रामायण में त्रिजटा नामक राक्षसी का उल्लेख है. रावण जब सीता जी को हर ले गया तो उसने उन्हें अशोक वाटिका में रखा और उनकी रक्षा, सेवा और भय दिखा कर या समझा बुझा कर रावण की पत्नी बनने को तैयार करने के लिए अनेक राक्षसियों को नियुक्ति किया जिनकी अगुवा/ प्रधान त्रिजटा नामक राक्षसी थी. त्रिजटा थी तो राक्षसी किंतु वह राक्षसी स्वभाव की नहीं थी, राम भक्त थी, सीता का ख़्याल रखती और अन्य राक्षसियों को भी सीता के प्रति दुर्भावना न रखने, उनकी सेवा के लिए प्रेरित करती थी. इतना ही नहीं, वह समय समय पर सीता का मनोबल बढ़ाती रहती थी. गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरित मानस के सुन्दरकाण्ड और लङ्काकाण्ड में त्रिजटा का वर्णन / चरित्र निरूपण किया है.
सुन्दरकाण्ड में वर्णन
है कि रावण अशोकवाटिका में खूब बनाव –श्रंगार
करके सब रानियों सहित आया और सीता जी को अपनी हो जाने के लिए लुभाने लगा. पहले प्रस्ताव किया, लालच दिया, भय दिखाया और चन्द्रहास नामक खङ्ग निकाल कर मारने भी दौड़ा. उसकी रानियों ने समझाया तो एक माह की अवधि दी कि यदि मेरा कहा न माना तो मैं
तुमको मार डालूँगा –
मास
दिवस महुँ कहा न माना। तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना॥
रावण चेतावनी देकर
गया तो रावण के आदेशानुसार राक्षसियां भयङ्कर वेश बना कर उन्हें डराने लगीं.
उन्हीं में एक त्रिजटा नामक राक्षसी थी जो राम भक्त और विवेकवान थी.
उसने सबको समझाया कि तुम सबकी भलाई इसी में है कि सीता की सेवा करो और
उन्हें डराने व सीता का मनोबल बढ़ाने के लिए अपना सपना भी सुनाया कि मैंने स्वप्न में
देखा एक वानर ने लङ्का जला दी, युद्ध हुआ और राक्षसों की सारी
सेना मार डाली गयी. रवण के सर और भुजायें काट डाली गयीं और वह
इस अमङ्गल वेश में नग्न अवस्था में गधे पर बैठा दक्षिण दिशा की ओर ( मृत्यु की दिशा में ) जा रहा है, लङ्का का राज्य विभीषण को मिल गया है –
त्रिजटा नाम राक्षसी एका। राम चरन रति निपुन
बिबेका॥
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना। सीतहि सेइ करहु
हित अपना॥
सपने बानर लंका जारी। जातुधान सेना सब मारी॥
खर आरूढ़ नगन दससीसा। मुंडित सिर खंडित भुज
बीसा॥
एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई। लंका मनहुँ बिभीषन
पाई॥
नगर फिरी रघुबीर दोहाई। तब प्रभु सीता बोलि
पठाई॥
इतना कह कर उसने मनोवैज्ञानिक दबाव भी डाला कि चार
( कुछ) दिन में यह सपना सच होगा. तब यह सोच कर कि तब सीता इस स्थिति में न होंगी, राम
विजयी होंगे तो वे सब बहुत डरीं और सीता जी के चरणों में गिर पड़ीं –
यह सपना मैं कहउँ पुकारी। होइहि सत्य गएँ दिन
चारी॥
तासु बचन सुनु ते सब डरीं। जनकसुता के चरनन्हि
परीं॥
सीता को कुछ राहत तो मिली कि राक्षसियां उन्हें तंग नहीं
कर रही थीं किन्तु डर तो था कि माह भर में राम न आये तो नीच राक्षस रावण मुझे मार डालेगा.
