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Thursday 17 February 2022

अथ श्री रिसेप्शन कथा !

अथ श्री रिसेप्शन प्रसंग !

कल एक शादी के रिसेप्शन में गया. अब इसे यही कहने का रिवाज़ है, पहले इसे प्रीतिभोज, उससे पहले बहूभोज और उससे भी पहले 'एट होम' कहा जाता था - होता भले ही यह 'एट रोड' या 'एट पार्क' या किसी धर्मशाला आदि में था. अब तो यह ही नहीं, सारे वैवाहिक कार्यक्रम किसी गेस्ट हाउस या होटल में सम्पन्न होते हैं, कुछ दम्पति विवाह उपरान्त सम्पन्न किया जाने वाला संस्कार भी होटल में ही सम्पन्न करते हैं. कुछ पैसे की बलिहारी और कुछ देखा-देखी कि अब माङ्गलिक कार्यों हेतु भी घर में जगह नहीं - चाहे एक-दो कमरों का घर हो या दसियों कमरों वाला.

ये कल वाला 'एट होम' घर के सामने स्थित पार्क में था. एक हिस्से में वर-वधु के लिए स्टेज और डी.जे. व एक बड़े हिस्से में भोजन व्यवस्था. यह डी.जे. भी अब ऐसे समारोहों का अनिवार्य अङ्ग है और लगता वर-वधु के बगल में ही है, मेहमानों का सर भन्नाने लगता है तो वे बेचारे तो इसे लगातार खोपड़ी पर झेलते हैं. तो डी.जे. बज रहा था और मस्तों की टोली नाच रही थी. अब नाच के लिए डी.जे. बजे और उसमें भोजपुरी/हरयाणवीं/पंजाबी गाने न बजें, यह कैसे हो सकता है. गाना बज रहा था, "मइके से जब तू ससुरे गइलू, भतार के संगे का-का कहिलू ... ! गीत प्रश्नोत्तर शैली में था, इस जिज्ञासा के शमन में नायिका ने जो-जो बताया, वो यहाँ लिखनीय नहीं है. लोग इस पर डांस कर रहे थे. वैसे डांस में बहुत कुछ उत्प्रेरक इन गीतों के अलावा कुछ एम.एल. तरल विशेष भी होता है.

एक और गीत बजा जिसमें सेज-वेज के ज़िक्र के साथ नायिका ने सूचना दी, 'सैंया दिल मांगे अंगौछा बिछाय के ...' नायिका ने शालीनतावश ही दिल मांगने की सूचना दी अन्यथा अबके कुछ भोजपुरी गीत व्यवहार और वर्णन में खुलेपन के कायल हैं. 'लगावे लू लिपिस्टिक', रिमोट से लंहगा उठाने के गीत भी बजे. कुछ भी कहें, शालीनता-वालीनता को ताक पर रख दें तो मज़ा अबके भोजपुरी गीतों में भरपूरआता है, बोटी-बोटी फड़कने लगती है. नेहा सिंह राठौर जाने क्यों बाराती नचनियों से ये उद्दीपक गीत छीनने पर लगी हैं. वैसे तो अवधी, बुन्देलखण्डी गीत भी इनसे ज़बर हैं मगर उनपे ऐसा बदनतोड़ डांस नहीं हो पाता. पुराने दौर की बारातों में शहर तक में 'लौण्डा पटवारी का बड़ा नमकीन', 'लौण्डा बदनाम हुआ, नसीबन तेरे लिए', 'करेजहू, करेजहू ! एक चुम्मा देहिले जावा हो करेजहू ' टाईप गाने बजते सुने हैं. अब तो मारे शुचिता के 'वो शब ओ रोज़ ओ माह ओ साल कहाँ ...'

