सहालग चल रही है, लगभग रोज ही किसी न किसी शादी में जाना होता है. अब जाते हैं तो खाली खाना खाने और यथायोग्य देने ही थोड़े न जाते हैं, बारात आने के पूर्वकाल से लेकर अपनी वापसी तक बहुत कुछ देखते भी हैं. शादियों का पुराना दौर, अनेक व्यवस्थाएँ, रीति-रिवाज़ याद आते हैं जो अब की शादियों में नहीं दिखते.
पहले, करीब चालीस साल पहले तक, लड़की वालों की तरफ से जनवासे में नाऊ, धोबी और मोची की व्यवस्था ज़रूर होती थी. वैसे तो नाऊ दोनों तरफ से होता है मगर वह नाऊ 'नाऊ ठाकुर' होता है. वह ऐपनवारी/तेलवारा ले जाने व अन्य नेगचार के लिए होता है, बहुत पहले नाऊ दूर दराज से लेकर निकट के गाँवों में शादी का न्योता लेकर भी जाते थे. वे लोटा-डोर लेकर, खाने का कुछ सामान साथ लेकर प्रायः पैदल ही जाते थे. पुराना समय था, बाग़-बगीचे, अमराई आदि खूब थे, वे दोपहर में आराम के लिए व रात हो जाने पर उन्हीं में ठहर जाते थे. कुंआ भी होता था तो स्नान, पानी पीना कुंवे पर होता था. प्रायः कुंआ पर सार्वजनिक प्रयोग के लिए बाल्टी रखी रहती थी, रस्सी होती थी तो नहाना, धोती छांटना हो जाता था. सत्तू, चबेना वगैरह खा लिया, कुछ सामान हुआ तो रसोई कर ली. लकड़ी बाग़ से बीन लाये, ईंटों का चूल्हा बनाया और दो-चार टिक्कड़ सेंक लिए, हो गया खाना ! खाने के बाद तान कर सो रहे. सुबह या शाम फिर चल पड़े. जब जजमान ( जिसे निमन्त्रण देना हो ) के घर पहुँचे तो खाने ठहरने की व्यवस्था जजमान करता था या कच्चा सामान दे देता था, जगह बता देता था, नाऊ ठाकुर ख़ुद रसोई करते थे. दूसरे दिन विदाई मिलती थी, जवाबी संदेशा हो तो वह भी मिलता था, फिर चल पड़े अगले जजमान के यहाँ. ज़ाहिर है, इस तरह निमन्त्रण देने में नहीं महीनों तो पखवारा तो लग ही जाता था. एक ही जजमान को निमन्त्रण देना हो तो भी तीन दिन लग सकते थे. नाऊ बिचौलिया भी होता था. नाऊ की पत्नी नाऊन कही जाती थी. शादी का वह भी एक मुख्य पात्र होती थी. रस्मों में उसका काम और नेग होता था, अब भी होता है. वह बुलौआ देने, न्योता बांटने ( शादी के बाद लड़की के मायके से आये पकवान घर-घर बांटने ) भी जाती थी. इसके लिए भी उसे घरों से नेग मिलता था. अब डाक से कार्ड बांटने, ख़ुद जाकर देने और व्हाट्स ऐप पर स्कैन करके कार्ड व इस हेतु बनवाया वीडियो भेज देने से नाऊ के यह परम्परागत कार्य लुप्त हो गये हैं, वैसे नाऊ भी अब नहीं होते, कोई भेजे भी तो अब वे भी अब बाईक से तय की जाने वाली दूरी तक बाईक से ही जायेंगे.कलाकार, नाटककार, भोजपुरी के सेक्सपियर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर जात से भी नाऊ थे, गाँव में नाऊगिरी ( दाढ़ी बनाना, बाल काटना आदि ) भी करते थे और इस तरह की निमंत्रण देने वाली नाऊगिरी भी. उन पर आधारित संजीव के उपन्यास, 'सूत्रधार' में इसका वर्णन है.
