मीठी मीठी बातें !
आख़िरकार करीब अठ्ठारह सालों बाद
मुझे मेरी पसन्द की एक खास मिठाई मिल गयी. मिठाईयां तो सारी ही मुझे पसन्द हैं – सूखी से तर तक, खोया से छेना तक और सब्जी की भी. मुझे तो बूंदी के आजकल वाले मोतीचूर के लड्डू भी पसन्द हैं, मेवा के भी, बड़ी बूँदी के भी और वैसे भी जो पहले बैना में भेजे जाते थे – सूखे और ऐसे कि फेंक के मारो तो गुलुम पड़ जाये. बालूशाही भी, रसगुल्ले की तमाम किस्में भी – मतलब किसी मिठाई या मीठे व्यञ्जन को यह नही कह सकता कि मुझे यह पसन्द नही. मै खाने में बचपन से ही बड़ा मिठुआ रहा हूँ , ईश्वर की दया है कि मधुमेह से बचा हूँ और विडम्बना भी कि इतना मीठा खाते हुए भी बोली में उतनी मिठास न आ सकी.
उस मिठाई का नाम
है, मैसूर पाक. इसे मसूर भी कहते हैं. यह गरिष्ठ किन्तु वज़न में हल्की होती है .
घी की प्रचुरता रहती है और देशी घी में बनाई जाय तो तालू और दांतों में चिपकती
नही. मेरे अलावा घर में और किसी को पसन्द नही. जब मै फरेन्दा ( आनन्द नगर, गोरखपुर
से आगे ) में तैनात था तो एक दुकान पर मिली और मै अक्सर लिया / खाया करता था. वहां
से आने के बाद बहुत जगह तलाश किया किन्तु नही मिली. अब नये लोग और नयी तरह की
मिठाईयों का चलन और यह ठहरी पुरानी मिठाई. जिस हलवाई के यहां मै नियमित रूप से मिठाई
लेता हूँ, उससे भी ज़िक्र किया. वह मेरी पसन्द की एक मिठाई, परवल की मिठाई,
रक्षाबन्धन और दीपावली में बनाता है. हाँलाकि मै लेता पाव भर ही हूँ क्योंकि मेरे अलावा
घर में किसी को पसन्द नही . उससे उम्मीद थी मगर उसने कहा कि अब उसे बनाने वाले
कारीगर नही मिलते और उसे बनाना नही आता, देखिये शायद चौक ( लखनऊ का पुराना इलाका
जो खाने-पीने की चीज़ों, चिकनकारी, सर्राफा और हाथ के बहुत से काम के लिये मशहूर
है ) में मिल जाये. चौक में भी कुछ जगह देखा किन्तु नही मिली.
करीब पाँच साल पहले की बात है.
मैं एक कार्यक्रम में गोमती नगर गया और लौटते में रात के
साढ़े दस बज गये (कार्यक्रम में देर नही हुई, देर का और किस्सा है ) जब घर के पास
पहुँच गया तो याद आया कि मिठाई लेनी थी, सुबह ही एक जगह जाना था. सुबह शायद दुकान
न खुली होती और फिर श्रीमती जी ने ताकीद की थी कि मिठाई लेते आना, ये नही कि सुबह
लेने दौड़े. अब बिना मिठाई के घर में कैसे घुसता तो करीब दो किलोमीटर वापस लौटा.
वैसे तो कई दुकानें हैं किन्तु काजू कतली मै राधे लाल, अलीगंज की दुकान ( साफ – सफाई आदि के संदर्भ में और दीपावली के पूर्व के
नियमित / औपचारिक आयोजन में छापा पड़ा तो क्लीयर हुआ कि ये वो राधे लाल नहीं हैं
जिनकी दुकान चौक में है, ‘परम्परा’ नाम से और इसकी कई शाखाएं हैं ) से
ही लेता था. आशंका थी कि शायद दुकान बढ़ा दी गयी हो और
उम्मीद कि शायद खुली हो. जब पहुँचा तो दुकान तो बढ़ा दी गयी
थी किन्तु एक चौथाई शटर खुला हुआ था और दुकान मालिक बाहर कुर्सी डाले हिसाब जैसा
कुछ कर रहे थे. अब मुझे भी तसल्ली हुई और वो भी फुरसत से थे तो बातें भी होने
लगीं. मैने बताया कि मुझे आपकी दुकान का पेठा पान ( यह पेठा- कद्दू प्रजाति का फल
– की पतली परत तिकोने आकार में काट और पाग कर, खाने वाला हरे रंग से रंग कर उसमें
खोया, मेवा, पतली कतरी सुपारी और पान का एसेन्स डाल कर पान के बीड़े की तरह लपेटी
जाती है और चाँदी का वर्क लगाया जाता है. सुपारी और पान के एसेन्स की वज़ह से
बिल्कुल पान का स्वाद आता है ) बहुत पसन्द है. जब चौक जाना होता है तो ज़रूर लेता
हूँ. (चौक की दुकान का ज़िक्र किया और पेठा पान का भी. वो समझ तो गये होंगे कि
मैं ‘परम्परा’ राधे लाल की बात कर रहा हूँ और इस दुकान को उसकी शाखा समझ रहा हूँ
किंतु मेरी भूल सुधारी नही) वो बोले कि यहां भी बनाते हैं कभी-कभी. फिर
चर्चा परवल की मिठाई व मसूर की चली. जब मैने अपने हलवाई के बारे में बताया तो वे
कुछ चौंके और उसकी दुकान का नाम-पता पूछा.
