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Saturday, 15 June 2024

क़ातिल हसीना


वह कल के केस की तैयारी में क्लाइंट की फाइल देख रहा था कि मोबाईल बजा. अब मोबाईल में नाम फीड होने से बात शुरू करने का ढंग बदल गया है. लैण्डलाइन के ज़माने में जहाँ हैलो से शुरुआत होती थी, उधर से अपना नाम और किससे बात करनी है, यह बताया जाता था, आवाज़ पहचानी हुई न होने पर 'आप कौन ?' और 'बोल रहा हूँ, क्या/किस बारे में बात करनी है ?' जैसे 'मङ्गलाचरण' के बाद बात शुरू होती थी, वहीं फीड नाम से फोन आने पर बजाय हैलो के 'हाँ भई. बोलो' या 'हाँ, बताईये, कैसे फोन किया' से सीधे बात शुरू होती है. यह नाम घनिष्ट मित्र का था सो सीधे बात शुरू हुई,

'हाँ भई, बोलो.'
'कहाँ हो ?'
'ऑफिस में, और कहाँ ! आ रहे हो क्या ?'
'यार ये ऑफिस न बताया करो. तुम्हारा क्या घर, क्या ऑफिस ! खाली हो तो आऊँ.'
'खाली तो नहीं मगर तुम्हारे लिए क्या खाली, क्या भरा ! एक केस की तैयारी कर रहा था, जब तक पहुँचोगे खाली हो जाऊँगा.'
'अबे काहे की तैयारी ! खूब पता है केस का. सेटिंग तो रहती ही है, बस देना रहता है.'
'तब भी ! मालूम तो रहना चाहिए कि किसका केस लगा है, क्या केस है और किसके पास लगा है. इसी से तो तय होता है कि कितना देने से काम होगा. खैर, बातें न छौंको, आओ बस.'

 

               इतनी बात के बाद फोन काट कर वह फिर फाईल देखने लगा. फाईल देख लेने के बाद सम्बन्धित अधिकारी को फोन करके कल के केस की याद दिलायी और समय लिया कि कब आ जाये. उन्होंने बारह बजे का समय दिया.

 'सर ! कितना लेते आयें?' पूछने पर बोले कि अब आपसे क्या बताना ! कोई पहला केस तो है नहीं, जितना मनोचा एण्ड सन्स में दिया था उतना ही लेते आईये. और हाँ, पूरा लाईयेगा, ये नहीं कि अभी इतना रख लीजिए, बाक़ी जजमेण्ट मिलने के साथ ही दे देंगे.'

'अरे नहीं सर! आप निश्चिन्त रहें, पूरा ही दूँगा. तो कल बारह बजे आता हूँ.'


'ठीक है.' के साथ बात खतम हुई.

 

                                   विनोद ठीक ही कह रहा था कि वकालत क्या है, सेटिंग है. खुले अल्फ़ाज़ में कहो तो दलाली.


विनोद उसका बचपन का दोस्त है और सचिवालय के वित्त विभाग में क्लास वन ऑफिसर है. बी.कॉम. तक दोनों साथ पढ़े, फिर विनोद का एम. कॉम. में एडमीशन पहली लिस्ट में हो गया और उसका तीसरी लिस्ट में भी न हुआ तो LLB में प्रवेश ले लिया. नौकरियों के कई एक्ज़ाम भी दोनों ने साथ दिए. यहाँ भी एक में विनोद का रिटेन निकल गया और वह कई देने के बाद भी न निकल पाया. विनोद इण्टरव्यू में भी निकल गया और इसने एक वकील को ज्वाईन कर लिया. आज वह कामयाब वकील है तो विनोद भी अच्छी पोजिशन पर है. अब सचिवालय पोस्टिंग से कहीं बाहर जाने का टण्टा नहीं तो दोनों की अक्सर शाम की बैठक और गंजिंग बदस्तूर चल रही है.
करीब दस मिनट बाद विनोद आया. घण्टी पर हाथ रखा ही था कि उसने आवाज़ दी,
'ऑफिस में ही हैं, यहीं चले आओ.'


गेट खोल कर विनोद ऑफिस में आया जो गैरेज में एल्यूमिनियम डोर लगवा कर बनवाया गया था. पहले इस जगह वह कार रखता था, अब यह गैरेज नहीं ऑफिस था. बगल में किरायेदार और ऊपर रेजिडेन्स.

 

‘अबे फिर ऑफिस ! काहे का ऑफिस ! चाहे घर कहो, चाहे ऑफिस. ऑफिस तो वह होता है जो घर से पैदल दूरी से अधिक दूरी पर हो. घर और ऑफिस अलग-अलग होने चाहिए तभी घर घर होता है और ऑफिस ऑफिस. एक साथ तो ऐसा है जैसे दो सौतें एक घर में हो. न घर के, न घाट के. जब ऊपर से भगाए गये तो ऑफिस में आ बैठे और जब ऊपर का ऑर्डर हुआ या किसी क्लाइंट को समय न दिया हो तो बिना ऑफिस को ताला लगाए घर में. 'छूट घोड़ी भुसैले ठाढ़!'

'यार, तुम यही सुनाते रहते हो. अब तुम्हारा ऑफिस तो घर में हो नहीं सकता तो सुना लो. हमारी तरह प्रोफेशनल होते तो देखते.'

'तो सारे वकील, डॉक्टर वगैरह घर में थोड़े न दुकान कर लेते हैं, अलग चैम्बर या क्लीनिक वगैरह लेते हैं तो इसीलिए - घर अलग, ऑफिस अलग.'
'बात तो तुम ठीक कह रहे हो.' घर और ऑफिस की ऐसी बातें तो उनमें अक्सर होती थीं मगर इस बार वह प्रभावित होता दिख रहा था.