तब सीता के मन में आत्मदाह जैसा विचार आया होगा. त्रिजटा से उनका माँ-बेटी जैसा रिश्ता हो चुका था अतः अपनी आशङ्का व्यक्त करते हुए आग की मांग
की. त्रिजटा पर उनकी सुरक्षा का दायित्व था, वह नहीं चाहती थी कि सीता ऐसा विचार भी करें. डांटने
या सीधे मना करने में वह जिद कर सकती थीं अतः युक्ति से काम लेते हुए बहला दिया कि
रात में आग कहाँ मिलती है और वह अपने कक्ष में चली गयी. किसी
ऐसे विचार को टाल देने पर आवेश शांत हो जाता है, विकल्प सोचने
का अवसर मिलता है. हितैषी और चतुर त्रिजटा ने यही तरीका अपनाया
–
जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच।
मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच॥
त्रिजटा सन बोलीं कर
जोरी। मातु बिपति संगिनि तैं
मोरी॥
तजौं देह करु
बेगि उपाई। दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई॥
आनि काठु रचु चिता बनाई। मातु अनल पुनि
देहि लगाई॥
सत्य करहि मम
प्रीति सयानी। सुनै को श्रवन सूल सम बानी॥
सुनन बचन पद गहि समुझाएसि। प्रभु प्रताप बल
सुजसु सुनाएसि॥
निसि न अनल मिलि सुनु सुकुमारी। अस कहि सो
निज भवन सिधारी॥
यह प्रसङ्ग सुन्दरकाण्ड में है.
लङ्काकाण्ड में भी त्रिजटा सीता को बहलाती, ढाढस
बंधाती रहती है. वह युद्ध के समाचार सुनाती रहती है ताकि सीता
को पता चलता रहे और सन्तोष हो, आस बंधे कि उनकी मुक्ति के उपक्रम किये जा रहे हैं, राम युद्ध कर रहे हैं. त्रिजटा न होती तो कौन उन्हें सब हाल बताता. यहाँ त्रिजटा
उनकी काउंसलर की भूमिका निभाती है. सीता जब निराश होती हैं,
व्याकुल होती हैं, विचलित होती हैं कि राम रावण
को ज़ल्दी क्यों नहीं मार रहे हैं तो त्रिजटा काव्यात्मक/ आलंकारिक
शैली में सीता को बहलाती है कि राम जी उसके हृदय में तीर मार तो दें, वह तीर लगते ही मर जायेगा किंतु वे मारने में देर इसलिए कर रहे हैं कि रावण
को तो आपका ही ध्यान रहता है अर्थात उसके ह्रदय में आप बसी हैं और आपके ह्रदय में राम
बसे हैं और राम के ह्रदय में तो अनेक ब्रह्माण्ड हैं. अगर रावण
के ह्रदय में तीर मारा तो उसके ह्रदय में बसी सीता और सीता के ह्रदय में बसे राम और
राम के ह्रदय में बसी सारी सृष्टि का नाश तीर लगते ही हो जायेगा. रावण तो मरेगा किंतु साथ ही आप और राम सहित सारी सृष्टि का नाश हो जायेगा इसलिए
वे उसे खिझा रहे हैं, उसका ध्यान भटका रहे हैं. बार बार सर और बाहु काटने और उनके फिर-फिर उग आने से उसका ध्यान आपसे हटेगा और तब उसका ह्रदय केवल उसका होगा,
तब राम जी निःशङ्क होकर उसका अंत कर देंगे –
तेही निसि सीता पहिं जाई। त्रिजटा कहि सब कथा
सुनाई॥
सिर भुज बाढ़ि सुनत रिपु केरी। सीता उर भइ त्रास
घनेरी॥
****
बहु बिधि कर बिलाप जानकी। करि करि सुरति कृपानिधान
की॥
कह त्रिजटा सुनु राजकुमारी। उर सर लागत मरइ सुरारी॥
प्रभु ताते उर हतइ न तेही। एहि के ह्रदयँ बसति
बैदेही॥
एहि के ह्रदयँ बस जानकी जानकी उर मम बास है।
मम उदर भुअन अनेक लागत बान सब कर नास है॥
सुनु बचन हरष बिषाद मन अति देखे पुनि त्रिजटा कहा।
अब
मरिहि रिपु एहि बिधि सुनहि सुंदरि तजहि संसय महा॥
काटत सिर होइहि बिकल छुटि जाइहि तव ध्यान।
तब रावनहि ह्रदय महुँ मरिहहिं रामु सुजान॥
अस
कहि बहुत भाँति समुझाई। पुनि त्रिजटा निज भवन सिधाई॥
अब है तो यह बिल्कुल ही लन्तरानी.
असंगत सी बात. भला ऐसा भी कहीं कि इसके ह्रदय में
वह, उसके ह्रदयस्थ कोई और और उसके भी ह्रदय में चौदह भुवन और
एक को मारने से सब मर जायें किंतु निराश और सशङ्क को बहलाने में कठोर तर्क काम नहीं
करते, उसे मनभाती बात कह कर बहलाना भी होता है. त्रिजटा ने वही किया. गोस्वामी जी ने त्रिजटा को हितैषी
ही नही, चतुर और मनोविज्ञान की ज्ञाता व उसे समुचित समय पर प्रयोग
करने वाली भी दिखाया है.
