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Monday, 27 March 2023

एक साल बाद !


 एक साल बाद !

सुनसान सड़क पर एक बड़ी सी कार मन्थर गति से तिरती हुई आती दिखायी पड़ी. ऐसी शानदार कार, सुनसान रास्ता और शाम का धुंधलका - स्पीड से चलने के लिये सब अनुकूल होते हुए भी उसे मन्थर गति से आते देखना बड़ा अटपटा लगा मगर उसके लिए यह ठीक ही था, सर्र से निकल जाती तो वह इसे रोक कर लिफ्ट ले पाता. वह बहुत देर से सड़क के किनारे पेड़ के पास खड़ा था. पास ही उसकी कार खड़ी थी जिसका बोनट खुला हुआ था और वह कभी खामख़्वाह ही बोनट के नीचे कल पुर्जों को असमंजस से देखता तो कभी सड़क को कि कार, बस, ट्रैक्टर, ट्रक, बाईक, ठेलिया या बैलगाड़ी ... कुछ भी आता दिखे तो आगे शहर से मैकेनिक बुला ले और कम से कम ऐसी जगह तो कुछ खा-पी ले और रात रुक सके या कार उधर जा रही हो तो वापस ही लौट ले और सुबह सर्विस सेन्टर से मैकेनिक भेज दे. उसे मालूम था कि आगे शहर है मगर करीब तीस किलोमीटर दूर है, ऐसे में यह कार उसे डूबते को नाव सी लगी और वह सड़क के बीच शाहरुख खान की तरह दोनों हाथ फैला कर खड़ा हो गया.

"क्या हुआ भाई ! क्यों बीचो-बीच सड़क पर खड़े हो."

अब उसने देखा कि कार नई-नकोर ऑडी थी और उसके मन्थर गति से आने की वजह भी समझ में आयी, उसमें लव बर्ड्स थे - तीखे नैन नख़्श वाली युवती और वैसा ही हैण्डसम युवक. लड़की ने गाउन जैसा कुछ पहन रख था, गले में एक पतला खूबसूरत नेकलेस और एक कलाई में नाज़ुक सी घड़ी और दूसरी में निकल पड़ने को आतुर सा ब्रेसलेट और इन सबसे मारक थीं उसकी नशीली आंखें जो कुछ उलझन और कुछ गुस्से से उसे देख रही थीं. लड़की में इतना कुछ क़ाबिल दीद था कि उसके साथ के लड़के पर उचटती सी नज़र ही पड़ी. उसका सम्मोहन तब भङ्ग हुआ जब लड़के की झुंझलाहट भरी आवाज़ कानों में पड़ी,

"कौन हो भाई और इस तरह बीच में क्यों गये ? गाड़ी तेज़ होती तो बोलो राम हो गया होता."

" जी, मैं, वो क्या है कि मेरी गाड़ी खराब हो गयी है और कोई गैराज़ या मैकेनिक आगे पता नहीं कहाँ मिले. बहुत देर से खड़ा हूँ मगर कोई आया ही नहीं कि लिफ्ट लेकर शहर चला जाऊँ. रात भी गहरा रही है, यहाँ रुकना खतरे से खाली नहीं. अगर आप शहर तक छोड़ दें तो बड़ी मेहरबानी होगी. रात वहीं रुक कर सुबह मैकेनिक को लेता आऊँगा या वह गाड़ी टो करके ले जायेगा."

"सुनो ! ऐसे किसी को लिफ्ट देना ठीक नहीं. सुनसान रास्ता है, क्या पता वह कोई लुटेरा हो ! कोई बहाना बना कर या वैसे ही निकल चलते हैं." लड़की ने फुसफुसाते हुए कहा.

