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Tuesday, 21 October 2025

गम्भु !


चाय नाश्ता वगैरह करके कम्प्यूटर खोला ही था कि घण्टी बजी, देखा तो छबीले थे. ऊपर बुलाया, आये और बैठे. बैठे तो मगर चैन से नहीं बैठे. बार-बार पहलू बदल रहे थे, लगा कि कुछ है जिसने उन्हें परेशान कर रखा है.  मुखमुद्रा से लग रहा था जैसे कोई शंका बारबार सर उठा कर उन्हें उद्विग्न कर रही हो, शंका भी लघु अथवा दीर्घ प्रकृति की नहीं, उससे भी बड़ी, वो होती तो अपने घर पर या रस्ते में ही कहीं उसका समाधान कर लिए होते, मेरे पास आये तो निश्चित ही मामला इससे कुछ ऊपर का था.  ऐसा इसलिए भी लगा कि चाय पूछने पर बिल्कुल मना कर दिया. बोले, “एक बात पूछनी थी, कल से परेशान किये हुए है.” “पूछो, लग रहा है कि कोई खास बात है. “ “ नहीं, खास तो कुछ नहीं, एक शब्द अटक गया. ये गम्भु क्या होता है ?” “गम्भु !?!” “ये तो कभी सुना या पढ़ा नहीं. तुमने कहाँ पढ़ या सुन लिया ?” “वो सब बाद में बतायेंगे, अभी बहुत ज़ल्दी में हैं, काम पर जाना है. रात भर खौलन मची रही तो काम पर जाने से पहले आ गये नहीं तो रात में आते आराम से ! आप देख कर रखिये.इतना कहते न कहते नीचे से आवाज़ आ गयी कि चलो भाई, देर हो रही है. उनके साथ काम करने वाला बुला रहा था. जाते-जाते कहते गये कि रात को आराम से आते हैं, आप इसका मतलब ढूँढ कर रखिये नहीं तो खाना हजम न होगा.

वो तो गये मगर मुझे उलझन में डाल गये. इनसे मेरा पढ़ने का नाता है. मिस्त्री हैं मगर गजब के पढ़ाकू भी हैं. पिछले बरस कुछ मरम्मत का काम लगवाया था तो मैं देखभाल के लिए और इसलिए भी कि कोई चीज़ कम पड़े तो इंतज़ाम करूँ, इस मतलब से इनके पास ही बैठा रहता था. अब मरम्मत में मेरा क्या दखल सो बैठा कोई किताब पढ़ता रहता था, तभी इन्होंने बताया कि ये भी पढ़ने के बहुत शौक़ीन हैं और झोले से एक किताब भी निकाल कर दिखाई कि रात में पढ़ते हैं और काम से लौटते हुए बदल कर दूसरी लेते हुए जाते हैं. वे किराये पर किताब लाते थे. मुझे बहुत अच्छा लगा कि एक तो पढ़ने के शौक़ीन, दूसरे यह कि अभी भी ऐसी लाईब्रेरियां हैं जो किताब दैनिक किराये पर देती हैं. मेरे और उनके पढ़ाकूपन में अन्तर यह था कि वे केवल जासूसी उपन्यास पढ़ने के शौक़ीन थे जबकि मैं सभी तरह की किताबें पढ़ता हूँ. मिलते हुए शौक़ के चलते वो गाहे-बगाहे आ जाते हैं और कभी कभार मुझसे किताब ले जाते हैं तो देने भी आते हैं और जासूसी उपन्यासों के पात्रों पर या प्लॉट पर बात होती है.

