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Sunday, 26 May 2024

पुस्तक चर्चाः नया राजा नये क़िस्से.

 

पुस्तक चर्चाः नया राजा नये क़िस्से.


राजा होते हैं तो उनके क़िस्से भी होते हैं, उन पर बनते हैं या यूँ कहें कि तमाम राजा उन किस्सों से ही बने होते हैं. जैसे किस्से अवाम में फैले / राजा ने फैलवाए, वैसी ही उसकी छवि बनी और युग्-युगान्तर तक बनी रही. अब यह किताब ‘नया राजा नये क़िस्से’ है तो ज़ाहिर है कि इसमें आज के राजा के किस्से हैं. राजा का कहीं नाम नहीं लिया गया है और न ही यह कि वह किस देश का राजा है मगर हर किस्सा बता देता है कि किस राजा की बात हो रही है. वर्तमान परिवेश ऐसा है कि किताब का शीर्षक देख कर ही 99.99% सुधी जन समझ जायेंगे कि किसके क़िस्से होंगे और उनका अनुमान 100% सही होगा. वैसे उस राजा को इन क़िस्सों की एक बात से मैच नहीं कर सकते, वह यह कि कई क़िस्सों में राजा की रानी का भी उल्लेख है. केवल उल्लेख ही नहीं, राजा के महल में रानी रहती भी है, राजा उससे बातचीत भी करता है. इस एक बात से यह कह सकते हैं कि इस किताब का राजा काल्पनिक है, वास्तव में किसी से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है, यदि कहीं ऐसा पाया जाता है तो यह संयोग मात्र है. क़िस्सों में रानी को डाल कर लेखक ने अपना बचाव किया है अन्यथा उसे सजा भी हो सकती थी. नहीं हुई तो एक कारण तो यही है. राजा व उसके दरबारी कह सकते हैं कि महराज, यह आपके किस्से नहीं. आप कहाँ रानी – वानी के लफड़े में पड़े हैं, कहाँ उनसे बातचीत करते हैं, आपने तो राजधर्म के लिए पहले ही उन्हें छोड़ रखा है. एक यह बात और दूसरी यह कि नया राजा कहाँ पढ़ता ही है, साहित्य – वाहित्य तो कतई नहीं. वैसे ही उसके दरबारी ! उन्हें भी पढ़ने से क्या वास्ता. तो इन्हीं दो कारणों से लेखक बचा हुआ है ( इस तथ्य से भी अनुमान लग गया होगा कि किसके क़िस्से हैं ) लेखक, और उनमें भी व्यंग्यकार, बहुत चकड़ होते हैं. लेखक, अनूप मणि त्रिपाठी व्यंग्यकार के इस गुण से युक्त हैं. यह राजनीतिक परिदृश्य पर व्यंग्यलेख (क़िस्से ) हैं. किसी न किसी घटना या राजा की चिंता को लेकर छोटे-छोटे क़िस्से और हर क़िस्सा ऐसा ही बरबस ही मुह से निकले कि वाकई, राजा ऐसा ही है. इस किताब में राजा के 43 किस्से हैं. इस किताब के समर्पण में “लोकतंत्र में आस्था रखने वालों को समर्पित” कहा गया है, इससे भी किताब पढ़ने के पूर्व ही यह संकेत मिल जाता है कि किसके क़िस्से हैं.

कुछ बानगी देखें –

राजा बहुत परेशान था. लोग महँगाई, बेरोज़गारी आदि का सवाल उठा रहे थे. मंत्रियों से विमर्श किया. राजा ने कहा कि कोई हौआ खड़ा कर दो पर मंत्री को यह न कारगर न लगा. तब राजा ने कहा, ‘जो सवाल खड़ा करे, उसका चरित्र हनन करा दो. जो समझाने से भी न समझे उसे संदिग्ध घोषित कर दो. ‘

मंत्री चुपचाप सुनता रहा.