लिफ्ट मांग रहा मुसीबतज़दा युवक उसकी बात तो सुन सका किन्तु हाव भाव से अनुमान लगा लिया कि वह क्या कह रही होगी. दयनीय मुद्रा बना कर याचना करते हुए लड़की से ही बोला, "दीदी, मैं कोई चोर-लुटेरा नहीं, भले घर का हूँ. मलिहाबाद से छह किलोमीटर अन्दर की तरफ हमारा फार्म है. पारा में हमारा घर और शोरूम है, आप शहर में हमारे बारे में पता कर लें. फोन भी नहीं लग रहा, शायद सिग्नल नहीं है नहीं तो मैं किसी को बुला लेता. मुझे लेते चलें प्लीज."

लड़की उसकी बातों पर पूरा विश्वास तो कर सकी किंतु उसकी दनीय मुद्रा से अधिक दीदी सम्बोधन ने आश्वस्त किया फिर भी हिचकिचाते हुए उसे बैठने का इशारा किया.

"बहुत-बहुत धन्यवाद ! आपने केवल मेरी समस्या हल की बल्कि खतरे से भी बचाया. जङ्गली जानवरों का तो डर था ही, सुना है इस इलाके में भूत-प्रेत भी हैं जो किसी को नुकसान तो नहीं पहुँचाते मगर उनकी लीला देख कर किसी का हार्ट फेल भी हो सकता है."

वह पिछली सीट पर बैठ गया, गाड़ी चल दी तब लड़की के साथी युवक ने कहा, "क्या बकवास है ! आप इस युग में भी भूत-प्रेतों में यकीन करते हैं ?"

"आप भगवान मे यकीन करते हैं ?" उत्तर देकर उसने प्रतिप्रश्न किया.

"ये कैसा सवाल हुआ ! शायद ही कोई हो जो भगवान पर विश्वास करता हो. कुछ तो नास्तिक भी देखे हैं जो संकट में सब उपाय करने के साथ भगवान से भी गुहार लगाते हैं."

"वही तो ! जब भगवान हैं तो भूत-प्रेत अन्य योनियों के पारलौकिक प्राणी भी होंगे. भागवत में धुन्धकारी नामक प्रेत की कथा है और शिव जी के तो गण भूत-प्रेतादि बताये गये हैं. वे सब लुप्त तो हो गये होंगे. कुछ मोक्ष पा गये होंगे तो कुछ नये आये होंगे. अब शिव जी अकेले तो रहते होंगे और सारे ही भूत-प्रेत शिवगणों में शामिल होने के पात्र तो होंगे नहीं, जो बचे, उनमें असंख्य धरती पर भी होंगे."

"आपकी बात तो सही लग रही है. अच्छा वे हैं और जैसा यह इलाका है, दुर्घटना बहुल, तो वे भेंटाते क्यों नहीं?"

" भेंटाते हैं , किन्तु आप तभी उन्हें पहचान सकते हैं जब वे अपने को जनावें या अहित करें. हो सकता है वे अशरीरी होकर मौजूद हों या कोई और शरीर धारण करके. हो सकता है, मैं ही भूत होऊँ."

" अच्छा ! लगता है आपने रामगोपाल वर्मा और मुकेश भट्ट की भुतही फिल्में बहुत देखीं हैं जिनका आप पर अब तक असर है. मगर हम डरने वाले नहीं क्योंकि हम दोनों ख़ुद भूत हैं " लड़की ने शरारती अंदाज़ में कहा. अब तक वे दोस्त से हो गये थे. लड़की फिर बोली,          

" भूत तो नहीं, मुझे आपके लुटेरा होने का शक़ था."

"लुटेरा और मैं ! मैं तो ख़ुद ही उनसे डरता हुआ खड़ा था. आप चेक कर लें, मेरे पास कोई हथियार नहीं और ही आगे-पीछे मेरा कोई सङ्गी-साथी है."

"अब जो मन में आया, बता दिया. आप भले आदमी लगते हैं."

बातों में रास्ता पार हो रहा था. दोनों में नाम - पता वगैरह का आदान-प्रदान हुआ.

