जब मौसम बदलने लगता है तो कई लोगों को कई तरह की बीमारियां पकड़ लेती हैं. कमज़ोर शरीर और कमज़ोर प्रतिरोधक क्षमता वाले लोगों पर तो इन मौसमी बीमारियों का हमला होता ही होता है, अच्छे खासे मज़बूत लोग भी इन बीमारियों की चपेट मे आ जाते हैं. कुछ की बीमारी ठीक हो जाती है, कुछ की नही जाती क्योंकि मौसम तो हर दो महीने बाद बदलता ही रहता है और मौसम का कोई ठिकाना नही कि कब मई मे बरसात हो जाये और जनवरी मे भी गर्मी लगे. तो कुछ लोग एडजस्ट नही हो पाते और परमानेण्ट बीमार ही रहते हैं. आज हम इन्ही बदलते मौसम की बीमारियों पर चर्चा करेंगे
मार्च भी ऐसा ही
बदलता मौसम का महीना है. होली
पर्व का महीना भी है , ठण्ड जा चुकी होती है . दिन मे कड़ी धूप और शाम व रात को ठण्ड.
वसन्त की ओर संक्रमण होता है. लोग तो लोग, नारियल के तेल को भी समझ मे नही आता कि सुबह
जमा हुआ मिले कि पिघला हुआ. रात मे पंखा भी चलाया जाय और मोटा चादर या पतला
कम्बल ( जिसे दुकानदारों ने ए.सी. कम्बल का नाम दे रखा है ) भी ओढ़ा
जाय. ओढ़ने पर गरमी लगे और न ओढ़ने
पर ठण्ड तो उपाय ये निकाला कि एक टांग बाहर करके सन्तुलन बनाया जाय. सुबह नहाने मे गीजर की ज़रूरत और शाम को
आकर सीधे बम्बे के पानी से मुह-हाथ धोते धोते नहा लेना. इन सबमे ठण्ड-गरम से
मुख्यतः खांसी, जुकाम, हरारत वगैरह हो जाती है जो बाद मे दवा लो या न लो, ठीक हो जाती है.
इन सबसे अलग एक और
बीमारी हो जाती है जो पहले तो बैंकियों, बजट / लक्ष्य वाले सरकारी कार्यालयों के
स्टाफ, सरकार आदि को ही होती थी मगर अब प्राईवेट सेक्टर के लोगों और व्यापारी वर्ग
, खास तौर पर ऑफिसों मे सप्लाई करने वाले ठेकेदार / सप्लायर , को भी होती है. यह
बीमारी क्लोजिंग / वार्षिक लेखाबन्दी कहलाती है और इसकी चपेट मे आया मरीज़ मार्च
मरीज़ कहलाता है. क्लोजिंग पूरी तरह बदलते मौसम की बीमारी है , एक वित्तीय वर्ष
समाप्त हो रहा होता है और दूसरा प्रारम्भ हो रहा होता है. यह बीमारी मुख्यतः 10
मार्च से 15 अप्रैल तक चलती है.
मार्च मरीज़ इस
मर्ज़ के असर मे दीन-दुनिया से कट जाता है. वह दोस्तों , शौक़ , परिवार वगैरह सबको
त्याग देता है और पूरी तरह काम मे ऐसा डूब जाता है जैसे आज के बाद दुनिया खत्म हो
रही हो / सारे ऑफिस या संगठन का भार उसी पर हो और उसके ज़रा सा भी काम से दूर होने
पर संस्था खत्म होने वाली हो. उसे इस दौर मे कई ग़लतफमियां हो जाती हैं और यही वो
सुनहरा दौर होता है जब वो पत्नी के फोन या बात को भी मना कर सकता है. वह कहीं
आता-जाता नही, उसे फोन करो तो काट खाता है. त्योहार , शादी-व्याह तक मे शामिल नही
होता और मेरा तो दृढ़ विश्वास है कि उसकी मौत भी आ जाये और यमदूत क्या, साक्षत्
यम भी उसे लेने आये तो उन्हे भी डांट कर भगा दे कि देखते नही, क्लोजिंग चल रही है.
इस समय कुछ नही हो सकता, 15 अप्रैल के बाद आना. पता नही कौन से काम होते हैं जिनके
लिये वह और कोई काम नही करता जबकि क्लोजिंग तो हर साल का काम है , अब तक तो सहज
रूप मे लेने की आदत हो जानी चाहिये थी.
मेरे बहुत से दोस्त
हैं जो इस मर्ज़ मे मुब्तला होने के दौर मे फोन तक नही करते और अगर उन्हे करो तो ,
“... यार क्लोजिंग है, बड़ा बिजी हूँ, फिर बात करना... “ कह कर फोन काट देते हैं.