'ठीक है भई. कर लेते हैं ऑफिस को घर से दूर. मैं भी तलाशता हूँ, तुम भी देखो. मगर भाई, कोई सस्ता तलाशना, भले ही किसी ऑफिस काम्प्लेक्स या पॉश इलाके में न हो. वहाँ महँगा भी मिलेगा और सुकून भी न होगा.'

'हाँ भई ! करते हैं तलाश. अब कुछ खिलाओगे-पिलाओगे या ऐसे ही!'

'हाँ हाँ, क्यों नहीं. चाय पियोगे कि कॉफी ?'

'अबे घामड़ हो क्या ! शाम गहरा गयी तो चाय-कॉफी कौन पियेगा ! खोलो ड्राअर के नीचे वाली कैबिनेट और निकालो जो रखे हो.'

'भई, हमारे पास जो है वह तुम्हे मज़ा तो न देगी, फिर भी कहो तो निकालें.'

'हाँ भई ! हम ठहरे गरमी में भी ओल्ड मोंक वाले और तुम जाड़ों में भी शिवॉज रीगल वाले. निकालो भई उसी को, ज़हरमार कर लेंगे और कुछ काजू-वाजू भी. बाद में चलते हैं कहीं रोटी-बोटी तोड़ने.'
लगा मेला मितरां दा और चैम्बर तलाशने की बात आयी-गयी होकर भी रोटी-बोटी के लिए चलते समय उसी का जेंटिल रिमाईण्डर हुआ.


कुछ ही दिनों के बाद ऑफिस का जुगाड़ हो ही गया. हुसैनाबाद में थोड़ा अन्दर एक पुराने बाशिन्दे के बाहरी कमरे में. मकान पुराने ढंग का और अन्दर बहुत बड़ा, आज के फ्लैट कल्चर को देखते हुए हवेली सा. लबे सड़क, लगभग पाँच फुट ऊँचे चबूतरे पर बना. बीच में छह सीढ़ियां, उनके दायें-बायें करीब छह-छ्ह फुट चबूतरा जिस पर दोनों तरफ एक-एक कमरा. सीढ़ियों की सीध में गैलरी, जिसके सिरे पर दरवाज़ा जो एक बाग और आंगन में खुलता था. उस के चौगिर्दा बारामदा और उसके बाद रिहाईश. बाहर वाले कमरों में से एक का दरवाज़ा अन्दर से भी था,गैलरी की तरफ से भी और चबूतरे की तरफ से भी, दूसरे का केवल चबूतरे पर. खिड़की भी दोनों में थी. सिंगल दरवाज़े वाला कमरा उन्होंने दिया. उन्हें किराये पर उठाने की ज़रूरत न थी मगर उधर के ही एक क्लाइंट की सिफ़ारिश पर दे दिया, वैसे भी ये खाली ही पड़ा था. दोनों तरफ दरवाज़े वाला बाहरी बैठक के तौर पर इस्तेमाल होता था, वो भी कभी-कभी. किराया भी 'जो मर्ज़ी हो दे दीजिएगा, न मर्ज़ी हो तो वो भी नहीं' था.

सड़क के दूसरी तरफ किसी पुरानी इमारत की चारदीवारी थी जिससे लग कर कुछ झुग्गियां और चाय पान की गुमटियां थीं. उनके मकान के सामने  चारदीवारी से सटा कर एक पुराने मॉडल की कार खड़ी थी जो लग रहा था कि वर्षों से बस खड़ी ही है. कार बदरंग हो चुकी थी और आस-पास झाड़-झंखाड़ उग आया था लेकिन लगता था कि कभी-कभार चलायी भी जाती है क्योंकि बावजूद खटारा हाल के, टायरों में हवा थी, शीशे टूटे नहीं थे जिनसे गद्दियां भी सही-सलामत दिख रही थीं. पता चला कि कार मकान मालिक की ही थी. लड़कों ने नये मॉडल की कार ले ली तो यह खड़ी ही रहती थी.

ऑफिस के लिए यह कमरा उसे पसन्द आया, लोकेशन की वजह से भी और किराए की वजह से भी. उसने दूसरे ही दिन आवश्यक फर्नीचर और किताबों-फाईलों की आलमारी और रैक लाकर शाम को सात से नौ बजे तक बैठना शुरू कर दिया. दरवाज़े के पास नेमप्लेट भी लगा दी और विजिटिंग कार्ड व लेटर पैड भी नये छपा लिए जिन पर आवास के साथ ऑफिस का पता और समय लिखा था. 'अब हुआ भौकाल ! ऑफिस अलग हो तो असर ही अलग पड़ता है, लगता है कायदे का वकील है. घर में प्रैक्टिस करता जितना भी काबिल और बिजी प्रोफेशन वाला हो, यही इम्प्रेशन पड़ता है कि बस ऐसे ही बैठ गये, प्रैक्टिस चलती-वलती न होगी तो अलग चैम्बर की ज़रूरत न समझी, काहे फालतू में खर्चा बढ़ाएँ.' उसने सोचा और मन ही मन विनोद को शुक्रिया बोला जो चैम्बर लेने के लिए उकसाता रहता था.

