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Thursday, 11 July 2024

चचा चटपटे !

शाम का चाय – नाश्ता करके लैपटॉप पर कुछ करने बैठा था (बात न पकड़िएगा, लैपटॉप पर नहीं बैठा था. बैठा तो हस्बेमामूल और आम लोगों की तरह कुर्सी पर था, लैपटॉप मेज पर था और जैसे सब की बोर्ड और माउस से कुछ लिखते/चैटियाते/रीलियाते/फेसबुकियाते हैं … वैसे ही) कि ज़ोर की हांक सी सुनाई पड़ी,

“घर में हो भई कि कहीं गये हो?”

“घर में ही हूँ चचा, आ जाईए !” प्रत्युत्तर में वैसा ही हांकनुमा आमन्त्रण दिया.

चचा के गेट खोलने और सीढ़ियां चढ़ने की आवाज़ सुनाई दी. चचा को तो जानते ही होंगे आप लोग, कई बार मिल चुके हैं. चचा जगतचचा हैं, मतलब मेरे पिताजी की वय के लोग भी इन्हें चचा कहते हैं, मेरी वय के भी और मेरी बेटी की वय के भी और स्कूल जाने वाले बच्चे भी. और तो और, चची भी इन्हें चचा ही कहती हैं, चचा की अम्मी भी और सास भी. जगतचचा हैं तो चचा की लोकप्रियता का अनुमान लगा सकते हैं. चचा की तीन श्रेणियों में मेरे लिए हैं तो चचा बुजुर्गवार की श्रेणी के, किन्तु हमसे नाता चचा यार श्रेणी का रखते हैं. चचा वो हैं जो आ जायें तो कोई वो काम नहीं कर सकता जो कर रहा होता है. चचा कॉल बेल वगैरह के चक्कर में नहीं पड़ते, आवाज़ देते हैं और मोबाईल रखते तो हैं पर कॉल करके कभी नहीं आते, काहे से कि, ‘शहर में कोई एक तुम्ही थोड़े न हो, हर घर में दो – तीन भतीजे तो होंगे ही, ये न मिले तो उससे मिल लेंगे मगर जिसके यहाँ पहले गये हैं वो मिल जाय तो बेहतर.’

                    चचा कमरे में आये. तशरीफ रखी तो सौ बार पूछा सवाल पूछा जिसका हर बार एक ही जवाब मिला. कहा,

“चचा, घण्टी बजा लिया कीजिए ! काहे गले को इतनी तकलीफ देते हैं. आपके बैठने से पहले वह बैठ गया या पड़ गया तो आगे क्या करेंगे ?”


ये घण्टी-घण्टा के चक्कर में हम नहीं पड़ते. कौन सा तुम बादशाह जहांगीर हो जो घण्टा लटकाए हो और हम कौन सा फरियादी हैं जो घण्टा बजाएं.”

“फिर भी ! ऐसी हांक लगाने से इर्द गिर्द के दस घरों तक आवाज़ जाती है, सब जान जाते हैं कि किसके यहाँ कौन आया है.”

“तो ! जान जायं ! कोई चोरी है क्या ? वो तो हम एक और वजह से बजाय घण्टी बजा कर आने के इस तरह मुनादी सी करके आते हैं. बहू-बेटियों वाला घर है. जाने कैसे लेटी-बैठी हों, क्या पहने हों, क्या कर रही हों. ऐसे आने से पता चल जाता है, जिसको पर्दा-उर्दा करना हो कर सकती हैं, कपड़े बदलने हो तो बदल सकती हैं, ठीक से बैठ सकती हैं या अन्दर जा सकती हैं. चचा हैं हम ! बहू-बेटियों कि बेहुरमती न हो, ये ख़्याल तो हमें ही रखना होगा ना !”

“हाँ, यह तो है. कायल हो गया आपके तरीके का.”

“वो तो होओगे ही. हम न ग़लत कहते हैं, न करते हैं.”

“ग़लत तो करते हैं चचा ! अभी पिछली बार आप बाथरूम में वाश बेसिन पर पैर रख कर धो रहे थे. एक पैर उस पर था, दूसरा ज़मीन पर. पता नहीं किस धुन में थे कि बिना वह पैर उतारे दूसरा उठा दिया और धड़ाम हो गये. वो तो फ्रैक्चर नहीं हुआ. और वो जो चाकू से आम खा रहे थे और होंठ कट गया. इस बार भी ज़रूर कुछ अज़ूबा करके आए होंगे”

“अरे वो तो हो गया ! हमारे अलावा ऐसा कोई और कर सकता है भला ? सब करने लगें तो आम लोगों और चचा में क्या फर्क रह जाए !”

“छोड़िए ये सब, आपसे बातों और हरकतों में कौन जीत सकता है भला ! ये बताईए कि चाय-कॉफी लेंगे या शरबत. पहले ये मीठा खाकर पानी पीजिए, उसके बाद जो कहें, पेश हो.”

