“देवी सरस्वती की कैद, स्मृतिलोप
- पारलौकिक कथाएँ"
'बिभूतिभूषण की पारलौकिक कथाएँ'
पढ़ी. जैसा कि शीर्षक से स्पष्ट है, यह बांग्ला के प्रसिद्ध लेखक, बिभूतिभूषण बंद्योपाध्याय
की पारलौकिक कथाओं का संकलन है. यह खण्ड 1 है अर्थात उन्होंने ऐसी और भी कथाएँ लिखीं
हैं जो आगे दूसरे खण्ड में प्रकाशित जी जाएंगी. बांग्ला से हिन्दी में अनुवाद जयदीप
शेखर ने किया है, किताब 'साहित्य विमर्श प्रकाशन' से प्रकाशित है.
पारलौकिक से आशय इस लोक, पृथ्वी लोक, से इतर लोक से है. यह देवलोक भी हो सकता है और
पृथ्वी और देवलोक से अलग कोई लोक भी जहाँ वे लोग रहते हैं जिनकी मृत्यु हो चुकी है
पर वे मुक्त नहीं हुए या पुर्नजन्म नहीं हुआ, आत्मा रूप में हैं. मृतकात्मा के अतिरिक्त
वे भी हो सकते हैं जो कभी मनुष्य थे ही नहीं, प्रारम्भ से ही अन्य योनि में थे.
पारलौकिक क्या है ? इसे एक कहानी की शुरुआत में बताया
गया है –
“जीवन में बहुत कुछ ऐसा घटता है,
जिसका कोई तर्कसंगत कारण नहीं खोजा जा सकता - उन्हें हम लोग पारलौकिक नाम देते हैं.
कह नहीं सकता, लेकिन खोजने पर शायद उनके पीछे सहज एवं सम्पूर्ण स्वाभाविक कारण का पता
चले. क्या पता, मनुष्य के विचार, बुद्धि एवं अभिज्ञता के दायरे के बाहर का कोई कारण
मौजूद हो - इसे लेकर मैं तर्क नहीं करूँगा, सिर्फ इतना कहूँगा कि ऐसा कोई कारण यदि
हो, तो हम जैसे सामान्य मनुष्यों द्वारा उनका पता लगा पाना चूँकि सम्भव नहीं है, इसलिए
ही उन्हें पारलौकिक कहा जाता है."
- इसी किताब की कहानी
'रंकिणी देवी का खड्ग' (बांग्ला शीर्षकःरंकिणी देबी'र खड़ग) से.
यह अंश पारलौकिक को बहुत हद तक
व्यक्त कर देता है. यह अंश प्रकारान्तर से इस धारणा की पुष्टि करता है कि पारलौकिक
जगत है, उस जगत के में प्राणी भी हैं जो आकार-प्रकार में लौकिक जगत के प्राणियों से
भिन्न किन्तु अत्याधिक शक्तिसम्पन्न होने हैं. वे रहस्यमय, डरावने, मानव की अपेक्षा
दूने-तिगुने और विचित्र/भयंकर, कभी अशरीरी - मात्र आवाज़ या गतिविधि से उपस्थिति का
आभास कराने वाले और अनिष्ट करने वाले, जान तक ले लेने वाले हो सकते हैं त्क कुछ सामान्य
और परिचित व्यक्तियों के रूप में और आसन्न घटनाओं की सूचना देने वाले, संकट के प्रति
सचेत करने वाले हो सकते हैं. इन्हें आत्मा, भूत-प्रेत, जिन्न, पिशाच आदि का नाम दिया
जाता है. बहुधा इनका प्रार्दुभाव रात्रि में और श्मशान, निर्जन स्थान, निर्जन घर/खण्डहर,
वृक्ष आदि पर होता है. ये दिख भी सकते हैं और नहीं भी. कभी ये अपने क्षेत्र में अतिक्रमण
करने वालों पर प्रतिक्रिया करते हैं तो कभी तान्त्रिक अनुष्ठान आदि द्वारा आमन्त्रित
किए जाने पर आते हैं. अशरीरी होते हुए भी खून पीते हो सकते हैं ( 03 अगस्त, 2025 को)
'हिन्दुस्तान' में मनोहर शर्मा 'माया' की एक आपबीती 'लौट आई थी माया' पढ़ी जिसमें लेखक
की पूर्वपत्नी माया उसकी वर्तमान पत्नी के शरीर पर कब्ज़ा किए है और बताती है कि वह
प्रेत योनि में है और लता, उसकी वर्तमान पत्नी के शरीर में रह कर उसका रक्त पीती है.
कुछ माह और इसके साथ रही तो यह मर जायेगी, अतः उसे प्रेत योनि से मुक्त करने की व्यवस्था
करें.)
