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Wednesday, 10 July 2024

पुस्तक परिचयः ‘जो हिन्दुस्तान हम बना रहे हैं’ और ‘भारत की घड़ी’

 पुस्तक परिचयः ‘जो हिन्दुस्तान हम बना रहे हैं’ और ‘भारत की घड़ी’

आज प्रियदर्शन लिखित दो पुस्तकें, ‘जो हिन्दुस्तान हम बना रहे हैं’ और ‘भारत की घड़ी’ मिलीं. दोनों कथेतर हैं और समय – समय पर लिखे लेखों का संकलन हैं.

पहली किताब, ‘जो हिन्दुस्तान हम बना रहे हैं’ के लेख गत कुछ वर्षों में भारत में हुए बदलाव पर गहन और विवेचनात्मक नज़र और चिंता को व्यक्त करते हैं. इसका उपशीर्षक ‘परम्परा के आईने में भारत की पहचान’ है. शीर्षक, उपशीर्षक और प्रियदर्शन को देखते हुए यह लेख निश्चित ही गत कुछ वर्षों में भारत में हुए आर्थिक बदलाव / ‘विकास’ या राजनीतिक सम्बन्धों पर नहीं हैं बल्कि इस राजनीतिक परिदृश्य में जो सामाजिक, सांस्कृतिक बदलाव, बल्कि विचलन, हुए हैं, संस्कृति और राष्ट्रवाद के आवरण में जो सामाजिक विघटन आदि हुआ है, राष्ट्रवाद की एक नयी और एकांगी अवधारणा विकसित की गयी है – उसका लेखा जोखा है. इस किताब में 46 लेख हैं.

दूसरी किताब, ‘भारत की घड़ी’, भी गत वर्षों में हुए उसी विचलन पर विवेचनात्मक दृष्टि डालती है. इसमें हाल की ही घटनाओं के निहितार्थ ही नहीं बल्कि कुछ पुरानी घटनाएं भी ली गयी हैं, दलित और स्त्री प्रश्नों को भी उठाया गया है. इस किताब का उपशीर्षक ‘बदलते भारत का लेखा जोखा’ है. पहली किताब की तरह इसमें भी आर्थिक प्रश्न / ‘विकास’ नहीं है. लेख भी उपशीर्षकों में बांटे गये हैं – ‘दलित होने का मतलब’, इसमें 6 लेख हैं, ‘विचार और विचारहीनता के संकट’ में 8 लेख हैं, ‘स्त्री होने का मतलब’ में 10 लेख हैं और शुरू में 18 लेख हैं जिन्हें किसी उपशीर्षक में नहीं रखा गया है. इस किताब में कुल 32 लेख हैं.

मेरी समझ में ऐसी किताब उपन्यास या कहानी या नाटक की तरह एक बार में / अविकल पढ़े जाने के लिए नहीं होती, अन्य कथेतर की तरह भी एक साथ पढ़ना उचित न होगा. ऐसा करना अरुचि उत्पन्न कर सकता है, अपच या बोरियत जैसा, आप ऊब कर किताब छोड़ भी सकते हैं या सबका प्रभाव गड्डमड्ड होकर मिट सकता है.

                                 आलेख वाली किताब के आलेख रोज या एक दिन छोड़ कर एक या दो पढ़ने चाहिएं, बल्कि एक-दो आलेख के बाद एक दिन का अन्तराल देकर दूसर्री किताब पढ़ना उचित होगा. मेरा तो यह विचार है, अन्य सुधी/ गम्भीर पाठकों का कोई दूसरा भी हो सकता है – आपका क्या है ? किताब उनके लिए आवश्यक सी है जो इस तरह की किताबें पसन्द करते हैं.

दोनों किताबें सम्भावना प्रकाशन से हैं, पेपरबैक हैं. पहली किताब का दाम 300/- और दूसरी का 350/- है, 650/- की दोनों किताबें प्रकाशक से ( अभिषेक अग्रवाल, फोन नम्बर 7017437410 ) से मंगाने पर 400/- (शिपिंग फ्री) में मिलीं.

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लेखों की चर्चा

अश्लीलता की बात पर कुछ !

