अथ श्री हयग्रीव अवतार कथा !
अभी कुछ ही दिन भये कि श्रावण शुक्ल पूर्णिमा
अर्थात रक्षा बंधन के दिन हमने फेस बुक नाम्ना प्लेटफार्म पर विष्णु भगवान के
हयग्रीवावतार ( जिसमें धड़ मानव का और सर हय अर्थात अश्व अर्थात घोड़े का ) का चित्र देखा और अति संक्षिप्त परिचय के साथ
व्हाट्स ऐप नाम्ना एक अन्य प्लेटफार्म पर पोस्ट कर दिया. उस पोस्ट के साथ हम
जिज्ञासुजनों को आमन्त्रित भी किये कि जिस किसी जन को इस संदर्भ में कोई जिज्ञासा
हो, करे ! यथाजानकारी शमन का प्रयास किया जायेगा ! हे मित्रों ! घोर कलिकाल, कि इन
कथाओं के श्रवण व चर्चा में किसी जन ने किञ्चित रुचि न प्रकट करी सिवाय एक
जिज्ञासु, उत्तम भाई, के. वे जिज्ञासा के साथ अनुरोध करते भये कि स्यात कथा कलेवर
से कुछ पुष्ट होगी सो उचित प्रतीत होता है कि फेसबुक पर तो इसका परिचय व अंश पोस्ट
किया जाय औ ब्लॉग पर संपूर्ण रूप में कहा जाय सो उनके अनुरोध का मान रखते हुए हम कह रहे हैं.
कथा वाचन के समय हम स्वयं को व्यास गद्दी पर और सम्मुख जिज्ञासु उत्तम भाई को मुख्य यजमान के रूप में विराजमान तथा अन्य सुधीजन को नीचे दरी / कुर्सियों पर व कुछ इधर उधर के तांक झांक करते ( ऐसे जो फेसबुक / ब्लॉग पर आते तो हैं पर न कोई रिएक्शन देते, न कमेण्ट करते ) मन की आंखों से देख रहे हैं.
कथावाचन एवं श्रवण के पूर्व हम स्पष्ट कर देना उचित समझते हैं कि किसी प्रकार की दक्षिणा, सीधा, वस्त्र, पात्रादि एवं विधि विधान की हमारी ओर से कोई मांग नही है तथापि जो श्रद्धालुजन श्रद्धा स्वरूप यह सब अथवा पत्रं पुष्पं इत्यादि अर्पित करने की अभिलाषा करें तो हम उसमें बाधक न होंगे. साथ ही यह भी निवेदन है कि कथा को भक्ति भाव से अथवा कौतूहल से अथवा मिथक कथा अथवा गल्प – जो भी भाव हो, उससे ग्रहण करें. साथ ही व्यास पीठ पर होने के नाते यह हमारा अधिकार है कि कथा में हम अपनी छौंक लगाते चलें – कृपया इस इस अधिकार का हनन करने का प्रयास न करें, इसका मान रखें. यजमान गण की जो शंकायें होंगी, कृपया कथा के समापान तक धैर्य रखें. कथा के उपरांत टिप्पणी सत्र होगा, उसमें यथाशक्ति समाधान का प्रयास किया जायेगा. कथा के समापन पर कोई आरती, हवन, भोज अथवा प्रसाद वितरण न होगा तथा सारी ही कथा गद्य में है, नृत्य गानादि की कोई व्यवस्था न होगी. संकल्प श्रावण में किया था किंतु अब भादों चल रहा है और भादों में भागवत का विधान है अस्तु भागवत न होते हुए भी इसे भागवत ही मानें.
