पुस्तक चर्चाः अन्दाज़-ए-बयाँ उर्फ़ रवि कथा
किताब ममता कालिया के संस्मरण है., साथी, प्रेमी, पति, लेखक, व्यवसायी, सम्पादक … जाने कितने रूप धारे रवीन्द्र कालिया के. मगर ठहरिये, यह संस्मरण केवल रवीन्द्र कालिया के या रवीन्द्र – ममता कालिया भर के नहीं हैं, वस्तुतः कोई भी संस्मरण, जीवनी, आत्मकथा या फिर डायरी उसी व्यक्ति की नहीं होती जो उसे लिख रहा है या जिसके बारे में लिखा जा रहा है बल्कि उस दौर के परिवेश के बारे में होती है – उसमें वो शहर भी होते हैं जहाँ-जहाँ वो रहा और काम किया, वे संस्थान भी होते हैं जिनमें काम किया, उनकी बाहरी से लेकर अन्दरूनी बातें होती हैं, वे सब काम होते हैं जो उसने किये, उन सब लोगों के बारे में होता है जिनसे उसका कैसा भी साबका पड़ा, उस दौर की संस्कृति, परम्परा, रीति-रिवाज --- गरज ये कि क्या-क्या नहीं होता एक ऐसी किताब में. यह संस्मरण भी मात्र रवीन्द्र कालिया-ममता कालिया का नहीं है, मुम्बई (तब बम्बई), इलाहाबाद और कई शहरों का है, रवीन्द्र के प्रिण्टिंग प्रेस व्यवसाय का है, मात्र साहित्यिक रिश्तों का नहीं नितान्त घरेलू रिश्तों की बात भी है, रवि की अच्छी-बुरी बातों / आदतों का है … एक बड़े फलक को समेटे हुए है जो एक किताब में शायद सिमट नहीं पाया – इसी का सिलसिला है ममता कालिया की इसके बाद की संस्मरणात्मक किताब, “ जीते जी इलाहाबाद”. बहरहाल इस चर्चा में बात सिर्फ़ अन्दाज़-ए-बयाँ उर्फ़ रवि कथा की.
किताब रवि की बीमारी से शुरू होती है और बीमारी के भी इस स्तर तक पहुँच जाने के कि उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ा और 9 जनवरी, 2016 की रात को उनकी मृत्यु हुई. संस्मरण रवि कथा के अन्तिम अध्याय से शुरू होता है, एक प्रकार से संस्मरण फ्लैश बैक में चलते हैं. रवि के जिगर में फोड़ा हो गया था, इसे उनकी मयनोशी से भी जोड़ना असंगत न होगा. मयनोशी की चर्चा विस्तार से रवीन्द्र कालिया नें संस्मरणात्मक पुस्तक “ग़ालिब छुटी शराब” में व यत्र-तत्र की है.
रवीन्द्र के पेट में फोड़ा था, इलाज एलोपैथिक चल रहा था किन्तु बीमारी की वजह से / के दौरान उनकी रुचि होम्योपैथी में बहुत हो गयी. उन्होंने इसका विशद अध्ययन किया और छोटे-मोटे डॉक्टर से हो गये. अपने पर भी प्रयोग करते और मिलने वालों को भी उपचार बताते, दवाईयाँ देते. उनके होम्योपैथी अध्ययन और प्रयोग के बारे में ममता जी ने लिखा है,
“ … मयनोशी तो अगस्त 2011 से ही छूट गयी थी जब पेट दर्द रहने लगा. अब उनकी शामें होम्योपैथी चिकित्सा के अध्ययन में डूबी रहतीं. कमाल की बात यह कि उन्होंने हर एलोपैथिक दवा का होम्योपैथिक विकल्प ढूँढ लिया था. होम्योपैथी और ज्योतिष शास्त्र में उनकी पुरानी दिलचस्पी थी. होम्योपैथिक दवाओं की अनिवार्यता हमारे जीवन में हमेशा बनी रही… “
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“ … दो नवम्बर से ग्यारह नवम्बर 2011 में जब उनकी YYY90 रेडियो सर्जरी हुई तब भी होम्योपैथिक दवाओं का डिब्बा और किताब उनके साथ अपोलो हॉस्पिटल गयी. होश आने पर वहाँ की नर्सों और वार्ड ब्वॉय आदि से उनके मर्ज़ पूछकर किताब से अध्ययन करके मीठी गोलियाँ देना रवि का सबसे प्रिय काम था. बड़ा बेटा अनिरुद्ध कहता, ‘पापा अपनी आँखों को आराम दीजिए, ये सब अस्पताल के लोग हैं, इन्हें अच्छे से अच्छा इलाज मिल जाता होगा.’
रवि कहते, ‘मेरी दवा से इनकी बीमारी जड़ से मिट जायेगी यह तो सोच.’ … “
होम्योपैथी विषयक ये अंश इसलिये दिये कि अन्य साहित्यिक विवरण तो अन्यत्र मिल जायेंगे, ये विवरण ममता जी या घर वाले ही दे सकते थे.
संस्मरणों में 30 जनवरी, 1965 को रवीन्द्र कालिया से चण्डीगढ़ में ‘कहानी सवेरा’ की गोष्ठी में परिचय के हैं जिसकी परिणिति 12 दिसम्बर, 1965 को शादी में हुई. उसके बाद रवि कथा के कई प्रसङ्ग जिनमें धर्मयुग की नौकरी, प्रिण्टिंग प्रेस , लेखन, गोष्ग्ठियाँ,
सम्मेलन और सम्पादन के संस्मरण हैं. संस्मरण तो लगभग सभी साहित्यकारों / आलोचकों, सम्पादक-सह-लेखकों के साथ हैं किन्तु सर्वाधिक रोचक / रोमाञ्चक और स्तब्ध करने वाला संस्मरण कृष्णा सोबती का है. पढ़ कर यही विचार आता है कि साहित्य में उदात्त सोच रखने वाला व्यवहार में ऐसा भी हो सकता है.