मानस
में तुलसीदास जी ने श्रीमद्वाल्मीकि रामायण के अनुसार ही त्रिजटा एवं अशोक वाटिका आदि
का संक्षिप्त वर्णन किया है किन्तु वाल्मीकि रामायण में विशद वर्णन है. वाल्मीकि रामायण
के सुन्दरकाण्ड में उन राक्षसियों का नाम और विकराल रूप सहित वर्णन किया है जो सीता
जी की रक्षा / निगरानी में तैनात थीं. गोस्वामी जी ने तो मात्र एक दोहा –
भवन गयउ दसकंधर
इहाँ पिसाचिनी वृंद।
सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मंद॥
में
निपटा दिया किंतु वाल्मीकि रामायण में एक –एक राक्षसी के नाम सहित उसके विकराल रूप
और उद्गार का विशद वर्णन किया है. त्रिजटा ने जो स्वप्न सुनाया, उसका भी बहुत विस्तृत
वर्णन किया है.
****************************
रामचरित मानस व वाल्मीकि रामायण में त्रिजटा का वर्णन यहीं तक है. लङ्का विजय के उपरान्त
जब राम जी सीता को लिवाने के लिए अंगद और विभीषण को भेजा ( हनुमान
अशोक वाटिका में पहले से थे, वे सीता जी को विजय का समाचार सुनाने
गये थे ) तो राक्षसियों द्वारा सीता जी को तैयार करने का उल्लेख
है, त्रिजटा का नहीं.
इसी प्रकार जब राम जी पुष्पक विमान पर चढ़ कर अयोध्या जाने को
उद्वत हुए तो विभीषण भी साथ चलने को इच्छुक थे, उनका प्रेम देख
कर राम जी ने उन्हें भी विमान पर चढ़ा लिया और वे भी साथ में अयोध्या गये. यहाँ भी त्रिजटा का कोई उल्लेख नहीं
किंतु
एक रामायण में उल्लेख है कि त्रिजटा भी साथ
में अयोध्या गयी थी और बहुत बाद में उसे नाना उपहार देकर सीता जी ने लङ्का के लिए विदा
किया था. ‘काकावीन रामायण’ में यह प्रसङ्ग है. ‘काकावीन रामायण’ इण्डोनेशिया की है जो ईसा की नवीं शताब्दी में वहाँ की प्राचीन कावी भाषा में
लिखी गयी है. मेरे पास इस रामायण का हिन्दी अनुवाद है.
निश्चित ही यह भी काव्य होगा किंन्तु अनुवाद में गद्यान्तर किया गया
है. इसमें 26 अध्याय हैं
और लगभग सभी प्राचीन / पौराणिक ग्रंथों की भांति
इसमें क्षेपक / प्रक्षिप्त अंश भी हैं, ऐसे अंशों को भी ग्रन्थ में दिया गया है किन्तु उनमे लिख दिया गया है कि ये
अंश क्षेपक है. त्रिजटा के अयोध्या गमन और वहाँ से विदाई का प्रसङ्ग
अध्याय 26 में श्लोक संख्या 38 से
47 तक है. सीता त्रिजटा को उपहार आदि देकर विदा
करती हैं –
“
… ऐसे अवसर पर त्रिजटा भी आगे आयी. उसने भी वापस
लौटने की आज्ञा ली और निवेदन किया. राम और सीता दोनों के ही समक्ष
त्रिजटा ने प्रार्थना के रूप में यह प्रस्ताव प्रस्तुत किया. वास्तव में सदैव ही त्रिजटा देवी सीता के निकट रही थीं. देवी सीता ने त्रिजटा के प्रति अपना अगाध प्रेम प्रकट करते हुए उन्हें उपहार
स्वरूप अमूल्य वस्त्र आदि वस्तुएं प्रदान कीं. भाँति-भाँति के साज श्रंगार एवं आभूषण दिये गये…
-
श्लोक 38
“
… मेरी प्रतिज्ञा तथा कामना थी कि श्री राम युद्ध में विजयी हों,
जिससे मैं फिर अयोध्या नगरी में सकुशल लौट कर वापस आ सकूँ. वे सभी बातें आज आपके आशीर्वाद और शुभकामनाओं से पूरी हुई हैं. यही नहीं, पूर्ण सफलता के साथ उन इच्छाओं को मैंने साकार
भी किया है. यह सब आपकी पवित्र भावना, शुभकामना
एवं प्रेम के ही कारण संभव हुआ है.