राजा ने आगे कहा, ‘ राष्ट्र के समक्ष कोई नया संकट खड़ा कर दो, नहीं तो उनके समक्ष कोई संदेह ! नहीं तो प्रजा को गर्व का कोई नया विषय दे दो.! नहीं तो किसी जाति, बिरादरी, वर्ग, समूह के विषय में कोई नई अफ़वाह उड़ा दो.

मंत्री कुछ न बोला. वह चुपचाप सुनता रहा.

मंत्री की भाव भंगिमा देख कर राजा थोड़ा उत्तेजित हो कर बोला, ‘देखो, अगर कोई तुमसे कहे कि फलां चीज़ के दाम बहुत बढ़ गए हैं तो तुम सीधे उससे उसका पंथ पूछ लो ! बोलो, ओहो फलाना पंथी हो ! तभी ! कोई कहे कि बेरोज़गारी बढ़ गई है तो कहो बेरोज़गारी नही बढ़ी है, जनसंख्या अधिक हो गई है. समझ रहे हो न ! राजा थोड़ा अधीर हुआ.

अब मंत्री राजा से कैसे कहे कि यह सारे हथकंडे वह तब से इस्तेमाल कर रहा है, जब से उसकी नियुक्ति हुई है.

                          मंत्री को कोई तरीका न रुचा. उसने कुछ तूफानी करने का सोचा और राज्य से विलुप्त हो चुके शेरों को विदेश से मंगवाने के इवेंट की राय दी. विस्तृत चर्चा और निर्देशादि के बाद यही तय पाया गया.

घोर वाद – विवाद के बाद वह दिन भी आया जब विदेशी शेरों का राज्य की पावन धरती पर विशेष रथों द्वारा ऐतिहासिक आगमन हुआ. दिन भर राजा और शेरों की गौरवशाली बातें हुई. अति विस्तृत राज्य का राजा इस कार्य हेतु पूरे दिन अति व्यस्त रहा और प्रजा भी. शेरों को शिकार करते हुए टी.वी. पर प्रजा को सजीव दिखाया गया. रात को राज्य के सूचनातंत्र द्वारा राजा का मंगलगान हुआ. जिसे ज्ञानियों ने बहस कहा.

उस रात के बाद राजा ने काफ़ी दिनों तक चैन की बंसी बजायी.

कथा सुनाने के बाद बेताल ने विक्रम से पूछा, ‘यों तो कई प्रश्न हैं, परंतु तू बस एक प्रश्न का जवाब दे तो तुझे जानूं ! तो बता विक्रम शेर ने क्या खाया था ??’

विक्रम ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया, ‘मुद्दा.’

यह सुनते ही बेताल उड़ गया.

                   ( क़िस्सा ‘राजा और शेर’ से.)

                        **************

राजा ने अचानक विद्वानों की आपात मीटिंग आहूत की. अफरातफरी में सभी भागे – भागे, आशंकित होते आए. कुछ समय बाद राजा ने मीटिंग का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहा, ‘जैसा कि विदित है मुझे आखेट बहुत पसंद है परंतु अब मैं चाहता हूँ कि आप सब आखेट की जगह कोई नया शब्द खोजें या बनाएं ! मुझे यह शब्द भाता नहीं ! नकारात्मकता झलकती है … प्रजा मुझे क्रूर समझती है.

  फिर आगे बोला, ‘यह शब्द मुझे पुरातन, घिसा-पिटा लगता हैँ मुझे कोई आधुनिक, नया शब्द दें. और हाँ, जब तक मेरी समस्या का समाधान नहीं हो जाता, तब तक आप में से कोई भी राजधानी से जाएगा नहीं !

           तमाम चिन्तन – मन्थन हुआ, अन्ततः नया शब्द खोज ही लिया गया.

विद्वानों की टोली ख़ुशी – ख़ुशी वह शब्द लेकर राजा के सामने उपस्थित हुई.

‘तो आपने क्या नया शब्द खोजा !’ राजा ने पूछा.

‘चुनाव महराज ! चुनाव !’ विद्वानों की टोली ने समवेत स्वर में कहा.