अब दुबग्गा के पास IIM मोड़ आने वाला था. अभी तक दोस्ताना लहज़े में बात कर रहे युवक का स्वर रूखा सा हो गया , "अब आप मोड़ के पहले ही उतर लें. हम लोगों को IIM के पास जाना है, पापा इन्तेज़ार कर रहे हैं, रात भी हो रही है. हमारी 'यादव खाद बीज भण्डार' नाम से घैला पुल के पास दुकान है जिसे पापा देखते हैं, कभी आईयेगा.

"ज़रूर आऊँगा, तब तो मुझे यहीं उतार दीजिए."

आपको पारा के लिये कोई कोई साधन मिल जायेगा. टेम्पो चलते रहते हैं, पूरा बुक कर लीजिएगा."

"बहुत-बहुत धन्यवाद. फिर कभी आप लोगों से और पापा से भेंट करूँगा. आपको मौक़ा लगे तो आप लोग आईये." युवक ने उतर कर कहा.

"ज़रूर."

दूसरे दिन अख़बार में हत्या और लूट की ख़बर थी. IIM मोड़ से पहले सड़क के किनारे एक नई-नकोर ऑडी खड़ी मिली जिसमें एक युवक-युवती की लाश मिली. दोनों को प्वाईंट ब्लैंक शूट किया गया था. हत्यारा ज़रूर उनका परिचित रहा होगा क्योंकि छीना- झपटी के कोई चिन्ह नहीं दिख रहे थे, चाभी भी इग्नीशन में लगी थी, हेड लाईट के साथ अन्दर लाईट भी जल रही थी, कार पर भी कोई स्क्रैच वगैरह था. या तो यह लूट का मामला था या फिर रंज़िशन कत़्ल था, पर बड़े आराम से किया गया था. गाड़ी में मिले रजिस्ट्रेशन पेपर के आधार पर पता किया गया तो मामला लूट का निकला. कार लखनऊ के एक व्यापारी की थी, मृतक उसके बेटा-बहू थे जो एक प्रापर्टी का सौदा करके लौट रहे थे. बिक्री की रकम उनके पास थी जो कार से बरामद हुई. कुछ दिन तफ़्तीश चली किन्तु कुछ पता चला और अनसुलझे केसेज में एक का इज़ाफा और हो गया.

               **********

रामजीत यादव दुकान पर बैठे थे. बहुत बड़ी दुकान थी. खाद-बीज, कीटनाशक, कृषि यन्त्रों का अच्छा खासा स्टॉक दुकान पर था और घर पर गोदाम भी था. एक बजने को था, वे खाना खाने और कुछ देर आराम करने के लिए घर जाने वाले थे कि एक बाईक रुकी. शायद कोई ग्राहक हो ! नौकर उसकी ओर उन्मुख हुए किन्तु उसने रामजीत यादव जी को पूछा.

"कहिये ! मैं ही हूँ."

"नमस्कार बाबू जी. मैं राकेश का दोस्त हूँ. अभी कुछ दिन पहले मेरी गाड़ी खराब हो गयी थी, कोई गैरेज या मिस्त्री भी नहीं था, रात भी होने वाली थी कि आपका बेटा-बहू उधर से आते दिखे. उन्होंने मुझे लिफ्ट दी. तभी दोस्ती हुई और उन्होंने मुझे दुकान का पता और नाम बताया. आज कुछ सुभीता हुआ तो सोचा उनसे मिलता चलूँ, उस दिन तो दोनों ही ज़ल्दी में थे तो ठीक से धन्यवाद भी दे सका. वे लोग घर पर हैं ?"

रामजीत ने जवाब देकर अजीब निगाहों से देखते हुए पूछा, "तुम उनसे मिले थे ?"

"जी !"

"चलो, घर चलते हैं. पास में ही है. मैं खाना खाने घर जाने ही वाला था."

