Followers

Friday, 28 February 2025

मोहल्ले में रामायण और कुछ यादें

 

मोहल्ले में रामायण और कुछ यादें


शिवरात्रि के अवसर पर मोहल्ले ( कॉलोनी ) के एक घर में रामायण बैठी. घर , मन्दिर या सार्वजनिक स्थान पर रामचरित मानस के अखण्ड पाठ को रामायण बैठना/ बिठाना या अखण्ड रामायण बिठाना ही कहते हैं. अखण्ड के अलावा शनिवार या मंगलवार या दैनिक या ऐसे ही केवल सुन्दरकाण्ड का भी पाठ होता है, इसे अखण्ड रामायण नहीं कहते. तो रामायण बैठी, जैसा कि प्रथा है, लाउडस्पीकर लगा कर इसका पाठ होता है. अब तो बड़े स्पीकर / साउण्ड बॉक्स होते हैं, पहले भोंपूनुमा होते थे जिन्हे हॉर्न भी कहा जाता था. यह बहुधा छज्जे पर बाहर की ओर मुह किए हुए बांधे जाते हैं और दोनों दिशाओं में लगाए जाते हैं ताकि लोग घर पर लेटे – बैठे – काम करते भी पाठ सुन सकें, यहाँ भी व्यवस्था परिपाटी के अनुसार ही थी. बहुधा आवाज़ फुल ही रहती है, यहाँ भी थी. धार्मिक आयोजन होने के कारण प्रायः कोई आपत्ति नहीं करता. कुछ भद्रजन रात से सुबह तक आवाज़ बंद कर देते हैं या कम कर देते हैं, यहाँ भी ऐसा ही किया गया. नियमित पाठ करने वाले, जैसे कि मैं, दो-तीन चौपाईयां सुन कर जान जाते हैं कि कौन सा काण्ड और उसका कौन सा प्रसङ्ग चल रहा है किंतु जो नहीं जान पाते वे भी ‘आरति श्री रामायन जी की। कीरति कलित ललित सिय पी की॥‘ सुन कर समझ जाते हैं कि पाठ संपूर्ण हो गया है, आरती हो रही है. अब (सम्भवतः) आवाज़ बन्द हो जाएगी, बहुधा हो भी जाती है, बहुत बार नहीं भी होती. प्रायः चौबीस घण्टा में रामायण सम्पन्न हो जाती है. हवन आदि का प्रसारण भी उसी पर होता रहता है, कभी –कभी बातें भी. कभी उसके बाद भी बंद नहीं होती, लाइव भजन, रिकॉर्डेड भजन, फ़िल्मी धुनों पर भजन, भोजपुरी गाने, अन्य फ़िल्मी गाने बजते रहते हैं. बहुधा ऐसी जगह संध्याकाल में भोज होता है. यहाँ भोज का तो नहीं पता किंतु लाउडस्पीकर पर शिव भजन, ‘लोकप्रिय’ भोजपुरी गाने चालू हैं. ख़ैर, यह भी शाम तक का ही है (सोचा यही था पर रात के ग्यारह बज रहे हैं और धम-धम इफेक्ट के साथ गाने चालू हैं )

रामायण का यह आयोजन प्राचीन काल से चला आ रहा है, बचपन और उसके पूर्व से तो मुझे पक्का मालूम है, तुलसी बाबा के समय से ही रहा होगा. गाँव में चौपाल पर, होता था. शहर में श्रमिक वर्ग रात में भजन, बिरहा, आल्हा, कजरी, सावन आदि ऋतु व लोकगीत, होली के अवसर पर फाग व रामायण गाया करता था. मण्डियों में पल्लेदार (बोझा उठाने वाले) रात में नियमित रूप से यह करते थे. गिरमिटिया मज़दूरों के पास मानस का गुटका भी होता था, जहाँ भी वे गये, बसे – रामायण गाया करते थे. कारागार में भी कुछ बंदी नियमित रूप से रामायण, भजन व पूजा-पाठ करते हैं. बहुधा कारागार में मन्दिर भी होता है.

