“ पुनि प्रभु हरषि सत्रुहन भेंटे ह्रदयँ लगाइ ।
लछिमन भरत
मिले तब परम प्रेम दोउ भाइ ॥
भरतानुज लछिमन पुनि भेंटे । दुसह बिरह
संभव दुख मेटे ॥… “
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उत्तरकाण्ड/ ५/१
श्रीरामचरित मानस के उत्तरकाण्ड का प्रसङ्ग है. राम, लक्ष्मण, सीता मुख्य-मुख्य वानर-भालु वीरों व विभीषण के साथ अयोध्या वापस आ गये हैं, वे नंदीग्राम जाकर भरत-शत्रुघ्न से भेंट करते हैं. गोस्वामी जी कहते हैं कि फिर, अर्थात भरत जी से मिल चुकने के बाद प्रभु श्रीराम ने हर्षित होकर शत्रुघ्न को ह्रदय से लगा कर भेंट की और लक्ष्मण भरत दोनों भाई बहुत प्रेम से मिले.
फिर उसके बाद लक्ष्मण ने भरत के भाई अर्थात शत्रुघ्न से मिल कर दुसह विरह से जो सुख हुआ था, उसे मिटाया. मिल कर विरह का दुख दूर हो गया.
यहाँ एक बात की ओर ध्यान गया. शत्रुघ्न से राम जी भी मिले और लक्ष्मण जी भी. जब प्रभु राम उनसे मिले तो गोस्वामी जी ने उनका नाम बताया, कहा ‘हरषि सत्रुहन भेंटे’ किंतु जब लक्ष्मण जी उनसे मिले तो नाम नहीं लिया. यह नहीं कहा कि लक्ष्मण शत्रुघ्न से मिले बल्कि यह कहा कि भरत के भाई से मिले, ‘भरतानुज लछिमन पुनि भेंटे’ ऐसा क्यों ! शत्रुघ्न को ‘भरतानुज’ क्यों कहा ! लक्ष्मण और शत्रुघ्न तो सगे भाई थे, दोनों सुमित्रानन्दन थे. भरत कैकेयी के और राम कौशल्या के थे. गोस्वामी जी नाम भी ले सकते थे कि लक्ष्मण शत्रुघ्न से मिले, जैसा सबके भेंट करते में कहा, अपने सगे भाई, ‘निज भ्राता’ से मिले भी कह सकते थे, उन्हें भरतानुज क्यों कहा ?
एक शब्द के, नाम के कई पर्यायवाची होते हैं, अनेक विशेषण होते हैं, अनेक सर्वनाम हो सकते हैं. उपयुक्त / विशेष मन्तव्य को व्यक्त करने वाले शब्द का प्रयोग करना कवि की विशेषता है, उस शब्द के, उस स्थान पर प्रयोग के मन्तव्य को बताता है. तुलसी भक्त ही नहीं, सिद्ध कवि थे. यहाँ शत्रुघ्न को भरतानुज कहना उनकी एक विशेषता, चारीत्रिक गुण को बताता है. वे प्रारम्भ से ही अपने सगे भाई लक्ष्मण की अपेक्षा भरत के साथ रहे, जैसे कि लक्ष्मण राम के साथ रहे. नाम युग्म का उच्चारण करते समय राम-लक्ष्मण, भरत-शत्रुघ्न कहा जाता है, राम, भरत, लक्ष्मण-शत्रुघ्न नहीं. राम के साथ लक्ष्मण विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा के लिए गये तो बाद में भरत के साथ शत्रुघ्न ननिहाल गए. लक्ष्मण का लगाव राम से अधिक था तो शत्रुघ्न का भरत से. वनवास के बाद जब भरत-शत्रुघ्न सेना और तीनों माताओं सहित राम को वापस लौटाने के लिए वन गए और राम ने नानाविधि समझा कर वापस लौटने से मना कर दिया तो वे राम जी की चरणपपादुकाएँ लेकर लौट आए. उन्हें सिंहासन पर स्थापित करके राजा बनाया और स्वयं नन्दिगग्राम में मुनिवेश और वैसी ही जीवनशैली में कुटी में रहने लगे जैसे राम रहते थे. शत्रुघ्न अयोध्या में रह कर भरत जी की सम्माति से राज काज का निर्वाह करते रहे. वे लक्ष्मण से अधिक भरत के भाई थे, उन्होंने भरत के कहे अनुसार सब किया, सदा उनकी परछाई बन कर रहे तो इसीलिए तुलसी बाबा ने इस अवसर पर भरत से उनका साम्य, अनुराग बताने के लिए भरतानुज कहा, शत्रुघ्न कहते तो यह प्रीति न प्रकट होती.