-
श्लोक 42
“
एक शत हंसों को सरोवर में छोड़ कर आप उन्हें आनन्द मनाने दीजिए.
विशाल वन में एक सहस्त्र महिषों को विचरण करने दीजिए और वहाँ पर उन्हें
मुक्त कर दीजिए. एक अर्बुद अर्थात एक सहस्त्र बकरियाँ पर्वतमाला
पर चरने के लिए छोड़ दीजिए. अब मेरी यही अभिलाषा है. वास्तव में जब मैं लंका में घोर कष्ट उठा रही थी और उनसे घिरी हुई थी,
उस समय इन पशु-पक्षियों को इन्हीं स्थानों पर छोड़ने
की मैंने प्रतिज्ञा की थी, अतएव आप लंका में जाकर यह कार्य करके
मेरे वचनों को पूरा करने की कृपा कीजिए.
-
श्लोक 43
“
इस प्रकार मधुर शब्दों में देवी सीता ने त्रिजटा का अभिनन्दन किया. इन शब्दों को सुनकर
त्रिजटा को अपार सन्तोष हुआ. वे देवी सीता से विदा लेकर अयोध्या नगरी से लंका की ओर
प्रस्थान करने को प्रस्तुत हो गयीं. उनके साथ ही महाराज विभीषण तथा वानरराज सुग्रीव
ने भी अपने-अपने गन्तव्य स्थानों के लिए प्रस्थान कर दिया.
-
श्लोक 47
*********************************************
त्रिजटा
न केवल सीता की हितैषी और उनकी अति प्रिय थी अपितु न्याययुक्त बात कहने वाली निडर स्पष्टवादिनी
भी थी. ‘काकावीन रामायण’ के अध्याय 25 में उसकी स्पष्टवादिता का वर्णन है. रावण वध
के उपरान्त जब राम ने सीता की अग्निपरीक्षा की आज्ञा दी तो त्रिजटा को बहुत बुरा और
अन्यायपूर्ण लगा. वह चुप नहीं रही बल्कि स्पष्ट शब्दों में उसने राम की भर्त्सना की. अध्याय 25 में श्लोक संख्या 165 से 187 तक त्रिजटा द्वारा
अग्निपरीक्षा के प्रतिकार और राम की भर्त्सना का उल्लेख है. विस्तार
भय से उन्हें यहाँ नहीं दे रहा हूँ, यदि आप इच्छुक होंगे तो किसी अन्य पोस्ट में उन्हें
भी प्रस्तुत करूँगा.
*****************
एक
अन्य रामायण में त्रिजटा को विभीषण की पुत्री बताया गया है. उसी व अन्य रामायणों पर आधारित
एक वृहद उपन्यास, मदनमोहन शर्मा ‘शाही’ के उपन्यास ‘लंकेश्वर’ में वर्णन है
कि सीता को रावण ने कई उपवन दिखाये और प्रस्ताव किया कि वह जिसमें चाहे
रहे. इस चयन के समय मन्दोदरी भी रावण के साथ थी और बड़े सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में
यह चयन हुआ था. अन्य उपवनों में विलासितापूर्ण सुविधाएं होने के कारण सीता नें उन्हें
मना करके अशोक वाटिका का चयन किया. तब रावण ने विभीषण – सरमा की पुत्री त्रिजटा के
पर्यवेक्षण में उन्हें अशोक वाटिका में रखा –
“
… ठीक है सीते ! तुम्हें यह स्थान अच्छा लग रहा है तो तुम यहाँ
निवास करो. तुम्हारी सुरक्षा के लिए सरमा की पुत्री त्रिजटा नियुक्त
की जाती है और महारानी मन्दोदरी को आज्ञा दी जाती है कि वे तुम्हारे सुख – दुख
का ध्यान रखें. परिचारिकाएँ तुम्हारी सेवा में रहेंगी.
रावण यह आज्ञा देकर चला गया तो
रह गयी मन्दोदरी और राज –सेविकाएँ. मन्दोदरी ने धान्यमालिनी को आज्ञा दी कि वह सीता
के लिए भोजन- व्यवस्था करे… “
-
‘लंकेश्वर’ का ‘मुक्ति खण्ड’ पृष्ठ 416.