---- अथ श्री हयग्रीवावतार कथा प्रथमोध्याय
सम्पन्न ----
द्वितीय अध्याय –
यह कथा देवी भागवत में वर्णित है, जो जन अधिक
जिज्ञासु हों वे देवी भागवत पढ़ने को सलाहित हैं, कथावाचक को तंग न करें. तो एक बार
की बात है, भगवान विष्णु सदा की भांति क्षीरसागर में शेषशैय्या पर अधलेटी मुद्रा
में विश्राम कर रहे थे. कौमोदकी गदा दक्षिण जंघा के पार्श्व में रखी थी, सुदर्शन
चक्र वाम तर्जनी पर मंथर गति से घूम रहा था, एक कर में कमल और एक कर अभयमुद्रा में
शिथिल सा था, शीश पर मुकुट, गले में वनमाला, कौस्तुभ मणि और वक्ष पर भृगु के चरण
चिन्ह सुशोभित हो रहे थे और श्रीमुख पर मन्द मन्द मुस्कान थी जो कालांतर में
चित्रित की जाने वाली मोनालिसा की मुस्कान की अपेक्षा लक्षगुणित रहस्यमयी और मोहक
थी. श्रीचरणों के समीप लक्ष्मी जी चरण चापन कर रही थीं. श्रीहरि लक्ष्मी जी का
अलौकिक रूप निहार रहे थे. लक्ष्मी जी आज कुछ अधिक ही सुंदर और मोहक लग रही थीं और
प्रभु उस छवि पर मुग्ध हुए जा रहे थे, इस उपक्रम में उन्हे पता ही न चला कि उनकी
उनकी मन्द मुस्कान हास्य में बदलती जा रही है. वे आल्हाद के वशीभूत हँस रहे थे.
लक्ष्मी जी के हाथ तो उनके चरण पर थे किंतु दृष्टि उनके श्रीमुख पर थी. पहले उन्हे
ताकते और फिर हँसते देख कर लक्ष्मी जी ने समझा कि वे उन पर हँस रहे हैं, उनका
उपहास कर रहे हैं. हे मित्रों ! कोई भी स्त्री अपने रूप पर कोई विपरीत टीका-टिप्पणी
सहन नही करती फिर ये तो हँसी उड़ाना लगा और वह भी लक्ष्मी जी का. उन्होनें एक बार विचार किया होगा कि श्रंगारादि
में कोई कमी या असंगति तो नही हो गयी किंतु ऐसा कुछ उनके ध्यान में न आया तो उनका
क्रोध सातवें आसमान पर जा पहुंचा. उन्होने विष्णु जी को शाप दिया कि तुम्हारा सर
कट कर गिर जाये. रूप का तिरस्कार न करके कुछ और किया होता तो सम्भवतः ऐसा घोर शाप
न देतीं, पावं पकड़ कर, घुमा कर क्षीरसागर में ही फेंक देतीं तो हँसने का दण्ड मिल
जाता, अकस्मात सागर में गिरने से हँसी लुप्त हो जाती और वे तैर कर पुनः शेष पर आ
जाते किंतु रूप का अपमान ! दण्ड अपेक्षाकृत अधिक था किंतु अब मुख से शाप निकल गया
तो श्रीहरि ने कोई प्रतिकार न किया ( किस पति का साहस है प्रतिकार का ! ) हे
मित्रों ! यदि यह विचार आ रहा हो कि हास्य को उपहास समझना और वह भी लक्ष्मी जी
द्वारा और फिर मृत्युदण्ड – तो हे श्रोतागण, आप भ्रम में हैं. प्रभु के समस्त
कार्यों का कोई हेतु होता है – ऐसी व्यवस्था हमारे ग्रंथकार कर गये हैं. तो प्रभु
ने शाप अंगीकार किया. शाप में कोई ऐसा निर्देश न था कि यह तत्काल क्रियान्वित होगा
अथवा कुछ कालोपरांत और कहां होगा सो शाप ने भी कुछ ढील ले ली और उस समय
क्रियान्वित न होकर किसी उपयुक्त समय की प्रतीक्षा करने लगा.