रामायण पाठ हुआ तो यादों की पोटली खुली. हमारे बचपन से युवावस्था तक रामायण में लोग बुलौआ का रास्ता नहीं देखते थे या परिचित – अपरिचित का भेद नहीं करते थे. जब्‌-जहाँ रामायण बैठी और लाउडस्पीकर की ध्वनि कान में पड़ी, नहा कर जाना कर्तव्य मान कर जाते थे, घण्टा – दो घण्टा या अधिक पाठ में शामिल होते और हाथ जोड़ कर चले आते. कुछ तो क्ई बार जाते थे, जब सुनते कि पाठ करने वाले कम हो गए हैं, ध्वनि थकी – थकी सी आ रही है, पहुँच कर मोर्चा संभाल लेते. कुछ तो रात में रुकते. कुछ ‘रामायणियों’ की इसमें प्रसिद्धि भी थी, वे आग्रह पर या स्वेच्छा से यह निर्वहन करते थे. नितान्त अपरिचित, राह चलते भी पाठ कर जाते थे, ऐसे घर में कोई रोक न होती थी. मैं स्वयं कई जगह जाया करता था, मोहल्ले या मन्दिर में तो अवश्य ही. पिता जी निर्देशित कर जाते थे कि रामायण पढ़ने चले जाना. बचपन से ही नित्य रामायण पाठ का अभ्यास है, अब कभी – कभी क्रम भंग हो जाता है. प्रातः नास्ते के बाद मैं और पिता जी रामायण लेकर बैठते, एक चौपाई वे पढ़ते, एक मैं, ऐसे करीब आधा घण्टा तो पढ़ते. इसके बाद हम भोजन करते, वे ऑफिस जाते और मैं स्कूल, लंच ले जाने की प्रथा हमारे यहाँ न थी, नौ-सवा नौ तक भरपूर भोजन कर लेने से लंच की ज़रूरत भी न पड़ती.

एक बार मोहल्ले में सार्वजनिक रामायण बैठी. मन्दिर का जीर्णोद्वार हुआ था. मेरे बचपन से अब तक करीब चार बार जीर्णोद्वार हो चुका है और मन्दिर विस्तृत होता गया है. पुराने मोहल्ले के, अमानीगंज चौराहा, अमीनाबाद, मेरा जन्मस्थान, पर इस शिव मन्दिर की स्थापना हम कुछ बच्चों ने की थी. सम्बन्धित लोगों के अलावा, अब शायद लोगों को यह याद न हो, स्वीकार न करें. उनमें से कुछ तो अब रहे नहीं या तितर-बितर हो गये हैं. तब संकीर्तन मण्डलियों का ज़ोर था. मोहल्ले-मोहल्ले संकीर्तन मण्डलियां थीं. जवाबी कीर्तन भी होते थे. कानपुर व लखनऊ में इनका बोल बाला था. कानपुर की जवाहर जिद्दी की मण्डली बहुत मशहूर व जवाबी कीर्तन में अजेय सी थी. कीर्तन में बंगाल के चैतन्य महाप्रभु की तरह हरिनाम संकीर्तन या आज के ‘इस्कॉन’ की तरह ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ या मठ / आश्रम की तरह कीर्तन नहीं बल्कि फ़िल्मी धुनों पर कोई धार्मिक प्रसङ्ग गाये जाते थे. जवाबी कीर्तन में एक मण्डली जिस धुन पर जो प्रसङ्ग गाती, दूसरी जवाब में उसी या दूसरी धुन पर वही प्रसङ्ग गाती. न गा पाने वाली हार जाती, विजेता को शील्ड व घोषित नकद पुरस्कार मिलता, उपविजेता को भी छोटी शील्ड व कम रकम मिलती. कीर्तन के बीच में श्रोता नकद ईनाम की बौछार करते रहते.

कीर्तन मण्डलियों को रामायण मण्डलियों ने, फिर देवी जागरण मण्डलियों ने, अब साईं भजन मण्डली, खाटू श्याम संकीर्तन मण्डली आदि ने विस्थापित कर दिया, उस कीर्तन का तो अब नाम भी न बचा.