लख चौरासी योनियों में यह सब अशरीरी
योनियां भी आती हैं. मज़े की बात यह कि भले ही ऐसा साहित्य संस्मरण/आपबीती न होकर काल्पनिक
कथा साहित्य हो, बताते/स्थापित करते सभी यह हैं कि यह सब सत्य घटनाएं हैं जो उनके या
किसी के साथ वास्तव में घटी हैं, बस रोचकता के लिए कल्पना और संवादों की छौंक लगा दी
है. प्रकान्तर से यह स्थापित करना हुआ कि भले अधिकांश लोग इन पर विश्वास न करें, विज्ञान
प्रमाणित न कर सके, कार्य-कारण सम्बन्ध न हो, सब है और होता है, जब तुम पर पड़ेगी तब
जानोगे !
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इस संकलन में ऐसी ही कहानियाँ हैं. लेखक स्वयं इन सबमें
विश्वास करते थे. उन्हें कई पारलौकिक अनुभव भी हुए. उन्होंने अपने पुत्र को अपनी आयु
देकर बचाया, आयुदान के छह माह बाद उनकी मृत्यु हो गयी. इसके अतिरिक्त उन्होंने जाग्रत
किन्तु मोहाविष्टावस्था में अपनी मृत देह भी देखी. इस किताब में तारानाथ तान्त्रिक
की दो कहानियां वस्तुतः उनके स्वसुर, षौड़सीकान्त चट्टोपाध्याय की कहानी है जो तन्त्र
साधना करते थे. तन्त्र साधना द्वारा उन्होंने अलौकिक योनियों के लोगों को प्रकट किया.
कहा जा सकता है कि अन्य कहानियाँ भी गल्प होते हुए वास्तविक अनुभवों पर आधारित हैं.
वे तो मानते ही थे, पाठक भी मान सकते हैं कि यह सब होता है/हुआ है.
कहानियों में तरह तरह के पारलौकिक योनियों के लोग, भूत
आदि हैं, घटनाएँ हैं. 'विरजा होम में बाधा' का पात्र वैद्य है,वह औषधि के साथ हवन व
तन्त्र से भी उपचार करता है. एक गाँव में एक लड़के को विरजा होम के द्वारा स्वस्थ करने
जाता है. एक रहस्यमयी महिला (आत्मा) उसे उपचार व हवन करने को मना करती है कि लड़का बचेगा
नहीं. वह तब भी हवन को उद्धत होता है तो दोमंज़िले मकान के आकार जितनी भयंकर आकृति उसे
आगाह करती है. लड़का मर जाता है.
एक अन्य कहानी 'काशी कविराज की कहानी' में भी वैद्य एक
जमींदार के पुत्र का उपचार करने जाते हैं तो जमींदार की पहली पत्नी का प्रेत (वह सौम्य
रूप में आती है ) उन्हें निर्देश देता है, बात करता है.
'भूत बसेरा' में एक मकान भुतहा है जिसमें भूत लीला होती
है तो 'भुतहा पलंग' में एक चीनी पलंग भूतग्रस्त है जो खरीदार को मरणासन्न कर देता है.
'रंकिणी देवी का खड्ग' में एक भयंकर देवी का खड्ग महामारी से पूर्व रक्तरंजित हो जाता
है.
कई कहानियाँ हैं. रोमाञ्च तो है पर हॉरर नहीं, जुगुप्सा
नहीं या कह सकते हैं मुझे महसूस न हुआ.
इस प्रकार की कहानियों में रुचि है तो यह किताब पढ़ें.
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मुझे आपत्ति है इस किताब की एक कहानी 'मेघ मल्हार'
पर. क्यों है ? यह आगे स्पष्ट किया है. आप देखें कि क्या यह कहानी वास्तव में
आपत्तिजनक है या मुझे ही ऐसा लगा.
पुस्तक परिचय बहुत हो गया, अब आते हैं पोस्ट के मुख्य बिन्दु/ शीर्षक 'देवी सरस्वती
की कैद, स्मृतिलोप' पर ! इन पारलौकिक शक्तियों पर विश्वास करें न करें, भगवान और देवी-देवताओं
पर तो विश्व भर में विश्वास किया जाता है, यहाँ तक कि नास्तिकों में से भी कुछ 'संदेहभक्त'
होते हैं,'अगर भगवान होता है तो !' तब आस्तिक और आस्थावान धर्मप्राणों का कहना ही क्या
! भगवान व देवी देवता अनादि, अनन्त, मन-बुद्धि-इन्द्रियों से परे, सर्वशक्तिमान, घट-घट
व्यापी, सबके मन की जानने वाले, देश काल से परे, 'नेति-नेति' (इतना ही नहीं, और भी
है !) होते हैं. मानवों से तो वे परे और महाशक्तिमान होते हैं. मानव उनका कुछ (अनिष्ट)
कर नहीं सकता. भगवान भगत के वश में होते हैं पर ऐसा होते हुए भी हर क्षण स्वतन्त्र
और सजग, समर्थ होते हैं, जब चाहे मायाजाल समेट सकते हैं.