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अथ श्री हयग्रीवावतार कथा द्वितीयो ध्याय सम्पन्न
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तृतीय अध्याय
तो मित्रों ! आप चिंता में पड़ गये होंगे कि आगे
क्या हुआ ? विष्णु भगवान का शीश कट कर गिरा या नही. उसके बाद वे जीवित रहे कि
वैकुण्ठवासी भये ! वैसे वो क्या वैकुण्ठवासी होंगे, वो तो वहीं रहते ही हैं, वो तो हम मृत्युलोक, उसमें भी भारतवर्ष के और
उसमें हिंदू, प्राणियों के मरने पर कहा जाता है. बाक़ी धर्मावलंबी और अन्य देशों के
लोगों का क्या होता है, हमें नही मालूम ! एक मुसलमान कवि ने कहा भी है, “ हिंदुन
के नाथ हो तो हमरा कछु निहोरा नही, जगत के नाथ हो तो हमरी भी सुधि लीजिये. “ ये तो
हट कर चर्चा हो गयी, इससे भी बड़ा प्रश्न यह सर उठा रहा है कि यदि शाप क्रियान्वित
हुआ और, जैसा कि सबको विदित है, वे मरे भी नही तो इसके बाद उनके और लक्ष्मी जी के
दाम्पत्य सम्बन्ध पूर्ववत मधुर रहे अथवा उनमें तिक्तता आ गयी ? क्या श्रीहरि ने
उसके अननंतर लक्ष्मी जी की ओर चितवते हुए हँसना तो दूर, मंद स्मित सहित देखना भी
बंद कर दिया – हे मित्रों, डर और उसमें भी पत्नी से डर आदित्य को भी ग्रस सकता है.
पूजा नाम्नी एक श्रोता ने तो इसके कपोल - कल्पित होने का प्रश्न भी किया – हे
यजमानगण ! यह सब अतिप्रश्न हैं, कथा श्रवण के समय इनके पूछने से श्रोता और वक्ता –
दोनों को दोष लगया है जिसका निवारण श्रोताओं द्वारा उपवास रख कर वक्ता को एक
सप्ताह तक दोनों पहर सुस्वादु भोजन कराने से होता है. सो अब चित्त लगा कर श्रवण
करो कथा, शंका समाधान टिप्पणी सत्र में किया जायेगा.
तो इसके कुछ कालोपरांत विष्णु भगवान एक युद्ध
के बाद क्लांत होकर यूं ही एक पेड़ से टिक कर विश्राम करने लगे और निद्रादेवी ने
उन्हे अपने अंक में ले लिया. उनका शार्ङ्ग नामक धनुष उस पेड़ के तने से टिका था और
उसकी प्रत्यञ्चा भी चढ़ी थी. उसी समय एक कीट ने धनुष की प्रत्यञ्चा को कुतरना शुरू
कर दिया और कुतरते – कुतरते वह डोरी कट गयी और विष्णु जी के गले से जा लगी और झटके
से उनका सर कट कर भूमि पर जा गिरा. यह देखते ही हाहाकार मच गया. सब देव देवियां
एकत्र हुए और देवी की सलाह से यह तय पाया गया कि घोड़े का सर काट कर विष्णु जी के
कबंध पर लगा दिया जाय और विश्वकर्मा जी ने ( उन्होनें क्यों ? वे तो शिल्पी थे.
वैद्य तो अश्विनीकुमार थे, उनसे यह कार्य क्यों नही कराया गया – इस बारे में देवी
भागवत कुछ नही कहता ) ऐसा ही किया गया. हे जिज्ञासु जन ! वह दिन श्रावण मास के
शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा का था. उस पुरुष का कबंध तो विष्णु का था किंतु सर घोड़े का
अतः यह अवतार हयग्रीव अवतार कहा गया.
हे श्रोता गण ! अब यह अति प्रश्न न करने लगियेगा कि यदि घोड़े का सर लगाया जा सकता है तो क्यों नही विष्णु जी का ही सर लगा दिया गया और अश्व एवं मानव की संरचना, शिरायें, रक्तादि भिन्न गुण सूत्र के होते हैं, कैसे वे मैच किये. हम पहले ही सचेत कर चुके हैं कि ये अतिप्रश्न हैं कालांतर में बुद्ध ने इनका निषेध किया है. अगर आप प्रायश्चित करने को उतारू ही हैं तो हम क्या कर सकते हैं. पूर्व में भी मानव एवं पशु के सर धड़ की यह असंगत संगति हुई है. गणेश की कथा तो विदित ही होगी. इसके अतिरिक्त दक्ष प्रजापति का शीश शिव के गण वीरभद्र ने काट कर हवनकुण्ड में भस्म कर दिया था तो उनके धड़ पर अज अर्थात बकरे का सर लगाया गया था. नृसिंहावतार का भी स्मरण होगा, आधा नर आधा सिंह. कुछ काल के लिये श्रीहरि ने ही माया से नारद का मुख वानर का कर दिया था – तो ये नयी बात नही है. अब आप हयग्रीवावतार की कथा का श्रवण कर चुके हैं तो इसका हेतु जानने को भी व्याकुल हो रहे होंगे. चतुर्थ अध्याय में सुने हयग्रीवावतार का हेतु.
