लोक के कबीर
पहली भिक्षा अन्न की लाना, गाँव नगरिया
पास न जाना।
हिन्दू तुर्की छोड़ के लाना, लाना झोली
भर के ॥
दूजी भिक्षा मांस की लाना, जीव जन्तु
के पास न जाना ।
जिन्दा मुर्दा छोड़ के लाना, लाना खप्पर
भर के ॥
तीजी भिक्षा जल की लाना, कुआँ-बावड़ी
पास न जाना ।
ताल-तलैया छोड़ के लाना, लना तूँबी भर
के ॥
चौथी भिक्षा लकड़ी लाना, रूख वृक्ष के
पास न जाना ।
गीली-सूखी छोड़ के लाना, लाना गठ्ठर
भर के ॥
कहत कबीर सुनो भई साधो, ये पद तो निरवाना
।
इस पद का जो अर्थ करेगा, वो है चतुर
सुजाना ॥
अभी दो-तीन दिन पहले यह पद मेरी नज़र
से गुज़रा, इसमें कहत कबीर सुनो भई साधो था, इससे लगता था कि यह पद कबीर का है किन्तु
यह कबीर का है नही ! पञ्चों की सम्मति के आशय से इसे आपके समक्ष रखा और लगभग सभी ने
सम्मति दी कि ये पद कबीर का नही है. अब मुझे क्यों लगा कि ये पद कबीर का नही है और
कैसे ऐसे बहुत से पद कबीर के नाम से लोक में चल रहे हैं – इस पर कुछ कहने से पहले इस
पद का शब्दार्थ ( जो कि स्पष्ट ही है ) और गूढ़ार्थ बता कर ‘चतुर सुजाना’ बन लूँ. वैसे
तो इस पोस्ट पर आने वालो में अधिकांश को पता ही होगा किन्तु एक-आध मित्र हो सकते हैं
जिन्हे गूढ़ार्थ न मालूम हो – अर्थ बताने को मेरी प्रगल्भता न मानें, उन्ही एक-आध मित्रों
के लिए अर्थ प्रस्तुत है.
एक जोगी अपने शिष्य को भिक्षा लेने के लिए भेज रहा है और शिष्य के गूढ़ार्थ बोध की परीक्षा लेने के आशय से सीधे-सीधे यह नही बता कि भिक्षा में क्या लाना है बल्कि कहता है, भिक्षा में अन्न लाना कि
न्तु हिन्दू-मुसलमान ( मतलब किसी भी व्यक्ति ) से न लाना और किसी गाँव-नगर में भी न जाना और झोली भर के लाना. दूसरी विशेषता बताते हैं कि मांस लाना किन्तु जीव-जन्तु या ज़िन्दा-मुर्दा का मांस न हो और खप्पर भर के लाना. तीसरी बात जल लाना किन्तु कुआँ-बावड़ी, ताल-तलैया से मत लाना और तूंबी भर के लाना. चौथी बात कि लकड़ी लाना किन्तु किसी वृक्ष से न लाना, गीली-सूखी न हो और गठ्ठर भर हो. गुरूजी (इस पद में कबीर) ने कहा यह निर्वाण का पद है और जो इसका अर्थ बतावे वो चतुर सुजान है.
अब चेला भी ऐसे गुरूओं की संगत
में बहुत रहा होगा, ऐसी अटपटी / गूढ़ संकेतों वाली बातें खूब सुनी-गुनी होंगी सो वह
भिक्षा में एक ऐसी वस्तु लेकर आया जिसमें चारों शर्तें पूरी हो गयीं – वह भिक्षा थी
नारियल.
नारियल की गिरी / गरी को अन्न भी कहा गया है, भूख मिटाता है और यह किसी की रसोई
में नही बनता सो पहली शर्त पूरी हो गयी. फलों के गूदे को मांस भी कहा जाता है. वाल्मीकि
रामायण सहित कई जगह मांस का उल्लेख है, वनवास मे राम लक्ष्मण से मांस लाने को कहते
हैं और वे गूदेदार फल लाते हैं. मांस को लोक भाषा में गूदा भी कहते हैं ( पहले तो सूखे
हाड़ थे, अब कुछ गूदा चढ़ा है हड्डियों पर. मांसल शरीर को गुदाज भी कहते हैं सो गूदा
और मांस पर्यायवची के रूप में लोक में प्रचलित और स्वीकार्य रहे हैं ) तो नारियल में
गूदा है और यह किसी जीव-जन्तु का नही. नारियल में पानी होता है सो जल भी हो गया और
कुआँ-बावड़ी आदि किसी स्रोत का नही. नारियल का खोपरा लकड़ी ही है. खप्पर भी है और जलावन
भी. गुरुजी एक शर्त जोड़ना भूल गये – बाल / जटा लाने की अन्यथा नारियल के रेशे बाल
/ जटा भी कहे जाते हैं. इस तरह “चतुर सुजान” चेले ने एक फल लाकर गुरु जी की सारी शर्तें
पूरी कर दीं.