रामजीत जी ने नौकरों को आवश्यक निर्देश दिये और युवक की बाईक पर रास्ता बताते हुए घर चले. घर थोड़ी दूर पर ही था. बैठक में फिर उन्होंने पूछा, "क्या तुम वाकई उनसे मिले थे ?"

"हाँ, पर आप ऐसे क्यों पूछ रहे हैं ? आपको कोई शक़ हो रहा है ?"

कुछ रुष्ट होते हुए उसने कहा कि उसकी निगाह दीवार पर पड़ी और उसका जी धक से हो गया. एक सिहरन सी बदन में दौड़ गयी. वह कुछ तैश में खड़ा हो गया था कि धप से बैठ गया. दीवार पर उसी जोड़े की तस्वीर लगी थी और उस पर माला पड़ी थी.

"ये ! येय्ये ! ये कब हुआ ? कैसे ?"

तभी तो मैं पूछ रहा था कि क्या तुम वाकई इनसे मिले थे. 6 जुलाई, 2021 को हरदोई से लौटते समय इनकी कार का एक्सीडेण्ट हो गया था और दोनों घटनास्थल पर ही मर गये थे."

"हे भगवान ! अब पक्का याद आया, वो भी 6 जुलाई ही तो थी जब मेरी कार खराब हुई और इन्होंने मुझे लिफ्ट दी. हे ईश्वर ! तो क्या, क्या ! मैं इनके भूत से मिला ! इन्होंने कहा भी था कि ये दोनों भूत हैं तो मैं मज़ाक समझा था. मगर इन्होंने तो मेरा कोई नुकसान नहीं किया, डराया बल्कि मेरी मदद की."

"बेटा ! ये दोनों बहुत सीधे, मिलनसार और मददगार थे. जब ज़िन्दा में किसी का कोई नुकसान नहीं किया तो मरने पर क्या करते. मुझ बदनसीब ने तो इनकी लाश ही देखी, तुमने तो इन्हें देखा, भले ही भूत के रूप में. कैसे दिखते थे दोनों ?" ऐसे ही या क्षत-विक्षत ! रामजीत ने भावविह्वल होते हुए पूछा.

माहौल बहुत भारी हो गया था. चाय -नाश्ता आया किन्तु किसी से किया गया. अब ठहरना और बात करना भारू हो रहा था. जितना रामजीत जी ने पूछा, उतना बुझे मन से उसने बताया और चलने की अनुमति मांगी.

"आते रहना बेटा!"

"जी."

              ***********

किसी के मर जाने से और लोग मर नहीं जाते. समय के साथ घाव भरते जाते हैं, यही जीवन है. रामजीत जी भी जी ही रहे थे, दुकान भी कर रहे थे और दुनियादारी भी निभा रहे थे. किसी काम से शहर गये तो ध्यान आया पारा में ही तो सुनील ने अपना शोरूम बताया था. चलो, उससे मिल लेता हूँ सोचते हुए उन्होंने गाड़ी बांये, पारा की तरफ, मोड़ दी. कुछ ही दूर पर 'सुनील ऑटोसेल्स' का बोर्ड दिखा तो उन्होंने उसके बाहर गाड़ी रोकी. काउण्टर पर रुक कर सीधे ऑफिस में ही गये कि सुनील और उसके पिता वहीं मिलेंगे. अन्दर सुनील तो था, उन्हीं की वय के एक सज्जन मालिक की सी पोजीशन में विशाल मेज के पार कुर्सी पर थे.

"नमस्कार, आप सुनील के पिता, अशोक जी, हैं ?"

" नमस्कार ! जी ! बैठिये. आप कौन ?"

"मैं रामजीत यादव. IIM रोड पर घैला पुल के पास मेरी खाद-बीज की दुकान है. सुनील ने आपको मेरे बारे में बताया होगा."

"नहीं ! कब मिले थे आप सुनील से और आपकी उससे मुलाकात कैसे है ?"