यह शब्द सुनते ही राजा ख़ुशी से उछल पड़ा. वह उत्साहित होकर बोला, ‘वाह ! हमें भाया यह शब्द ! खूब भाया ! तो तय रहा आज से हम आखेट पर नहीं चुनाव पर जाया करेंगे !

                     ( क़िस्सा ‘ राजा और आधुनिकता’ से )

                     *************

तो ऐसे कई क़िस्से हैं इस किताब में. आज के हालात और राजा की सच्ची तस्वीर, व्यंग्य की चासनी में लिपटी हुई, देखने के लिए किताब पढ़ें.

किताब – ‘नया राजा नये क़िस्से’

विधा – व्यंग्य

लेखक – अनूप मणि त्रिपाठी

प्रकाशक – वाम ( बुक स्टोर्स पर उपलब्ध )

पेपरबैक, 147 पृष्ठ, दाम 225/-

                   

 

Monday, 20 May 2024

धिक्कार है !

घर पर जो बड़ा आपसे मात्र दस मिनट पहले भी बिस्तर छोड़ कर चैतन्य हो जाता है, वह आपको देर तक पड़े रहने के लिए धिक्कारने लगता है. कतई ज़रूरी नहीं कि यह काम आपसे बड़ा ही करे, विवाहित होने की दशा में यह काम पत्नी ( केवल पत्नी ही, पति की कहाँ ऐसी मजाल ! ) करती है, बाक़ी में पापा या मम्मी. भले ही बेटा/बेटी सात- साढ़े सात बजे उठ कर नित्यकर्म और नाश्ता आदि कर के, करीने से तैयार होकर समय से दस मिनट पहले ही ऑफिस/ कोचिंग/ कॉलेज … में हाज़िर हो जाए किंतु उसके इन सब पर वो पापा/ मम्मी का दस मिनट पहले उठ जाना भारी पड़ता है. बड़ा भाई या बहन या चाचा आदि यह नहीं करता, पापा की परी की लताड़ना बहुधा मम्मी करती है और मम्मी के मगरमच्छ की पापा ! उस पर कहीं ये लताड़क उठ कर टहलने जाते हों या योग आदि करते हों और नहा धो कर पूजा वगैरह करते हों तो करेला, उसपे नीम चढ़ा हो जाता है. ऐसों को तो बाक़ी सबका जीवन निःसार लगता है. भले उनके उठने के दस से आधा घण्टा बाद ही उठें, उन्हें लगता है, ‘तूने दिवस गंवाया सोय के … ‘ उन्हें ब्राह्ममूहूर्त या पाँच बजे का समय ऐसा अनमोल लगता है कि क्या कहें. अलबत्ता ये उन्हें भी वर्षों बाद तक पता नहीं चलता कि ऐसी परसन्तापी दिनचर्या और उसके दंभ से उन्होंने पाया क्या ! बीमार वे भी रहते हैं, उठ कर वे कोई ऐसा काम भी नहीं कर डालते जो गृह प्रबन्धन में सार्थक योगदान करता हो. बस अपनी संतुष्टि के लिए करते हैं और चाहते हैं कि सब ऐसा ही करने लगें. ऐसे लोग बातों के तीर छोड़ने के अलावा सुबह, माने अपने समय / लक्षित पात्र के उठने से दस से लेकर आधा घण्टा पहले , उठाने के लिए पंखा/AC बंद कर देते हैं, लाईट जला देते हैं, जाड़ा हुआ तो रजाई खींच देंगे, घोषणा करेंगे, ‘सात बज गये ( भले ही तब 6:40 हुआ हो ) अभी तक पड़े सो रहे हो, कितना सोते हो ! ऐसे में कोई सो सकता है भला, पड़ा भी नहीं रह सकता.