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अब आते हैं इस पर कि क्यों मुझे लगा
कि यह पद कबीर का नही हो सकता. कबीर ने उलटबांसी खूब कही हैं किन्तु उनके हर पद में
भक्ति, अध्यात्म या पाखण्डों का विरोध है या दैनिक जीवन में काम आने वली नीतियां, सद्वचन
हैं – पहेलियाँ नहीं. यह पद तो केवल पहेली है और पहेली भी गाँव-जवार में खूब बूझी जाने वाली.
न इसमें ( पूछने और बूझने ) धर्म है, न अध्यात्म,
न कोई दर्शन , न लोकहित की कोई बात और न ही कुरीतियों / पाखण्ड पर प्रहार. यह उन पहेलियों
से तनिक भी अलग नही ( ‘कोई लावे ऐसा नर, पीर बावर्ची भिश्ती खर’ टाइप की ) जो बड़े-बूढ़े
बच्चों से बुझाया करते थे. ये विशुद्ध मनोरंजन के लिए है.
अब ये पहेली है तो इसे ऐसा क्यों बनाया
गया कि कबीर की लगे. गुरु-चेला, भिक्षा आदि जोड़ा और तब भी कमी लगी तो कहत कबीर
सुनो भई साधो भी लगा दिया . कबीर लोक
चेतना के कवि हैं, उनकी सधुक्कड़ी भाषा, खरी बात और साधो या संतों को सम्बोधित करके
बात करना लोक को बहुत रुचा. इनके पदों में भक्ति का वो स्वरूप न था जिसे लोक अन्य भक्त
कवियों की रचना में पाता था. भक्त कवि या अन्य कवि जन की बात नही कहते थे, वे राम या
कृष्ण आदि का लीला गान करते या महिमा का. अन्य कवि श्रंगारी थे या विरदावलियां गाते
थे. जन की समस्या या साधारण जन की बात, उससे उसी की भाषा मे बात न थी. समाज में अनेक
भेद, छुआछूत और पाखण्ड व्याप्त थे. कबीर ने अपनी कविता में इन सब पर बात की, पण्डित-मुल्ला
दोनों को खरी-खरी सुनाई और पाखण्डों पर तार्किक चोट की तो कबीर जन - जन में गाये-सराहे
जाने लगे. हर वो साधु, जोगी या फकीर जो उनकी तरह बात करता था – कबीर जैसा स्वीकार्य
हो गया. कबीर एक व्यक्ति न रह कर एक शैली हो गये. जो कबीरी बात करे सो कबीर. कबीर को
लोक ने अपनाया तो अनेक लोक के कबीर हो गये और उनकी रचनाएं कबीर
का नाम धारें कही-सुनी जाने लगीं और कबीर के नाम से प्रचलित होती रहीं. बात कबीर जैसी
थी तो पद भी कबीर का हो गया. उसमें कबीर का नाम, कहत कबीर या कबिरा
लगा दिया गया गया कबीर जैसा होने के कारण. लोक को इस मीमांसा से मतलब न रहा कि यह कबीर
की है या नही – वो तो इसी में मगन कि कबीर जैसी बात है तो कबीर की है. यह अन्य काव्य
में क्षेपक य प्रक्षिप्त जैसा न था, इसका उद्देश्य कबीर के काव्य को दूषित करना न था,
अन्य कोई निहितार्थ भी समझ नही आते. यह सब साधु / जोगी / फकीर – जो कबीर जैसा गाते
और पदों में कबीर का नाम लगाते - लोक के
कबीर थे.
ऐसे ही लोक के कबीर का एक पद देखें.
कबीर का नही है, मालूम नही किसका है पर कबीर के नाम से प्रचलित है –
आज बसैं सबरी घर रामा ।
सबरी राम का आवत जानैं, चन्दन से लिपवावावैं
धामा ।
गंगा ते सबरी जल भरि लावैं, तखत बैठि
परभू करैं असनाना ।
बैरी-मकोइया परभू भोग लगावैं, अवर नहीं
सबरी घर सामा ।
कुस कै गुदरी सबरी बिछावैं, लोटि-लोटि
परभू करै विसरामा ।
कहत कबीर सुनौ भई साधो, सुफल भयो यहि
सबरी के जामा ।
(अवधी के अध्येता, अमरेन्द्र अवधिया,
ने ‘नवभारत टाइम्स” में “गलचउरा” कॉलम में ‘सबरी के राम’ शीर्षक से आलेख दिया है, उसी
में यह पद है)
लोक में कबीर के अलावा भी भिन्न पद
कबीर लोक में गये तो अनेक पद कबीर के
नाम से प्रचलित हो गये किन्तु बहुतेरे पद ऐसे हैं जो कबीर के विभिन्न संकलनों में अलग-अलग
रूप में हैं और रूपक भी अलग बांधा गया है. अब कबीर ने तो कोई संकलन किया नही. पद गाते
रहे और शिष्य उन्हे संकलित करते रहे. पहले श्रुति और स्मरण से कि जो सुना वह याद रह
गया और सुनाते रहे . औरों ने भी सुना और सुनाते रहे. इस तरह चार से चालीस लोगों के
बीच तैरते पदों में से किसी ने कितना पकड़ा, कितना छोद़ा और कितना अपने पास से मिलाया
– कहना मुश्किल है. बहरहाल वो सारे पद कुछ या बहुत कुछ अन्तर के साथ भी कबीर के ही
माने जायेंगे.
