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Friday, 26 July 2024

रसगुल्ला !

 आते हैं रसगुल्ला खाने पर, मतलब खाने के तरीके पर.

“तो रसगुल्ला कैसे खाते हैं आप ?”

“कैसे क्या ! अरे भाई, मुहँ से खाते हैं ! और कैसे ?

“अरे वह मतलब नहीं है. मुहँ से तो खाएंगे ही, मुहँ के अलावा भी और कहीं से खाते हैं क्या ?”

यह सवाल इसलिए पूछा कि बहुत पहले, अब से करीब चौथाई सदी पहले एक को रसगुल्ला ऐसे खाते देखा कि सदमा लगा, धिक्कारयुक्त आश्चर्य से आँखे फैल गयीं. कुछ ने तुरन्त टोका और चर्चा तो बाद तक होती रही. खाया ही उसने ऐसे वीभत्स से ढंग से था ! रसगुल्ले व रसगुल्ला प्रेमियों के लिए मानसिक प्रताड़ना थी ! हम एक ट्रेनिंग में औरंगाबाद में थे. लंच में खाने के साथ रसगुल्ला भी था. एक ने बाउल से रसगुल्ला उठाया, उसे बाउल में ही ऐसा निचोड़ा कि सारा रस निकल गया, सिर्फ गुल्ला बचा. वो गुल्ला उसने एक बार में ही मुहँ में रखा और खाया. सबको अजीब लगा, वीभत्स भी क्योंकि किसी को ऐसे रसगुल्ला खाते देखा न था. उस समय लोग इतना डायबिटीज कांसस न थे कि रसगुल्ला खायें किन्तु रस से परहेज करें. सब युवा भी थे और तब युवाओं में आज की जीवनशैली की बीमारियां – शुगर, ब्लड प्रेशर, हार्ट की बीमारियां आदि कॉमन न थीं बल्कि युवाओं को होती ही न थीं. कुछ ने टोका भी कि ये कैसे खाया ? प्रश्न नहीं, धिक्कार कि इस ढंग से खाया, ऐसे भी कोई खाता है ! आपस में कहा भी कि बड़ा गंदा तरीका है. उसने बताया कि रस बहुत मीठा होता है, नुकसान कर सकता है.

भला रस निचोड़ कर जो गुल्ला खाया, उसमें कैसा स्वाद ! वो तो फीका सा, केवल छेना हुआ. सादा छेना तो ऐसा होता नहीं कि मिठाई के तौर पर खाया जाए, भले ही कुछ देर पहले वह रस में डूबा रहा हो.

रसगुल्ला तो तभी रसगुल्ला होता है जब वह रस में डूबा हो और रस सहित ही खाया जाए. बिना रस के वह रसगुल्ला थोड़े न रह जाता है. रसगुल्ला चीज़ ही ऐसी है कि सोच या देख कर ही मिठुआ लोगों के मुहँ मे स्वाद घुलने लगे. रसगुल्ला ! आहा !! रसोगुल्ला ! नाम लेते ही जैसे मुहँ में रस भर आता है – हाँ, मधुमेहियों के मुहँ में भी ! रसगुल्ला तो जानते हैं न आप, पहचान तो गये ना ! नहीं, नहीं ! यह नहीं कह रहा कि आप रसगुल्ला को नहीं जानते ! वो क्या है ना कि कुछ लोग रसगुल्ला और गुलाबजामुन को अलग़-अलग़ न पहचान कर दोनों को रसगुल्ला ही जानते / कहते हैं – रसगुल्ला को सफेद वाला या छेने का रसगुल्ला और गुलाबजामुन को काला वाला रसगुल्ला ! ऐसे बंधु – बांधवियों के लिए स्पष्ट किया जाता है कि रसगुल्ला तो सफेद या छेने वाला ही होता है, वो खोया वाला, काला–भूरा-सुनहरा सा, गुलाबजामुन होता है. काला वाला काला-जाम होता है पर रसगुल्ला नहीं होता, भले ही वह भी गुल्ला होता है और रस में डूबा होता है. छेना का ही और उसी आकृति का. जो वह बड़ा सा, पीले रंग का जो होता है, वह ‘राजभोग’ कहाता है, रसगुल्ला नहीं. राजभोग हो या जनभोग – वह इतना बड़ा होता है कि कुछ ही लोग उसे समूचा मुहँ में रख कर, बिना गले में फंसे, चुभला कर खा सकते हैं, अन्यथा तो चम्मच से काट कर ( चम्मच से काटने के बाद भी काटना दांत से ही होता है ) खाना उचित और सुविधाजनक होता है. जो समूचा मुहँ में रख कर आसानी से खा लेते हैं, वे सम्भवतः बताशे ( गोलगप्पे या कुछ लोग पानीपूरी तो अब कहने लगे हैं, हम तो पुराने समय से बताशा कहते हैं ) खाने के अभ्यस्त होते हैं, उसमें भी कहते हैं, ‘भईया, ये क्या छोटे-छोटे, पिचके – पिचके दे रहे हो ! फूले – फूले और बड़े – बड़े खिलाओ !’ ऐसे लोग राजभोग भी आसानी से एक बार में समूचा खा लेते हैं. रसगुल्ला तो वही है, मध्यम आकार का, एक बार में, समूचा मुहँ में रखने वाला. वैसे छोटे – छोटे से रसगुल्ले भी आते हैं जो उनके लिए हैं जिनका मुहँ नहीं खुलता. रसगुल्ला खाने वाले उन्हें पसंद नहीं करते क्योंकि वे गुल्ला तो होते हैं पर उनमें उतना रस नहीं होता जितना मानक रसगुल्लों में, फिर भी वे उन्हें खाते हैं. सोफिकेस्टेड / टेबल मैनर्स का पालन करने वाले तो नफासत से, चम्मच में एक लेकर, खाते हैं और एक ही खाते हैं पर कुछ लोग एक बार में तीन – चार भी खा लेते हैं. छोटे / मिनी रसगुल्ले रसगुल्ला के नाम पर धोखा हैं, इनमें वो बात नहीं होती जो रसगुल्ला में. रसगुल्ला के नाम पर कलंक हैं मिनी रसगुल्ले – मरघिल्ले, सूखे-सूखे !