                        ऐसा नहीं है कि खाली घरवाले ही ऐसा करते हों, उनकी कोटि का अड़ोसी – पड़ोसी, परिचित भी ऐसा कर सक़ता है. एक बार सुबह सात बजे ( गरमी ही थी ) एक परिचित आये. तब हम लोग चाय पी रहे थे. आकर बैठते ही उन्होंने कहा ( वस्तुतः धिक्कारा ), हम तो सुबह साढ़े चार बजे उठ जाते हैं. नित्यकर्म ( कहा तो उन्होंने कुछ और था ) करके, एक कप चाय पीकर, टहलने जाते हैं. लौट रहे थे तो सोचा आप लोगों से मिलते चलें.’ भाव वही बोध था कि हम साढ़े चार बजे उठ जाते हैं ( बड़ा तीर मार लेते हैं. अरे, उठते हैं तो क्या हमारे लिए ? अपनी ही लिए तो ! ) सलोन में तैनाती के दिनों में हम और कैश ऑफिसर एक ही कमरे में रहते थे. वे सुबह पाँच बजे उठ कर टहलने जाते, हम पड़े रहते. कुछ दिन हम गये किन्तु बाद में छोड़ दिया. उनका आलम यह था कि छह बजे तक लौट आते, नहाते धोते और फिर सो जाते. नौ सवा नौ तक उठते और नाश्ता वगैरह करके हम दोनों बैंक चल देते. कमरे से बैंक पाँच मिनट की दूरी पर था. लौट कर सुबह जब वे सोते रहते, मैं किताब पढ़ता. किताब वगैरह का कुटेव उनमें न था.  ऐसे ही जो नियमित रूप से मंदिर आदि जाता है वह भी ताना देता है, ‘क्या घर में बैठे रहते हैं, मंदिर चला कीजिए. हम तो रोज जाते हैं, आरती वगैरह के बाद ही लौटते हैं. समय अच्छा कट जाता है. किताब वगैरह पढ़ने को ऐसे लोग समय की बरबादी मानते हैं. ‘भई,  हमसे तो नहीं होता ये सब ! पता नहीं आप कैसे इतनी मोटी मोटी किताबें पढ़ लेते हैं, हमसे तो मैगजीन भी नहीं पढ़ी जाती ! अख़बार में भी बस हेडिंग देखते हैं. क्या मिलता है यह सब पढ़ के ! जितना पढ़ना था, कॉलेज तक में पढ़ लिया, अब क्या करना पढ़ के.’ यह बात और है कि वे किताब नहीं पढ़ते किंतु आज के व्हाट्स ऐप युग में फारवर्डेड मैसेज खूब पढ़ते और फारवर्ड करते हैं. उनकी पढ़ाई अब इतने भर की है.

                                 सारे ही ज़ल्दी उठ कर टहलने जाने वाले, योग करने वाले, सुबह-शाम या केवल शाम को मंदिर जाने वाले ऐसा नहीं करते, जो शुरू से ही यह सब कर रहे हैं वे इन सबको किसी अलौकिक बात की तरह नहीं लेते. यह उनकी सामान्य दिनचर्या होती है और वे किसी को बदलने के लिए उद्धत नहीं हो जाते. यह तो नव सनातनियों की तरह रिटायरमेण्ट के बाद या किसी के असर में आकर शुरू करने वालों की प्रवृत्ति होती है. अचानक उन्हें यह इलहाम होता है कि वे सामान्य लोगों से अलग कोई दिव्य काम कर रहे हैं और बाक़ी सबको भी इस ओर लगाना उनका पुनीत कर्तव्य है. ऐसे नये-नये बने लोग ही उधिया जाते हैं.