कबीर के कोई सौ साल बाद जब कबीरपंथ की
स्थापना हुई तो एक विशिष्ट पोथी की ज़रूरत महसूस हुई. भक्ति के लोकवृत्त में प्रचलित
कबीर रचनाओं मे से चयन करके पोथी तैयार हुई. दादूपंथी और निरंजनपंथियों ने बहुत सी
कबीर रचनाओं को छोड़ दिया जिनमें कोई दोष जज़र आया ( जैसे ‘मुगल’ शब्द का प्रयोग –
यह कालक्रम दोष माना गया ) बीजक के संकलनकर्ताओं ने बहुत से ऐसे पद छोड़ दिये जो उनके
पंथ द्वारा विकसित समझ के विपरीत थे. सम्भवतः यही कारण है कि 1570 से 1681 के बीच कबीर
के माने जा चुके 593 पदों में से 32 ही बीजक में मिलते हैं.
कबीरर्पंथियों ने अपनी ज़रूरत के मुताबिक
कबीर-वाणी का पाठ अपने लिए तय कर लिया. दादूपंथी पाठ पंथ के लिए उलझन पैदा करता था
सो उन्होने बीजक को अपने व्यवहार के लिए माना और इसे रेखांकित करने के लिए कहा, “संतो,
बीजक मत परमाना” बीजक कबीर की सभी रचनाओं का संकलन नही बल्कि चुनी हुई रचनाओं
का संकलन है – ‘कलेक्टेड वर्क’ नही ‘सिलेक्टेड वर्क’ यही कारण है कि बीजक, ग्रन्थावली
और अन्यत्र बिखरे पदों में बहुत अन्तर पाया जाता है.
बात बहुत लम्बी हो रही है, जिस विवेचना
को विद्वानों ने किताबों मे समेटा उसे एक फेसबुक पोस्ट मे कैसे समेटा जा सकता है इसलिये
एक पद प्रस्तुत कर रहा हूँ जो बीजक ( शुकदेव द्वारा सम्पादित संस्करण ) में अलग है और ग्रन्थावली ( माताप्रसाद गुप्त द्वारा
सम्पादित ग्रन्थावली ) में अलग, यहां तक कि रूपक भी बदल दिया गया है.
कबीर ग्रन्थावली में पद इस रूप में है
–
हरि मेरा पीव भाई, हरि मेरा पीव,
हरि बिन रहि न सकै मेरा जीव ।
हरि मेरा पीव, मै हरि की बहुरिया । राम
बड़े मैं छटुक लहुरिया ।।
किया स्यंगार मिलन के ताई । काहे न मिलो
राजा राम गुसांई ॥
अब की बेर मिलन जो पाऊँ । कहै कबीर भौ
जल नहि आऊँ ॥
ग्रन्थावली में इस पद मे दाम्पत्य-प्रेम का रूपक है तो ‘बीजक’ में ‘कातने’ का
रूपक कर दिया गया है –
हरि मोरा पीव मैं राम की बहुरिया, राम
मोर बड़ो मैं तन की लहुरिया ।
हरि मोर रहटा मैं रतन पिउरिया, हरि को
नाम लै मैं कतती बहुरिया ।
मास तागा बरस दिन कुकरी, लोग कहैं भल
कातन बपुरी ।
कहै कबीर सूत भल काता, चरखा न होय मुक्ति
कर दाता ।
( बीजक और ग्रन्थावली में पदों के भेद
की सामग्री पुरुषोत्तम अग्रवाल की किताब “अकथ कहानी प्रेम की” से ली गयी है. किताब
राजकमल प्रकाशन से है और इसे पहला राजकमल प्रकाशन कृति सम्मान, ‘ कबीर हजारी प्रसाद
द्विवेदी पुरस्कार 2009’ से पुरस्कृत किया गया है.
इसके अलावा पाठ्य पुस्तकों में, “हरि मोर पिव मैं हरि की बहुरिया” या “ राम
मोर पिव मैं राम की बहुरिया” के रूप में मिलता है. गुरु ग्रन्थ साहब में कबीर के पद
भी हैं, हो सकता है उसमें किसी भिन्न रूप मे हों. तो मित्रों, कबीर के भिन्न-भिन्न
पाठ हैं विभिन्न कारणों से जिनमें भिन्नता मिलती है, इसके अलावा लोक के
कबीर तो हैं ही.
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