ऐसे में
इस संग्रह की 'स्टार' कहानी 'मेघ-मल्हार' (बांग्ला शीर्षकःमेघमल्लार) इस पर प्रश्न
खड़े करती है, अविश्वसनीय और हास्यास्पद है. कहानी गल्प/काल्पनिक हो सकती है जो इस जॉनर
में मनोरंजन के लिए लिखी गयी या फिर रोचकता के लिए कल्पना-संवाद की छौंक लगा कर प्रस्तुत
की वास्तविक घटना - पर दोनों ही स्थितियों में अनुचित, अविश्वसनीय, हास्यास्पद और भगवान
/ देवी-देवताओं की मानसिक व शारीरिक शक्ति को मानव से बहुत कम होने के रूप में प्रस्तुत
करती है. गल्प हो तो यह ईशनिंदा के समान है वैसे प्रकारान्तर से इसे भी सत्याधारित
कहने की चेष्टा है.
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कहानी सार कुछ यह है कि दो तान्त्रिक देवी सरस्वती को
जाग्रत/शरीरी रूप में प्रकट करने का अनुष्ठान करते हैं. देवी प्रकट होती हैं. वे अतीव
सुन्दरी, अलौकिक/दिव्य आभा से युक्त, मोहक देहयष्टि वाली तरुणी हैं. उनमें से एक साधक,सूरदास
ने तो माँ सरस्वती से देश के संगीतज्ञों के मध्य श्रेष्ठ स्थान प्राप्त होने का वर
मांगा, देवी ने तथास्तु कहा किन्तु दूसरा साधक, गुणाढ्य, उनके रूप पर लुब्ध होकर उन्हें
ही मांग बैठा.
यह मानने वाली बात तो थी नहीं अतः देवी इसे असम्भव बता
कर अंर्तध्यान हो गयीं.
वह तान्त्रिक निराश न हुआ बल्कि प्रयास करता रहा. कालान्तर में उसने एक तरुण गायक,
प्रद्युम्न, को फांसा जिसे राग मेघ मल्हार सिद्ध था और साधन की अन्य पात्रता के अनुपालन
में अविवाहित भी था. साधना की गयी जो सफल रही. देवी उसी रूप के साथ प्रकट हुईं और
स्मृतिलोप होकर बंध गयीं, अपना देवत्व खो/भूल कर उसके वश में हो गयीं. इसका प्रद्युम्न
को पता न चला. साधना के उपरान्त लौटते हुए उसने वन में देवी को छटपटाते देखा जैसे वे
किसी के चंगुल से निकलने का प्रयास कर रही हों पर निकल न पा रही हों. साधना सफल होने
पर देवी के प्रकट होने और इस दृश्य का सम्बन्ध वह जोड़ न सका, इसे दृष्टिभ्रम माना.

देवी
अपना देवत्व भूल कर एक वन में गुणाढ्य के साथ रहने लगीं. साधारण निष्ठावान गृहिणी की
भांति वे खाना पकातीं, नीचे सरोवर से जल लातीं, अन्य गृहकार्य करतीं. रूपमती वे अब
भी वैसी ही थीं पर देवी जैसी अलौकिक व देदीप्यमान न थीं. एक दिन प्रद्युम्न ने उन्हें
देखा, सम्पर्क किया, उनके द्वारा बनाया भोजन किया, गुणाढ्य वहाँ न था. प्रद्युम्न के
मन में ग्लानि थी कि देवी की यह अधोगति उसके कारण हुई है. एक दिन गुणाढ्य भी आया, वह
भी पश्चाताप से दग्ध था. उसने बताया कि वह देवी को मुक्त कर सकता है, मन्त्रपूत जल
उन पर छिड़कना होगा किन्तु जल छिड़कने वाला पत्थर का हो जाएगा, फिर कभी जीवित न हो सकेगा.
उसे जीवन से मोह है इसलिए वह ऐसा नहीं कर सकता. प्रद्युम्न इसके लिए तैयार हो जाता
है, मन्त्रपूत जल छिड़कता है, देवी मुक्त होकर पुनः अपने स्वरूप में आ जाती हैं, प्रद्युम्न
पत्थर की मूर्ति में बदल जाता है. देवी सरस्वती पुनः देवत्व पाकर भी बिना अपने उद्धारकर्ता,
प्रद्युम्न को जीवित किए और उन्हें इस स्थिति में बन्धक किए गुणाढ्य को दण्डित किए
अपने लोक चली जाती हैं.