                                  ऐसे धिक्कारने (उनके हिसाब से प्रेरित करने, दिनचर्या सुधारने ) का असर बहुधा कुछ नहीं होता. दस मिनट देर तक सोने वाला अपने हिसाब से ही उठता है, कुछ दिन बाद प्रेरक लोग कहना छोड़ देते हैं. पत्नी के केस में कुछ पति सुबह उठने,  टहलने जाने व योग आदि करने लगते हैं. कुछ दिन खलता है, बाद में आदत पड़ जाती है. जो शुरू से ऐसा ( आदर्श दिनचर्या वाला ) होता है, वह धिक्कारने जैसा या दूसरों को बदलने के असफल प्रयास जैसा काम नहीं करता. यह सब जो रिटायरमेण्ट के बाद नये – नये टहलू, योगी, मंदिर जाने वाले होते हैं, वे ही ऐसा करते हैं. बेटे / बेटी को धिक्कारने वाला काम पहले की वय में ही होता है क्योंकि रिटायरमेण्ट की अवस्था तक लक्ष्य सन्तान शादी या नौकरी के हिल्ले लग चुकी होती है, तब बेटे की पत्नी अपने पति और बेटी दामाद के साथ ये करती है. वे अपना पिछला बदला ले रहे होते हैं, ‘धोबी से जीत न पाये तो गदहे के कान उमेठते हैं’.

                          अब एक नया वर्ग और धिक्कारने वाला पैदा हो गया है, वह है शाकाहारी/ शुद्ध शाकाहारी / वीगन वर्ग. यह भी नया-नया उदित हुआ वर्ग है या फिर वह जिसे प्रचारादि से अकस्मात यह बोध, उच्चता बोध, होता है कि वह कितना महान आचरण कर रहा है, जीव दया और प्रकृति के लिए कितना समर्पित है. उसमे यह बोध दो तरह से काम करवाता है – एक, वह इस गर्व, बल्कि दम्भ से भर उठता है कि वह कितना मानवीय है. वह मौक़े – बेमौक़े अपनी शाकाहारिता /वीगनता का उल्लेख करता है. वह कोई मौक़ा नहीं चूकता जब वह लोगों को अपने इस आचरण/ संकल्प और उस पर दृढ़ रहने के बारे में न बताए. तब शाकाहारिता /वीगनता उसकी जीवनशैली न होकर एक ढोल हो जाती है जो वह अनजाने ही अपने गले में डाले रहता है, बजाता रहता है, बिना इसे सोचे कि भई, कर रहे हो तो अपने लिए, हमें क्यों हर समय सुनाते रहते हो. दूसरी तरह वह यह करता है कि अपने से भिन्न आहारियों को, विशेषतः मांसाहारियों को, धिक्कारने लगता है. न केवल धिक्कारता बल्कि उन्हें राक्षस, नरपिशाच, उनकी थाली में लाश होने, पेट को कब्रिस्तान बताने, उसकी थाली खून से सनी होने जैसे वीभत्स और जुगुप्सात्मक बातें कहता है. जीव दया से ओतप्रोत यह वर्ग अन्य अपनी प्रजाति के अन्य जीवों के प्रति घोर शाब्दिक हिंसा और घृणा से भरा होता है. वह बड़ी विचित्र, अमानवीय और अव्यावहारिक कल्पनाएं करता है – वह शब्दों और कार्टून आदि के जरिये सोचता है कि कोई अन्य आहारियों की पत्नी को कैद करके रखे है, उससे अनवरत बलात्कार कर रहा है और उससे उत्पन्न संतति को पैदा होते ही कटने / भोजन बनने को भेज रहा है. वह यह भी कल्पना करने लगता है कि अन्य आहारियों के बच्चों को काट कर भोजन के लिए बेचा जा रहा है. वह कार्टून/ लेख के जरिए यह सब दिखाता भी है कि पशु – पक्षी ( पक्षियों में मुर्गा ) उसे काट कर बेच रहे हैं या अपनी प्लेट में रख कर खाने जा रहे हैं. सोशल मीडिया के आने से और इधर कुछ सालों में ऐसी उग्रता बहुत बढ़ी है. वह समझ ही नहीं पाता कि सात्विकता के दम्भ में कब वह उन्हीं जैसा क्रूर और अमानुषिक हो गया जिनकी निन्दा वह करता है, जिनसे घृणा करता है.