खैर, वे गये तो मगर मुझे उलझन में डाल गये. अब गम्भुन कभी सुना, न पढ़ा. शब्द विन्यास देखते हुए लगा कि संस्कृत का कोई शब्द हो सकता है मगर उनकी पाठकीय अभिरुचि देखते हुए कोई चलताऊ या भदेस या लोक भाषा का शब्द होने की सम्भावना भी थी. सब तलाशा. शब्दकोश देखे, वामन शिवराम आप्टे का संस्कृत हिन्दी शब्दकोशभी देखा और उसमें न मिला तो उर्दू हिन्दी शब्दकोशभी देखा और वहाँ से भी निराश होकर अजित बडनेरकर के शब्दों का सफरके भी दो खण्ड देख डाले. यह भी विचार आया कि गम्भु शम्भु से मिलता-जुलता शब्द है, कहीं शिव जी से सम्बन्धित कोई लोक कथा तो नहीं. ध्यान आया कि शिव जी कथा सुनने काकभुसुन्डि जी के आश्रम गए थे, अब मुझ से पामर जन वहाँ कहाँ  जा पाते तो यह रास्ता छोड़ दिया फिर भी कुछ वैसे लोगों से चर्चा की पर कुछ हल न मिला. एक ने किसी किसान के पास जाने की सलाह दी क्योंकि उसके पास हल होता है मगर मैंने यह सलाह न मानी. किसी नेता के पास ख़ुद ही न गया, जाता तो वह ऐसा घुमा देता कि निकल ही न पाता .

एक अपना व्हाट्स ऐप ग्रुप है, उसमें भी एक से एक पढ़ाकू लोग हैं, उसमें भी पूछा किंतु वहाँ भी कोई न बता पाया. फेसबुक पर पूछना रह गया, वहाँ तो कोई न कोई बता ही देता, एक से एक धुरन्धर भरे हैं फेसबुक पर. न भी बताता तो भी मनोरञ्जन तो होता ही ! कैसी भी पोस्ट हो,  उस पर रायता फैला कर उसे दूसरी दिशा में ले जाने में माहिर हैं कुछ फेसबुकिये ! कुछ में हम भी हैं, एक दो गम्भीर या ललित किस्म की पोस्ट्स पर हमने ऐसा रायता फैलाया कि मूल पोस्ट दरकिनार हो गयी, पोस्टक भी भूल गया होगा कि ये पोस्ट थी काहे पर और उसने की थी या इन लोगों ने, जो मार गदर मचाये पड़े हैं. खैर, ‘गम्भुन मिला. खीझ भी हो रही थी और शर्मिंदगी भी हो रही थी कि वह आकर कहेगा कि वैसे तो मार तमाम किताबें पढ़ते रहते हैं कथेतर, आलोचना, ये विमर्श- वो विमर्श, आयोजनों में भी पिले रहते हैं मगर ज़रा सा ये न बता पाये. फिर हमारे आपमें क्या फर्क रहा !

शाम को वह आया. काम से लौट कर घर नहीं गया, सीधे यहीं आ गया. आते ही पूछा, “मिला गम्भु का मतलब ? ये गम्भु होता क्या है ? किस काम आता है ? कहाँ मिलता है ?” “भई मिला तो नहीं मगर दम तो लो. चाय-शाय पियो और  बताओ कि तुमने कहाँ पढ़ा ? कुछ सन्दर्भ मिले तो बताना आसान हो.” “साहब ! पढ़ा नहीं, सुना है.” “ऐं ! सुना है ! कहाँ सुना, किसने कहा ?” एक साथ कई सवाल पूछ डाले. अरे सुनना कहाँ था, हम कौन सा गोष्ठी ऊष्ठी में जाते हैं, रेडियो पर सुना.” “रेडियो पर ! कोई वार्ता-आर्ता थी क्या लोकायतनया कृषि दर्शनमें ?”

अरे नहीं ! हम ऊ सब नहीं सुनते, बस गाने सुनते हैं. कल एक किताब पढ़ रहे थे और रेडियो भी बज रहा था. सुनील भाई मुलतानी खुलासा करने ही वाले थे कि स्टडी बंद की बंद, लॉक से कोई छेड़छाड़ नहीं तो बिना खिड़की-रोशनदान वाली स्टडी में कैसे खून हो गया कि गाना बजा, ‘मुझे पीने का शौख नहीं पीता हूँ गम्भु लाने कोअब ये गम्भु क्या है और क्या ऐसी जरूरी चीज है कि पीने का शौख न होते हुए भी गम्भु लाने को पीना पड़े. बस तबसे इसी उलझन में पड़े हैं कि क्या होता है ये औ किस काम आता है, कहाँ मिलता है ? काम का हो और बहुत महँगा न मिले तो हम भी लाकर रख लें थोड़ा !