सामान जमाने के बाद सादा सा उद्घाटन समारोह भी किया जिसमें क्लाइंट्स, विभाग के डीलिंग क्लर्क्स, कुछ दोस्तों के साथ उस मोहल्ले के गणमान्य लोगों और मकान मालिक को खास तौर से बुलाया ताकि सब लोग उसके नये ठीहे, चैम्बर, के बारे में जान जाएं. कार्ड और नाश्ते-पानी में लगभग तीन हज़ार लग गये मगर काफी लोग आये. दस-बारह बुके और कुछ ऑफिस परपज के व सजावट के गिफ्ट भी आए. 'इसमें बुके और फिफ्ट्स का ही रिवाज़ है, लिफाफे देने का नहीं !' उसने सोचा, 'होता तो कुछ भरपाई हो जाती.भरपाई क्या, पूरा ही वसूल हो जाता, अब कोई दो सौ एक से कम तो क्या ही देता, किसी नये क्लाइंट की बोहनी भी नहीं हुई!'

उसने बैठना शुरू कर दिया. अब वह फौज़दारी का और जमा हुआ वकील तो था नहीं कि मार रोज ही मुवक्किल आया करते. आय कर, व्यापार कर और जी.एस. टी. का तो सीजनल काम होता है. बस रिटर्न के समय ही गहमा-गहमी रहती है, बाक़ी तो बस सामान्य काम. अभी सीजन नहीं था तो वह बैठा स्टडी या तैयारी किया करता. एकरसता तोड़ने के लिए बीच -बीच में बाहर देखने लगता. लोग व फेरी वाले आते-जाते दिखते, उनकी आवाज़ आती पर सामने तो वही कार ही दिखती. शुरू में तो सोचता 'क्या जब नज़र डालो, खटारा कार ही देखने को मिलती है.' अरुचि सी होती थी कि ये पुराने लोग खामख़्वाह कबाड़़ इकट्ठा किए रहते हैं, किसी काम का नहीं और बेचते भी नहीं मगर रोज देखते-देखते जैसे उससे लगाव सा हो गया. वह अच्छी और ज़रूरी सी या मन बहलाव का ज़रिया हो गयी, एक दोस्त सी महसूस होने लगी. अब वह स्टडी भी कर रहा होता या किसी क्लाइंट से बात कर रहा होता तो बीच में नज़र डाल लेता कि खड़ी है, कहीं चल तो नहीं दी. जाने क्यों उसे लगता था कि कार कहीं जाती है और उसके नज़र डालने से तुरन्त पहले आकर खड़ी हो जाती है. वह निगाहों ही निगाहों में चेक करता कि वहीं खड़ी है कि आगे-पीछे हट कर, मगर उसे ठीक वहीं खड़ी पाकर अपनी खामख़याली पर मन ही मन हँसता कि भला कोई कार, और वह भी बरसों से खड़ी यह कार, अपने आप कैसे कहीं जा सकती है. अब तो वह कार से बेआवाज़ बाते भी करने लगा था, 'कहो कैसी हो ?' और हैरत यह कि उसे मन में कार का जवाब भी सुनायी देता, 'मज़े में हूँ. कहीं जाना तो होता नहीं तो इस स्क्रैचमार ट्रैफिक और बेवज़ह भी बजते हॉर्नों के कानफोड़ू शोर से बची रहती हूँ.' मज़े की बात यह कि कार का स्वर उसकी खटारा हालत से मेल खाता खरखराता हुआ सा नहीं बल्कि सुरीला था. सरगोशी करता हुआ सा, अच्छे घराने की सलीकेदार ख़ातून सा, कि जिससे बात करे, बस वही सुने. वह आते में हाय और जाते में बाय भी करता मगर मन में ही, हाथ तो न हिलाता मगर गरदन को ख़म ज़रूर देता. उसे लगता कि उसके हाय पर कार ने प्रतिक्रिया दी है, उसकी हेडलाईट झपकी और फ्रण्ट डिज़ाइन हल्की मुस्कान की तरह फैली. कार से देखादेखी में ही वह वकील के बजाय कवि हुआ जा रहा था, कहीं सोहबत में होता तो जाने क्या होता !  

                                     एक दिन विनोद नए ऑफिस आया. वह लगभग खाली ही था, किसी केस की तैयारी नहीं कर रहा था और किसी क्लाइंट को भी आना नहीं था तो इतमीनान से गपसड़ाका होने लगा. बातों ही बातों में विनोद की नज़र कार पर पड़ी और बात उस पर जा पड़ी,

'यार शहर का ये पुराना इलाका तो ऐतिहासिक इमारतों वाला है ही, लोग और उनकी आदतें भी ऐतिहासिक हैं और उनका सामान भी म्यूजियम के लायक !  अब इस कार को ही लो ! दशकों से चलती नहीं, कबाड़ी ही ले तो ले इसे, मगर बेचेंगे नहीं. ख़ामख़ां मनहूसियत फैलाए है. देखो तो दिन खराब हो जाए मगर रखे हैं.'

उसे लगा कि कार भी तो उसकी बात सुन रही होगी तो उसे कितना बुरा लगेगा ! उसने कनखियों से कार की तरफ देखा, वाकई उसे बुरा लगा था. बोनट और उसके नीचे की ग्रिल तिरछी सी हुई, जैसे उसने मुह बिचकाया हो.

