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Monday, 14 October 2024

पुस्तक चर्चाः साँपों की सभा-अनूप मणि त्रिपाठी


 पुस्तक चर्चाः साँपों की सभा-अनूप मणि त्रिपाठी

हास्य-व्यंग्य की किताब ‘साँपोँ की सभा’ वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर छोटे किंतु चुटीले और सार्थक व्यंग्य लेखों का संग्रह है, कुछ तो इतने छोटे कि चार-पाँच पंक्तियों के, बल्कि इससे भी छोटे, पर चुटकुले नहीं बल्कि सार्थक व्यंग्य हैं. कथा न होते हुए भी कथा से रोचक, शायद इसलिए कि पढ़कर बरबस ही आज के जाने-पहचाने, रोज घटित होते ही जा रहे राजनीतिक परिदृश्य आँखों के सामने आ जाते हैं, फौरन ‘मन की बात’ आती है कि अरे ! यही तो हुआ/हो रहा है. व्यंग्य की विशिष्ट पहचान कि बहुधा अन्तिम पंक्ति में स्तब्ध कर देने वाला/ तिलमिला देने वाला तथ्य उद्घाटित होता है, इनमें बखूबी है. लगभग सारे ही राजनीतिक व्यंग्य हैं और राजनीतिक परिदृश्य को आच्छादित किए हुए आज के सर्वाधिक राजनीतिबाज की याद दिलाते हैं. साथ ही कोई सपाटबयानी नहीं, लाउडनेस नहीं पर मारकता भरपूर. प्रसिद्ध कथाकार, शिवमूर्ति, ने जो इस संग्रह के पृष्ठ आवरण पर कहा है, वह अनूप जी के व्यंग्य की विशेषता को समझने में सहायक है, किताब की ही तरह उनका कहना भी महत्वपूर्ण है.
किताब में कोरोना काल की भयावहता, संवेदनहीनता, आम जनता को उसके हाल पर छोड़ दिये जाने, 'आपदा में अवसर' के मंत्र को व्यावसायियों द्वारा, जिनमें मुख्यतः अस्पताल और डॉक्टर रहे, पूरी निर्लज्जता से अपनाने के उदाहरणों के अलावा संवेदनशीलता, सामाजिक सद्भाव और ज़िम्मेदारी का भाव भी 'माटी' में व्यक्त हुआ है. इसमें तो यह एक कथा है, वास्तव में राजनीतिबाजों के असर से बेअसर इस तरह के सद्भाव की कई मिसाल दोनों तरफ से देखने को मिली.
'कसाई बाड़े में एक मौत हो गयी. मरने वाला अलेला रहता था. उसके रिश्तेदारों को ख़बर कर दी गयी पर कोरोना के डर से कोई आने को तैयार नहीं.
''' 'कोई मिट्टी छूने को तैयार नहीं चचा ... जबकि बार-बार बताया गया है कि मरहूम को किरौना नहीं हुआ था, अफवाह थी, पर कोई मानने को तैयार ही नहीं...' किशोर फैज़ान ने सारी बात एक साँस में कह डाली.
'अब ज़्यादा देर करना मुनासिब नहीं. मिट्टी खराब होगी !' कलीम मियाँ बोले जो फैज़ान के अब्बू थे.
'ज़िन्दगी भर अकेला रहा, अब देखो अकेला चल दिया!' फारुख़ मियाँ का यह कहते-कहते गला भर आया.
'उठाइए भाई जान!' आमिर बोला. सब आगे बढ़े. फारुख़ मियाँ ने अपनी उम्र की परवाह न करते हुए ज़नाजे को कन्धा दिया, पर थोड़ी देर बाद ही जिया साहब ने उनकी जगह ले ली.
फारुख़ मियाँ ज़नाजे के आगे चल रहे थे. वे चिहुँके. जैसे उन्हें सहसा कुछ याद आ गया हो !
वे भर्राई आवाज़ में बोले, 'राम नाम !'
पीछे से आवाज़ आयी, 'सत्य है !'
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कोरोना पर ही गंगा में बहती लाशों पर दो-तीन से पाँच-छह लाईनों के 10 नश्तर 'लाशों की बहती कहानियाँ' में हैं.
शीर्षक रचना 'साँपों की सभा' का पाठ स्वयं अनूप जी के मुह से सुना है, शिवमूर्ति जी ने भी फ्लैप पर इसका एक टुकड़ा दिया है, किताब में पढ़ें.
अन्य में 'शहर का नाम रोशन...' एक महत्वपूर्ण विचारणीय प्रश्न उठाति है कि क्या शहर का नाम केवल वे ही लोग रोशन करते हैं जो यूपीएस्सी में चयनित होते हैं ? और लोग क्या किसी तरह शहर का नाम रोशन नहीं करते ? कौन हैं वे लोग और किन कामों से शहर का नम वास्तव में रोशन करते हैं, यह 'शहर का नाम रोशन...' में देखें.
'क्रान्तिकारी' वर्दी के डर से हकलाते-तुतलाते क्रान्तिकारियों की सच्चाई है तो 'बढ़ती हुई शुभकामनाएँ' मार सुबह-शाम अनवरत ठेली जा रही व्हाट्सऐपीय शुभकामनाओं से आक्रान्त और चिढ़े की कातर पुकार / विद्रोह है, व्हाट्सऐपियों को इस बारे में गम्भीरता से सोचना चाहिए.
यह कुछ वे कथाएँ हैं जो राजनीतिक नहीं, समाजशास्त्रीय हैं. किताब अवश्य पढ़ें, कथ्य व कलेवर से गरिष्ठ नहीं, पतली सी किताब है.
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किताब - साँपों की सभा, लेखक - अनूप मणि त्रिपाठी
प्रकाशक - लोकभारती पेपरबैक्स
पृष्ठ - 150, दाम 250/-

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