“चाय-कॉफी या शरबत या मीठा कुछ नहीं. आज तो कुछ खूब चटपटा, तीखा, खट्टा खिलाओ. न हो कुछ ऐसा तो ये करो कि मुट्ठी भर हरे मिर्चे कटवा कर, खूब खटाई, नमक, अचारी मसाला डाल कर छौंकवा दो, तब साथ में चाय चल जायगी.”

गजब ! ऐसा क्या चचा ! आप तो बड़े मिठुआ हैं पर मीठे को मना कर रहे हैं और मिर्चे चबाने को कह रहे हैं!”

“ तो मीठे के बंधुआ थोड़े न हैं. आज सुबह से ही चटपटा खाने का मन कर रहा था, खूब चटपटा, तीखा, खट्टा ! मन को मारा नहीं, खाया भी. बाहर नहीं घर पर ही और ख़ुद बना कर ! मेरा मन भी ऐसा है कि कभी खूब मीठा खाने को करता है, कभी, खट्टा और कभी तीखा. फीका खाने का उतनी शिद्दत से मन नहीं करता, वो तो वैसे ही खाता हूँ. लौकी, तुरई, बीन्स आदि बिना तेल मसाले की ही बनती है और हम दोनों ही चाव से खाते हैं, गरमी में तो लगभग रोज ही. तो आज खूब चटपटा, तीखा, खट्टा की खवास लगी. नाश्ते तक सबर किया, चाय ( ग्रीन टी ) के साथ नमक – रोटी खाई, रोटी में घी भी था. नाश्ते में नमक रोटी हम अक्सर खाते हैं, बासी ( रात की रखी ) हो तो ठीक, नहीं तो तुरंत की बनी भी खा लेते हैं. नमक कभी लहसुन मिर्चा का होता है, मिर्चा कभी हरा तो कभी लाल, तो कभी खटाई मिला, कभी तेल या घी मिला. कभी कई मसाले मिला कर बनाया हुआ.

               आज खूब चटपटा, तीखा, खट्टा खाने मे नाश्ता के बाद शुरुआत पानी में नींबू और नमक से की, खट्टे की वजह से कुछ सन्तोष मिला. फिर खाने के साथ लच्छेदार कटा महीन प्याज सिरका के साथ मिला कर खाया. नारी का खट्टा साग और घुंईया के कोमल पत्तों के साथ बनी चने की दाल तो थी ही. थोड़ी देर बाद फिर तलब लगी तो सिरके में बना सहजन – हरे मिर्च का अचार खाया, रूखा ही, बिना दाल – चावल –रोटी के. मज़ा आ गया तो कई बार खाया. बेटी के बनाए हुए ‘मिर्चौने आलू’ और ‘मिर्चौने चावल’ की याद आयी, वह कभी-कभी बनाती थी, अब तो शादी हो गयी, ससुराल में है नहीं तो बना देती. नवाबगंजी आलू अब देखने को नहीं मिलता नहीं तो उबले हुए और हरी धनिया के साथ मिर्चौने आलू बनते. घण्टा-खांड़ ठीक रहा फिर खूब चटपटे पापड़ ओवन में भून कर खाये…

“हे भगवान चचा ! आप भी क्या हैं ! इतना तीखा, इतना चटपटा, इतना खट्टा ! कुछ उम्र का तो लिहाज करते !”

          उनका ऐसा खाना और यह वय देखते हुए दहशत और उनके बीमार होने आशङ्का से मैंने बीच में टोका.

“उमर का लिहाज ! क्या हुआ हमारी उमर को! माना के अब बाली उमरिया नहीं है और न ही गदह पचीसी मगर अभी अस्सी के भी तो नहीं हुए. बीच में टोक देते हो. बड़ी खराब आदत है, बेसब्रापन है. अब आगे का सुनो हवाल.” और चचा आगे बढ़े.

… शाम को नाश्ते में भुने चने में प्याज छोटा-छोटा कतर कर डाला, एक नींबू निचोड़ा, थोड़ा सिरका, थोड़ा सरसों का तेल, सादा नमक ( साधारण नमक, नमक भी कहीं सादा होता है), थोड़ा मसालेदार नमक डाला. काला नमक डॉक्टर ने मना किया है नहीं तो वह भी डालता. हाथ से अच्छी तरह मिलाया और खाया. चम्मच से मिलाने में वो बात नहीं आती.  तुम्हारी चची ऐसा ज़हर खा न पायीं मगर मुझे मज़ा आ गया. यहाँ आने से पहले फरेंदा को लोटे में डाल कर ऊपर से नमक बुर्राया और अच्छी तरह हिला-हिला कर खूब घुलाया, घुल भी गये और उनमें नमक भी पैबस्त हो गया. इस समय वही खाकर आ रहा हूँ, रात की रात को देखी जाएगी. चचा ही यह सब कर सकते है, नौकरीशुदा या बिजी पेशेवर या व्यापारी या बड़े लोगों के नसीब में कहाँ यह मज़ा !”