बाहर से आने वाली बारातों के लिए तो यह निहायत ज़रूरी था, लोकल के लिए भी ज़रूरी था. बाराती सुबह या दोपहर में चले होते थे, दाढ़ी तब तक फिर से बनाने लायक हो चुकी होती थी. कुछ बाराती ऐसे होते थे कि कल तो बारात आना ही है तो आज क्यों बनवाएँ/बनाएँ, वहीं बनवाएँगे. ऐसे ही बारात के समय पहनने वाले कपड़े अटैची/बैग में मुस जाते थे तो उन्हें वहीं प्रेस कराना होता, जूते/चप्पल धूलमण्डित हो चुके होते, उन्हें भी वहीं पॉलिश कराना होता. एक बार तो ऐसे जड़ियल बाराती मिले जिन्होंने सगर्व बताया कि जूता तो हम बस बरातन मा पालिस कराइत है ! अब कौन दूसरे शहर/गाँव जाकर कपड़ा-जूता उठाए नौव्वा, धोबी और मोची ढूँढे और उससे बड़ी बात कि क्यों ढूँढे - बरात जा रहे हैं कि बात ! नशा-पत्ती वगैरह आत्मनिर्भर लोग ख़ुद लेकर आते थे, बहुधा तो वर का बाप/बड़ा भाई या वर करता था. यह व्यवस्था आज की अधिकांश बारातों में होती है, वैसे हमने एक बारात में बारात जनवासे में उतरने और जलपान के बीच लड़की वालों को देखा है जो बारातियों को भांग के लिए पूछ रहे थे और बहुतेरे ग्रहण कर रहे थे. बहुत नहीं, बस चालीस साल पुरानी बात है यह, हम बाराती थे, सहकर्मी की शादी थी, हमसे भी पूछा गया पर भांग में हमारी रुचि न थी और बाक़ी इस मामले में हम 'आत्मनिर्भर' थे. यह सब 'स्वागत बारात' का पूर्वाङ्ग होता था.
लोकल बारात में भी जनवासे में नाऊ, धोबी, मोची की व्यवस्था होती थी, काहे से कि बहुत से बाराती (निकट सम्बन्धी व मित्र) रात रुकते व दुल्हन विदा करा कर ही आते थे तो दो सेट कपड़े लाते थे, कुछ रात में लौटने वाले भी बारातयोग्य कपड़े वहीं बदलते हैं, दाढ़ी वहीं/फिर से बनवाते, जूता चमकवाते हैं - कारण वही, बाराती हैं कि बात !
अब जनवासे में बारात के लिए ये सब नहीं होते. लोग तैयार होकर ही आते हैं. अधिकांश लोग अपने साधन से आते हैं तो कपड़े खराब भी नहीं होते या कार में ही हैंगर मे सूट टांग कर लाते हैं. लड़कों को चेन्ज करने में न उतना समय लगता है, न कोई खास आड़ चाहिए, जब लघुशंका आदि से कहीं भी निवृत्त हो लेते हैं तो कपड़े बदलने में कैसी आड़. लड़कियां/औरतें तो तैयार होकर ही आती हैं, अगर वहाँ तैयार होने की सोचें तो बारात आधी रात के बाद या भोर पहर ही उठ पाये.
नाऊ की ज़रूरत तो अब होती नहीं, काहे से कि पहले क्लीन शेव्ड/पतली मूंछों वाले, चाकलेटी चेहरे वाले, झेंपे-झेंपे से दूल्हे परम्परा में थे , अब कई सालों से दढ़ियल दूल्हे परम्परा में हैं. सौ में लगभग नब्बे दूल्हे (लगभग इसलिए कि गाँव के व बाल विवाह वाले दूल्हे छोड़ दिए ) ऐसे ही होते हैं, दाढ़ी अलबत्ता करीने से सेट होती है. बाबा छाप दाढ़ी में अभी समय है.
दूल्हा ही नहीं, लगभग सारे ही पुरुष बाराती दाढ़ी रखाए होते हैं. बच्चों को ज़रूरत नहीं और जो दो-चार बड़ी उमर के या रूढ़िवादी बाराती क्लीन शेव्ड या दाढ़ी बनाये होते हैं तो उनके लिए क्या ये झण्झट पालना.
