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Friday, 3 March 2023

पुस्तक चर्चा - 'सुनों चारुशीला'


 वे पत्थरों को पहनाते हैं लँगोट

पौधों को चुनरी और घाघरा पहनाते हैं

वनों, पर्वतों और आकाश की नग्नता से होकर आक्रान्त

तरह-तरह से अपनी अश्लीलता का उत्सव मानते हैं

देवी-देवताओं को पहनाते हैं आभूषण

और फिर उनके मन्दिरों का

उद्धार करके इसे वातानुकूलित करवाते हैं

इस तरह से ईश्वर को उसकी औकात बताते हैं।

                                      ****************

‘ ... गिरो प्यासे हलक में एक घूँट जल की तरह

रीते पात्र में पानी की तरह गिरो

उसे भरे जाने के संगीत से भरते हुए

गिरो आँसू की एक बूँद की तरह

किसी के दुख में

गेंद की तरह गिरो

खेलते बच्चों के बीच

गिरो पतझर की पहली पत्ती की तरह

एक कोंपल के लिए जगह खाली करते हुए … ‘

                                              **************

जिसके पास चली गयी मेरी ज़मीन

उसी के पास अब मेरी

बारिश भी चली गयी

 

अब जो घिरती हैं काली घटाएँ

उसी के लिए घिरती हैं

कूकती हैं कोयलें उसी के लिए

उसी के लिए उठती हैं

धरती के लिए सोंधी सुगन्ध

 

अब नहीं मेरे लिए

हल नहीं बैल नहीं

खेतों की गैल नहीं एक हरी बूँद नहीं

तोते नहीं, ताल नहीं, नदी नहीं, आर्द्रा नक्षत्र नहीं

कजरी मल्हार नहीं मेरे लिए

 

जिसकी नहीं कोई ज़मीन

उसका नहीं कोई आसमान।

                                   ****************

‘ … आज किले में भर गये हैं बच्चे

उन्होंने तुम्हारी बुर्जियों, मेहराबों, खम्भों और

कंगूरों पर लिख दिये हैं अपने नाम

कक्षाएँ और स्कूल के पते

अब वे पूछ रहे हैं सवाल

कि सुल्तान के घर का इतना बड़ा दरवाजा

उसकी इतनी ऊँची दीवारें

उनके चारों तरफ इतनी सारी खाइयाँ

इतने सारे तहखाने छुपने के लिए

और भागने के लिए इतनी लम्बी सुरंगें

और चोर रास्ते

आख़िर

सुल्तान इतना डरपोक क्यों था !’

                            **********

ऊर्जा से भरे लेकिन

अक्ल से लाचार, अपने भुवनभास्कर

इंच भर भी हिल नहीं पाते

कि सुलगा दें किसी का सर्द चूल्हा

ठेल उढ़का हुआ दरवाजा

चाय भर की ऊष्मा औरोशनी भर दें

किसी बीमार की अन्धी कुठरिया में

                      तुम्हारी यह अलौकिक विकलांगता

                          भयभीत करती है।

                             *******************

                                           

                                                 सरल शब्दों में गहन बात कहने वालीधक से लग जाने वाली यहकविताएँ हैं वरिष्ठ कवि, नरेश सक्सेना की और उनके कविता संग्रहसुनो चारुशीलासे ली गयी हैं. नरेश सक्सेना जी की कविताओं का पाठ स्वयं उनसे सुनना एक विलक्षण अनुभव है, कविताओं के भाव जैसे स्वयं बोलने लगते हैं. जिन्होंने उनका कविता पाठ सुना है, उन्हें इसका अनुभव होगा किंतु किताब में पढ़ने पर भी ये वैसा ही प्रभाव उत्पन्न करती हैं जैसा सुनने पर. अन्तर में उतर जाने वाला यह प्रभाव कथ्य की गहनता और सरल शब्दावली से है. सहज अभिव्यक्ति सीधे मन से जुड़ जाती है, भाव को बेधक क्षमता सहज उपमान और शब्दों से मिली है. कवि कविता करता हुआ नहीं, आपसे बातें करता हुआ लगता है.

संग्रह में 51 कविताएँ हैं. जो कविताएँ इसपुस्तक चर्चामें नहीं दीं, वे भी इतनी ही सरल, बेधक और भावपूर्ण हैं. सब कविताओं को यहाँ देना न संभव था न ही उचित. जो कविताएँ यहाँ दी हैं, वह बानगी भर हैं इस संग्रह की, नरेश सक्सेना जी की कविताओं की.