मसूर के बारे में बताया कि हम बनाते हैं और नौकर को एक पीस लाने को कहा. वो लाया
और मैने खाया. मज़ा आ गया, बरसों बाद वो स्वाद. काजू कतली के तो उनकी दुकान पर एक
किलो और आधा किलो के डब्बे तैयार रहते हैं, बस उठा कर देना होता है सो दे दिया,
मसूर दूसरे दिन खरीदना ठहरा. तब से अब तक तीन बार खरीद चुका हूँ, ये भी घर में
मेरे अलावा कोई नही खाता. बाद में एक दो बार बंगलुरु में नौकरी करने वाला
भतीजा ‘मैसूर पाक’ लाया किंतु वो गीला वाला लाया. मुझे उसमें मज़ा नहीं आया, मुझे
सूखा वाला भाता है.
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जब मै दमोह में तैनात
था तो हर चौथे –पाँचवे दिन पाव भर मिठाई लाता था, यद्यपि
अकेले ही रहता था.. एक दुकान है जो दमोह में मिठाई की सबसे अच्छी
दुकान है, मिठाईयां भी अच्छी हैं. मै उनके यहां की लगभग सारी मिठाईयां टेस्ट कर
चुका हूँ और अब जान गया हूँ कि कौन सी मिठाई दोहराने योग्य है. लौड़ी में भी जब था
तो एक दुकान पर गोंद के लड्डू बढ़िया मिलते थे तो अक्सर लेता था. वो लड्डू लखनऊ भी
ले गया और दिल्ली भी – सबको बहुत पसन्द आये. ऐसे ही जब चित्रकूट में था तो बस से
ही जाता था. रास्ते में एक जगह पड़ती थी, ललौली. वहां के लड्डू मशहूर और स्वादिष्ट
होते थे ( थे, अब हैं नही.) जाते में
चित्रकूट में खाने के लिये लेता था और लौटते में घर के लिये. अभी करीब बारह साल पहले चित्रकूट जाना हुआ तो ललौली की तरफ से गये, लड्डू भी लिये मगर
वो बात नही रही अब. अल्मोड़ा की बाल मिठाई और सिंघौड़ी तो मुझे बहुत पहले से ( जब
मैं हाईस्कूल में, सन १९७४ में, था तबसे ) पसन्द है. मेरे एक पहाड़ी मित्र थे
उन्होने पहली बार खिलायी थी. लखीमपुर जाते समय रास्ते में ( सड़क मार्ग से )
मैगलगंज नामक कस्बा है जहां गुलाब जामुन बहुत बढ़िया मिलते हैं. वो भी खाये.
अब जगह भी बहुत बदल गयी है और जहाँ पहले दो – तीन दुकानें हुआ करती थीं, अब दसियों
दुकानें हैं और सब “असली और पुरानी दुकान” हैं. सब धोखा न खाने की ताकीद करते हैं
मगर पहले के स्वाद को देखें तो धोखा ही खाने को मिलता है. दमोह से जबलपुर के रास्ते में एक जगह है, कटंगी.
वहां बड़े बड़े रसगुल्ले ( वस्तुतः काला जाम ) खूब बिकते हैं. क बार वो भी टेस्ट किये मगर कुछ खास नहीं लगे सिवाय आकार के. बनारस
जाना होता था तो वहां लौंगलता नामक मिठाई अच्छी और प्रसिद्ध थी. यह खोया भरी
गुझिया जैसी होती थी जो पगी होती थी. गुझिया का ज़िक्र आया तो मुझे पिचक्का भी
पसंद है. यह आकार में बड़ी गुझिया होती है जिसमें खोया, मेवा के साथ सोंठ ( सूखी
हुई अदरक ) प्रचुर मात्रा में होती है और चीनी की जगह गुड़ डाला जाता है. सोंठ और
गुड़ का ही मेल है. यह खाने में मिठास के साथ कड़ुआहट लिये होती है और सबको पसन्द
नही आती. बाज़ार में मिलती नही और घरों में महिलायें बनाती नहीं. दो ही बार खायी
है, एक बार मामा के यहां बचपन में और एक बार सास जी ने खास मेरे लिये बनाये थे जब
उन्हे मालूम पड़ा कि मुझे पसन्द हैं. आज भी पिचक्का का स्वाद याद आता है. माज़ूम
भी खायी है ( भांग डाल कर बनायी गयी बर्फी ) लेकिन दो ही बार. मीठी चीज़ों में
बाजरे को गुड़ के साथ उबाल कर खायें तो बहुत बढ़िया लगता है, राब ( गुड़ बनते समय
ढीला गुड़ ) भी मुझे अच्छी लगती है और
गुड़धनिया ( भुने गेँहू और गुड़, मसला हुआ
) पहले गुड़धनिया हनुमान जी के मंदिर में प्रसाद के तौर पर चढ़ाई जाती थी, अब कोई
नही चढ़ाता.