“आप ही लें यह मज़ा. हम साधारण आदमी ही भले. अरे माना उम्र कोई बहुत नहीं हुई, अभी अस्सी के नहीं हुए पर यह सब खाने से भयङ्कर एसिडिटी, सीने में जलन होगी. पेट भी खराब होगा, सुबह–शाम जब भी जाएंगे बहुत कष्ट होगा, आगे बवासीर भी हो सकती है. आपको तो यह सब ख़्याल रखना चाहिए. सादा और कम खायें.”

“तुम तो ऐसा खाका खींच रहे हो जैसे हम रोज और आठों याम ऐसा ही खाते हैं. अरे आज खवास लगी तो खा लिया, कल भी लगेगी तो कल भी खा लेंगे मगर रोज ऐसी लगी या आदत बना ली तो खुदै छोड़ देंगे. हम तो सादा जीवन, उच्च विचार के कायल हैं. और फिर एसिडिटी –वेसिडिटी के डर से क्या ज़बान का चटखारा छोड़ दें, मन को मार लें, सधुआ जाएं. ख़ुदा दुश्मन कोप भी ये दिन न दिखाए कि कुछ खाने का मन हो और तकलीफ होगी या आगे चलकर ये हो जाएगा, वो हो जाएगा के डर से खा न सके. कल को मरना ही है तो क्या अभी मर जाएं ! अरे तकलीफ होगी तो डॉक्टर, वैद्य, हकीम काहे के लिए हैं. उनके भी धंधे की फिकर है हमें. दवा ले आएंगे, ठीक हो जाएंगे. फिर सौ बात की एक बात – रोज और आठों याम ऐसा ही नहीं खाते हैं, मन चला तो खा लिया. बात का बतंगड़ बनाते हो. जहाँ फांस न जाय वहाँ बल्ली घुसेड़ने पर लगे हो.

    वो मिर्चे छौंके बहू ने कि हम घर जायं या कोई और घर देखें या अपने घर जाकर खायें ?”

चचा की बात खतम होते न होते बेटी एक ट्रे में चचा की रेसिपी वाले छौंके मिर्चे, भुजिया, पकौड़ियां, चाय और टोकरी भर नसीहतें देकर अन्दर चली गयी.

“सलाम चचा ! नाराज़ न होईए. पापा को तो आपको छेड़ने में मज़ा आता है. वैसे कह तो सही रहे हैं, आपको यह सब इतना और लगातार नहीं खाना चाहिए. मन किया था तो ज़रा सा, मुहँ का जायका बदलने भर को खा लेते. चची नहीं टोकतीं आपको !”  

“येSSSए ल्लो ! काजी घर के चूहे सयाने. बाप सेर तो बेटी सवा सेर ! अब ये भी नसीहत करने लगी. मगर भई, इसकी नसीहत बुरी न लगी, बड़ी प्यारी और जहीन बच्ची है, अल्ला सलामत रखे, खूब पढ़े.” कहते हुए चचा ने मिर्चों की कटोरी उठाई और सी-सी करते हुए खाने लगे. जो खाकर आए थे, वो हल्का रहा होगा, ये निखालिस हरे मिर्चे थे.

खाकर, चाय पी. ज़माने के हालात पर तब्सिरा किया और चलने के इरादे को व्यक्त करते हुए बोले,

“मज़ा आ गया ! चोला मगन हुआ, आत्मा तृप्त हो गयी. अब व्रत पूरा हुआ, जाते में निराला नगर पर बताशे खाता जाऊँ तो उद्यापन हो, पूर्णाहुति हो. चलते हो खाने ?”

“आप ही को मुबारक ! मुझे यह शौक़ नहीं. और चचा, बताशों के पानी में स्वाद जानते हैं काहे से आता है ! वह जो कोहनी तक हाथ घड़े में डाल कर बताशा डुबोता है, उसका स्वाद है. पता नहीं हाथ ठीक से धोता है, नाखून काटता है या नहीं, शर्ट धुली होती है या बताशे के पानी से ही धुल जाती है !”

                         हमने चचा को चिढ़ाया. हम जानते हैं कि वह बताशे वाला साफ-सुथरा रहता है, ठेला तीन तरफ से पन्नी से ढका रहता है, पानी के ड्रम ढक कर रखता है और पानी निकालने वाले से पानी निकालता है, कोहनी तक हाथ डुबो कर नहीं.

“फिर छेड़ा हमें ! जलते हो हमारे खाने –पीने से. जाओ हम नहीं आएंगे अब !” कहते हुए चचा जीने से उतर गए. उनका जाना ऐसे ही होता है, किसी न किसी बात पर तुनक कर जाते है मगर इस बार का तुनकना झूठा था. शब्द कुछ थे, आंखें और मुस्कान कुछ और बयां कर रही थी. देखें अब चचा कब आते हैं और क्या नयी बात बताते हैं.

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