बूट ( हरा चना ) व काका हाथरसी की कविता ‘चना-चीत्कार’
पिछले दिनों लाये - हरा चना ! वैसे इसे बूट भी कहते हैं. कच्चे और कोमल हरे चने का स्वाद ही और होता है.
चना के पौधों में जब बूटे (फलियां) नहीं आये होते हैं, पत्तियां कोमल होती हैं, डंठल कड़े नहीं हुए होते, तब इसे साग के रूप में लहसुन-मिर्चा के नमक के साथ कच्चा खाते हैं. खट्टा सा स्वाद होता है. बचपन में छत पर घमाते हुए खूब चने का साग खाया. हमारे बचपन में चना का साग खूब बिकने आता था, निकटवर्ती
गाँवों से लोग डलिया में या साईकिल पर रख कर बेचने आते थे, बाज़ार में सब्ज़ी वालों के
पास तो मिल ही जाता था. अब साग कभी दिख गया तो दिख गया.
इन्हीं पौधों में बूटे आ जाने पर उसे बूट कहते हैं. इसके हरे चने खाये जाते हैं. पॉश इलाकों में तो यह शायद ही मिलता
हो, गाँव से लगी बाज़ारों, सब्ज़ी मण्डी आदि में मिल जाता है. हमारी तरफ, जानकीपुरम में,
खूब मिलता है. इधर कुछ सालों से इसे छील कर हरे चने बेचने का चलन भी है. परिवर्तन चौक
वाले हिस्से के पास पुल के फुटपाथ पर कई दुकानें हैं जिनमें हरा चना मिलता है. जिनके
पास छीलने का समय नहीं या घर ले जाकर छीलने का झञ्झट नहीं करना चाहते किन्तु खाना चाहते
हैं, वे इन्हें ले सकते हैं. हम तो सीजन में कम से कम एक बार तो लाते ही हैं मगर हम
छिले हुए नहीं बल्कि बूट ( पत्तों, डण्ठल समेत. झाड़ – जिसकी फोटो लगायी है) लाते हैं.
हमें तो आनन्द छील कर खाने में आता है.
इसके थोड़ा सूखने पर बूटे व उसमें के चने कड़े होने लगते
हैं तब इसे आग में भून कर खाते हैं जिसे होरा/होरहा कहते हैं. शहरों में प्रथम दो अवस्थाओं में तो मिल भी जाता है, होरा दुर्लभ सा ही है. लौड़ी तैनाती के दौरान खूब होरा खाया. होरा पार्टी होती थी जिसमें होरा के साथ अन्य ग्रामीण व्यञ्जन होते थे.
बूट खाते हुए बचपन में पढ़ी काका हाथरसी
की कविता ‘चना-चीत्कार’ याद हो आयी. उसमें अन्नकूट दरबार लगा, सभी अनाजों के बाद चने
ने अपनी व्यथा सुनायी. इतने मज़ेदार – चटपटे और मीठे व्यञ्जन कि प्रभु के मुहँ में भी
पानी आ गया. कविता है ही इतनी मज़ेदार कि उसका कथ्य और आंशिक रूप से अब तक याद है. अब
पूरी तो याद नहीं और वह किताब है नहीं तो नेट की शरण में गया. कविता तो मिल गयी किंतु
कहीँ-कहीं वर्तनी से लेकर अन्य अशुद्धियां थीं, कुछ शब्द मिसिंग थे तो कुछ दूसरे ही
थे जिनकी संगती कविता से नहीं बैठ रही थी. यथामति सुधार करने के उपरान्त प्रस्तुत कर
रहा हूँ. कुछ अशुद्धि हो और जिन्होंने कविता पढ़ी हो और सही याद हो या किताब हो – कृपया
सुधार बता दें, पोस्ट में संशोधन कर दूँगा. फिलहाल, जैसी है, आनन्द लें ‘चना-चीत्कार’
का.
अन्नकूट
के दिन लगा, दीनबन्धु दरबार,
अन्नदेव
क्यू मे लगे, मूंग, बाजरा, ज्वार।
मूंग,
बाजरा, ज्वार, चना, जौ, अरहर, मक्का
चावल
घायल हो गया, दिया गेहूँ ने धक्का।
मोठ
हुई घायल, उरद
जी बचकर भागे,
चटर्-पटर
कर मटर बढ़ गयी सबसे आगे।
सभी
केस सैटिल हुए, रहा एक ही शेष,
कृपसिंधु
ने अंत में, लिया चने का केस।
लिया
चने का केस, बिचारा खड़ा रो रहा,
भगवन
! मुझ पर भारी अत्याचार हो रहा।
बड़े-बड़े
ग्यानी-ध्यानी भी मुझे
सताते,
काट-पीस
कर अलग-अलग व्यञ्जन बनाते।
इंसान
की तो क्या चली, नहीं बचे हैं आप,
चने
बने व्यञ्जन प्रभु, खा जाते चुपचाप।
खा
जाते चुपचाप, सलोना सोहनहलुआ,
दालसेव,
नुकती, ढोली, बेसन
के लडुआ।
होले
– छोले - सत्तू औ परावठे मिस्से,
रक्षक
ही भक्षक हैं,फरियाद करूँ फिर किससे ?
मेरा
बुरा है हाल, दिया चक्की मे डाल,
फिर
पीसा मुझे तो, बनी चने की दाल।
बनी
चने की दाल, फिर से मुझको पीसा,
पीड़ा
से चिल्लाया, मिमियाया बकरी सा।
फिर
भी बेदर्दी इंसान को दया न आयी,
गरम
तेल में तला, पकौड़े कुगत बनायी।
मुझे
भाड़ में भून कर चिल्लाते
मक्कार,
चने
खाईये
कुरमुरे,
गरम
मसालेदार।
गरम
मसालेदार प्रभु सुधि
भूले तन की,
सुनी
करुण यह कथा, लार टपकी भगवन की।
छोड़
यह मीठी बातें, स्वाद आ रहा मुझको,
भाग
यहाँ से अन्यथा खा
जाऊँगा तुझको।