आला दर्ज़े का होता है जो शहर की और दुकानों पर मुश्किल से ही दिखाई देता है. दाम भी वैसे ही, होटल के स्टार दर्ज़े के अनुरूप होते हैं. मैं खरीदता तो कुछ नहीं मगर धंस लेता हूँ, विण्डो वाचिंग का शगल पूरा करने को इसमें भी धंसा मगर कुछ बदवाल सा था. पहले शीशे के दरवाज़े के पार शोरूम थे किंतु अब एक आधा फुट ऊँचा प्लेटफार्म सा था. उस पर चढ़ा तो आधे हिस्से में फिर एक दरवाज़ा और आधे में वैसा ही गोल गुफानुमा रास्ता (जैसा रेलवे के ओवरब्रिज का होता है ) था जिससे सीढ़ियां ऊपर को जाती दिख रही थीं. बाज़ार वाले हिस्से का फर्श चमकदार ग्रेनाईट का था मगर इधर का फर्श वैसा ही अनगढ़ पत्थरों का. तुरंत पहले देखासपनाकौंध गया. उन सीढ़ियों की तरफ बढ़ा कि ऊपर जाकर देखूँ किंतु साइड में एक लम्बा-तगड़ा दरबान जैसा खड़ा था. पोशाक उसकी वैसी ही थी जैसी ऊपर लोगों की देखी थी, उसकी कमर में तलवार बंधी थी और हाथ में एक सोंटा था. मुझे सीढ़ियों की तरफ बढ़ता देख उसने नामालूम किस भाषा और लहज़े में कुछ कहा जो मुझे बिल्कुल समझ न आया. मैं और आगे बढ़ा और उससे ऊपर के बारे में पूछा किंतु वह जाने क्या समझा कि सोंटा उठा कर मुझे रोकने का उपक्रम किया. इस उपक्रम में सोंटा मेरे माथे से छू गया और पीड़ा की लहर के साथ बिजली सी बदन में पैबस्त होती हुई महसूस हुई, मेरे घुटने मुड़े और मैं गिर गया.

                                                    होश आया तो अस्पताल में था. घर वाले और वह दोस्त मेरे पास थे. पता चला कि मुझे बाज़ार के पास बेहोश होकर गिरता देख कर वहाँ के स्टाफ ने होटल में पता किया. रिसेप्शन वाला पहचान गया, मैंने उसी से उस दोस्त का रूम पूछा था. उसने दोस्त को बताया और दोस्त ने घरवालों को और मुझे अस्पताल में दिखाया. पता चला कि मैं लगभग बारह घण्टे बेहोश रहा. चोट तो कोई नहीं थी किंतु बेहोश तो रहा ही. डॉक्टर ने घरवालों से मेडिकल हिस्ट्री पूछी और फिर मुझसे भी. वाकया बयान करने पर डॉक्टर ने किसी मनोचिकित्सक को दिखाने की राय दी, एक को रेफर भी किया. डॉक्टर और बाक़ी सबने बताया कि उस होटल तो क्या, शहर भर में और आस पास कोई ऐसी जगह नहीं. अस्पताल से छुट्टी होने पर घर वालों के साथ फिर उस होटल और बाज़ार गया, ऊपर फ़लकनुमा तक गया, परिसर में स्थित बाज़ार में गया किंतु कहीं कुछ वैसा नहीं, सब कुछ सामान्य और पहले जैसा ही था. समझ में नहीं आता कि क्या था ये. अभी मनोचिकित्सक से इलाज चल रहा है और कुछ कुछ विश्वास हो चला है कि यह सब मेरे मन की उपज थी किंन्तु चलो पहले वाला सपना था मगर बाज़ार के पास वाला तो जागते में था. उसके गवाह भी थे कि मैं होटल, फिर बाज़ार गया और वहीं बेहोश हुआक्यों बेहोश हुआ होऊँगा भला ! आप में से जो यहाँ के हैं वे बतायें कि क्या है ऐसी कोई जगह, उस होटल में या लखनऊ में कहीं और !  


6 comments:

  1. बहुत बढ़िया ताना बाना बुना है आपने आधुनिक काल में तिलिस्म सा जगाता हुआ. बढ़िया रचना है, हर पंक्ति आगे पढ़ते जाने के लिये उत्सुकता जगाती है. साधुवाद

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  2. रोमांचक!
    अद्भुत वर्णन

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