वे पत्थरों को पहनाते हैं लँगोट… ‘ ईश्वर की औकातशीर्षक से है. प्रकृति की तरह सीधे सरल लोग ईश्वर का मानवीकरण कर देते हैं, वे पत्थर की मूर्तियों, पेड़ों का  शृंगार करते, अपनी नग्नता को उन पर आरोपित करते और उन्हें अपनी तरह ढंकते हैं. यह भोलापन भी है, भक्ति भी और ईश्वर को अपने स्तर पर उतार लाना जहाँ वह मनुष्य के हाथ का खिलौना होता है जिसे वे अपनी रुचि अनुसार सजाते, नाना स्वांग करते हैंप्रकृति को ईश्वर माने किंतु ईश्वर मान कर भी यह तथ्य कि वह और कुछ नहीं कर सकता सिवाय अपने गुण धर्म केइसे ‘ … ऊर्जा से भरे लेकिन अक्ल से लाचार, अपने भुवनभास्कर …’ ( संग्रह में सूर्यशीर्षक से ) में व्यक्त किया है. सूरज ताप. प्रकाश, ऊर्जा उत्पन्न करता है, फसल पका सकता है किंतुभुवनभास्करहोकर भी सहानुभूतिपूर्ण मानव की तरह किसी ग़रीब का चूल्हा नहीं जला सकता, बीमार की कुठरिया में नहीं जा सकता.

ऐसे ही  ‘… आज किले में भर गये हैं बच्चे ( ‘किले में बच्चेशीर्षक से ) में बच्चों की शरारतों के साथ बड़ी बात कह जाते हैं कि, ‘…आख़िर सुल्तान इतना डरपोक क्यों था !हम देख ही रहे हैं कि आज के भी सुल्तान कितने डरपोक हैं. आज के सुल्तान तो झण्डे से भी डर जाते हैं, किताब से भी और गीत से भी ! यही बात कविता, परसाई जी की बात  में है. अच्छी बुरी कविता, कविता में मानक कवित्व की बात तो पीछे, आज के सुल्तान तो सरल शब्दों में सच्ची बात कहने पर नोटिस भेज दे रहे हैं.

ऐसी ही कई कविताएँ हैं. बहुश्रुत कविता, ‘शिशुभी इस संग्रह में है, ‘चींटियाँभी और वैज्ञानिक नियम को संवेदना के रूप में दिखातीपानी क्या कर रहा हैभी.

कविता में और इन कविताओं में रुचि जाग्रत हुई हो तो पढ़ें यह संग्रह, ‘सुनो चारुशीला.’ पढ़ने से पहले बस दो कविताएँ और देख लें जो आज यथार्थ में दिख रही हैं -

चट्टानें उड़ रही हैं

बारूद के धुएँ और धमाकों के साथ

 चट्टानों के कानों में भी उड़ती-उड़ती

पड़ी तो थी अपने उड़ाये जाने की बात

तो वे बड़ी ख़ुश थीं

 

उन्हें लगता था

उन्हें उड़ाने के लिए वे लोग

पंख लेकर आएँगे।

                                     ****************

आज से ठीक चौवन बरस पहले

जबलपुर में

परसाई जी के पीछे लगभग भागते हुए

मैंने उन्हें सुनायी अपनी कविता

और पूछाक्या इस पर इनाम मिल सकता है

अच्छी कविता पर सज़ा भी मिल सकती है …”

                           आज, जब सुन रहा हूँ, वाह, वाह

                           मित्र लोग ले रहे हैं हाथों हाथ

                           सज़ा कैसी कोई सख़्त बात तक नहीं कहता

                           तो शक़ होने लगता है

                           परसाई जी की बात पर नहीं _

                           पनी कविताओं पर !’



पुस्तक चर्चाः

पुस्तक – ‘सुनो चारुशीला

विधाकाव्य

कविनरेश सक्सेना

प्रकाशकभारतीय ज्ञानपीठ

अन्यहार्ड बाउण्ड संस्करण, दाम 100/- , पृष्ठ 82

       

                                   

 

 

 

 

 

 

 

2 comments:

  1. बहुत सुन्दर कविताएं। भावपूर्ण। भाषा सरल।
    सुन्दर परिचय दिया आपने किताब का। किताब पढ़ूं न पढ़ूं, आपका ब्लॉग पढ़ना मुझे पसंद है। यह आपकी परिष्कृत रुचि को दर्शाता है। लिखते रहिए।

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  2. धन्यवाद पूजा. कविताएँ ऐसी हैं ही कि उनके बारे में बात करने की इच्छा हो. एक के बाद दूसरी कविता पढ़ते जाने की इच्छा होती है. लोग ब्लॉग पर आते रहें, कुछ कहते रहें तो लिखने का उत्साह बना रहेगा.

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