गुड़धनिया का
ज़िक्र निदा फाज़ली ने एक शेर में किया है –
गरज बरस प्यासी धरती को फिर पानी दे मौला ।
चिड़ियों को दाने बच्चों को गुड़धानी दे मौला ॥
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मिठुआपन की दो यादें हैं जो एक रिकार्ड भी हैं, अब मुझे
लगता है कि ऐसा नही करना चाहिये था. स्वास्थ्य से खिलवाड़ अच्छा नही होता मगर वो
दिन ही खिलंदड़पन के थे. गदह पच्चीसी की उमर थी अर्थात वय से भी युवा था. तब एक
बार करीब एक घण्टे के अन्दर तेईस पीस मलाई की गिलौरी खाई थी. ( मैथिलों के लिए तो तेईस पीस कुछ भी नहीं हुआ. वे तो उपेक्षा
भाव से ही इतनी मात्रा को लेंगे किंतु है क्या सामान्य लोगों में किसी का इससे ज़्यादा का रिकार्ड ! या खा चुके हैं इससे अधिक ! ) इसके दो कुप्रभाव हुए. एक तो फिर रात को खाना ठीक से खाया
नही गया और दूसरा कि इतना मीठा खाने से मूत्र विसर्जन में दिक्कत हुई. महसूस होता
था, उतरता नही था. मगर ये दिक्कत कुछ ही घण्टे रही. एक बार आधा भगौना खीर खाई थी,
भोजन के बाद. खीर भी बड़ी स्वादिष्ट, मेवा
पड़ी और गाढ़ी थी. यह एक पुड़िहा बांभन से कम्प्टीशन में खाई थी. दोनों बराबरी पर
छूटे थे. खिलाने वाला मेरा मोहल्ले के नाते भांजा था, दीदी के यहां कुछ मांगलिक
कार्य था.
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मीठी मीठी बातें बहुत हैं. इसकी नींव बचपन से ही पड़ गयी
थी. पिता जी भांग खाते थे और भंगेड़ियों के नियमानुसार रबड़ी – मलाई भी. भांग तो
खाना शुरू नही किया मगर रबड़ी खाने लगा. रोटी के साथ भी रबड़ी खाने का अलग ही
स्वाद है. रबड़ी अब भी खाता हूँ मगर नियमित नही और अब तो पाव भर भी नहीं खा पाता, डेढ़ – दो सौ
ग्राम में ही इच्छा भर जाती है. रबड़ी और मलाई ( पुराने लखनवी इसे बालाई कहते हैं
) मे तब भी और अब भी कुछ टुच्चे मुनाफाखोर हलवाई आरारोट और ब्लॉटिंग पेपर की मिलावट
करते हैं इसलिये रबड़ी –मलाई छोटी दुकान से लेना उचित रहता है. वैसे नरही, शिवाजी
मार्ग तिराहा और चौक में रबड़ी अच्छी मिलती है. चौक में जाड़ों में मक्खन भी मिलता
है, वह भी खाता हूँ. वह मक्खन घर में सबको पसन्द है. चौक के अकबरी गेट के अन्दर की
तरफ हलवा की एक दुकान है जिसमें कई तरह के हलवे मिलते हैं, वो भी बहुत स्वादिष्ट होते हैं. मीठे में मै आम रोटी ( मतलब आम के साथ रोटी ) भी
खाता हूँ, गुड़ रोटी भी और चीनी रोटी भी और
घी-चीनी-रोटी भी. गुड़ भी खाता हूँ और गुलगुले से भी परहेज़ नही
करता, वो भी मुझे पसन्द हैं. मोटे चूरा को मीठे दही के साथ खाना भी पसन्द है. मिठाई
पसन्द करने की बात लगभग सभी परिचित जानते हैं. ऐशबाग ( यहाँ की जगहों/ हलवाईयों के नाम से यहाँ के लोग
परिचित होंगे ही ) में बाबूलाल हलवाई की दुकान प्रसिद्ध है. बाबूलाल
( बहुत पहले दिवंगत ) का पोता मेरा शिष्य था तो वह दुकान की ताज़ी और अच्छी मिठाई
श्रद्धा और अनुरोधपूर्वक प्रस्तुत करता था. उस दुकान से मैने मिठाई खरीद कर नही
खाई. नाश्ते में जलेबी और इमरती भी बहुत बढ़िया होती है. जलेबी दही के साथ खाने का
चलन है मगर इसके अलावा मै दूध में भिगो कर, जब फूल जाय, भी खाता हूँ.
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बहुत मीठी मीठी बातें हो गयीं. कहीं आप लोग शीर्षक पढ़ कर
यह तो नही समझे थे कि मै कुछ प्रणय सम्बन्धी मीठी मीठी बातें करने वाला हूँ. अब
अगली पोस्ट में दो कड़वी बातें करूँगा.
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