“ … वर्ष 1990 में ‘वर्तमान साहित्य’ के सम्पादक विभूति नारायण राय ने कहानी विशेषांक का प्रस्ताव रखा था उनका विचार था कि पन्द्रह-बीस कहानियों में हिन्दी के सशक्त कथालेखन को प्रतिनिधित्व मिल सकता है. उन्होंने रवि से कहा, “ कालिया जी इसका सम्पादन आप कीजिए.” …
रवीन्द्र कालिया प्राणपण से जुट गये, देश भर में लेखकों को कहानी मंगवाने के लिए फोन खटखटाने शुरू किये. जब कोई खास अंक निकलने वाला होता है तो कुछ रचनाकार तो इतने भले और भोले होते हैं कि सम्पादक के एक फोन पर कहानी लिखने बैठ जाते हैं और पूरी होते ही, बिना नाज़-नखरे के उसे पोस्ट कर देते हैं. इक्का-दुक्का लेखक-लेखिकाएँ चाहती हैं कि सम्पादक रोज़ फोन कर उनकी और कहानी की तबियत और ख़ैरियत पूछता रहे. रवि हर लेखक-लेखिका की नब्ज़ जानते थे. उन्होंने यह फर्ज़ नियम से निभाया.
हशमत ने कहा कि वे इसके लिए ख़ासतौर पर कहानी लिख कर देंगी, पर हाँ, कालिया उन्हें चार्ज्ड ( Charged) रखे. हशमत पसंद करती थीं सम्पादक उन्हें तवज्जो दे और विशिष्टतम माने.
रवि को इसमें कोई एतराज़ नहीं था क्योंकि वे तो सन 1963 से ही हशमत के प्रशंसक रहे थे … “
बहरहाल उन्होंने हशमत ( कृष्णा सोबती ) से रोज फोन कर करके उन्हें चार्ज रखा. वे भी कहानी की नोक पलक सँवरवाने के लिए फोन करतीं एक बार रात के पौने एक बजे फोन किया. अन्ततः कहानी मिली किन्तु बिना नाम, शीर्षक के. रवि ने फोन करके पुष्टि की. कहानी थी ‘ऐ लड़की’. रवि ने फोन पर कहानी दुरुस्त करायी और उसकी तारीफ में तीन पत्र उपेन्द्रनाथ अश्क़, मार्कण्डेय और दूधनाथ सिंह से अग्रिम लिखवा लिए ( पत्रों के अंश और कृष्णा सोबती की कहानियों के बारे में ममता जी के विचार आप किताब में ही पढ़ें ) कहानी और वह अंक खूब चर्चित हुआ.
बाद में रवि ने कृष्णा जी पर एक लम्बा संस्मरण लिखा “हमारी कृष्णा जी” पूरा संस्मरण उन्हें फोन पर सुना कर उनकी अनापत्ति और प्रकाशन की समति ली और वह ‘तद्भव’ में भेज दिया. ‘तद्भव’ के सम्पादक, अखिलेश जी, ने भी कृष्णा जी को पूरा संस्मरण फोन पर सुनाया और पूछा कि यदि उन्हें किसी अंश पर एतराज़ हो तो सम्पादित कर दें. उन्होंने कालिया को समझदार कहते हुये संस्मरण छापने की अनुमति दी. संस्मरण ‘तद्भव’ के अप्रैल 2006 के अंक में छपा. 2007 में कॄष्णा जी दिल्ली में कालिया आदि से मिलीं. जिन, वोदका और व्हिस्की आदि के दौर भी चले और एक सुबह ‘जनसत्ता’ में कालिया और संस्मरण पर हमला जैसा लेख लिखा “ मेरे छह फुटिया एडिटर साहब” और ‘कथादेश’ में “संस्मरण देवकीनन्दन खत्री का फिक्शन नहीं होता” संस्मरण के् लेखक, रवीन्द्र कालिया और छापने वाले सम्पादक, अखिलेश द्वारा पूरा संस्मरण सुनाने और अनापत्ति जैसा व प्रकाशन की अनुमति लेने के बाद उनसे कोई बात किये बिना अकस्मात लगभग साल भर बाद इस तरह का हमला स्तब्धकारी है. विस्तार भय से पूरा नहीं दे रहा हूँ, यदि किताब में रुचि जाग्रत हो रही हो तो सम्पूर्ण विवरण किताब में पढ़ें.
हर अध्याय के प्रारम्भ में एक शेर दिया है, अधिकांश शेर ग़ालिब के हैं. किताब पेपरबैक है छपाई त्रुटिहीन है किन्तु आज के चलन के हिसाब से कागज लुगदी से कुछ ही बेहतर है. अच्छा हो कि प्रकाशक दाम कुछ बढ़ा दिया करें किन्तु कागज बढ़िया (सफेद और चिकना ) प्रयोग करें. यह दूसरा संस्करण है और किताब के अन्त में फ़ोटो एलबम भी है.
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पुस्तक – अन्दाज़-ए-बयाँ उर्फ़ रवि कथा
विधा – संस्मरण
लेखक – ममता कालिया
प्रकाशक – वाणी प्रकाशन ( पेपरबैक्स )
अन्य – प्रथम संस्करण सितम्बर 2020, द्वितीय संस्करण नवम्बर 2020
किंडल में भी उपलब्ध
पृष्ठ 196, मूल्य 299/-
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