 धत्त तेरे की !मैनें कपार ठोक लिया. अरे घामड़ ! ये गम्भु लाने कोनहीं ग़म भुलाने कोहै. वह ग़म भुलाने के लिए पीता है न कि गम्भु कोई चीज़ है जिसे लाने को पीता है. खामख़्वाह सर घुमा दिया, ठीक से सुना करो.

ओह ! तो ये था ! तो ठीक से गाया करें ना ! आप भी सुनिए, सुनाई न पडे गम्भु तो कहिएगा.   हम भी खामखाँ मार परेशान हो गये. अच्छा चलता हूँ. अब नींद अच्छी आयेगी.

हमने तो कपार ठोक लिया, अब आप भी ठोक रहे होंगे ये पढ़ कर. खोदा पहाड़, निकला चूहा ! वाह रे गम्भु !

Friday, 17 October 2025

संक्षिप्तीकरण


इन दिनों विनोद कुमार शुक्ल चर्चा में हैं किन्तु हम आकर्षित और चिंतित उस वजह से नहीं हुए जिस वजह से वे चर्चा में हैं बल्कि उनके नाम के संक्षिप्तीकरण से हुए ! अधिकतर जगहों पर उन्हें 'विकुशु' लिखा जा रहा है. हमने भी कई जगह उन्हें विकुशु ही लिखा.

                             अब ऐसा भी क्या आलस, संक्षिप्तीकरण और ज़रूरत कि उन्हें विकुशु बना दो. क्या पता, लिखते-लिखते यार-दोस्त, प्रकाशक, मोहल्ले वाले, घरवाले उन्हें विकुशु ही पुकारने लगे हों. कोई आगन्तुक, पान वाले से पूछे, 'भाई, ये विकुशु जी का घर कहाँ है ?' और वो कहे, 'इधर तो कोई विकुशु-उकुशु नहीं ते और ये कैसा नाम हुआ ?' वैसे कोई उमेश कुमार शुक्ल ‘उकुशु’ भी होंगे.

           पहले भी संक्षिप्तीकरण होता था पर वह केवल नाम का था, वि.कु. शुक्ल या अंग्रेजी में V.K.Shukla. यद्यपि इस संक्षिप्तीकरण में भी पूरा नाम न जानने वालों को संशय होता, विभा कुमारी शुक्ला हैं, विमल कुमार शुक्ला, विद्या करन शुक्ला हैं कि विजय कुमार शुक्ला ... ! भई दो शब्दों का तो नाम है जिसमें शुक्ल लगा है तो पूरा विनोद कुमार शुक्ल कहों ना ! काहे अपरिचित को कयास लगाना पड़े. अब सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय जैसा लम्बा नाम तो है नहीं. अब रॉयल्टी का चेक विकुशु के नाम काटा गया होता तो बैंक वापस कर देता.

            नाम के साथ तो सहनीय, कुछ संक्षिप्तीकरण तो विचित्र हैं. जिला पंचायत सदस्य को समाचार में 'जिपंस' पढ़ा तो सोच में पड़ गए कि यह कोई रसायन है या खोजी गयी लुप्तप्राय प्रजाति. Lucknow University Teachers Association और Kanpur University Teachers Association क्रमशः 'लूटा' और 'कूटा' कही लिखी जाती हैं. लेसना एक क्रिया है, किसी को कुछ लेस दो/लसेट दो तो लेसा हुआ मगर लखनऊ विद्युत विभाग 'लेसा' है, कानपुर का 'केसा'. नरेन्द्र मोदी 'नमो' हैं तो राहुल गांधी 'रागां'.  नाम के दो शब्द पूरे नहीं लिखे/उचारे जाते लोगों से ! 'सरिता' में एक विज्ञापन/अभियान जैसा आता था इस पर. उसमें नामों के संक्षिप्तीकरण को लेकर एक नाम होता था, आई.एम.दास.

