Followers

Monday, 20 May 2024

धिक्कार है !

घर पर जो बड़ा आपसे मात्र दस मिनट पहले भी बिस्तर छोड़ कर चैतन्य हो जाता है, वह आपको देर तक पड़े रहने के लिए धिक्कारने लगता है. कतई ज़रूरी नहीं कि यह काम आपसे बड़ा ही करे, विवाहित होने की दशा में यह काम पत्नी ( केवल पत्नी ही, पति की कहाँ ऐसी मजाल ! ) करती है, बाक़ी में पापा या मम्मी. भले ही बेटा/बेटी सात- साढ़े सात बजे उठ कर नित्यकर्म और नाश्ता आदि कर के, करीने से तैयार होकर समय से दस मिनट पहले ही ऑफिस/ कोचिंग/ कॉलेज … में हाज़िर हो जाए किंतु उसके इन सब पर वो पापा/ मम्मी का दस मिनट पहले उठ जाना भारी पड़ता है. बड़ा भाई या बहन या चाचा आदि यह नहीं करता, पापा की परी की लताड़ना बहुधा मम्मी करती है और मम्मी के मगरमच्छ की पापा ! उस पर कहीं ये लताड़क उठ कर टहलने जाते हों या योग आदि करते हों और नहा धो कर पूजा वगैरह करते हों तो करेला, उसपे नीम चढ़ा हो जाता है. ऐसों को तो बाक़ी सबका जीवन निःसार लगता है. भले उनके उठने के दस से आधा घण्टा बाद ही उठें, उन्हें लगता है, ‘तूने दिवस गंवाया सोय के … ‘ उन्हें ब्राह्ममूहूर्त या पाँच बजे का समय ऐसा अनमोल लगता है कि क्या कहें. अलबत्ता ये उन्हें भी वर्षों बाद तक पता नहीं चलता कि ऐसी परसन्तापी दिनचर्या और उसके दंभ से उन्होंने पाया क्या ! बीमार वे भी रहते हैं, उठ कर वे कोई ऐसा काम भी नहीं कर डालते जो गृह प्रबन्धन में सार्थक योगदान करता हो. बस अपनी संतुष्टि के लिए करते हैं और चाहते हैं कि सब ऐसा ही करने लगें. ऐसे लोग बातों के तीर छोड़ने के अलावा सुबह, माने अपने समय / लक्षित पात्र के उठने से दस से लेकर आधा घण्टा पहले , उठाने के लिए पंखा/AC बंद कर देते हैं, लाईट जला देते हैं, जाड़ा हुआ तो रजाई खींच देंगे, घोषणा करेंगे, ‘सात बज गये ( भले ही तब 6:40 हुआ हो ) अभी तक पड़े सो रहे हो, कितना सोते हो ! ऐसे में कोई सो सकता है भला, पड़ा भी नहीं रह सकता.

                        ऐसा नहीं है कि खाली घरवाले ही ऐसा करते हों, उनकी कोटि का अड़ोसी – पड़ोसी, परिचित भी ऐसा कर सक़ता है. एक बार सुबह सात बजे ( गरमी ही थी ) एक परिचित आये. तब हम लोग चाय पी रहे थे. आकर बैठते ही उन्होंने कहा ( वस्तुतः धिक्कारा ), हम तो सुबह साढ़े चार बजे उठ जाते हैं. नित्यकर्म ( कहा तो उन्होंने कुछ और था ) करके, एक कप चाय पीकर, टहलने जाते हैं. लौट रहे थे तो सोचा आप लोगों से मिलते चलें.’ भाव वही बोध था कि हम साढ़े चार बजे उठ जाते हैं ( बड़ा तीर मार लेते हैं. अरे, उठते हैं तो क्या हमारे लिए ? अपनी ही लिए तो ! ) सलोन में तैनाती के दिनों में हम और कैश ऑफिसर एक ही कमरे में रहते थे. वे सुबह पाँच बजे उठ कर टहलने जाते, हम पड़े रहते. कुछ दिन हम गये किन्तु बाद में छोड़ दिया. उनका आलम यह था कि छह बजे तक लौट आते, नहाते धोते और फिर सो जाते. नौ सवा नौ तक उठते और नाश्ता वगैरह करके हम दोनों बैंक चल देते. कमरे से बैंक पाँच मिनट की दूरी पर था. लौट कर सुबह जब वे सोते रहते, मैं किताब पढ़ता. किताब वगैरह का कुटेव उनमें न था.  ऐसे ही जो नियमित रूप से मंदिर आदि जाता है वह भी ताना देता है, ‘क्या घर में बैठे रहते हैं, मंदिर चला कीजिए. हम तो रोज जाते हैं, आरती वगैरह के बाद ही लौटते हैं. समय अच्छा कट जाता है. किताब वगैरह पढ़ने को ऐसे लोग समय की बरबादी मानते हैं. ‘भई,  हमसे तो नहीं होता ये सब ! पता नहीं आप कैसे इतनी मोटी मोटी किताबें पढ़ लेते हैं, हमसे तो मैगजीन भी नहीं पढ़ी जाती ! अख़बार में भी बस हेडिंग देखते हैं. क्या मिलता है यह सब पढ़ के ! जितना पढ़ना था, कॉलेज तक में पढ़ लिया, अब क्या करना पढ़ के.’ यह बात और है कि वे किताब नहीं पढ़ते किंतु आज के व्हाट्स ऐप युग में फारवर्डेड मैसेज खूब पढ़ते और फारवर्ड करते हैं. उनकी पढ़ाई अब इतने भर की है.