अपनी बताई विधि से प्रियदर्शन की किताब, ‘जो हिन्दुस्तान हम बना रहे हैं’ को पढ़ना शुरू किया. इस क्रम में लेख, ‘यह अश्लीलता क्या होती है ? इससे कौन डरता है ?’ को पढ़ा. इसमें अश्लीलता को सतही/रूढ़ अर्थों में ही न लेते हुए उसके विभिन्न आयामों पर चिन्तन है कि अंगप्रदर्शन/ नग्नता के अलावा भी क्या-क्या अश्लील हो सकता है या क्या अधिक अश्लील है – अंगप्रदर्शन/ शारीरिक नंगई या अन्य तरह की नंगई !

            लेख पुराने हैं तो उनमें तत्कालीन घटनाओं को लिया गया है इसलिए अश्लीलता के प्रश्न पर रणवीर सिंह के लगभग नग्न / अश्लील फोटोशूट की/ के बहाने चर्चा है. इस फोटो शूट की चर्चा के साथ कुछ अन्य अश्लीलता विमर्श भी हैं. अगर विस्तार में जाते और लेख पुराना न होता तो समाज में पैसे का अथाह और निर्लज्ज प्रदर्शन, अरबों रुपयों की शादियां और उनका मीडिया द्वारा महिमामण्डन जैसा, चारणगान जैसा बखान, राजनीति में रिसॉर्ट अपसंस्कृति में अकूत धन का खुला खेल, जाति – धर्म का आक्रामक उभार … तमाम चीज़ें अश्लीलता / विद्रूप की श्रेणी में ही आती हैं – इन पर भी बात होती. जब देश की बड़ी आबादी अभाव की सीमा पर जीवन – यापन कर रही हो, चिकित्सा, शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय आदि की धरातल वाली स्थिति बदहाल हो, तब तो यह सब और अश्लील लगता है. लेख पुराना है अन्यथा रणवीर सिंह की नंगई के साथ इस समय की, देश की अति चर्चित, बल्कि विदेश में भी चर्चित, शादी में करोड़ों की फीस पर आईटम गर्ल का नाच – गाना, एक सेलिब्रिटी का ड्रेस सेन्स, शादी का कॉर्ड व धन का निर्लज्ज प्रदर्शन की भी चर्चा होती. जो होता, सो होता, अभी लेख के कुछ अंश देखें –

… अभिनेता रणवीर सिंह के बेलिबास फोटो शूट पर शुरू हुआ हंगामा थाने-कचहरी तक पहुँच चुका है. निश्चय ही जिस सांस्कृतिक-सामाजिक माहौल में हम पले-बढ़े हैं, उसमें ऐसी बेलिहाज़-बेलिबास तस्वीरें कुछ खटकती हैं. वे सुरुचिपूर्ण नहीं लगतीं. लेकिन किसी दृश्य का खटकना या उसका सुरुचिपूर्ण न लगना और उसको अश्लील मान लेना दो अलग – अलग बातें हैं. रुचि या सुरुचि काफी कुछ सामाजिक संस्कारों द्वारा निर्मित चीज़ होती है, जिसमें समय के साथ बदलाव भी आते हैं. यही बात अश्लीलता की अवधारणा के बारे में कही जा सकती है. जो चीज़ें कल तक अश्लील लगती थीं आज वे सुरुचिपूर्ण मालूम होती हैं. पचास और साठ के दशकों की जिन फ़िल्मों को तब के बूढ़े-बुजुर्ग नौजवानों को बिगाड़ने वाली बताया करते थे, वे अब क्लासिक का दर्जा पा चुकी हैं. बहुत सारा ऐसा साहित्य जो बीते दिनों अश्लीलता के आरोप में जला दिया गया, अब महान मान लिया गया है.