                  अगर हम लोग भी समय के साथ चलने लगे तो हम होंगे 'रानाव' या 'राना' या फिर 'राव' (राज नारायण वर्मा/राज नारायण / राज वर्मा ) कोई  औपचारिक आदर में राना साहब या  राव साहब पुकारे तो लोग जाने क्या समझ बैठें. कोई संक्षिप्त नाम लेते हुए ‘राना जी’ पुकारे और बाद में स्थिति स्पष्ट हो कि यह तो राज नारायण हैं, कोई राना नहीं तो असली राना से माफी मांगे, ‘मुझको राना जी माफ करना, ग़लती म्हारे से हो गयी …’, उत्तम सिंह भए 'उसिं', हिमांशु बाजपेयी हुए 'हिबा', दिव्य प्रकाश दुबे 'दिप्रदु', पूजा बरनवाल 'पूब' , लखी बरनवाल 'लब' (यह तो उर्दू में होंठ हो गया ). एक दिवंगत नेता नाम के अंग्रेजी संक्षिप्तीकरण में 'पद्दू' हो जांय तो मायावती जी 'मा' रह जांय. यह संक्षिप्तीकरण तो फिर भी ठीक, अगर जवाहर लाल नेहरू का संक्षिप्तीकरण हो, और वे कहीं जायें तो लोग मेज़बान को बताएं, ‘जलाने पधार रहे हैं.’ वैसे अब नेहरू जी कुछ लोगों को जलाने का काम ही करते हैं. जिया लाल हो जायें ‘जिला’ और देवी शरण हो जाएं ‘देश’. इनके संक्षिप्त नाम भ्रामक तो हैं पर लेते / लिखते तो बनते हैं. सोचिए क्या हो अगर महताब राय नेपाली आयें तो संक्षेप में क्या बताया जाए ! पधारें वे और लोग सोचें कि क्या करने पधारे हैं . ऐसे ही हरि राम मीणा के आने पर क्या बताया जाए कि कौन आये हैं और हर गोविंद के आने पर ! बड़ी ही विकट स्थिति हो जाएगी इन लोगों के संक्षिप्त नाम से, जूतमपैजार की नौबत आ जाएगी.

यह तो यह, अख़बार में हेडिंग देखी, ‘’रो-को’ शायद आख़िरी बार ऑस्ट्रेलिया में खेलें. हम चकरा गए कि ये ‘रो-को’ कौन है. पूरा पढ़ने पर पता चला कि यह एक नहीं दो नामों का संक्षिप्तीकरण है – रो है रोहित शर्मा का ‘रो’ और को है विराट कोहली का ‘को’ ! अब संक्षिप्तीकरण ही करना था तो ‘रोश’ और ‘विको’ होता मगर लोग उससे चकराते कहाँ ! उसे ‘रोको’अर्थात रोकने की क्रिया कैसे समझते ! खेद होता है कि कभी अख़बार भाषा की शुद्धता के लिए भी जाने जाते थे.

             भई ! इतना आलस न करें. नाम तो पूरा रहने दें. कहीं संक्षिप्त नाम से चेक-वेक न काट देना, लौट आएगा.

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Wednesday, 1 October 2025

'इधर रहमान उधर बेईमान' के साथ 'मैं बोरिशाइल्ला' व 'किस्सागोई 1971'

'गोमती पुस्तक मेला' लखनऊ, 20 सितम्बर, 2025 से 28 सितम्बर, 2025 तक में 'नीलम जासूस' के स्टाल से अन्य किताबों के साथ जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा की 'इधर रहमान उधर बेईमान' भी ली जो बांग्ला देश के मुक्ति संग्राम पर आधारित उपन्यास है. पढ़ तो पहले भी चुका हूँ, जब प्रकाशित हुई थी, 1971 या 72 में, फिर पढ़ने की इच्छा थी मगर उपलब्ध नहीं थी. जब 'नीलम जासूस कार्यालय' ने पल्प फिक्शन/लोकप्रिय के दिग्गज लेखकों, यथा जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा, वेद प्रकाश काम्बोज, चंदर आदि की कृतियों का पुर्नप्रकाशन शुरू किया तो अन्य कई किताबों के साथ इसे भी लिया.