                                 सारे ही ज़ल्दी उठ कर टहलने जाने वाले, योग करने वाले, सुबह-शाम या केवल शाम को मंदिर जाने वाले ऐसा नहीं करते, जो शुरू से ही यह सब कर रहे हैं वे इन सबको किसी अलौकिक बात की तरह नहीं लेते. यह उनकी सामान्य दिनचर्या होती है और वे किसी को बदलने के लिए उद्धत नहीं हो जाते. यह तो नव सनातनियों की तरह रिटायरमेण्ट के बाद या किसी के असर में आकर शुरू करने वालों की प्रवृत्ति होती है. अचानक उन्हें यह इलहाम होता है कि वे सामान्य लोगों से अलग कोई दिव्य काम कर रहे हैं और बाक़ी सबको भी इस ओर लगाना उनका पुनीत कर्तव्य है. ऐसे नये-नये बने लोग ही उधिया जाते हैं.

                                  ऐसे धिक्कारने (उनके हिसाब से प्रेरित करने, दिनचर्या सुधारने ) का असर बहुधा कुछ नहीं होता. दस मिनट देर तक सोने वाला अपने हिसाब से ही उठता है, कुछ दिन बाद प्रेरक लोग कहना छोड़ देते हैं. पत्नी के केस में कुछ पति सुबह उठने,  टहलने जाने व योग आदि करने लगते हैं. कुछ दिन खलता है, बाद में आदत पड़ जाती है. जो शुरू से ऐसा ( आदर्श दिनचर्या वाला ) होता है, वह धिक्कारने जैसा या दूसरों को बदलने के असफल प्रयास जैसा काम नहीं करता. यह सब जो रिटायरमेण्ट के बाद नये – नये टहलू, योगी, मंदिर जाने वाले होते हैं, वे ही ऐसा करते हैं. बेटे / बेटी को धिक्कारने वाला काम पहले की वय में ही होता है क्योंकि रिटायरमेण्ट की अवस्था तक लक्ष्य सन्तान शादी या नौकरी के हिल्ले लग चुकी होती है, तब बेटे की पत्नी अपने पति और बेटी दामाद के साथ ये करती है. वे अपना पिछला बदला ले रहे होते हैं, ‘धोबी से जीत न पाये तो गदहे के कान उमेठते हैं’.

                          अब एक नया वर्ग और धिक्कारने वाला पैदा हो गया है, वह है शाकाहारी/ शुद्ध शाकाहारी / वीगन वर्ग. यह भी नया-नया उदित हुआ वर्ग है या फिर वह जिसे प्रचारादि से अकस्मात यह बोध, उच्चता बोध, होता है कि वह कितना महान आचरण कर रहा है, जीव दया और प्रकृति के लिए कितना समर्पित है. उसमे यह बोध दो तरह से काम करवाता है – एक, वह इस गर्व, बल्कि दम्भ से भर उठता है कि वह कितना मानवीय है. वह मौक़े – बेमौक़े अपनी शाकाहारिता /वीगनता का उल्लेख करता है. वह कोई मौक़ा नहीं चूकता जब वह लोगों को अपने इस आचरण/ संकल्प और उस पर दृढ़ रहने के बारे में न बताए. तब शाकाहारिता /वीगनता उसकी जीवनशैली न होकर एक ढोल हो जाती है जो वह अनजाने ही अपने गले में डाले रहता है, बजाता रहता है, बिना इसे सोचे कि भई, कर रहे हो तो अपने लिए, हमें क्यों हर समय सुनाते रहते हो. दूसरी तरह वह यह करता है कि अपने से भिन्न आहारियों को, विशेषतः मांसाहारियों को, धिक्कारने लगता है. न केवल धिक्कारता बल्कि उन्हें राक्षस, नरपिशाच, उनकी थाली में लाश होने, पेट को कब्रिस्तान बताने, उसकी थाली खून से सनी होने जैसे वीभत्स और जुगुप्सात्मक बातें कहता है. जीव दया से ओतप्रोत यह वर्ग अन्य अपनी प्रजाति के अन्य जीवों के प्रति घोर शाब्दिक हिंसा और घृणा से भरा होता है. वह बड़ी विचित्र, अमानवीय और अव्यावहारिक कल्पनाएं करता है – वह शब्दों और कार्टून आदि के जरिये सोचता है कि कोई अन्य आहारियों की पत्नी को कैद करके रखे है, उससे अनवरत बलात्कार कर रहा है और उससे उत्पन्न संतति को पैदा होते ही कटने / भोजन बनने को भेज रहा है. वह यह भी कल्पना करने लगता है कि अन्य आहारियों के बच्चों को काट कर भोजन के लिए बेचा जा रहा है. वह कार्टून/ लेख के जरिए यह सब दिखाता भी है कि पशु – पक्षी ( पक्षियों में मुर्गा ) उसे काट कर बेच रहे हैं या अपनी प्लेट में रख कर खाने जा रहे हैं. सोशल मीडिया के आने से और इधर कुछ सालों में ऐसी उग्रता बहुत बढ़ी है. वह समझ ही नहीं पाता कि सात्विकता के दम्भ में कब वह उन्हीं जैसा क्रूर और अमानुषिक हो गया जिनकी निन्दा वह करता है, जिनसे घृणा करता है.

