इन दिनों विनोद कुमार शुक्ल चर्चा में हैं किन्तु हम आकर्षित और चिंतित उस वजह से नहीं हुए जिस वजह से वे चर्चा में हैं बल्कि उनके नाम के संक्षिप्तीकरण से हुए ! अधिकतर जगहों पर उन्हें 'विकुशु' लिखा जा रहा है. हमने भी कई जगह उन्हें विकुशु ही लिखा.
अब ऐसा भी क्या आलस,
संक्षिप्तीकरण और ज़रूरत कि उन्हें विकुशु बना दो. क्या पता, लिखते-लिखते यार-दोस्त, प्रकाशक, मोहल्ले वाले, घरवाले उन्हें विकुशु ही पुकारने लगे
हों. कोई आगन्तुक, पान वाले से पूछे, 'भाई,
ये विकुशु जी का घर कहाँ है ?' और वो कहे,
'इधर तो कोई विकुशु-उकुशु नहीं रहते और ये कैसा नाम हुआ ?' वैसे कोई उमेश कुमार शुक्ल ‘उकुशु’ भी होंगे.
पहले भी संक्षिप्तीकरण होता था पर वह
केवल नाम का था, वि.कु. शुक्ल या अंग्रेजी में V.K.Shukla.
यद्यपि इस संक्षिप्तीकरण में भी पूरा नाम न जानने वालों को संशय
होता, विभा कुमारी शुक्ला हैं, विमल
कुमार शुक्ला, विद्या करन शुक्ला हैं कि विजय कुमार शुक्ला
... ! भई दो शब्दों का तो नाम है जिसमें शुक्ल लगा है तो पूरा विनोद कुमार शुक्ल
कहों ना ! काहे अपरिचित को कयास लगाना पड़े. अब सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन
अज्ञेय जैसा लम्बा नाम तो है नहीं. अब रॉयल्टी का चेक विकुशु के नाम काटा गया होता
तो बैंक वापस कर देता.
नाम के साथ तो सहनीय,
कुछ संक्षिप्तीकरण तो विचित्र हैं. जिला पंचायत सदस्य को समाचार में
'जिपंस' पढ़ा तो सोच में पड़ गए कि यह
कोई रसायन है या खोजी गयी लुप्तप्राय प्रजाति. Lucknow University Teachers
Association और Kanpur University Teachers Association क्रमशः 'लूटा' और 'कूटा' कही लिखी जाती हैं. लेसना एक क्रिया है,
किसी को कुछ लेस दो/लसेट दो तो लेसा हुआ मगर लखनऊ विद्युत विभाग 'लेसा' है, कानपुर का 'केसा'. नरेन्द्र मोदी 'नमो'
हैं तो राहुल गांधी 'रागां'. नाम के दो शब्द पूरे नहीं
लिखे/उचारे जाते लोगों से ! 'सरिता' में
एक विज्ञापन/अभियान जैसा आता था इस पर. उसमें नामों के संक्षिप्तीकरण को लेकर एक
नाम होता था, आई.एम.दास.
अगर हम लोग भी समय के साथ चलने लगे तो हम
होंगे 'रानाव' या 'राना' या फिर 'राव' (राज नारायण
वर्मा/राज नारायण / राज वर्मा ) कोई
औपचारिक आदर में राना साहब या राव
साहब पुकारे तो लोग जाने क्या समझ बैठें. कोई संक्षिप्त नाम लेते हुए ‘राना
जी’ पुकारे और बाद में स्थिति स्पष्ट हो कि यह तो राज नारायण
हैं, कोई राना नहीं तो असली राना से माफी मांगे, ‘मुझको राना जी माफ करना, ग़लती म्हारे
से हो गयी …’, उत्तम सिंह भए 'उसिं', हिमांशु बाजपेयी हुए 'हिबा', दिव्य
प्रकाश दुबे 'दिप्रदु', पूजा बरनवाल 'पूब' , लखी बरनवाल 'लब'
(यह तो उर्दू में होंठ हो गया ). एक दिवंगत नेता नाम के अंग्रेजी
संक्षिप्तीकरण में 'पद्दू' हो जांय तो
मायावती जी 'मा' रह जांय. यह संक्षिप्तीकरण
तो फिर भी ठीक, अगर जवाहर लाल नेहरू का संक्षिप्तीकरण हो, और वे कहीं जायें तो लोग
मेज़बान को बताएं, ‘जलाने पधार रहे हैं.’ वैसे अब नेहरू जी कुछ लोगों को जलाने का काम
ही करते हैं. जिया लाल हो जायें ‘जिला’ और देवी शरण हो जाएं ‘देश’. इनके संक्षिप्त
नाम भ्रामक तो हैं पर लेते / लिखते तो बनते हैं. सोचिए क्या हो अगर महताब राय नेपाली
आयें तो संक्षेप में क्या बताया जाए ! पधारें वे और लोग सोचें कि क्या करने पधारे हैं
. ऐसे ही हरि राम मीणा के आने पर क्या बताया जाए कि कौन आये हैं और हर गोविंद के आने
पर ! बड़ी ही विकट स्थिति हो जाएगी इन लोगों के संक्षिप्त नाम से, जूतमपैजार की नौबत
आ जाएगी.
यह तो यह, अख़बार में हेडिंग
देखी, ‘’रो-को’ शायद आख़िरी बार ऑस्ट्रेलिया में खेलें. हम चकरा गए कि ये ‘रो-को’ कौन
है. पूरा पढ़ने पर पता चला कि यह एक नहीं दो नामों का संक्षिप्तीकरण है – रो है रोहित
शर्मा का ‘रो’ और को है विराट कोहली का ‘को’ ! अब संक्षिप्तीकरण ही करना था तो ‘रोश’
और ‘विको’ होता मगर लोग उससे चकराते कहाँ ! उसे ‘रोको’अर्थात रोकने की क्रिया कैसे
समझते ! खेद होता है कि कभी अख़बार भाषा की शुद्धता के लिए भी जाने जाते थे.
भई ! इतना आलस न करें. नाम तो पूरा
रहने दें. कहीं संक्षिप्त नाम से चेक-वेक न काट देना,
लौट आएगा.
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