---- अथ श्री हयग्रीवावतार कथा तृतीयोध्याय
सम्पन्न ----
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चतुर्थ अध्याय
यदि आप धार्मिक कहें अथवा मिथक – इस कोटि के
ग्रंथों का पाठ करते हैं अथवा प्रवचन सत्संगादि में जाते हैं तो निश्चित ही ज्ञात
होगा कि देखने में भले ही विचित्र अथवा निरुद्देश्य लगे अथवा यह प्रश्न उठे कि
क्या भगवान भी सामान्य मनुष्यों का सा आचरण करते थे किंतु उनके प्रत्येक कार्य का
एक प्रयोजन होता है. उसे ही सिद्ध करने को यह अवतार अथवा अटपटी घटनायें होती हैं.
कर्तव्य, दया, ममत्व अथवा स्नेह के वशीभूत साथी देवगणों से कुछ ऐसे कार्य हो जाते
हैं जो तत्काल अथवा भविष्य में घोर संकट उत्पन्न करते हैं. उन्ही संकटों के निवारण
/ भूल सुधार के लिये यह नाना प्रकार के अवतार होते हैं सो इस अवतार का भी एक प्रयोजन
है.
इस अवतार का हेतु जानने के लिये हे श्रोतागण !
हमें फ्लेश बैक तकनीक का उपयोग करना होगा. हम लिये चलते हैं आपको बिना किसी उपकरण
के इस अवतार के भी पीछे के युग में जब सर्वत्र जल की अधिकता थी. शेषशायी विष्णु
सदा की भांति उस दिन भी शेष शय्या पर लेटे थे. आपको तो मालूम ही है कि उनकी नाभि
से कमल निकला हुआ है, सामान्य कमल की तरह इसकी नाल जल में नही है ( जाने कमल पोषण
कहां से ग्रहण करता होगा ) बल्कि विष्णु जी की नाभी से ऊपर वायुमण्डल में है. उस
विशाल कमल पर चतुरानन (तब उनका एक सर शिव जी काट चुके थे )
“ … तो उसे जोड़ा क्यों नही गया या उसकी जगह और
कोई सर नही लगाया गया और वे जीवित भी रहे – सर था कि केश … “ – बार बार कह रहा हूं
कि बातें बाद में करें, मुझे सब सुनाई दे रहा है, हां तो कमल पर ब्रह्मा जी बैठे थे. उनके हाथों में वेद
शोभायमान थे. विष्णु जी की दृष्टि कमल पर दो बिंदुओं पर केंद्रित हो गयी और उन दो
बिंदुओं से मधु और कैटभ नामक दो दैत्यों ने जन्म लिया ( ये कौन खुसुर-फुसुर कर रहा
है कि जन्म कहीं ऐसे होता है ? कहा ना, टिप्पणी सत्र में यह सब होगा ) दैत्य भी
ऐसे दुष्ट कि ब्रह्मा के हाथ से वेद छीन कर सागर में गोता लगा गये. अब वेदों पर
खतरा था तो विष्णु जी तुरंत सागर में कूदे और उनसे युद्ध करके उनका वध किया मगर
वेद फिर भी हत्थे न लगे. वे दैत्य कुछ अधिक ही दुष्ट थे ( कैसी संतानें थी विष्णु
जी की ! ) उन्होने वेद एक अन्य दैत्य, हयग्रीव, को सुपुर्द कर दिये थे. अब विष्णु
जी ने हयग्रीव को तलाशा और उसका वध करके वेद पुनः ब्रह्मा जी को सौंपे.