     यह कोई मनगढंत बात नहीं, मैंने ऐसे बहुत से लेख पढ़े हैं, बहुत से कार्टून / मीम देखे हैं. विडम्बना यह भी कि सात्विक जीवन का दावा करने वाले इन कुकृत्यों पर कोई विरोध प्रकट नहीं करते. अपनी जीवन शैली/आहार को श्रेष्ठ मानें, उसका खूब प्रचार करें पर अन्य आहार व शैली बालों को ऐसे धिक्कारने और उनके व उनके परिवार के प्रति ऐसी कल्पना तो न करें. वो तो कहो कि उनके वश में नहीं अन्यथा ऐसे उग्र सात्विक लोग अन्य लोगों के साथ वास्तव में ऐसा व्यवहार करने लगें, मन में तो उनके यह सब और ऐसा करना भरा ही होता है जो ऐसे लेख / मीम के माध्यम से निकलता है.

              शाकाहार या वीगन शैली अपनाना अच्छा, अधिक मानवीय और जीव दया से पूर्ण है, स्वास्थ्य के लिए भी अच्छा है किंतु यह एक आहार  / जीवन शैली है, उसी तरह जैसे कि अन्य लोगों की और अन्य भूभागों में रहने वालों की. इस अलग जीवन शैली अपनाने के कारण हमें अपने से भिन्न जीवन शैली के लोगों को धिक्कारने, उन्हें अमानुष मानने और नीचा दिखाने का अधिकार नहीं मिल जाता.

यहाँ, इस ( शाकाहारिता / वीगनता वाले ), अंश के लिए मैं पुनः निवेदन कर रहा हूँ कि यह किसी पर व्यक्तिगत आक्षेप नहीं है. अपवाद हर जगह हैं. कोई इसे अपने पर कटाक्ष / आक्षेप न मानें, यह प्रवृत्ति पर आपत्ति है, कटाक्ष है. ऐसा भी अतिवादी लोग करते हैं और कर रहे हैं, यह उन सहित सबने देखा होगा. यही बात सुबह धिक्कारने/ मन्दिर आदि जाने वालों के लिए है. बहुत से सुबह उठ कर या शाम को बिना दूसरों को डिस्टर्ब किए, बिना उन्हें धिक्कारे, शांतिपूर्वक अपनी जीवनशैली वर्षों से या अभी ज़ल्दी शुरू किया है तो अभी से, निभा रहे हैं. वे अपने को श्रेष्ठ व अन्य को हीन नहीं मानते. यह भी उन लोगों पर नहीं बल्कि प्रवृत्ति पर आक्षेप है, व्यक्तिगत रूप से किसी ऐसे पर नहीं.

                          यह बहुत हो गया, कुछ कटु बातें हो गयीं जो चुभ सकती हैं, उनकी भावना आहत हो सकती है तो अब दूसरे तरह के धिक्कार, ताने, उलाहने की बात करता हूँ जो कटु नहीं, मीठी हैं. चुभती नहीं बल्कि सुखद और पुलकित करने वाली गुदगुदी करती हैं. देखने में निन्दा हैं किंतु व्याज स्तुति की तरह व्याज निंदा, बल्कि स्तुति ही हैं. यह धिक्कार, उलाहना, ताना, खिल्ली … है बलमा, सजना, पति आदि की,  और ऐसा करने वाली होती हैं उनकी सजनी, प्रेयसी और पत्नी. बहुतेरे फ़िल्मी गाने या लोक गीत देख लें, उनमें बालमा बेदर्दी होता है, गँवार होता है, निपट अनाड़ी होता है, कुछ जानता ही नहीं. मोरा नादान बालमा न जाने जी की बात, बालमा तू बड़ा वो है, बालमा बेदर्दी भी है और उसी को नायिका का मन याद भी करता है. वह बेईमान, निपट अनाड़ी, बेदर्दी, जलैया … होता है. कौन सा अवगुण है जो उसमें नहीं होता और वे सब नाच – गा गाकर सबको सुनाए जाते हैं.  

                                 तो यह हुई धिक्कारने वालों की बात. आप चाहें तो इस चिंतन के लिए मुझे भूरि–भूरि धिक्कारें, यह आपका अधिकार है.  

      


No comments:

Post a Comment