                      इस किताब का महत्व इसलिए भी है कि जब बांग्ला देश मुक्ति संग्राम जनता की सेना 'मुक्ति वाहिनी' लड़ रही थी, पाकिस्तान के अमानुषिक दमन के बावजूद 'मुक्ति सैनिक' उनको टक्कर दे रहे थे तो तुरन्त ही, युद्ध के दौरान ही, 1971 के आसपास, ओम प्रकाश शर्मा ने यह उपन्यास लिखा और प्रकाशित होते ही यह छा गया. तत्कालीन घटनाक्रम पर तुरत फुरत यह पहला उपन्यास था. ब्रेकिंग न्यूज जैसा शब्द तब चलन में न आया था, इसी शब्दावली में कहें तो यह 'ब्रेकिंग उपन्यास' था, बेस्ट सेलर था, ब्लॉक बस्टर था. इसका क्रेज वे याद कर सकते हैं जो उस दौर के पढ़ाकू हैं. हर पढ़ाकू के हाथ में यह उपन्यास था, न केवल 'पल्प/लुगदी' साहित्य के पाठकों के हाथ में बल्कि गम्भीर साहित्य के पाठकों और लेखकों तक के हाथ में भी. विख्यात लेखक, अमृत लाल नागर ने भी इसे पढ़ा और इसकी प्रशंसा की (उनका पत्र संलग्न )वे जासूसी उपन्यासों के भी शौक़ीन थे.

                उस दौर में और उसके बाद रपट तो खूब आयीं, इस घटनाक्रम पर कथेतर भी खूब आए पर उपन्यास, वह भी तुरन्त, पहला ही था. बाद में भी मुझे याद नहीं पड़ता कि कोई उपन्यास आया हो. आए होंगे तो मेरी जानकारी में नहीं. जन जन तक पहुँचने वाला यह पहला और लोकप्रिय उपन्यास था, उन्होंने ऐसे ही नहीं अपने नाम के साथ 'जनप्रिय लेखक' लगाया था, वे जनप्रिय थे.

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उपन्यास वैसा प्रमाणिक नहीं है, पल्प होने से उनके स्थायी पात्रों - जगत, जयन्त और राजेश - के साथ है. पाकिस्तानी सेना के दमन चक्र और अमानुषिकता व मुक्ति सेना की बहादुरी व कई मोर्चों पर जीत की बातें सही होते हुए भी तिथियों व वास्तविक घटनाओं से पुष्ट नहीं है (बाद का एक साहित्यिक/गम्भीर उपन्यास, महुआ माजी का 'मैं बोरिशाइल्ला' प्रमाणिक विवरणों से पुष्ट है, उसकी चर्चा भी इसी पोस्ट में आगे कर रहा हूँ )शायद मुक्ति संग्राम में भारत की भूमिका, पाकिस्तानी सेना का आत्मसमर्पण और बांग्ला देश के उदय के पूर्व ही 'इधर रहमान उधर बेईमान' लिखा गया क्योंकि उपन्यास में इनका ज़िक्र नहीं है.

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उपन्यास जगत, जयन्त, राजेश सीरीज है (पुराने पाठक इन पात्रो से परिचित हैं) पर है यह जगत सीरीज ही, राजेश व जयन्त तो जैसे फिलर के तौर पर हैं. इसमें जगत ने राजेश जैसा चरित्र भी निभाया है. पाकिस्तानी सेना का दमन चल रहा है और मुक्ति सैनिकों का सशक्त प्रतिरोध भी. पाक मुक्ति सैनिकों के बीच पैठ के लिए अपना जासूस याकूब भेजता है जो प्रमोद घोष नाम से उनमें पैठ बना लेता है. एक जासूस शीरी नाम से कलकत्ता के धनी वर्ग में पैठ बना लेती है. अंर्तराष्ट्रीय ठग जगत भी मुक्ति सैनिकों की ओर से लड़ने के लिए डॉक्टर के छद्म रूप में, फिर असली पहचान के साथ उनमें पैठ बनाता है. सब पाक सेना के कुछ मंसूबे ध्वस्त करते हैं, सैकड़ों औरतों को कैद से मुक्त कराते हैं. लाखों लोग भारत में शरण पाते हैं. जगत याकूब और शीरी को पहचान कर उनका ह्रदय परिवर्तन करके बांग्ला देश के पक्ष में कर लेता है, यहाँ उसने राजेश जैसा चरित्र दिखाया.

