जब पढ़ते थे तब मित्र मण्डली में कई ऐसे लोग थे जिनसे हमारी मित्रता किताबों के कारण हुई. सभी बेरोजगार, लगभग समान आर्थिक स्थिति के और विकट पढ़ाकू. अकादमिक नहीं, जासूसी उपन्यास के लती. पैसे सबके पास मतलब भर से कम होते थे, पेट्रोल का खर्चा न था काहे से सब साईकिल वाले थे. कुछ के पास तो साईकिल भी नहीं. तब किराए पर साईकिल खूब मिलती थी और डबल-तिबल सवारी वाली साईकिल खूब दिखती थीं. किताबें भी किराए पर मिलती थीं, किराया चौबीस घण्टे का चार्ज होता था भले किताब तीन घण्टे में निपटा दें. हम सब ऐसे ही थे कि खाना, घर का काम, स्कूल का होम वर्क आदि करते हुए चार-पाँच घण्टे में निपटा देते थे, बिना व्यावधान के लग कर पढ़ें तो दो ही घण्टे में. उसके बाद आपस में किताब बदलना होता था तो बैठकी भी जमती थी. उसी दौर में हमारी मित्र मण्डली में शामिल हुए एक शुक्ला जी (पूरा नाम अब याद नहीं आ रहा ) वे भी विकट 'पढ़ाकू'. गाँव से लखनऊ भेजे गये थे पढ़ने के लिए. हम अमानीगंज चौराहा, अमीनाबाद में रहते थे और वे घर के पास, जूते वाली गली में कमरा लेकर रहते थे. तब एक दो किलोमीटर भी घर के पास ही होता था. उनका कमरा कॉर्नर का था, ऊपर का था, नीचे एक दुकान थी. जीना अलग, मकान मालिक रहता न था तो मण्डली जमाने के लिए आदर्श स्थान था. बड़े बातूनी, लफाड़िया और हद दर्ज़े के मुरहे. अमीनाबाद में रहने तक खूब दोस्ती रही, लगभग रोज ही मिलना-बैठना होता था, किताबें अदला-बदली होतीं और बैठकी होती. फिर हम अमीनाबाद से दूर अलीगंज में रहने लगे तो उधर के ही हो गये. आना-जाना तो रहा पर अड्डेबाज़ी का समय न रहा तो दोस्ती भी रोज की न रही.
अमीनाबाद के ही दौरान श्रीमती जी की एक सहेली बनी. वह डांस टीचर थी, नाटक व दूरदर्शन की कलाकार थी, बाद में फ़िल्मों में गयी. हम तब अलीगंज में रहते थे.
उसकी कुछ पारिवारिक और प्रेम प्रसङ्ग सम्बन्धी समस्याएँ थीं. उसने पूजा-पाठ, तन्त्र-मन्त्र का भी सहारा लिया. उसे पता चला कि एक देवी उपासक हैं, सिद्ध पुरुष हैं और उनका किया धरा कभी खाली नहीं जाता. जूते वाली गली में उनका देवी पीठ है, वहीं बैठते हैं. उसने मुझसे साथ चलने को कहा. मुझे आश्चर्य और कौतूहल हुआ कि जूता वाली गली में कौन सा सिद्ध पीठ और सिद्ध पुरुष है जिसके बारे में हमें नहीं मालूम ! बताशे वाली गली में ज़रूर एक प्रकाण्ड ज्योतिषी हैं, साधारण लोगों की उनके यहाँ पैठ नहीं, धनी-मानी ही आते हैं किन्तु वे करने-धरने का काम नहीं करते. हमने उनकी बैठक बाहर से ही देखी, तब AC वगैरह का चलन न था तो गर्मी में बैठक का दरवाज़ा खुला रहता था, आते-जाते थोड़ा जलवा होता था. जूता वाली गली में तो ऐसा कोई न था, ये नये उगे होंगे. इन सब पर विश्वास तब भी न था तो कौतूहलवश साथ गया कि देखें कौन है, कहाँ है, बतर्ज़ 'मेरे हुज़ूर', 'लखनऊ की कौन सी ऐसी फिरदौस है जिसे हम नहीं जानते!' जब उसी कमरे के नीचे पहुँचे जिसमें हम लोगों की बैठकी जमती थी और उसने बताया कि ऊपर बैठते हैं तब भी कोई अन्देशा न हुआ, सोचा कि वह खाली कर गया होगा और यहाँ कोई धन्धेबाज आ गया होगा. जब ऊपर पहुँचे तो देवी माँ का दरबार सजा था, कमरे में धूप अगरु का धुंआ भरा था और एक आसन पर वही लफाड़िया दोस्त बैठा था, बाबोचित धज में. अब उसने तो श्रद्धापूर्वक माथा टेक कर प्रणाम किया और 'सिद्धपुरुष' का चेहरा मुझे देख कर फक ! वह डर रहा होगा कि कहीं पहले वाले लहजे में अबे- तबे से सम्बोधित न करूँ. मैंने भी आँखों और हाथ के इशारे से आश्वस्त किया. हम दोनों ने ही आपसी परिचय प्रकट न किया और न बाद में मैंने उसको बताया. उसका विश्वास डगमगा सकता था, वह बड़े विश्वास से आयी थी. ख़ैर, बाद में उसकी उसी लड़के से शादी हुई .घर वाले दोनों के नहीं माने तो हम दोनों ने आर्य समाज से उनकी शादी करायी. अब पता नहीं निरन्तर चलते प्रेम प्रसङ्ग, घनिष्ठों के दबाव, न इनको और न उनको ठौर के कारण प्रेम परिणिति शादी में हुई या उनके अनुष्ठान/कराने-धराने से, बहरहाल हो गयी. उनकी श्रद्धालु संख्या में निश्चित ही वृद्धि हुई होगी, ऐसे कार्य व्यापार ओरल पब्लिसिटी पर चलते हैं.
बाद में मैं अकेले 'सिद्ध पुरुष' से मिला. तब कोई ग्राहक न था तो पुराने अन्दाज़ से बातें हुई. उसने बताया कि पढ़ाई में मन लग न रहा था, कोई फायदा न था. ट्यूशन कर रहा था मगर उससे कब तक काम चलता. नौकरी मिलती न तो यह शुरू कर दिया. देवी जी की कृपा से काम अच्छा चल रहा है, कुछ लोगों का काम बन जाता है तो वे कन्वेन्सिंग करते हैं. कोई बन्दिश नहीं और नौकरी वालों से अच्छा कमा रहा हूँ.
उसके बाद उससे मिलना न हुआ मगर फल फूल ही रहा होगा.
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