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Wednesday, 1 October 2025

'इधर रहमान उधर बेईमान' के साथ 'मैं बोरिशाइल्ला' व 'किस्सागोई 1971'

'गोमती पुस्तक मेला' लखनऊ, 20 सितम्बर, 2025 से 28 सितम्बर, 2025 तक में 'नीलम जासूस' के स्टाल से अन्य किताबों के साथ जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा की 'इधर रहमान उधर बेईमान' भी ली जो बांग्ला देश के मुक्ति संग्राम पर आधारित उपन्यास है. पढ़ तो पहले भी चुका हूँ, जब प्रकाशित हुई थी, 1971 या 72 में, फिर पढ़ने की इच्छा थी मगर उपलब्ध नहीं थी. जब 'नीलम जासूस कार्यालय' ने पल्प फिक्शन/लोकप्रिय के दिग्गज लेखकों, यथा जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा, वेद प्रकाश काम्बोज, चंदर आदि की कृतियों का पुर्नप्रकाशन शुरू किया तो अन्य कई किताबों के साथ इसे भी लिया.

                      इस किताब का महत्व इसलिए भी है कि जब बांग्ला देश मुक्ति संग्राम जनता की सेना 'मुक्ति वाहिनी' लड़ रही थी, पाकिस्तान के अमानुषिक दमन के बावजूद 'मुक्ति सैनिक' उनको टक्कर दे रहे थे तो तुरन्त ही, युद्ध के दौरान ही, 1971 के आसपास, ओम प्रकाश शर्मा ने यह उपन्यास लिखा और प्रकाशित होते ही यह छा गया. तत्कालीन घटनाक्रम पर तुरत फुरत यह पहला उपन्यास था. ब्रेकिंग न्यूज जैसा शब्द तब चलन में न आया था, इसी शब्दावली में कहें तो यह 'ब्रेकिंग उपन्यास' था, बेस्ट सेलर था, ब्लॉक बस्टर था. इसका क्रेज वे याद कर सकते हैं जो उस दौर के पढ़ाकू हैं. हर पढ़ाकू के हाथ में यह उपन्यास था, न केवल 'पल्प/लुगदी' साहित्य के पाठकों के हाथ में बल्कि गम्भीर साहित्य के पाठकों और लेखकों तक के हाथ में भी. विख्यात लेखक, अमृत लाल नागर ने भी इसे पढ़ा और इसकी प्रशंसा की (उनका पत्र संलग्न )वे जासूसी उपन्यासों के भी शौक़ीन थे.

                उस दौर में और उसके बाद रपट तो खूब आयीं, इस घटनाक्रम पर कथेतर भी खूब आए पर उपन्यास, वह भी तुरन्त, पहला ही था. बाद में भी मुझे याद नहीं पड़ता कि कोई उपन्यास आया हो. आए होंगे तो मेरी जानकारी में नहीं. जन जन तक पहुँचने वाला यह पहला और लोकप्रिय उपन्यास था, उन्होंने ऐसे ही नहीं अपने नाम के साथ 'जनप्रिय लेखक' लगाया था, वे जनप्रिय थे.

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उपन्यास वैसा प्रमाणिक नहीं है, पल्प होने से उनके स्थायी पात्रों - जगत, जयन्त और राजेश - के साथ है. पाकिस्तानी सेना के दमन चक्र और अमानुषिकता व मुक्ति सेना की बहादुरी व कई मोर्चों पर जीत की बातें सही होते हुए भी तिथियों व वास्तविक घटनाओं से पुष्ट नहीं है (बाद का एक साहित्यिक/गम्भीर उपन्यास, महुआ माजी का 'मैं बोरिशाइल्ला' प्रमाणिक विवरणों से पुष्ट है, उसकी चर्चा भी इसी पोस्ट में आगे कर रहा हूँ )शायद मुक्ति संग्राम में भारत की भूमिका, पाकिस्तानी सेना का आत्मसमर्पण और बांग्ला देश के उदय के पूर्व ही 'इधर रहमान उधर बेईमान' लिखा गया क्योंकि उपन्यास में इनका ज़िक्र नहीं है.