वह विनोद से सारी बाते शेयर करता था, सोचा कि कार वाली बात भी शेयर करे कि कार उससे बातें करती है, वह भी मन ही मन ! यह ख़याल आया जितनी तेज़ी से, उतनी ही तेज़ी से ख़ारिज भी हो गया. सोचा कि वह मज़े लेगा, 'वाह बेट्टा ! कार बातें करती है, वह भी मन ही मन ! सनक गये हो क्या ! ऐसा भी कभी होता है !' हो सकता है वह घर पर भी ज़िक्र कर बैठे और दोस्तों में भी. फिर तो सब मुझे पागल ही मानेंगे और जो हितैषी होंगे वे साइक्रियाटिस्ट को दिखाने के पीछे पड़ जायेंगे. दिखाया तो वह कोई न कोई रोग निकाल देगा जिसका कोई भारी भरकम अंग्रेजी नाम होगा जिसकी न स्पेलिंग याद हो पायेगी, न उच्चारण करते बनेगा. MRI या CT Scan तो शर्तिया करायेगा, कुछ दवाएं लिखेगा जो बस विटामिन होंगी और काउन्सलिंग में पत्नी से पिछले कई साल क्या पिछले जनम तक की, ख़ानदान की बातें पूछेगा और  व्यवहार पर नज़र रखने को, कुछ चेन्ज आए हों तो बताने को कहेगा. वह इतनी दूर की सोच गया. न बाबा न ! विनोद से भी कुछ बताने की ज़रूरत नहीं. और उसने कुछ नहीं बताया.

'चाय मंगाऊ क्या !' उसने यूँ ही पूछा. जानता था कि शाम का समय है, दोनों खाली हैं तो यह क्या पीने का समय है ! वही हुआ, विनोद बोला,

 'अब चाय पियेंगे क्या ? यहाँ तो कुछ रखे न होगे, बढ़ाओ दुकान, चलते हैं वहीं.'

'हाँ यही ठीक रहेगा.' विनोद के आने से उसका भी मन होने लगा था. ऑफिस बन्द करके निकला तो कनखियों से कार को देखा. उसने बोनट एक तरफ से तिरछा करके कुटिल मुस्कान दी, मुह बिचकाया और कहा, 'चल दिये, जाओ. पियो दारू और सुनो मेरी बुराई.' उसने भी शरारती मुस्कान दी. इस कार्य व्यापार को न किसी ने देखा, न सुना. विनोद ने भी नहीं. 

 

दिन गुज़रते गये, काम चलता बल्कि यहाँ ऑफिस आने के बाद और बढ़ता गया. कई नये क्लाइंट्स मिले, पुरानों की एनुअल फीस और पर केस चार्ज बढ़ा दिया जो उन्होंने बिना महँगाई का रोना रोए कुबूल किया, साहब और बाबू लोग पुराने रेट पर ही काम करते रहे और कार से बातें होती रहीं. उसे यह ऑफिस बहुत फला, कोई कार्य-कारण सम्बन्ध न होते हुए भी उसने इसका श्रेय कार को दिया. और सब तो ठीक था मगर यहाँ खाने-पीने की व्यवस्था उसके मनमाफ़िक न थी. जब घर में ऑफिस था तो जब मन हुआ चाय वगैरह ऊपर से आ जाती थी और 'ठण्डी चाय' का इन्तेज़ाम भी वह मेज  के कैबिनेट में रखता था, यहाँ यह सब न था. वैसे तो यह पुराना इलाका था सो गलियों में खाने-पीने का तमाम इन्तेज़ाम था मगर वह उसको अपने स्तर के अनुकूल न लगता था. ले देकर एक चाय ही थी जो वह यहाँ से लेता था. सामने से कुछ हट कर दीवार के सहारे चाय का एक ठेला लगता था. चैम्बर से बाहर चबूतरे पर आकर वह उधर देखता और जैसे चाय वाला भी उसके आने की प्रतीक्षा ही कर रहा होता था. नज़र मिलते ही वह इशारा करता और चाय वाला चाय और पाँच रुपये वाले नमकीन के पैकेट के साथ हाज़िर हो जाता. वैसे तो और जगह वह चाय पन्नी में ले जाता और डिस्पोजेबल गिलास में देता मगर वकील साहब के लिए फ्लास्क में लाता. कोस्टर, कप और प्लेट चम्मच उसके पास थे ही. चाय पीने के बाद वह कप-प्लेट-चम्मच भी उठा ले जाता और धोकर दे जाता. यह उसके वकील होने का जलवा था, चाय वाले से भी आप कह कर सम्मान देने का असर या नवाब साहब के किरायेदार होने का लिहाज़ - जो भी था, उसके लिए सुखद था. चाय वाला बातूनी भी था. चाय पीने के बाद जब धुले कप-प्लेट-चम्मच देने आता तो मोहल्ले की कुछ ख़बर भी देता. महज ख़बर नहीं, उसका विश्लेषण और अतिरिक्त सूचनाएँ, सम्भावित कदम व ख़बरें भी. इसके एवज़ में वह उसे सिगरेट ऑफर करता. शुरू-शुरू में तो उसने ना नुकुर की मगर इसरार करने पर बाद में तो यह होता वह दो सिगरेट सुलगाता, एक ख़ुद की और दूसरी उसे देता. सिगरेट धौंकने के दौरान ख़बरनामा चलता. बहुधा तो वह ही, 'आपको पता चला वकील साहब ... ' से शुरू होता नहीं तो वह ही, 'और क्या ख़बर अब्दुल ... ' कह कर उकसाता. उसके सवाल के जवाब में, 'क्या ! तुम बताओ तब तो पता चलेगा.' कहने या उकसाने पर शुरू हो जाता. किसी की अच्छी बात तो कम ही बताता, सबकी बदफ़ेलियों, लड़के-लड़कियों – औरतों – बुड्ढों की बातें, किसका किससे या कहाँ चक्कर, पुलिस क्यों आयी थी, स्मैकिया कौन-कौन है और कहाँ मिलती है, ढके इशारों में 'चालू माल' की जानकारी, शरीफ़जादों/पर्दानशीनों के राज़, डॉक्टर साहब के रंगीन मिजाज के किस्से ... जाने क्या-क्या बताता. यह सब एक साथ और एक दिन में नहीं, रोज़ ब रोज़ क़िस्तों में बताता. क़िस्त भी लम्बी नहीं, सिगरेट सुलगाने से खत्म होने के बीच की होती. ये सुनते थे तो वह सुनाता था. शुरुआत में ही भाव न दिए होते, रस न लेते तो सिलसिला चालू ही न होता. 'कुछ तुम्हारी निगाह काफ़िर थी, कुछ मुझे भी ख़राब होना था ...' वाला मामला था. नवाब साहब का अदब दोनों करते थे, बल्कि वे तीनों एक दूसरे का अदब करते थे. उन्हें आता देख सिगरेट छुपा लेते, चुप हो जाते, वह सलाम करके चलते बनता और नवाब साहब देख-सुन कर भी अनदेखा-अनसुना कर देते. नज़र का पर्दा सब डालते. 