प्रद्युम्न के गुरु और उसकी प्रेमिका के भी प्रसङ्ग हैं, उन्हें कथा सार में नहीं दे
रहा हूँ.
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कथा/सत्य घटना आपने जानी. बतायें मेरा क्षोभ और आपत्ति
उचित है या वितण्डा ? क्या यह विश्वसनीय और कथा हो तो देवी का ऐसा चरित्र चित्रण उनका
अपमान नहीं है. क्या इस रोमाञ्चक कथा ने आपका मनोरंजन किया ? क्या संदेश मिलता है और
क्या कथाकार का साहित्यबोध ठीक है ?
यहां यह ध्यातव्य है कि गुणाढ्य उन्हें माता, पुत्री, बहन या मित्र के रूप में तो मांग
नहीं रहा था, वह उन्हें भोग्या पत्नी या प्रेयसी के रूप में चाहता था.
प्रथम बार प्रकट होने पर देवी ने उसकी उसे इस धृष्टता
के लिए कठोर या हल्का दण्ड न दिया, यह भी कथाकार का कुत्सित भाव है कि आगे इस कुत्सित
कामना के पूरा होने की सम्भावना बनी रहे.
यदि यह एक काल्पनिक कहानी है तो ऐसी चाह घोर निन्दनीय है, ईशनिन्दा है, उन्हें मानव
के स्तर पर उतार लाना है. आगे जो हुआ वह और निन्दनीय और अविश्वसनीय है व देवी को साधारण
विवश स्त्री के रूप में प्रस्तुत करता है. कहानी के रूप में यह कथाकार का यौनविकृत
मानस है. वे उस निर्जन स्थान की कुटी में, जहाँ प्रद्युम्न ने उन्हें देखा, गुणाढ्य
की पत्नी/ भोग्या की ही स्थिति में रहती होंगी, और उसने किस रूप में उन्हें पाने की
कामना की थी और वश में किया था.
कथा के अन्त में पुनः देवत्व सम्पन्न होने पर सीधे देवलोक चली गयीं. अब समर्थ होने
पर भी कृतघ्न रहीं और अपना निजी अपकार/पतन करने वाले, दासी/भोग्या के रूप में बन्धक
रखने वाले पापी का कुछ न करने वाली के रूप में दिखाया कथाकार ने, यदि यह सत्य घटना
थी/सत्य का कुछ अंश भी था इसमें तो क्या देवी का स्वभाव और सामर्थ्य ऐसा हो सकता है.
पुरानी कथाओं/पुराणों/मिथकों में ऐसे प्रसङ्ग हैं कि भगवान भक्ति के वशीभूत होकर भक्त
के यहाँ मानव रूप में रहे. अत्रि पत्नी अनसूया के यहाँ त्रिदेव, ब्रह्मा-विष्णु-महेश,
शिशु होकर पालने में लेटे, उनका स्तनपान किया. शिव जी एक भक्त के यहाँ मानव रूप में
उसके सेवक, उगना, के रूप में रहे पर तब भी वे भगवान थे, स्वतन्त्र थे, प्रेम/भक्ति
से इस रूप में रहे, जब चाहते अपने पूर्व रूप में आ जाते किन्तु इस कथा में देवी होते
हुए भी एक मानव की भोग्या बन कर, विवश होकर रहीं. उन्हें अपनी शक्तियों का भान न रहा,
स्मृति लोप हो गया. कथाओं में लोगों ने भगवान को पुत्र रूप में (बलि की पुत्री, राजा
दशरथ ) व पति रूप में चाहा. भगवान ने उनकी इच्छा पूरी की किन्तु उसी रूप/विवश स्थिति
में नहीं, उनके अगले जन्म में, अगले युग में और अवतार लेकर.
इस कथा में ऐसी विवश और अतिसामान्य दासीवत स्त्री कि
अपने उद्धार का तरीका उन्हें मालूम न था और उसके लिए भी वह दुष्ट ही समर्थ था. इस स्थिति
में बन्धक करने, रखने के लिए उसे को दण्ड न दिया और न ही अपने उद्धारक का भला किया
- सत्य हो या कथा, देवी का यह रूप हमें स्वीकार नहीं, अविश्वसनीय है, कथा है तो लेखक
निन्दनीय है देवी का ऐसा चित्रण करने के लिए.
इसे
इस संग्रह की सर्वश्रेष्ठ और रोमाञ्चक कथा कहा है, पाठकों ने इसे पसन्द किया, स्टार
कहानी है पर हमें कुफ़्र लगी.
आप क्या कहते हैं इस पर!
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