अब सब चीज़ों की तरह इसमें भी प्रयोग होते हैं, फ्यूजन के चक्कर में दो चीज़ों का मज़ा बेमज़ा कर देते हैं. न इसका स्वाद मिलता है, न उसका. गुड़ के रसगुल्ले (गुलाबजामुन) बनते हैं तो छेना के बजाय चावल के रसगुल्ले भी और ब्रेड के भी. ब्रेड का पकौड़ा तो ठीक है, पर रसगुल्ला ! वैसे बनाने वाले तो ब्रेड का दही बड़ा भी बनाते हैं और्फ शाही टुकड़ा भी. मुझे तो इसके नाम पर ऐतराज है, एक तरफ शाही दूसरी तरफ टुकड़ा. शाही लोग क्या टुकड़खोर हो गए !
खैर, रसगुल्ले पर ही रहता हूँ और एक वाकया बयान करके ‘अपनी वाणी को विराम’ और आपकी वाणी को आमन्त्रण देता हूँ. रसगुल्ला को ठण्डा खाने का आनन्द है जबकि गुलाबजामुन को गरमागरम. वैसे बनने के तुरन्त बाद और काफी देर बाद तक दोनों गरम रहते हैं मगर हलवाई दोनों का समुचित उपचार करता है. रसगुल्ले की कढ़ाही या परात को धीमी आँच पर रखता है तो रसगुल्लों के बड़े बाउल को ‘ठण्डे वाले काउण्टर’ ( उसका कोई तकनीकी नाम होता है जो मुझे नहीं मालूम) में और ग्राहक को केवड़ा या और कोई ख़ुश्बू-वुश्बू छिड़क कर देता है. विडम्बना कि एक दिन मुझे गरम रसगुल्ले खाने पड़े और कुछ देर के अन्तराल से फिर से ! हुआ यह कि मुझे एक जगह जाना हुआ. अब कुछ लोग ऐसे हैं जिनके यहाँ खाली हाथ नहीं जाते, कुछ मीठा ले जाते हैं. हमारी तरफ ( जानकीपुरम में ) ‘देहाती रसगुल्ले’ नाम से एक दुकान है जो बड़े – बड़े रसगुल्ले बनाता है. वहाँ से दस पैक कराए और दो वहीं खाने के लिए लिए. अब वो बिल्कुल ताज़ा थे, कड़ाही में ही पड़े थे सो गरम थे. अब रसगुल्ला के खवैया समझ सकते हैं कि मैंने कैसे खाये होंगे, खाये क्या, ज़हरमार किया, ज़ुबान को धोखा दिया, बहलाया ! फिर उनके घर गया. सलीका है कि बैठने पर चाय वगैरह से पहले पानी पेश किया जाय और सूखा नहीं, कुछ मीठे के साथ. उस दिन उनके घर में मीठा न रहा होगा सो मेरे लाये हुए में से दो पीस पेश किए. ऐसे ढ़ीठ रसगुल्ले कि अब भी गरम थे. मैंने बहाना किया कि अब मीठा नहीं खाता, इसे हटा लीजिए. उन्होंने इसरार कि या कि अरे लीजिए ! इतने से कुछ नहीं होता. फिर से मना करने पर उन्होंने एक निकाल लिया कि अच्छा एक तो लीजिए ही. अब क्या करता ! फिर से गरम रसगुल्ला खाना पड़ा. उसके कुछ दिन बाद तक रसगुल्लों से जी हटा रहा.

अब मेरी वाणी को विराम और आपकी को शुरू ! बताएं अपने अनुभव, न हों तो प्रतिक्रिया ( इमोज़ी के साथ टिप्पणी भी) तो दीजिए ही दीजिए.

( 'मीठी-मीठी बातें' मेरे इसी ब्लॉग ' पर हैं. 27 फरवरी, 2023 की पोस्ट 'मीठी-मीठी बातें' भी देख लें.







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