ऐसे ही एक दिन सिगरेट सुलगाने के बाद उसने कहा, 'जानते हैं वकील साहब ! यह कार चलती है !'
'चलती है, क्या मतलब ! कार तो चलती ही है.'

'नहीं वकील साहब, वैसे चलना नहीं, यह कार ज़िन्दा है.'

'क्या ऊलजुलूल बोल रहे हो. कभी चलती है तो कभी ज़िन्दा है. कार भी कभी ज़िन्दा या मरी होती है ?'
'आप समझे नहीं.' कहते हुए उसके चेहरे पर उलझन और डर के भाव दिखे. मुँह मेरे कान के पास लाकर लगभग फुसफुसाते हुए कहा, ' ये और कारों की तरह बेजान नहीं कि कोई इसे चलावे तब ही चले. ये बिना किसी के चलाए ख़ुद ही चल पड़ती है. रात में जब सब सो जाते हैं, तब अपने-आप स्टार्ट होकर कहीं जाती है और डेढ़ दो घण्टे बाद लौट कर ऐसे वहीं खड़ी हो जाती है जैसे यहाँ से हिली भी न हो. यह ज़िन्दा कार है. वकील साहब ! इस पर कोई जिन्न आशिक़ है, वही इसे ले जाता और वापस छोड़ जाता है, वो दिखाई नहीं देता.'

'क्या बकवास कर रहे हो !' वह कुछ गुस्से और अविश्वास के भाव से बोला. अपनी प्रिय कार के बारे में ऐसा सुनने से उसे धक्का लगा. 

वैसे भी यह निहायत जहालत की बात थी जिस पर तो कोई जाहिल भी यकीन न करता. भूत-प्रेत, जिन्न वगैरह पर वैसे भी यकीन न था और दादी-नानी के किस्सों में भी लोगों पर भूत आने, जिन्न सवार होने के बारे में सुना था, कार या किसी और बेजान चीज़ों पर जिन्न आते उनसे भी न सुना था. उजाड़ खण्डहरों, कब्रिस्तान या पुरानी खाली पड़ी हवेलियों में भूत रहने की बात सुनी थी, टी. वी. पर भी हॉन्टेड किलों की सीरीज देखी थी मगर एक तो वे किस्से और सीरियल थे, हक़ीक़त नहीं और उनमें भी किले या हवेलियां चलने नहीं लगती थीं. हँसी उड़ाने के भाव से उसने पूछा, 'तुमने देखा है उसे जाते और आते हुए ? किसी और ने देखा है ?'

'साहब ! देखा तो नहीं, हिम्मत ही नहीं पड़ी मगर महसूस किया है. रात में कार स्टार्ट होने की आवाज़ सुनी, झांक कर देखा तो कोई न था. फिर सो रहा. करीब दो घण्टा बाद इधर की तरफ कार के आने की आवाज़ आयी, फिर रुक-रुक कर, जैसे कोई बैक करके अपनी जगह पर खड़ी कर रहा हो. रात में तो हिम्मत न हुई, सुबह देखा तो कार वैसे ही अपनी जगह खड़ी थी जैसे जाना तो दूर, अपनी जगह से हिली भी न हो. मैं तो बहुत डर गया साहब.'

क्या बेवकूफी है !  ख़ुद ही कह रहे हो कि आते-जाते देखा नहीं, सुबह कार अपनी जगह पर ऐसे खड़ी थी जैसे वहाँ से हिली भी न हो. और कहते हो कार कहीं गयी थी.'

'जाने और आने की आवाज़ तो सुनी न साहब !'

'आवाज़ सुनी और सोच लिया कि यही कार है !'

'साहब ! इसकी आवाज़ पहचानते हैं, और सुबह देखा तो टायरों के निशान भी तो रोड पर थे. ज़रूर यह कहीं गयी होगी और कुछ करके वापस खड़ी हो गयी होगी.'

'अरे तो नवाब साहब गये होंगे कहीं.' उसका मन राजी ही न हो रहा था ऐसी बेतुकी बात पर यकीन करने को.

'क्या बात कर रहे हैं साहब ! इतनी रात में नवाब साहब कहाँ जायेंगे और सौ बात की एक बात, तब नवाब साहब अपनी ससुराल खैराबाद गये थे.'

'ज़रूर तुम्हें कोई धोखा हुआ होगा. टी.वी. पर भुतहे सीरियल न देखा करो.'

'अब आप न मानें मगर इसमें कोई भेद है, यह ज़िन्दा कार है.' कह कर वह सलाम करके चला गया.