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उपन्यास जगत, जयन्त, राजेश सीरीज है (पुराने पाठक इन पात्रो से परिचित हैं) पर है यह जगत सीरीज ही, राजेश व जयन्त तो जैसे फिलर के तौर पर हैं. इसमें जगत ने राजेश जैसा चरित्र भी निभाया है. पाकिस्तानी सेना का दमन चल रहा है और मुक्ति सैनिकों का सशक्त प्रतिरोध भी. पाक मुक्ति सैनिकों के बीच पैठ के लिए अपना जासूस याकूब भेजता है जो प्रमोद घोष नाम से उनमें पैठ बना लेता है. एक जासूस शीरी नाम से कलकत्ता के धनी वर्ग में पैठ बना लेती है. अंर्तराष्ट्रीय ठग जगत भी मुक्ति सैनिकों की ओर से लड़ने के लिए डॉक्टर के छद्म रूप में, फिर असली पहचान के साथ उनमें पैठ बनाता है. सब पाक सेना के कुछ मंसूबे ध्वस्त करते हैं, सैकड़ों औरतों को कैद से मुक्त कराते हैं. लाखों लोग भारत में शरण पाते हैं. जगत याकूब और शीरी को पहचान कर उनका ह्रदय परिवर्तन करके बांग्ला देश के पक्ष में कर लेता है, यहाँ उसने राजेश जैसा चरित्र दिखाया.

              इसी के साथ एक लघु उपन्यास 'मेजर अली रज़ा की डायरी' भी है जो पाक सेना के थे व उनके अमानुषिक दमन को डायरी के माध्यम से उजागर करता है.

               जब यह उपन्यास पढ़ा था तब बारह-तेरह साल का रहा होऊंगा फिर भी इसकी याद और फिर पढ़ने की इच्छा बनी रही जो अब पूरी हुई.

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इसके बाद इस घटनाक्रम, भारत का मुक्ति संग्राम में सक्रिय और निर्णायक हस्तक्षेप, पाक सेना का समर्पण और बांग्ला देश के उदय/विश्व द्वारा एक स्वतन्त्र देश के रूप में मान्यता पर कथेतर तो पढ़े किन्तु उतना ही सशक्त, प्रमाणिक और रोचक उपन्यास महुआ माजी का 'मैं बोरिशाइल्ला' पढ़ा. महुआ माजी वर्तमान में, 2024 से, झारखण्ड में झारखण्ड मुक्ति मोर्चा की राज्य सभा सदस्य भी हैं.












                 जो कथेतर में रुचि नहीं रखते किन्तु प्रमाणिक तथ्यों सहित विस्तार से पूरा घटनाक्रम जानने के इच्छुक हैं, वे यह उपन्यास ज़रूर पढ़ें. उपन्यास वर्ष 2006 में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित है और इसमें 1948 से1971तक के कालखण्ड का चित्रण है. यह उनका पहला उपन्यास है जो पुरस्कृत भी हुआ और विवादित भी.

           इस उपन्यास पर 2024 में श्रवण कुमार गोस्वामी (हिन्दी और नागपुरी भाषा के प्रमुख लेखक, रांची विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर, वर्ष 2020 में 82 वर्ष की आयु में निधन ) ने महुआ माजी पर आरोप लगाया कि वे इस उपन्यास की लेखक नहीं हैं बल्कि उनके परिवार के किसी सदस्य ने आधी अधूरी पाण्डुलिपि उन्हें दी जिसे महुआ माजी ने पूरा करके अपने नाम से प्रकाशित करा लिया. इस पर पक्ष विपक्ष से कई लेखक-लेखिकाओं ने लिखा और साहित्यिक पत्रिका 'पाखी' ने 'श्रवण कुमार-महुआ माजी प्रकरण' शीर्षक से सभी पत्रों को छाप कर इसे खूब हवा दी. बहरहाल यह श्रवण कुमार गोस्वामी का वैयक्तिक भावावेश का प्रलाप ही सिद्ध हुआ.

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बांग्लादेश के उदय और इसमें भारत की प्रमुख भूमिका के 50 वर्ष पूरे होने पर वर्ष 2021 में मशहूर दास्तानगो हिमांशु बाजपेयी और प्रज्ञा शर्मा ने कैण्ट लखनऊ में सेना के 'पुनीत दत्त ऑडिटोरियम, गोरखा सेन्टर' में 'किस्सागोई 1971' नाम से प्रभावी दास्तान प्रस्तुत की. उस दास्तान के कुछ चित्र देखें.

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'इधर रहमान उधर बेईमान' के बहाने बांग्लादेश उदय के घटनाक्रम, एक और उपन्यास और उसके साथ विवाद और दास्तानगोई को भी घसीट लाया.  किसी पोस्ट को विस्तार देने का कुटेव मुझमे है, मेरे साथ इसे भी सहन करें किन्तु आशा है, इस विस्तार को पोस्ट से संगति रखने वाला पायेंगे और ऊबे न होंगे.