फ़िल्मी गाने तो बज ही रहे थे, एक गाने ने ध्यान खींचा, “… छत पे सोया था बहनोई मैं घड़ी समझ के सो गयी. मुझको राणा जी माफ करना ! ग़लती म्हारे से हो गयी … “ फ़िल्म में दो आईटम गर्ल्स नाच रही थीं, यहाँ तो कई लोग थे. जिस बात ने ध्यान खींचा वो थी गाने में किया जा रहा गुदगुदाने वाला मज़ाक ! संबंधियों मॅ शादी-ब्याह, नाच-गाना में मज़ाक खूब  चलते हैं. जेवनार के समय गारी गायी जाती है किंतु ऐसे मज़ाक महिलाएं ननदोई को  लेकर करती हैं, बहनोई को इंगित करते हुए नहीं. बहनोई से भी ऐसे परिहास का रिश्ता होता है किंतु बड़ी बहन के पति से, छोटी के से नहीं. बड़ी बहन का पति  ‘जीजा’/ ‘जीजू’ कहलाता है, छोटी का बहनोई. ऐसा हास परिहास ननदोई के साथ होता है या ननद के साथ. ननदोई से ही ऐसी छेड़ छाड़ होती है. लोकगीत भी है, “ … सरौता कहाँ भूल आये प्यारे ननदोईया …” इस लोकगीत में सरौता भूलने से अधिक ज़ोर ‘कहाँ’ पर है, इसकी चर्चा होती है कि कहाँ गये थे.    फ़िल्मी गीतकार इस परम्परा से परिचित न रहा होगा.

बारातों के किस्से बहुत हैं, एक ही कार्य व्यापार सम्पन्न होने पर/तक एक पक्ष मुदित होता है तो दूसरा कुढ़ता है, एक तीसरा पक्ष भी होता है जो न वर पक्ष होता है न वधु पक्ष - वह भी कुढ़ता, अड़ंगे लगाता और मुदित होता है. बेगानी शादी में बहुतेरे अब्दुल्ले दीवाने होते हैं, आस-पास की मधुशालाओं, देशी-विदेशी की और चिखना की बिक्री पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है, राजस्व, अर्थव्यवस्था आदि  सहालग में उछाल भरने लगती है.

एक व्यक्तिगत प्रसङ्ग भी है. घर के सामने ही आयोजन था सो सोचा क्या रिसेप्शनोचित ढंग से तैयार होऊँ, सामने ही तो जाना है. जो पहन कर बाज़ार गया था वो भी ठीक थे, उन्हें ही पहन लेता हूँ कि प्रतिवाद किया गया और कपड़े और ठीक-ठाक/औपचारिक पहने. अब हिजाब-विजाब क्या, असहिष्णुता इतनी हो गयी है कि कोई अपनी मर्ज़ी का पहन-ओढ़ भी नहीं सकता.


नोटः फोटो वर्णित रिसेप्शन की नहीं हैनेट से टीपी है. अब इस तरह दावत लुप्तप्राय है.



2 comments:

  1. मजेदार किस्सा। या बतकही। यह 'ऐट होम' पहली बार सुना मैंने। वैसे कथा रिसेप्शन की और खाने का कोई जिक्र ही नहीं। यह भी कोई बात हुई। इसका अगला अंक भी आना चाहिए जिसमें भोजन चर्चा भी हो। इसे तो हम डी जे कथा ही मानेंगे। आप इतना ध्यान देते हैं गाने के बोल पर। मेरा तो इतने शोर में ऐसा सर भन्ना जाता है कि शब्द कुछ पल्ले नहीं पड़ते। पर अभी मैंने लोटपोट होकर सारे गाने पढ़े। अच्छा आपने पार्टी में वह गीत सुना कि नहीं, 'मन्ने घना कसूटा लागे सै...'? इसके बिना तो शायद पार्टी ही नहीं होती आजकल।
    हाँ, हमारे यहाँ यानी कि बंगाल में लेटेस्ट चल रहा है 'काचा बादाम'। वह सुना कि नहीं बताइयेगा।

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  2. पढ़ने और पढ़ने से अधिक प्रतिक्रिया के लिए आभार. 'एट होम' लखनऊ व आस-पास ्खूब प्रचलित था. उत्तम भाई ने इसका आशय भी बताया था कि अगर लोकल शादी नहीं होती थी तो बारात दूसरे शहर जाती थि जिसमेम कम लोग ले जाये जाते थे. मिलने वाले / निमंत्रित करने योग्य दो सौ परिवार होते थे तो बारात में साठ से सौ तक लोग ही जाते थे तो अपनी तरफ के लोगों को दावत देने के लिए अपने शहर में यानि एट होम दावत देते थे. भोजन चर्चा का खूब याद दिलाया बल्कि उकसा दिया अगली पोस्ट के लिए. भोजन चर्चा भी होगी किंतु उससे पहले बारात की अगवानी पर चर्चा होगी. पर्यवेक्षण मेरा स्वभाव सा है , उसी में गानों पर ध्यान दिया.'मन्ने घना कसूटा लागे सै.. भी सुना है. 'काचा बादाम' खूब चल रहा है और हम लोग भी खूब सुनते हैं, नातिन को भी बहुत अच्छा लगता है.

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