            वो तो चला गया मगर उसके मन में शक़ का बीज बोकर चला गया. थोड़ी देर बाद वह उठा और ऑफिस बन्द करते हुए सोचा कार तो मुझसे बात करती ही है, उससे ही पूछ लूँगा. सोचने के साथ ही मन में शक़ और डर की फुरेरी सी छूटी कि बरसों से खड़ी खटारा कार मुझसे मन ही मन बात करती है, मुस्कुराती और मुँह बिचकाती है तो ज़िन्दा तो है ही ! क्या पता, अपने आप जाती हो और कुछ काण्ड करके या यूँ ही घूम-फिर कर लौट आती हो.

                यह अब कार से लगाव नहीं, मनोरोग की शक्ल अख़्तियार करता जा रहा था या फिर कार सचमुच ज़िन्दा और हॉन्टेड थी, चुड़ैल थी. पहले तो उसी को ज़िन्दा लगती थी, अब तो अब्दुल ने भी तस्दीक की. दरवाज़े को ताला लगाने के बाद उसने आदतन कार की तरफ देख कर नामालूम सा, गुडबाय जैसा हाथ हिलाया तो कार ने भी हेडलाईट से, फ्रण्ट ग्रिल से विदा मुस्कान दी. 

वहाँ से जाने के बाद रात भर मन में उथल पुथल चलती रही. बहुत देर तो नींद ही नहीं आयी, मन अब्दुल की बात की तरफ दौड़ता रहा. कभी लगे कि अब्दुल सच तो नहीं कह रहा. उसे भी तो शुरू में लगा था जैसे यह कार कहीं जाती है तो दूसरे ही पल मन दलील दे कि कहीं ऐसा हो सकता है भला ! वर्षों से खड़ी कार अपने आप कैसे कहीं आ-जा सकती है, फिर पेट्रोल कौन भराता होगा - क्या कार ख़ुद ? पैसे कौन देता होगा ? कभी लगे कि वह मनोरोगी तो नहीं हो रहा, भला कार के बारे में इतना क्या सोचना !

अगली शाम जब चैम्बर में बैठा तो सर भारी था. नींद पूरी न होने से एसिडिटी सी हो रही थी. मन कर रहा था कि विनोद आ जाए, ऑफिस बन्द करके चलें किसी बार में, दो-दो पैग मारे जायं तो मूड और पेट सही हो. कुर्सी पर अधलेटा सा हो गया कि कार स्टार्ट होने की आवाज़ आयी. वहीं बैठे-बैठे देखा कि कार जा रही थी और ड्राईविंग सीट पर भी कोई न था. डर से उसकी आंखें फैल गयीं, तो क्या कार सचमुच ... ! सकते की हालत में काफी देर बैठा रहा कि फिर कार की आवाज़ सुनाई दी. वह चैतन्य होकर बैठ गया पर बाहर जाने की हिम्मत न पड़ी. वहीं से उचक कर देखा कार वापस आ रही थी. दो-तीन बार बैक होकर अपनी जगह उसी दिशा में मुँह करके खड़ी हो गयी जिसमें पहले थी. उसने देखा कार के फ्रण्ट ग्रिल पर कुछ चिपचिपा सा लगा था जिसे उसने बोनट के पास से ज़बान सा निकाल कर चाटा. यह देख कर वह डर से पसीने-पसीने हो गया और गर्मी से आँख खुल गयी. रात ठीक से नींद न आने से वह कुर्सी पर अधलेटा होकर ऊँघ गया और मन में वही ख़याल तैरते रहने से ऐसा सपना देखा. पंखा चल रहा था फिर भी वह पसीने से तर था. जी ऐसा उचाट हुआ कि विनोद को भी फोन न किया, ऑफिस बन्द करके बार में जा बैठा. पसन्दीदा ब्राण्ड के दो पैग लगाए तो मूड सही हुआ. यह पहली बार था कि वह अकेला पी रहा था. क्या मनोरोग के साथ नशेड़ी होने की भी शुरुआत थी ! मूड सही भी हुआ, नहीं भी ! इरादा तो एक क्लाइंट से मिलने जाने का था, मेन मकसद फीस वसूलना था मगर जाने की इच्छा न हुई, घर गया और खाना खाकर सो गया. सुबह उठा तो फ्रेश महसूस कर रहा था मगर अख़बार पढ़ कर फिर सर घूम गया. पेज तीन पर स्थानीय समाचार में ख़बर थी, 'अज्ञात कार ने एक को रौंदा, मौत' उसकी आँखों के आगे वह सीन कौंध गया जब कार ने वापस आकर फ्रण्ट ग्रिल पर लगा खून चाट कर साफ किया था. अब उसे वह खून ही लग रहा था भले ही वह सपना था, सपना था या जागती आँखों का ख़्वाब या पूर्वसंकेत था या हक़ीक़त !
शक़, कार से लगाव का ग्लानिबोध और डर के मिले-जुले भाव मन में उठे. उसकी माशूक़ क़ातिल और भूतनी ! जो भी हो, उसने शाम को कार से 'बात करके' सब क्लीयर करने का फैसला किया.

शाम को चैम्बर आया तो चबूतरे पर चढ़ने से पहले आदतन कार को देखा. कार ने वैसी ही प्यारी स्माईल दी जैसी देती थी. कितनी प्यारी और मासूम लग रही है, यह भुतही और क़ातिल नहीं हो सकती, उसने सोचा. तथ्य और मुहब्बत में कशमकश सी होने लगी. बैठने के कुछ देर बाद अब्दुल चाय ले आया और तुरन्त चला गया.