अब हयग्रीव की कथा सुनें. इस दैत्य ने भी अन्य
दैत्यों / दानवों / राक्षसों की भांति बड़ा कठोर तप किया था. तप पर जब देवी प्रकट
भयीं तो इसने भी अन्य दैत्यों / राक्षसों की भांति अमर होने का वर मांगा. अब अमर
होने का एकाधिकार तो देव प्रजाति को था तो और किसी को कैसे दिया जा सकता था, देवी
ने इसे और कोई वर मांगने को कहा तब इसने यह वर मांगा कि इसे केवल वही मार सके
जिसका सर घोड़े का और धड़ मानव का हो. बेचारा देवताओं के छल और जुगाड़ को कहां जानता
था ! देवी ने तुरंत एवमस्तु कहा और अंर्तध्यान भयीं. अब तो यह निर्द्वंद्व हो गया,
सबको सताता, राज्य पर कब्जा करता. युद्ध में यह अजेय था क्योंकि ऐसा कोई व्यक्ति
ही न था जो घोड़े के सर और मानव के धड़ वाला होता. जब इसके अत्याचार बहुत बढ़े तो
विष्णु और देवी ने मिल कर लक्ष्मी जी की मति फेर दी, उन्हे विष्णु जी को हँसता देख
कर अपने रूप के उपहास का भ्रम हुआ और उन्ही की प्रेरणा से ऐसा शाप दिलाया. उसी
योजना के आधीन विष्णु जी युद्ध में क्लांत होकर प्रत्यञ्चा चढ़ा हुआ धनुष छोड़ कर सो
गये, किसी देव ने कीट रूप में प्रत्यञ्चा काटी जिससे उनका सर कट कर गिर गया, वे
हयग्रीव भये और हयग्रीव नामक दैत्य का वध हुआ और वेद पुनः ब्रह्मा जी को सुपुर्द
किये गये.
---- अथ श्री हयग्रीवावतार कथा चतुर्थोध्याय
सम्पन्न ----
(
हे संतगण ! कहीं जाईयेगा नही, अभी पञ्चम अध्याय शेष है. यद्यपि वह मूल कथा में नही
है किंतु उसे हमने क्षेपक रूप में सम्मिलित किया है, यह आप सबको और उपयोगी लगेगा )
पञ्चम अध्याय
आपने श्री सत्यनारायण भगवान व्रत कथा सुनी
होगी. उसमें पञ्चम अध्याय में कोई कथा नही है बल्कि यह बताया है कि कथा के चार
अध्यायों मे जो पात्र थे वे अगले जनम में क्या भये, जैसे जो विप्र सदानंद थे वो अगले
जनम में वे द्वापर में सुदामा भये ( ग़रीब शुरू में वो तब भी रहे ) जो राजा थे वे
मोरध्वज भये आदि, इत्यादि सो इस कथा का भी पञ्चम अध्याय यही होने वाला है.
ये जो अवतार हैं, सारे के सारे विष्णु के ही
भये और कोई भी अवतार यूँ ही, मन में मौज़ उठी औ प्रभु अवतार ले लिये, टाईप का नही
है, हर अवतार का हेतु बताते भये हैं नाना ग्रंथकारों द्वारा लिखित औ सम्पादित
ग्रंथकार! कुछ अवतार तो किसी उद्देश्य विशेष की पूर्ति हेतु लिये गये औ उद्देश्य
पूरा होने पर भूमि पर बहुत काल तक नही रहे, यूं कहे कि लुप्त हो गये. (जैसे यह
हयग्रीवावतार) बाद में किसी काल में कहीं भी न दिखे (मतलब ग्रंथों में) न किसी
अन्य अवतार के साथ उनका कोई संग साथ दिखाया गया ( जैसे राम के काल में परशुराम
अवतार का आमना सामना भया, अर्थात एक अवतार उद्देश्य पूर्ण होने के बाद भी रहा ) तो
कुछ अवतार इतने चर्चित भी न रहे. एक अवतार, कल्कि अवतार, अभी होना बताया जाता है.
जब अवतारों की बात रही, ( भावना को ठेस न लगे तो कह दूं कि कल्पना की गयी / मिथक
और गल्प में स्थान पाया ) तो देश काल के अनुसार ही उनकी वेषभूषा की कल्पना की गयी यथा
कल्कि अवतार की धारणा घोड़े पर बैठे हुए और तलवार लिये हुए की गयी है किन्तु यदि यह
अवतार हुआ तो क्या ऐसा ही होगा – इसी वाहन और इसी हथियार से दुष्ट दलन करेगा.