          रणवीर सिंह की तस्वीरों पर कई ऐतराज हैं. यह कहा गया कि वे तस्वीरें अश्लील हैं. यह भी कहा गया कि उनसे महिलाओं की भावनाओं को ठेस पहुँचती है. वे कला का नमूना नहीं हैं. उनसे पैसे कमाने की मंशा है. जहाँ तक अंतिम दो ऐतराजों की बात है, उनका कोई ज़्यादा मतलब नहीं है. जो चीज़ कला का नमूना न हो या पैसे कमाने के लिए की जा रही हो, यह ज़रूरी नहीं कि वह ओछी भी हो और उस पर पाबंदी लगाई जाए…

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… अश्लीलता के सवाल पर आते हैं. अश्लीलता के बारे में कई बातें कही जाती हैं. … कई बार कुछ लोगों की हँसी भी अश्लील हो सकती है और कुछ लोगों की चुप्पी भी. जब लोकसभा में रेणुका चौधरी पर ताना कसते हुए इस देश के प्रधानमंत्री ने शूर्पनखा की हँसी को याद किया था और उनके साथ पूरा सदन ठठा कर हँस पड़ा था तो वह एक अश्लील दृश्य था. जब हस्तिनापुर के दरबार में द्रोपदी का वस्त्रहरण हो रहा था तब सारे महारथियों की चुप्पी अश्लील थी. नकली विरोध भी अश्लील हो सकता है और अंध श्रद्धा भी. कभी देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने बनारस में 500 ब्राह्मणों के पांव धोए थे. डॉ. राममनोहर लोहिया ने इसे अश्लीलता की संज्ञा दी थी. उन्होंने कहा था कि जो समाज जाति के नाम पर किसी के पांव धोता हो, वह उदासी में डूबा समाज ही हो सकता है…

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… रणवीर सिंह के फोटो शूट पर लौटें. अगर कुछ लोगों को यह मर्यादा विरुद्ध लग रहा है तो वे इसे न देखने को स्वतन्त्र हैं. संकट यह है कि मर्यादा का अपना भाष्य वे बाक़ी समाज पर भी थोपना चाहते हैं. और फिर इस तथाकथित मर्यादा की चपेट में सबसे पहले और सबसे ज़्यादा स्त्रियां आती हैं. लगभग हर समाज उनका ‘ड्रेस कोड’ तय करने को तैयार रहता है. हर देश में एक ‘डिज़ाइनर अच्छी लड़की’ बनाने की कोशिश होती है. यह कोशिश इस कदर खतरनाक होती है कि वह लड़कियों के हर कदम को नियन्त्रित करने में लग जाती है.लड़कियों का प्रेम करना तो पाप होता है, बाहर घूमना, किसी से खुल कर बात कर लेना, खिलखिला कर हँस देना या किसी की बात मानने से इन्कार कर देना भी ऐसा अपराध हो सकता है जिसके लिए उन्हें पीटा जाए, जलाया जाए और उनके साथ बलात्कार भी किया जाए.

                    लेकिन अगर मर्यादा की परम्परा स्त्री के साथ इस कदर अन्यायी है तो ख़ुद को आधुनिकता की तरह पेश करने वाली खुलेपन की परम्परा उनके साथ दूसरे छल करती है. दरअसल परम्परा लड़की का घर में गला घोंटती है तो आधुनिकता बाज़ार में उसको बेलिबास कर मारती है. अश्लीलता की किसी भी बहस का फायदा उठाने में बाज़ार सबसे आगे होता है. कभी वह परम्परा के साथ खड़ा होता है और कभी आधुनिकता के साथ. उसे न तो परम्परा से लगाव है और न आधुनिकता से. उसे बस अपने मुनाफे से लगाव है, जो बेशक, खुलेपन से कुछ ज़्यादा सधता है. लेकिन यह सच है कि खुलेपन के नाम पर बाज़ार कई बार अपनी छुपी हुई अश्लीलता पर समाज की मुहर लगाने की कोशिश में लगा रहता है…

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लेखक की रणवीर सिंह के फोटो शूट विषयक मान्यता से लगता है कि वह इसके पक्ष में है, शायद इसे लेखक ने महसूस भी किया और बिना सशक्त पक्ष रखे इसे लपेटने के प्रयास में अंत में कहा, ‘… रणवीर सिंह का फोटो शूट कहीं से भी कलात्मक नहीं है – न वे इसका दावा कर रहे हैं, उनके लिए वह उनकी कारोबारी प्राथमिकताओं का मामला है …

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