( कुछ जगह यह भ्रान्ति है, लोग भी मानते हैं कि भरत के साथ शत्रुघ्न भी नन्दिग्राम में उन्हीं की भांति मुनिवेश में रहे, वे भी वनवासीवत जीवन निर्वाह कर रहे थे किन्तु राम कथा के दो प्रमुख स्रोत, श्रीरामचरित मानस व श्रीमद्वाल्मीकि रामायण, दोनों में ही ऐसा कोई उल्लेख नहीं है बल्कि स्पष्ट है कि नन्दिग्राम में भरत ही रहे. उपयुक्त प्रसङ्गों पर यह स्पष्ट संकेत है कि शत्रुघ्न अयोध्या में रहे, राज काज देखते रहे.)
मुझे तो शत्रुघ्न के बजाय भरतानुज कहने के पीछे यही मन्तव्य लगता है, आपको क्या लगता है. सम्भव है तुलसीदास जी का यह अथवा कोई विशेष प्रयोजन न रहा हो नाम के बजाय भरतानुज कहने के पीछे किन्तु उन्होंने शब्द चयन सटीक किया है, जहाँ जो पर्यायवाची है, उसका विशेष आशय है चाहे वह काव्य में चमत्कार ही क्यों न रहा हो.
कहिए, आपकी क्या राय है !
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रामकथा को अब तक कई साहित्यकारों ने अपने ढंग, विश्लेषण और नवीन सन्दर्भॉं के साथ प्रस्तुत किया. इस कथा में भी राजमहलों के आन्तरिक षड़यंत्र और राजनीति आरोपित करने वाले एक उपन्यासकार ने लक्ष्मण को राम के साथ और शत्रुघ्न को भरत के साथ लगा देने को अपना व अपने पुत्रों का भविष्य सुरक्षित करने की सुमित्रा की चाल बताया है. दशरथ की पटरानी कौशल्या थीं तो उनके और बड़े पुत्र होने के नाते राम को राजगद्दी मिलने की पूर्ण सम्भावना थी किन्तु दशरथ छोटी रानी कैकेयी पर अधिक आसक्त थे तो उनके पुत्र भरत को भी राज्य मिल सकता था. ऐसे में सुमित्रा और उनके पुत्रों का कोई भविष्य न था, वे उपेक्षित / सामन्तवत रहते तो बचपन से ही एक को राम के साथ लगा दिया और एक को भरत के साथ. अब ऊँट जिस करवट भी बैठता, इनका भविष्य / राजमहल में रुतबा बना रहता.
है तो यह रामकथा में विचलन, जन-जन में प्रचलित कथा और चरित्रों को तोड़ मरोड़ कर मनमाने/ अपने निष्कर्षो के साथ प्रस्तुत करना किन्तु यह एक प्रकार से विकृति भी है. अपनी धारणा आरोपित करने को इसी पृष्ठभूमि पर अन्य नयी कथाएँ कही जा सकती हैं, नए उपन्यास लिखे जा सकते हैं. हज़ारों वर्षों से चली आ रही महागाथा, जिस पर लाखों लोगों को अगाध श्रद्धा है, उसमें अपनी सोच घुसेड़ने की क्या ज़रूरत ? यह नवाचार नहीं, उन्हें विकृत करना ही कहा जाएगा ! एक खतरा यह भी है कि युवा और किशोर पीढ़ी में अधिकांश ने प्राचीन ग्रन्थ पढ़े नहीं, उनके घरवालों/ अध्यापकों ने भी नहीं बताया. ऐसे में वह पीढ़ी अंग्रेजी में लिखे और बाद में हिन्दी व अन्य भाषाओं में अनूदित किताबों को पढ़ेगी. उन पर बनी फ़िल्में व सीरियल देखेगी, वह इसी प्रकार से रामकथा जानेगी. सम्भव है पचास साल बाद वह इन्हीं को प्रामाणिक ग्रन्थ के रूप में देखे और इसी को सच मानें. और भी बहुत विचलन / विकृति पैदा की गयी है इन नये ‘ग्रन्थों’ में, तो पहले / मूल क्या है , पहले क्या था, इन पौराणिक / पूज्य / आराध्य पात्रों का कैसा चरित्र सदियों से जनमानस में पैठा है – यह हमे-आपको ही बताना है.
‘हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता’
‘हरि
अनन्त हरि कथा अनन्ता’