वैसे एक पोस्ट पर दढ़ियल दूल्हों के दाढ़ी बनवा कर आने की शर्त रखने की बात की गयी तो एक ने जनवासे में इस काम के लिए नाऊ तैनात करने का सुझाव दिया, वो बहुमत से खारिज़ हो गया पर जनवासे में नाऊ रखा जा सकता है, बल्कि अब और उपयोगी होगा - दाढ़ी बनाने नहीं बल्कि सेट करने के लिए ! वैसे तो सब सुबह या दोपहर या शाम को सेट करा कर ही आये होते हैं पर सुबह या दोपहर को सेट करा कर आने वालों को ज़रूरत हो सकती है -
... देखों, मेन दाढ़ी के अलावा बाक़ी पर ज़ीरो नम्बर चला दो, चिन के आस-पास एक नम्बर, दोनों साईड और नीचे ब्लेड लगेगा, गुद्दी पर भी ब्लेड लगा दो. कान के ऊपर वैसे तो अभी सही है, मगर तीन या चार नम्बर चला दो और जो इधर-उधर हो रहे हैं, उन्हें कैंची से ठीक कर दो. बाक़ी और कुछ मत करना, दोपहर को सेट तो करा ही चुके हैं ...
तो देखा, पड़ सकती है ना जनवासे में नाऊ की ज़रूरत ! दढ़ियल दूल्हे और बारातियों के बावजूद !
ऐसा नाऊ नाऊगिरी के के अन्य कार्य, जैसे दाढ़ी बनाना, बाल काटना आदि, उस समय नहीं करता और जनवासे में भी तैनात नही होता. जनवासे में एक अलग नाऊ होता था जो इच्छुक बरातियों की दाढ़ी बनाता था, बाल वगैरह न वह काटता था, न ही कोई बाराती कटाते थे. ऐसे ही धोबी केवल प्रेस करता था और मोची केवल पॉलिश करता था. बारात चाहे बाहर से आ रही हो या लोकल, ये तीन ज़रूर जनवासे में तैनात किए जाते थे.
बाहर से आने वाली बारातों के लिए तो यह निहायत ज़रूरी था, लोकल के लिए भी ज़रूरी था. बाराती सुबह या दोपहर में चले होते थे, दाढ़ी तब तक फिर से बनाने लायक हो चुकी होती थी. कुछ बाराती ऐसे होते थे कि कल तो बारात आना ही है तो आज क्यों बनवाएँ/बनाएँ, वहीं बनवाएँगे. ऐसे ही बारात के समय पहनने वाले कपड़े अटैची/बैग में मुस जाते थे तो उन्हें वहीं प्रेस कराना होता, जूते/चप्पल धूलमण्डित हो चुके होते, उन्हें भी वहीं पॉलिश कराना होता. एक बार तो ऐसे जड़ियल बाराती मिले जिन्होंने सगर्व बताया कि जूता तो हम बस बरातन मा पालिस कराइत है ! अब कौन दूसरे शहर/गाँव जाकर कपड़ा-जूता उठाए नौव्वा, धोबी और मोची ढूँढे और उससे बड़ी बात कि क्यों ढूँढे - बरात जा रहे हैं कि बात ! नशा-पत्ती वगैरह आत्मनिर्भर लोग ख़ुद लेकर आते थे, बहुधा तो वर का बाप/बड़ा भाई या वर करता था. यह व्यवस्था आज की अधिकांश बारातों में होती है, वैसे हमने एक बारात में बारात जनवासे में उतरने और जलपान के बीच लड़की वालों को देखा है जो बारातियों को भांग के लिए पूछ रहे थे और बहुतेरे ग्रहण कर रहे थे. बहुत नहीं, बस चालीस साल पुरानी बात है यह, हम बाराती थे, सहकर्मी की शादी थी, हमसे भी पूछा गया पर भांग में हमारी रुचि न थी और बाक़ी इस मामले में हम 'आत्मनिर्भर' थे. यह सब 'स्वागत बारात' का पूर्वाङ्ग होता था.