मैने तो यह भी देखा है कि उधार मांगने वाला भी मार्च मरीज़ होने पर उधार तक नही
मांगता, वापस तो वैसे भी नही करता. ये होली पर भी नही आते और ढीठ बनकर इनके घर जाओ
तो ऐसा व्यवहार करते हैं कि बॉलकनी से फांद पड़ने का जी करता है. क्लोजिंग की आड़
मे ये किसी विवाह वगैरह मे भी नही जाते, हाँ फेसबुक और ऑफिसियल व्हाट्स ऐप ग्रुपों
पर खूब सक्रिय रहते हैं, मार तमाम फोटो भी पोस्ट करते हैं.
मुझे तो ये मार्च
मरीज़ फर्ज़ी / भौकाल बनाने वाले लगते हैं. क्या वो और सब काम नही करते ? दीर्घ
शंका निवारण मे जो दस मिनट से आधा घण्टा तक लगाता है,
क्या वो एक मिनट मे ही हो जाता है ?
दाढ़ी नही बनाता या नहाता नही या प्रेस किये हुए साफ़ – सुथरे कपड़े नही पहनता ?
मैने तो कोई भी मार्च मरीज़ ऐसा नही देखा जिसकी दाढ़ी - बाल बाबा छाप हो गये हों, 10
मार्च से 15 अप्रैल तक वही कपड़े पहने रहा हो, जूते / चप्पल चीकट हो गये हों, फोन
की बैटरी डिस्चार्ज हो गयी हो या रिचार्ज न कराया हो, मार देह से बास आ रही हो या
चाय-नाश्ता, पान-बीड़ी – गुटखा और भोजन त्याग दिया हो या अगर वो नियमित व्यायाम /
योग / पूजा / नमाज़ आदि करता हो तो ये सब छूट गया हो. भई जब ये सब काम हो सकते हैं
तो क्या दिन मे कुछ समय या रात का समय अपने, परिवार, शौक़ या दोस्तों के लिये न
निकाल सकता हो – ज़रूर निकाल सकता है मगर क्लोजिंग का हौवा खड़ा करता है. जिनका
कोई अल्ल्ल्लेले मेला छोना, बाबू या बेबी होता है वो उसके लिये भी टाईम निकालते ही
हैं – क्लोजिंग तो हर साल आनी है, इस वज़ह से ब्रेक अप हुआ तो लानत है.
मै अपनी ही बताता
हूँ. तेरह साल ऐसे विभाग मे रहा जहाँ सर्किल भर की क्लोजिंग होती थी, मतलब कि बैंक शाखा वाले मार अपनी एक शाखा की
क्लोजिंग में सती रहते हैं, हम ( हम मतलब मैं नहीं, भरपूर स्टाफ था और
प्रतिनियुक्ति पर भी लोग बुलाये जाते थे ) करीब आठ सौ शाखाओं की क्लोजिंग रिटर्न्स
को जाँचते, सुधारते और समेकित करते थे. बिटिया के व्याह जैसा होता था. मै तब लिपिक वर्ग
मे था मगर क्लोजिंग मे काम और ज़िम्मेदारी होती थी. उस दौर मे न क्लोजिंग मे
कोताही की, न गंज टहलने और फ़िल्मादि देखने में, न परिवार व
दोस्तों को समय देने मे और न अपने शौक़ को. कोई कार्यक्रम होता था, जो अमूमन शाम
को ही होता है, तो अटेण्ड करके फिर ऑफिस आ जाता था. कभी ऐसा रोना नही रोया.
यह तो तब की बात थी
जब अपने गृह नगर, लखनऊ, मे तैनाती थी. जब अधिकारी हुआ तो बहुत जगह स्वतन्त्र
प्रभार भी रहा और आधीन भी रहा मगर वहां भी कुछ छूटा नही. जब मै धौलादेवी मे तैनात
था (1999 से 2003 तक) तब 31 मार्च को दोस्तों को लम्बे पत्र लिखे ( तब
मोबाईल की पैठ वहां हुई न थी, इण्टरनेट था नही तो ई मेल का भी ज़माना न था ) – यह
बताने के लिये कि क्लोजिंग कोई हौवा नही, इस दौरान भी सारे कार्य किये जा सकते
हैं. किताबें पढ़ना भी ज़ारी रहा जो अब भी ज़ारी है बल्कि अब तो तमाम रैबार और
फैला लिया है.
यह सब कहना उन
दोस्तों के लिये है जो मार्च मरीज़ हो जाते हैं और कहते हैं कि क्लोजिंग के दौरान
और कुछ किया नही जा सकता – बस एक या डेढ़ घण्टा निकालिये, जा नही सकते तो फोन से
सम्पर्क मे रहें – आप भी फ्रेश रहेंगे और रिश्ते भी.