"उससे अभी महीना भर पहले मिला था और मेरी कोई मुलाकात नहीं है, वह मेरे बेटे-बहू से मिलने आया था."

"महीना भर पहले ? ये कैसे हो सकता है ?"

"क्यों ?" उन्हें कुछ आशङ्का सी होने लगी थी.

"इसलिए सुनील एक दुर्घटना में नहीं रहा. साल भर से कुछ


 ऊपर हुआ है उसे गये,फिर आप उससे महीना भर पहले कैसे मिले हो सकते हैं ?"

"मगर वह मेरी दुकान पर आया था मेरे बेटे-बहू से मिलने. घर भी आया. करीब आधा घण्टा बात हुई. उसी ने मुझे यहाँ का पता बताया और आने को कहा नहीं तो मैं यहाँ कैसे आता और आपको पूछता ? वैसे उसका निधन कैसे हुआ ?"

"वह एक काम से हरदोई जा रहा था कि रास्ते में उसकी कार खराब हो गयी. आस पास कोई मैकेनिक भी नहीं था कि ठीक करा लेता. वह रास्ते में खड़ा हो गया कि किसी से लिफ्ट मांग ले कि हरदोई की तरफ से आती एक कार ने उसे टक्कर मार दी. वह शायद सड़क के बीच में खड़ा होगा. कार वालों ने जाने क्या समझा हो या अचानक सामने जाने से वो हड़बड़ा गये हों - जो भी हो, कार उस पर चढ़ गयी और मौक़े पर ही उसका प्राणान्त हो गया. वह दूसरी कार और उसमें सवार लोग भी बच नहीं पाये. घबरा कर भागते में या टक्कर से डिसबैलेन्स होकर उनकी कार कच्चे में उतर कर एक पेड़ से टकरा गयी और उसके परखच्चे उड़ गये. कार में दो लोग थे, एक लड़का और एक लड़की जो उसकी पत्नी रही होगी. है तो दुखद ही पर भगवान ने शायद तुरन्त इंसाफ कर दिया. जैसी प्रभु की इच्छा, उन तीनों की मौत ऐसे ही लिखी थी. यह 6 जुलाई, 2021 की घटना है."

"6 जुलाई, 2021, ओह !

"वैसे क्या सुनील ही आपके पास आया था ? वह सुनील ही था या कोई और ? मगर कोई और था तो वो आपके पास ही क्यों आया और उसने हमारा नाम पता क्यों बताया ? देखिये, क्या यही आया था आपके पास ?" कहते हुए उन्होंने उनके पीछे, केबिन के दरवाजे के ऊपर, लगी तस्वीर की ओर इशारा करते हुए कहा.

रामजीत जी ने पीछे घूम कर देखा और भय आश्चर्य से उनकी आंखें फैल सी गयीं, वो सर पकड़ कर कुर्सी पर गिर से गये. दीवार पर उसी युवक की माला चढ़ी फोटो टंगी थी जो उनके बेटे-बहू से मिलने आया था.

2 comments:

  1. भाई, बढ़िया रोमांच पैदा किया है इस कहानी में. आप ने शायद पहली बार इस क्षेत्र में हाथ आज़माया है जहां भूत प्रेत से भेंट कराई है. वो कहावत आप पर लागू होती है कि शेर का बच्चा जब पहली बार शिकार करने निकला तभी एक हिरन मार गिराया. बहुत बढ़िया लिखा है क्योंकि कलम के धनी तो आप हैं ही. और लिखिये यूं ही.

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  2. धन्यवाद उत्तम भाई. आपने सराहना की तो माना जायेगा कि कथा में विषय का समुचित निर्वाह हुआ है. पहली बार तो नहीं, इससे पहले भी एक ( लगभग ) भूत कथा है, 'भूत वूत कुछ नहीं होता' जो इस ब्लॉग पर भी है, 04 अगस्त, 2020 को पोस्ट की है. उसे भी फिर से देख जायें.

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