लोकल बारात में भी जनवासे में नाऊ, धोबी, मोची की व्यवस्था होती थी, काहे से कि बहुत से बाराती (निकट सम्बन्धी व मित्र) रात रुकते व दुल्हन विदा करा कर ही आते थे तो दो सेट कपड़े लाते थे, कुछ रात में लौटने वाले भी बारातयोग्य कपड़े वहीं बदलते हैं, दाढ़ी वहीं/फिर से बनवाते, जूता चमकवाते हैं - कारण वही, बाराती हैं कि बात !
अब जनवासे में बारात के लिए ये सब नहीं होते. लोग तैयार होकर ही आते हैं. अधिकांश लोग अपने साधन से आते हैं तो कपड़े खराब भी नहीं होते या कार में ही हैंगर मे सूट टांग कर लाते हैं. लड़कों को चेन्ज करने में न उतना समय लगता है, न कोई खास आड़ चाहिए, जब लघुशंका आदि से कहीं भी निवृत्त हो लेते हैं तो कपड़े बदलने में कैसी आड़. लड़कियां/औरतें तो तैयार होकर ही आती हैं, अगर वहाँ तैयार होने की सोचें तो बारात आधी रात के बाद या भोर पहर ही उठ पाये.
नाऊ की ज़रूरत तो अब होती नहीं, काहे से कि पहले क्लीन शेव्ड/पतली मूंछों वाले, चाकलेटी चेहरे वाले, झेंपे-झेंपे से दूल्हे परम्परा में थे , अब कई सालों से दढ़ियल दूल्हे परम्परा में हैं. सौ में लगभग नब्बे दूल्हे (लगभग इसलिए कि गाँव के व बाल विवाह वाले दूल्हे छोड़ दिए ) ऐसे ही होते हैं, दाढ़ी अलबत्ता करीने से सेट होती है. बाबा छाप दाढ़ी में अभी समय है.
दूल्हा ही नहीं, लगभग सारे ही पुरुष बाराती दाढ़ी रखाए होते हैं. बच्चों को ज़रूरत नहीं और जो दो-चार बड़ी उमर के या रूढ़िवादी बाराती क्लीन शेव्ड या दाढ़ी बनाये होते हैं तो उनके लिए क्या ये झण्झट पालना.
वैसे एक पोस्ट पर दढ़ियल दूल्हों के दाढ़ी बनवा कर आने की शर्त रखने की बात की गयी तो एक ने जनवासे में इस काम के लिए नाऊ तैनात करने का सुझाव दिया, वो बहुमत से खारिज़ हो गया पर जनवासे में नाऊ रखा जा सकता है, बल्कि अब और उपयोगी होगा - दाढ़ी बनाने नहीं बल्कि सेट करने के लिए ! वैसे तो सब सुबह या दोपहर या शाम को सेट करा कर ही आये होते हैं पर सुबह या दोपहर को सेट करा कर आने वालों को ज़रूरत हो सकती है -
... देखों, मेन दाढ़ी के अलावा बाक़ी पर ज़ीरो नम्बर चला दो, चिन के आस-पास एक नम्बर, दोनों साईड और नीचे ब्लेड लगेगा, गुद्दी पर भी ब्लेड लगा दो. कान के ऊपर वैसे तो अभी सही है, मगर तीन या चार नम्बर चला दो और जो इधर-उधर हो रहे हैं, उन्हें कैंची से ठीक कर दो. बाक़ी और कुछ मत करना, दोपहर को सेट तो करा ही चुके हैं ...
तो देखा, पड़ सकती है ना जनवासे में नाऊ की ज़रूरत ! दढ़ियल दूल्हे और बारातियों के बावजूद !