इस बदलते मौसम की
बीमारी की तरह एक मौसमी बीमारी भी होती है जिसके लक्षण यही होते हैं – वह मौसम
होता है ऑडिट का. इस समय भी यही सब होता है. कुछ और न कह कर मै तीन उदाहरण दे रहा
हूँ – दो अपने और एक दूसरे सहकर्मी का.
मै जहां भी रहा,
ज़िम्मेदारी के पद पर रहा. जो काम / लक्ष्य पूरे न हो सके / कम हो / ग़लत हो – उसके लिये मै ज़िम्मेदार रहा और जो हो जाये
– उसमे मैने क्या किया, ये तो रनिंग बिजनेस है, वैसे भी आता ही आता ! तो एक बार लखनऊ तैनाती के दौरान ऑडिट था और मै सबके लिये ज़िम्मेदार था,
सबसे वांछित अभिलेख लेकर, ऑडिटरानुकूल होने का प्रयास करके समय पर ऑडिटर के समक्ष
प्रस्तुत करना – यूँ कहें कि ऑडिट कराना था. इसमें मेरे एक सहयोगी भी थे जो कार्य
के प्रति मुझसे अधिक गम्भीर और सक्षम थे. अकस्मात् मुझे इत्तू सा हार्ट अटैक आया ( मेरा
पहला था तो वही बड़ा था ) मै तीन दिन ICCU मे और फिर सामान्य वार्ड मे भरती रहा.
जब ज्वाईन किया तो ऑडिट सम्पन्न हो चुका था. तो संदेश ये कि क्या किसी के बगैर कुछ
रुकता है जो आप जान दिये और सब छोड़े रहते हैं. ( ग़ालिब ए ख़स्ता के बगैर
कौन से काम बन्द हैं … ) अच्छा
व्यवहार भी काम आता हैं. ऑडिट मे मेरे बराबर के घनिष्ठ सहयोगी, राम स्वरूप जी – ने
खूब अच्छी तरह सब संभाल लिया.
दूसरा वाकया अभी का
है. अक्टूबर 2016 मे मेरी शाखा ( लौड़ी, मध्य प्रदेश ) मे ऑडिट
आया. ऑडिट चल ही रहा था कि मेरा तबादला हो गया और पता नही दूसरी जगह मेरी ऐसी क्या
ज़रूरत थी ऑडिट खत्म होने का इन्तेज़ार और प्रतिस्थानी आने के बगैर मुझे अवमुक्त भी कर दिया गया. यह और बात है कि दूसरी जगह, (दमोह,
मध्य प्रदेश ) मैने अवमुक्ति के बीस दिन बाद ज्वाईन किया. ऑडिट मेरे बगैर भी
सम्पन्न हुआ. हे मित्रों, रघु, दिलीप आदि नृप चले गये, राम और कृष्ण भी गये, गांधी
– नेहरू भी गये , तमाम लोग गये मगर ये दुनिया अभी भी मज़े मे चल रही है तो आप इस
दुनिया के लिये अपनी दुनिया क्यों छोड़ देते हैं ?
मेरे उदाहरणों के
बाद तीसरा भी है. मेरे एक सहकर्मी रिटायर हो गये थे. चँदला , मध्य प्रदेश मे वे तैनात थे और स्थानीय नही बल्कि नागपुर के
थे. उनकी शाखा मे रिटायरमेण्ट के बाद ऑडिट आना था, वे अनुरोध करके ( नियन्त्रक का
कोई अनुरोध/ आदेश / निर्देश नही था – वे ऐसा कोई आदेश दे भी नही सकते थे ) रिटायर
होने के बाद भी रुके और ऑडिट कराया. इसका उन्हे कोई तमगा , कोई प्रशस्ति पत्र नही
मिला, किसी ने उनकी तारीफ़ नही की बल्कि शाखा, ऑडिटर और नियन्त्रक कार्यालय का
कहना था कि इन्होने और गुड़ गोबर कर दिया. मेरे हिसाब से तो यह संगठन के लिये
निष्ठा नही, घोर चूतियापा ( इस शब्द के प्रयोग के लिये क्षमा करें किन्तु इससे
उपयुक्त शब्द मिल नही रहा ) था.
तो मित्रों ! यह
क्लोजिंग / ऑडिट का मर्ज़ व वर्कोहॉलिक होना एक रोग ही है – निष्ठा नही और इसका
कोई इलाज नही, सिर्फ़ परहेज़ ( जो मैने बरते व बताये ) ही इलाज है.
मार्च और क्लोजिंग का ही दौर है, कैसे हो मार्च मरीज़ों !
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