हमारे मोहल्ले में था ‘श्री हरि शरण संकीर्तन मण्डल’ उस दल के साथ पिता जी का उठना-बैठना था. वे गाते-बजाते तो नहीं किंतु उत्साह से शामिल होते, साथ जाते. उससे प्रेरित होकर हम बच्चों नें अपनी संकीर्तन मण्डली बनाने की सोची. गायक वगैरह तय हो गये. एक अच्छा गाने वाला लड़का था सुशील. तब प्रायः सबके चिढ़ाने वाले उपनाम होते थे, उसका नाम था सुशील फटही. मैं सुशील फटही की तरफ था. एक थे झब्बू मामा, नाम पता नहीं, झब्बू मामा कहाते थे. उनका छोटा भाई भी दूसरे पक्ष में था. उसने मुझे अपनी तरफ फोड़ने के लिए डराया, ‘तुम सुशील फटली की अलंग से खड़े होइके गइहो ! तुमरे बाप एक … हैं, तुमरी … छांट देहें’ ( … की जगह भदेस शब्द, आज के हिसाब से गाली ) हम डर गये, फूट पड़ गयी, हमने सदस्यता वापस ले ली और कीर्तन मण्डली बनने से पहले भंग हो गयी.

तब दूसरा काम हुआ. हम एक दुकान के बाहर से एक चौकोर पत्थर (जो चबूतरे पर चढ़ने के लिए सीढ़ी की तरह रखा था) उठा लाये, उसे चौराहे पर रखा ( तब इतना आवागमन न था, बच्चे सड़क पर खेला करते थे) उस पर कुछ बटिया (गोल पत्थर) रखे, आधार को खपच्ची, झण्डी से घेरा और बन गया शिव जी का थान. कुछ समय बाद बच्चे भगा दिए गये, बड़ों ने उस मन्दिर को अधिग्रहीत कर लिया, कई बार बनते-बनते अब वह बड़े व भव्य रूप में है. उस पर जन्माष्टमी की झांकी, कीर्तन व अन्य धार्मिक आयोजन होते थे.

जब पहली बार कुछ ढंग का मन्दिर बना, तब बड़े पैमाने पर रामायण बैठी. मैं तब पाँचवे या छठे में पढ़ता था. तब मैं बस नहाने, खाना खाने व देर रात में सोने घर गया, बाक़ी रामायण पढ़ी. तब से रामायण पाठ के प्रति चाव और बढ़ता गया.

फिर यह कम कैसे होकर घर पर पाठ करने तक सिमट गया ? हुआ यह कि पहले तो घर वाले, कुछ घनिष्ट मित्र व रिश्तेदार आदि मोर्चा संभाल लेते थे, रात में डटे रहते थे किन्तु कालान्तर में वे ढीले पड़ कर विमुख होते गये. तब रात में जो एक या दो ‘फंस’ जाते, वे थके/ बेमन से गाते रहते कि रामायण खण्डित न हो जाए, जैसे ही कोई आता, वे प्रणाम करके उठ लेते और वह दूसरे के आने तक ‘फंसा’ रहता. बड़ी विषम स्थिति हो जाती. जो भी हो, ऐसी स्थिति होने पर भी रामायण बिठाना तो छोड़ा न जा सकता था. लोग मानते भी थे कि फलां काम हो जाए तो रामायण करेंगे. तीर्थ आदि से आने, गृह प्रवेश आदि पर रामायण और भोज की परिपाटी अब भी है. तो इसका तोड़ यह निकला कि रामायण मण्डलियां बनी, लोग उन्हें बुलाने लगे. शुरू में वे पेशेवर न थे, कोई फीस वगैरह न थी.बुलाने पर आते थे, बहुधा रात संभाल लेते थे, शुरुआत व समापन भी कराते थे. जो आरती में चढ़ावा आ जाए और यजमान जो स्वेच्छा से अर्पित कर दे, सन्तोषपूर्वक ले लेते थे. वे झांझ, मंजीरा, खड़ताल, ढोलक, हारमोनियम आदि लाते थे और फ़िल्मी सहित कई धुनों में लयपूर्वक और गति में पाठ करते थे फिर भी बोल समझ में आते थे और जो रामायणी नहीं भी होते, वे भी थोड़ा प्रयास करने पर उनके साथ, उनकी लय में गा लेते थे. आकाशवाणी लखनऊ से विभिन्न मधुर धुनों में मानस गान प्रसारित होता जिनमें’ हे हा’ की टेक वाली धुन बहुत लोकप्रिय व मधुर थी. मुकेश का गाया सुन्दरकाण्ड व अन्य काण्ड भी बहुत चलन में था.