विभीषण
राम के पक्ष में मिल ही गये थे और उनकी त्रिजटा से बात होती रहती थी. विभीषण की पुत्री
होने से स्वाभाविक ही था कि वह सीता का विशेष ध्यान रखती ( इसी उपन्यास के मुक्ति खण्ड
में ही. )
********************************
आप
सोच रहे होंगे कि बिना किसी संदर्भ के यह त्रिजटा का वर्णन कैसे ! रामायण
के प्रसारण के दौर में कुछ चरित्रों ने इस सोशल मीडिया युग में भी कई लोगों का
ध्यान अपनी ओर खींचा। उनमें से एक व्यक्तित्व त्रिजटा का भी था। अशोक वाटिका में
सीता को ममत्वपूर्ण संरक्षण देने वाली इस भूमिका में लोगों ने उन्हें काफी पसंद
किया। दर्शकों को उस वास्तविक व्यक्ति को जानने की उत्सुकता थी जिसने इस भूमिका को
निभाया था।
त्रिजटा का किरदार निभाया था विभूति परेश चंद्र दवे ने,
जोकि गुजरात के सूरत की रहने वाली थीं। ख़बरों
के अनुसार विभूति के पति परेश चंद्र दवे ने बताया था कि विभूति अपने गरबा ग्रुप के
साथ उमरगांव गई हुई थीं और वहीं पर रामानंद सागर 'रामायण'
की शूटिंग कर रहे थे। विभूति के बोलने का सरल अंदाज रामानंद सागर को
भा गया और उन्होंने विभूति का त्रिजटा के लिए ऑडिशन लेकर सिलेक्ट कर लिया। विभूति
काफी पढ़ी-लिखी थीं और ज्योतिष विद्या में पारंगत थीं।
विभूति परेश चंद्र दवे अब
इस दुनिया में नहीं हैं, उनकी मृत्यु 13 अगस्त 2006 को हार्ट अटैक के कारण हो गई थी। निधन
हुए भी इतने दिन बीत गये किंतु अब चर्चा क्यों ? फेसबुक पर धरोहर अभिषेक को किन्हीं
त्रिजटा कुमारी की फ्रैण्ड रिक्वेस्ट आयी, प्रोफाईल पिक्चर में रामायण में निभायी भूमिका
के गेट अप में इन्हीं ‘त्रिजटा’ की फोटो थी. अब उस फ्रैण्ड रिक्वेस्ट का उन्होंने क्या
किया, यह तो नहीं मालूम किन्तु यह रोल निभाने वाली, विभूति परेश
चंद्र दवे, के बारे में उन्होंने एक पोस्ट की तो मुझे त्रिजटा का चरित्र निरूपण
करने की प्रेरणा मिली, फिर जो हुआ वह इस पोस्ट के रूप में आपके सामने है. यदि अच्छा
लगा हो तो सम्मति ( टिप्पणी ) देकर उत्साहवर्धन करें ताकि मैं ऐसे ही और प्रसङ्ग प्रस्तुत
करूँ. ‘काकावीन रामायण’ में कालिदास के ‘मेघदूतं’ की तरह ( किंतु उतना उत्कृष्ट काव्यमय
नहीं ) हनुमान की अयोध्या यात्रा के समय राम के पथ प्रदर्शन का वर्णन है, आपकी सम्मति
होगी तो किसी पोस्ट में उसे भी प्रस्तुत करूँगा.
बहुत सुंदर शोधात्मक आलेख है। प्रायः किसी महाकाव्य या अन्य पुस्तकों में केंद्रीय चरित्र ही हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं और हम उनकी विराट छाया में इन चरित्रों को भुला देते हैं लेकिन आपकी यह प्रस्तुति प्रकट करती है कि गोस्वामी तुलसीदास जी, महर्षि वाल्मीकि जी और अन्य लेखकों ने इन चरित्रों की रचना भी बड़ी बारीकी से की है। धन्यवाद आपको कि आपने भी उसी बारीकी से इन चरित्रों पर ध्यान देते हुए त्रिजटा से परिचय कराया। पोस्ट थोड़ी विस्तृत है फेसबुक के लिहाज़ से और अगर थोड़ी संक्षिप्त होती तो और अधिक प्रभाव छोड़ती।
ReplyDeleteधन्यवाद उत्तम भाई. रामकथा में कई गौण चरित्र हैं जो रामकथा को आगे बढ़ाते हैं व राम का महत्व प्रतिपादित करते हैं. अनेक राक्षस चरित्र भी हैं जो राम से सहानुभूति रखते हैं, स्पष्टवादी हैं किंतु शुरू से रावण के साथ हैं सो रहते उसी पक्ष में हैं. एक विभीषण हैं जो खुल कर राम से जा मिले. कथानक ऐसा है कि पोस्ट विस्तृत हो गयी और दो या अधिक भागों में देने पर तारतम्य उतना नहीं रह जाता, फिर भी इसका ध्यान रखूँगा.
ReplyDelete