बहुत बढ़िया चित्रण किया बारातों और नाऊ का. यह सही है कि आजकल युवा पीढ़ी क्लीन शेव कम ही दिखती है. मैं ने तो कई शादियों में देखा है कि दूल्हा दो तीन दिन की बढ़ी हुई दाढ़ी में शादी कर रहा होता है. मेरी समझ में नहीं आता कि यार क्यों ऐसी सूरत बना कर रखते हो जैसे मुर्दनी में आये हो. या तो ढंग से दाढ़ी बढ़ा लो या फिर क्लीन शेव रहो. एक बात पर आपत्ति है दो-चार बड़ी उमर के या रूढ़िवादी बाराती क्लीन शेव्ड या दाढ़ी बनाये होते हैं". भई, बड़ी उमर का दाढ़ी बनाने से क्या ताल्लुक ? हमारी आदत है रोज़ दाढ़ी बनाने की तो बीस साल की उम्र से लेकर आज छियासठ साल तक बिला नाग़ा बनाते आ रहे हैं. रुढ़िवादिता की भी इसमें क्या बात है ? आप शौकिया दाढ़ी बढ़ाते हैं, हम आदतन दाढ़ी बनाते हैं. बहरहाल, बहुत बढ़िया आलेख के लिये 'लम्बी दाढ़ी भर' बधाई.
ReplyDeleteधन्यवद राजेन्द्र भाई पोस्ट पढ़ने और त्वरित टिप्पणी के लिए. दाढ़ी को लेकर रवैया और मान्यताएं बदली हैं और दाढ़ी वाले ही अधिक दिखते हैं. एक संस्था ( महिन्द्रा सर्विस सेन्टर ) में सभी पुरुष सदस्य दाढ़ी रखाए थे. मैंने पूछ ही लिया कि क्या आप लोगों की ड्रेस की तरह दाढ़ी रखना भी ज़रूरी है ? डॉक्तर प्रायः दाढ़ी नहीं रखते किन्तु कुछ डॉक्टर भी दढ़ियल देखे हैं. काका ने कहा भी है, 'काका दाढ़ी राखिए, बिन दाढ़ी सब सून ... ' बात नाऊ और नाऊ ठाकुर की थी, दाढ़ी पर होने लगी. वैसे दाढ़ी और नाऊ का सम्बंध तो है ही, भले ही बहुत लोग दाढ़ी ख़ुद बनाते और ट्रिमिंग, शेप वगैरह भी ख़ुद देते हैं. भई, दाढ़ी बनाना / रखाना रूढ़िवादिता नहीं. यह तो पीढ़ी का अन्तर है कि प्रायः बड़ी उमर के लोग तैयार होने, ठीक से रहने में दाढ़ी बनाने को अनिवार्य मानते हैं वहीं अधिकांश युवा दाढ़ी न बनाने को. इसमें नाम Anonymous दिखा रहा था पर नोटिफिकेशन से जाना कि आप हैं. और पोस्ट्स भी देखीं, देखें आनन्द आयेगा.
Deleteरोचक। जैसे जैसे जरूरतें बदलती रहती हैं वैसे वैसे परंपराएँ भी। पहले तो शादी भी दो तीन दिन की होती थी। अब तो वन डे में निपटारा हो जाता है। वैसे नाइ की जरूरत तो होती ही है विशेषकर तब जब बारात दूसरे शहर जा रही हो और शादी अगले दिन हो। पर अब या तो साथ में रेजर ले जाते हैं या वहीं आस-पास में बार्बर शॉप में चले जाते हैं लोग बाग। दोस्तों की शादी में हम तो ऐसा ही करते थे।
ReplyDeleteधन्यवाद विकास भाई. बदलव ही शाश्वत है. हम लोगों ने जो देखा है, उसे मोहाविष्ट अवस्था याद करते हुए, कलपते रहने, 'कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन' टाइप पोस्ट करने के बजाय नयी पीढ़ी को बताना और उस दौर के लोगों की याद ताज़ा करना कि 'ऐसा भी होता आया बल' ऐसी पोस्ट से हो जाता है. लोकल में हम क्या, अधिकांश लोग यह सब घर से करके ही जाते हैं फिर भी बहुतेरे लड़की वाले व्यवस्था तो रखते हैं और जो व्यवस्था करेते हैं, उनमें नाऊ, धोबी और पॉलिस वाला खाली नहीं रहता. व्यवस्था के साथ वो जेवनार भी एक मधुर स्मृति है, उसकी कथा फिर कभी !
Deleteजेवनार वाली पोस्ट की प्रतीक्षा रहेगी।
Deleteअवश्य ! शीघ्र ही देता हूँ.
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