फिर दौर शुरू हुआ पेशेवर रामायणियों का. ये शुल्क लेते थे और नयी नयी फ़िल्मी धुनों पर बहुत फास्ट गाते थे, इतना फास्ट की बोल पकड़ में न आते थे, गाना ही सुनाई पड़ता था. आम रामायणी भी इनके साथ न गा पाता. वैसा ही समझिये जैसे मिट्टी के अखाड़े में लड़ने वाला पहलवान और रिंग में पेशेवर फाईट वाला रेसलर. दम खम होते हुए भी पुराना या आम भक्त इनके सामने टिक ही न पाता. ये आते ही रामायण कैप्चर कर लगते, आरकेस्ट्रा वालों की तरह सलामी धुन/ ताल-वाद्य्-कचहरी जैसा बजाते और एक गायक सुपर फास्ट स्पीड में आरम्भिक श्लोक व चौपाईयां पढ़ता, दोहा तक आते न आते ग्रुप धुन में गाना शुरू कर देता. हर वाद्य के सामने माईक, दो गायकों के सामने माईक, मार मोहल्ला गुंजा देते. ्बैठे लोग उनका साथ पकड़ ही न पाते, प्रणाम करके उठ जाते. गाने की लय के लिए चौपाईयों के बीच रामा, जय हो, सिया राम या कुछ अन्य शब्द फिट करते हैं. कोई प्रसङ्ग हो, राम वन गमन हो, दशरथ मरण हो, सीता हरण हो, लक्ष्मण शक्ति व राम विलाप हो … फास्ट फ़िल्मी गाना ही सुनाई पड़ता है.

अब ज़माना और बढ़ गया है. दल के साथ समुचित वेशभूषा में पुरोहित भी होते हैं, दो तो होते ही हैं. साज –सज्जा से लेकर सामग्री का ठेका लेते हैं, पूजा कराते, समापन पर हवन कराते हैं, यजमान की इच्छानुसार चौबीस से तीस घण्टों तक में पूर्ण कराते हैं व घर वालों तथा सामान्य लोगों के साथ दे सकने लायक धुन में भी गाते हैं. फीस ग्यारह हज़ार से इक्यावन हज़ार तक होती है.

रामायण की प्रस्तुति में स्थान के अनुसार अन्तर होता है. कानपुर व कुछ जगह (अब लखनऊ में भी) हर काण्ड के बाद लय में आरती होती है, दल के एक-दो सदस्य धीमे स्वर व लय में रामायण पढ़ते रहते हैं ताकि रामायण खण्डित न हो. कुछ रामायणी बीच में झांकी/ लीला भी करते हैं. सजे – धजे लोग प्रसङ्गानुसार अभिनय करते हैं, यथा शिव-विवाह प्रसङ्ग, जन्म प्रसङ्ग, राम विवाह प्रसङ्ग, बारात अवध आने के प्रसङ्ग, लङ्का विजय के उपरान्त अयोध्या आगमन प्रसङ्ग … पर लीला होती है. समय बढ़ जाता है, रोचकता/ मनोरंजन बढ़ता है व मण्डली को चढ़ावा भी आता है.

रामायन सत कोटि अपारा ! अब रामायण बिठाना भी बदल गया है, कई तरह का होता है. आपका क्या अनुभव है और आपके क्षेत्र में कुछ अलग तरह का होता है तो अवश्य बताएँ.  

 

 

No comments:

Post a Comment