बुद्ध तो अवतारवाद, मूर्ति पूजा, आडंबर के विरुद्ध थे – इन्हे भी दशावतार में
शामिल कर लिया गया. यह सब घालमेल अवतार के कालनिर्धारण पर प्रश्नचिन्ह लगाता है.
सामान्यतः लोग विष्णु जी के दस अवतारों को ही जानते हैं, दस अवतार ये हैं – 1.मत्स्य, 2.कूर्म, 3.वाराह, 4.नृसिंह, 5.वामन, 6.श्रीराम, 7.श्रीकृष्ण, 8.परशुराम, 9.बुद्ध एवं 10.कल्कि. इनको शामिल करते हुए कुछ अन्य अवतारों का भी उल्लेख ग्रंथों (श्रीमद्भभागवत महापुराण, देवी भागवत, सुखसागर आदि) में मिलता है, उन्हे मिला कर चौबीस अवतार हो जाते हैं. ये चौबीस अवतार हैं – 1.श्री सनकादि (चार बालकों का समूह जो सदा बाल रूप में ही रहता है. धरती पर इनके आने की कोई लिखत ग्रंथों में नही मिलती. ये ऊर्ध्वलोकों में ही विचरण करते हैं.) 2.नारद ( ये तो ब्रह्मा के पुत्र हैं और इन्हे मोह भी हुआ था जिसका भञ्जन विष्णु जी ने ही इन्हे वानरमुख देकर किया था एवं इन्ही के शाप से उन्हे रामावतार लेना पड़ा था. ये तो अवतार – अवतार की टक्कर हो गयी, एक अवतार मोहग्रस्त और एक नें मोह निवारण किया और मोहग्रस्त ने शाप भी दिया – बड़ा घालमेल है ) 3.नर – नारायण ( दो अवतार जो साथ ही रहते हैं – इन्हे कृष्ण और अर्जुन भी कहा जाता है ) 4.मत्स्य, 5.कूर्म, 6.वाराह, 7.नृसिंह, 8.वामन, 9.गजेंद्रोधारावतार, 10.यज्ञ, 11.हयग्रीव, 12.कपिल, 13.दत्तात्रेय, 14.पृथु, 15.ऋषभदेव, 16.मोहिनी, 17.धन्वंतरि, 18.हंस, 19.वेदव्यास, 20.परशुराम, 21.राम, 22.कृष्ण, 23.बुद्ध और 24.कल्कि. इनमें राम और कृष्ण पूर्णावतार कहे जाते हैं और बाक़ी अंशावतार.
कथा्वाचन हयग्रीवावतार का हो रहा है सो हे उत्सुकजन! अब इसी कथा को आगे बढ़ाता हूं. हयग्रीवावतार भया तो भारत भूमि में किंतु फैला जापान और तिब्बत में भी. फैला से यह मतलब न लगाया जाय कि वहां विष्णु के हयग्रीवावतार की पूजा होने लगी. हमारे यहां बुद्ध शांति, प्रेम और करुणा के प्रतीक हैं. हर जगह मूर्तिकला या चित्रकला में उनके मुख पर अद्भुत शांति और अति मंद मुस्कान छायी रहती है. वे बहुधा पद्मासन में होते हैं और कानों तक फैले बड़े- बड़े नेत्र अर्धनीलिमित अर्थात अधखुले होते हैं . मुख पर शांति के अतिरिक्त करुणा भी विद्यमान रहती है. वे निर्वेद के मूर्तिमान स्वरूप हैं वहीं तिब्बत और जापान में बुद्ध भिन्न भिन्न मुद्राओं और अवतारों में हैं. वे हास्य मुद्रा में भी हैं, क्रोधावस्था में भी और रौद्र रूप में एक योद्धा के रूप में भी मठों की दीवारों पर चित्रित हैं. बुद्ध का यह अवतार ‘अवलोकितेश्वर’ कहा जाता है. कई हाथ, हाथों में भयंकर अस्त्र – शस्त्र लिये हुए और अद्भुत लययुक्त मुद्रा में अवलोकितेश्वर बुद्ध की प्रतिमायें मठ में दिखती हैं. रौद्र और नृत्य का अद्भुत संगम है इन चित्रों और मूर्तियों में. जापान में भी कुछ बौद्ध मठों में “हयग्रीव’ रूप में बुद्ध किंवा अवलोकितेश्वर विराजमान हैं. सिक्किम के संग्रहालय में विभिन्न मुद्राओं बुद्ध / अवलोकितेश्वर की मूर्तियां हैं. बुद्ध ही वहां कृष्ण हैं, शिव हैं और विष्णु हैं. लक्ष्मी व अन्य देवियों को भी वहां तिब्बती मुद्रा और श्रंगार में गढ़ा गया है. शिव की एक विलक्षण प्रतिमा सिक्किम संग्रहालय में है. अनेक भुजाओं वाले शिव रौद्र रूप में युद्धरत हैं और उनकी बाहों में पार्वती जी भी हैं. संग्रहालयों और मठों में फोटोग्राफी वर्जित होने से वे बस आंखों में ही बसे हैं.