     यह कोई मनगढंत बात नहीं, मैंने ऐसे बहुत से लेख पढ़े हैं, बहुत से कार्टून / मीम देखे हैं. विडम्बना यह भी कि सात्विक जीवन का दावा करने वाले इन कुकृत्यों पर कोई विरोध प्रकट नहीं करते. अपनी जीवन शैली/आहार को श्रेष्ठ मानें, उसका खूब प्रचार करें पर अन्य आहार व शैली बालों को ऐसे धिक्कारने और उनके व उनके परिवार के प्रति ऐसी कल्पना तो न करें. वो तो कहो कि उनके वश में नहीं अन्यथा ऐसे उग्र सात्विक लोग अन्य लोगों के साथ वास्तव में ऐसा व्यवहार करने लगें, मन में तो उनके यह सब और ऐसा करना भरा ही होता है जो ऐसे लेख / मीम के माध्यम से निकलता है.

              शाकाहार या वीगन शैली अपनाना अच्छा, अधिक मानवीय और जीव दया से पूर्ण है, स्वास्थ्य के लिए भी अच्छा है किंतु यह एक आहार  / जीवन शैली है, उसी तरह जैसे कि अन्य लोगों की और अन्य भूभागों में रहने वालों की. इस अलग जीवन शैली अपनाने के कारण हमें अपने से भिन्न जीवन शैली के लोगों को धिक्कारने, उन्हें अमानुष मानने और नीचा दिखाने का अधिकार नहीं मिल जाता.

यहाँ, इस ( शाकाहारिता / वीगनता वाले ), अंश के लिए मैं पुनः निवेदन कर रहा हूँ कि यह किसी पर व्यक्तिगत आक्षेप नहीं है. अपवाद हर जगह हैं. कोई इसे अपने पर कटाक्ष / आक्षेप न मानें, यह प्रवृत्ति पर आपत्ति है, कटाक्ष है. ऐसा भी अतिवादी लोग करते हैं और कर रहे हैं, यह उन सहित सबने देखा होगा. यही बात सुबह धिक्कारने/ मन्दिर आदि जाने वालों के लिए है. बहुत से सुबह उठ कर या शाम को बिना दूसरों को डिस्टर्ब किए, बिना उन्हें धिक्कारे, शांतिपूर्वक अपनी जीवनशैली वर्षों से या अभी ज़ल्दी शुरू किया है तो अभी से, निभा रहे हैं. वे अपने को श्रेष्ठ व अन्य को हीन नहीं मानते. यह भी उन लोगों पर नहीं बल्कि प्रवृत्ति पर आक्षेप है, व्यक्तिगत रूप से किसी ऐसे पर नहीं.

                          यह बहुत हो गया, कुछ कटु बातें हो गयीं जो चुभ सकती हैं, उनकी भावना आहत हो सकती है तो अब दूसरे तरह के धिक्कार, ताने, उलाहने की बात करता हूँ जो कटु नहीं, मीठी हैं. चुभती नहीं बल्कि सुखद और पुलकित करने वाली गुदगुदी करती हैं. देखने में निन्दा हैं किंतु व्याज स्तुति की तरह व्याज निंदा, बल्कि स्तुति ही हैं. यह धिक्कार, उलाहना, ताना, खिल्ली … है बलमा, सजना, पति आदि की,  और ऐसा करने वाली होती हैं उनकी सजनी, प्रेयसी और पत्नी. बहुतेरे फ़िल्मी गाने या लोक गीत देख लें, उनमें बालमा बेदर्दी होता है, गँवार होता है, निपट अनाड़ी होता है, कुछ जानता ही नहीं. मोरा नादान बालमा न जाने जी की बात, बालमा तू बड़ा वो है, बालमा बेदर्दी भी है और उसी को नायिका का मन याद भी करता है. वह बेईमान, निपट अनाड़ी, बेदर्दी, जलैया … होता है. कौन सा अवगुण है जो उसमें नहीं होता और वे सब नाच – गा गाकर सबको सुनाए जाते हैं.  

                                 तो यह हुई धिक्कारने वालों की बात. आप चाहें तो इस चिंतन के लिए मुझे भूरि–भूरि धिक्कारें, यह आपका अधिकार है.