              इसी के साथ एक लघु उपन्यास 'मेजर अली रज़ा की डायरी' भी है जो पाक सेना के थे व उनके अमानुषिक दमन को डायरी के माध्यम से उजागर करता है.

               जब यह उपन्यास पढ़ा था तब बारह-तेरह साल का रहा होऊंगा फिर भी इसकी याद और फिर पढ़ने की इच्छा बनी रही जो अब पूरी हुई.

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इसके बाद इस घटनाक्रम, भारत का मुक्ति संग्राम में सक्रिय और निर्णायक हस्तक्षेप, पाक सेना का समर्पण और बांग्ला देश के उदय/विश्व द्वारा एक स्वतन्त्र देश के रूप में मान्यता पर कथेतर तो पढ़े किन्तु उतना ही सशक्त, प्रमाणिक और रोचक उपन्यास महुआ माजी का 'मैं बोरिशाइल्ला' पढ़ा. महुआ माजी वर्तमान में, 2024 से, झारखण्ड में झारखण्ड मुक्ति मोर्चा की राज्य सभा सदस्य भी हैं.












                 जो कथेतर में रुचि नहीं रखते किन्तु प्रमाणिक तथ्यों सहित विस्तार से पूरा घटनाक्रम जानने के इच्छुक हैं, वे यह उपन्यास ज़रूर पढ़ें. उपन्यास वर्ष 2006 में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित है और इसमें 1948 से1971तक के कालखण्ड का चित्रण है. यह उनका पहला उपन्यास है जो पुरस्कृत भी हुआ और विवादित भी.

           इस उपन्यास पर 2024 में श्रवण कुमार गोस्वामी (हिन्दी और नागपुरी भाषा के प्रमुख लेखक, रांची विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर, वर्ष 2020 में 82 वर्ष की आयु में निधन ) ने महुआ माजी पर आरोप लगाया कि वे इस उपन्यास की लेखक नहीं हैं बल्कि उनके परिवार के किसी सदस्य ने आधी अधूरी पाण्डुलिपि उन्हें दी जिसे महुआ माजी ने पूरा करके अपने नाम से प्रकाशित करा लिया. इस पर पक्ष विपक्ष से कई लेखक-लेखिकाओं ने लिखा और साहित्यिक पत्रिका 'पाखी' ने 'श्रवण कुमार-महुआ माजी प्रकरण' शीर्षक से सभी पत्रों को छाप कर इसे खूब हवा दी. बहरहाल यह श्रवण कुमार गोस्वामी का वैयक्तिक भावावेश का प्रलाप ही सिद्ध हुआ.

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बांग्लादेश के उदय और इसमें भारत की प्रमुख भूमिका के 50 वर्ष पूरे होने पर वर्ष 2021 में मशहूर दास्तानगो हिमांशु बाजपेयी और प्रज्ञा शर्मा ने कैण्ट लखनऊ में सेना के 'पुनीत दत्त ऑडिटोरियम, गोरखा सेन्टर' में 'किस्सागोई 1971' नाम से प्रभावी दास्तान प्रस्तुत की. उस दास्तान के कुछ चित्र देखें.

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'इधर रहमान उधर बेईमान' के बहाने बांग्लादेश उदय के घटनाक्रम, एक और उपन्यास और उसके साथ विवाद और दास्तानगोई को भी घसीट लाया.  किसी पोस्ट को विस्तार देने का कुटेव मुझमे है, मेरे साथ इसे भी सहन करें किन्तु आशा है, इस विस्तार को पोस्ट से संगति रखने वाला पायेंगे और ऊबे न होंगे.