हयग्रीवावतार की मूर्तियां जापान और तिब्बत में
होने के बारे में नेट से पता चला, बाक़ी जो कथा कही – वह स्मृति में बसी है, वहीं
से ली. इन ग्रंथों का अध्ययन बाल्यकाल से करता रहा हूं सो सब लगभग मालूम ही है, जो
छूट जाता है वह फिर से ताज़ा कर लेता हूं, जैसे दशावतार पूरे मालूम थे, चौबीस
अवतारों में कुछ देखने पड़े.
थोड़ा विषयांतर – तिब्बत की मठ कला में रौद्र और भयंकर रस का प्राचुर्य है. शांत रस और सौंदर्य भी वहां किञ्चित उसी रंग में है और मांगलिक चिन्ह भी भयंकर ही हैं. मैं जब सिक्किम गया तो कुछ मुखौटे और हैण्डिल लाया भी जो मेरी कुटिया के द्वार पर लगे हैं. तिब्बत और जापान के हयग्रीव विग्रह के साथ अपनी कुटिया के द्वार पर लगे मुखौटे और हैण्डिल का चित्र और. ड्रेगन के चित्र वाली चीन की केतली का चित्र फिर कभी प्रसंग उपस्थित होने पर अन्यथा अधिक जिज्ञासा हो रही हो तो कुटिया पर पधारें.
हयवदन नाम से एक नाटक भी है जो गिरीश कार्नाड
ने लिखा है.नाटक मूलतः कन्नड़ में है जिसका हिन्दी अनुवाद भी हुआ और मञ्चित भी खूब
हुआ. नाटक हयग्रीवावतार के बारे में नहीं, एक लोक कथा पर आधारित है जिसमें दो अभिन्न
मित्र हैं, एक कोमल प्रकृति का, संगीतप्रेमी और दूसरा एक पहलवान. पहलवान मित्र एक
सुन्दरी पर रीझ जाता है तो गायक मित्र यत्नपूर्वक उसका विवाह उस कन्या से करा देता
है. कालांतर में एक यात्रा पर जाते समय देवी को दिए पुराने वचन के अनुपालन में एक
मित्र देवी को शीश अर्पित करता है तो मित्र शोक में दूसरा भी अपना सर काट देता है.
पत्नी वहाँ से कुछ दूर थी, आने पर वह यह दृश्य देखती है तो देवी से अनुनय-विनय
करती है तो देवी बताती है कि इनके सर धड़ पर लगा दो तो ये जीवित हो उठेंगे. पत्नी
ऐसा ही करती है किंतु हड़बड़ी में पति का सर मित्र के धड़ पर व मित्र का सर पति के धड़
पर लगा देती है. अब दोनों जीवित हो उठते हैं तो बड़ा धर्मसंकट उत्पन्न होत है कि
किसे अपना पति माने ? देह प्रमुख कि मस्तिष्क ? अब क्या होता है और परिणिति क्या
होती है ? इसके लिए नाटक देखें अथवा पढ़ें. देवी का चरित्र चित्रण भी मड़ा मज़ेदार व
हास्ययुक्त किया है.
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अथ श्री हयग्रीवावतार कथा पञ्चमोध्याय ( क्षेपक ) संपन्न ---
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