चाय पीने के बाद उसने कार की तरफ देखा. वह वैसी ही लगी, खूबसूरत और मासूम. उसने पूछा, 'सुनो, तुम्हारा नाम क्या है ?'

'नाम तो कम्पनी में कुछ और था मगर जब नवाब साहब लेकर आये तो नाम रखा हसीना. तब से यही नाम है.'

'बहुत सही नाम है, हसीना. ('क़ातिल हसीना' , मन में हो रही बात में भी मन में और इतने गहरे उतर कर कहा कि कार सुन न सके ) तुम हो ही इतनी हसीन कि यही नाम हो सकता था.'

'आज नाम पूछने की क्या सूझी !' खनकती हुई शोख आवाज़ में हसीना ने कहा.

'अरे हम इतने दिनों से बात कर रहे हैं और मुझे तुम्हारा नाम नहीं मालूम, बल्कि हम दोनों को एक दूसरे का नाम नहीं मालूम, तो पूछा. अब जैसे मेरा नाम ...'

'तुम्हारा नाम राजरतन सिन्हा है और तुम वकील हो, दीवानी या फ़ौजदारी के नहीं - सेल्स टैक्स, इन्कम टैक्स और अब जी.एस.टी. के भी. मुझे तो पहले दिन से ही पता था, जब तुम ऑफिस देखने आये, तब से.' उसकी बात काट कर हसीना ने कहा.

'अरे ! ताज्जुब है ! तुम्हे कैसे पता ! मैंने तो बताया नहीं.'

'मुझे सब पता रहता है. ऐसी वैसी कार न समझो मुझे ! हसीना हूँ, हसीना ! फकत कार नहीं हूँ.'

अब तो उसका शक गहराता जा रहा था. यह कार नहीं आसेब है. मन के भी अन्तरमन से उसने सोचा ताकि कार मन पढ़ न ले. प्रकट में बोला,

'अच्छा ! फकत कार नहीं हो! तो और क्या हो, बल्कि क्या क्या हो ?'

'मैं बेजान नहीं, ज़िन्दा कार हूँ. कहीं आने जाने के लिए किसी की मोहताज नहीं. ख़ुद से जा सकती हूँ.'

'बाप रे! तब तो तुम बहुत खतरनाक हो, डर लगने लगा है तुमसे.'

‘तुम तो सच में डर गए, अरे मज़ाक कर रही हूँ. कहीं कार भी अपने आप चलती और आती-जाती है !'

'तो मैं ही कौन सा इसे सच मान कर डर रहा हूँ. अच्छा बाय ! एक क्लाइंट आता दिख रहा है.'

'बाय ! जो आ रहा है, क्लाइंट तो है पर झगड़ने आया है. उसके खिलाफ फैसला हो गया है, संभल कर डील करना. तुम जाओ तो मैं भी निकलूँ सैर पर.'

कह वह सही रही थी, क्लाइंट लड़ने ही आया था.


'क्या वकील साहब ! घूस का पूरा पैसा दे दिया फिर भी नोटिस आ गया. ऐसी सेटिंग है आपकी ! या आपने उन्हें दिया नहीं या आधा – अधूरा दिया ? क्या है ये सब ?’

‘अरे बैठिए तो सही. दिखाईए नोटिस, देखें क्या है.’

'लीजिए, देखिए !' उसने तैश में नोटिस मेज पर लगभग फेंका.
                     ऐसा कुछ खास था नहीं, वो नोटिस डेढ़ पेज का होने और मेन बात अंग्रेजी में होने से उसकी समझ में नहीं आया था. वैसे भी, हर सरकारी लेटर को क्लाइंट नोटिस ही समझता है. नमक का पूरा हक़ अदा किया था अधिकारी ने. इसमें अनियमितता का उल्लेख करते हुए भविष्य में ऐसा न करने की चेतावनी दी गयी थी, यह दिखावा करना ज़रूरी था साहब के लिए. क्लाइंट को समझाया तो वह झेंपता हुआ माफी मांगता विदा हुआ.

 ऑफिस बन्द करने का समय हो रहा था, अब्दुल चाय ले आया. उसने हमेशा की तरह दो सिगरेट सुलगाई, एक उसे दी, एक चाय के साथ पीता रहा. उसने बात करनी शुरू की, मगर कोई बढ़ावा न मिलता देख ज़ल्दी चला गया. उसका बात करने का मन ही न था, मन में उथल पुथल चल रही थी कि हसीना को उसका नाम और पेशा कैसे पता था ? अभी कैसे पता चला कि क्लाइंट लड़ने आया है ! क़ातिल होने का सबूत तो न था पर उसके भूतनी होने पर यकीन जमता जा रहा था, आख़िर उसे क्लाइंट के मन की बात कैसे मालूम ? भले ही उसने अब तक उसका कोई नुकसान न किया था पर आगे का क्या भरोसा ! ये भूतनियां मर्दों को ऐसे ही मीठी - मीठी बातों में,इश्क़ जाल में फंसा कर उनका खून चूसती रहती हैं. आदमी को पता नहीं चलता, वह निचुड़ता हुआ मर जाता है. उस दिन रश्मि भी कह रही थी कि आप कितने कमज़ोर लग रहे हैं, काम का प्रेशर बहुत है क्या? डॉक्टर को दिखा कर कोई टॉनिक वॉनिक लिखवा लीजिए.

           कार तो वाकई भूतनी की तरह उस पर सवार होती जा रही थी. डॉक्टर की ज़रूरत तो थी उसे - चाहे जनरल फिजीशियन या मनोचिकित्सक की या फिर इन मामलों के डॉक्टर, ओझा या मौलवी की ! आज फिर वह सीधे घर न जाकर बार गया. सचमुच कार उसे चूस रही थी. यह लगाव या इश्क़ न था, भूतनी उसके मन और शरीर पर हॉवी हो रही थी.

सुबह उठा तो सर भारी सा था. एक तो अकेले और बिना प्रॉपर चिखना के, कम्प्लीमेण्टरी लैया- चना के साथ दारू, फिर खाना भी ज़हरमार जैसा किया, नींद भी ठीक से न आयी. जागते में कार की बातें याद आतीं. उसकी खनकती मादक हँसी अब चुड़ैल की चिचियाहट सी लगती और उस दिन का उसका होठ पर लगा खून चाटना ! उफ़्फ़ ! कितना वीभत्स और भयानक था. इसी में जाने कब आँख लग गयी तो वही सपना कि कार अपने आप चली और लौट कर पार्क भी हो गयी. कार पर भूत का साया ही था और फिर अब्दुल ने भी तो बताया था. दो लोगों को थोड़े न ग़लतफहमी हुई होगी. वो तो उसका उधर और किसी से मेल जोल न था नहीं तो क्या पता और लोग भी बताते.

             इसी के साथ चाय पीते हुए अख़बार पर नज़र डालता जा रहा था कि स्थानीय समाचारों में हेडिंग दिखी, 'अज्ञात कार ने दो को कुचला, मौक़े पर मौत' नीचे विवरण में था कि ये लोग कैटरिंग कारीगर थे जो सहालग से लौट रहे थे और कार की चपेट में आ गये. पढ़ कर सर भन्ना गया, अब कार उसे प्यारी नहीं बल्कि हत्यारी चुड़ैल लग रही थी.

शाम को वह ज़ल्दी चैम्बर गया, सूरज ढल चुका था पर उजाला था. ताला खोलते हुए कार पर नज़र गयी, उसने स्माईल देते हुए अभिवादन किया पर उसने बेरुख़ी दिखाते हुए मौन हाय न किया. कुर्सी पर बैठ कर उसने सवाल किया,

 'कल रात तुम फिर कहीं गयी थीं ?'

'गयी तो थी, क्यों ?' उसके इल्ज़ाम लगाते सवाल के जवाब में उसने भी तुनक कर जवाब दिया.

'गयीं और इस बार दो लोगों को मार डाला, उनका खून पिया ?'

' हाय रज़्ज़ा ! अब तुम जान ही गए हो तो सुनो ! मैंने मारा नहीं, शिकार किया. जानते तो हो न कि कौन हूँ मैं !' अब उसकी आवाज़ प्यारी नहीं, फोश और  डरावनी लग रही थी, चैलेंज देती हुई.

'अब मैं तुम्हारा किस्सा ही खतम किए देता हूँ.' कहता हुआ वह तैश में बाहर आया. घर से वह व्यापार कर कार्यालय नहीं, एक ओझा के पास गया था जिसने बताया था कि आधी रात से सुबह तीन बजे तक ऐसी ताकतें बहुत प्रबल होती हैं, तब उनके रास्ते में न आना मगर शाम को, जब दो पहर मिल रहे हों, तब इनका वध किया जा सकता है. उसने एक ताबीज भी दिया था जो उसकी दायीं भुजा पर बंधा था और अभिमन्त्रित सरसों भी दिए थे जो पुड़िया में उसकी जेब में थे.

'ठहर तो चुड़ैल अभी तुझे खतम करता हूँ.' कहता हुआ वह तेज़ी से झपटा. हसीना खौफ़नाक गुर्राहट के साथ स्टार्ट होकर उसे रौंदने को बढ़ी ही थी कि उसने जेब से अभिमन्त्रित सरसों निकाल कर उस पर छींट दिए. हसीना ऐसे तड़पी जैसे उस पर अंगारे उंडेल दिए गए हों. उसने वहीं पड़ी एक ईंट उठाई और शीशा तोड़ डाला. दूसरे वार में हेडलाईट भी. हसीना निढाल हो गयी थी. वह हाथ में ईंट लिए हांफ रहा था कि शोर सुनकर लोग दौड़े, अन्दर से नवाब साहब और कुछ मुलाज़िम भी निकल आए. कार को टूटा और उसे ईंट लिए आक्रामक मुद्रा में खड़ा देख कर लोगों ने उसे पकड़ लिया.

 'यह क्या किया वकील साहब ! मेरी कार क्यों तोड़ी ?' नवाब साहब ने गुस्से से पूछा.

'तोड़ी नहीं, इसे खतम किया है ! जानते हैं नवाब साहब, यह कार नहीं भूतनी है, क़ातिल है, खून पीने वाली चुड़ैल है. रोज रात में जाकर किसी न किसी को मार कर उसका खून पीती थी, कल भी दो लोगों को मारा. आज मैंने इसे खतम कर दिया, लोगों को इसके कहर से छुटकारा दिलाया. अब यह किसी को मार नहीं सकती.'

'दिमाग तो सही है आपका ! क्या पागलों जैसी वाहियात बातें कर रहे हैं. कार जाती है, लोगों को मार कर खून पीती है, भूतनी है ... ! हद हो गयी. अरे यह कार तो कबसे खड़ी है. चाभी मेफे पास ! अब तो शायद स्टार्ट भी न हो.'

'आपको नहीं मालूम ! इसने सब ख़ुद मुझे बताया. आप होते तो देखते, कैसे अभी कुछ देर पहले स्टार्ट होकर मुझे रौंदने को झपटी कि मैंने इसे खतम कर दिया.'

'क्या चण्डूखाने की छोड़ रहे हैं ! कार ने आपको बताया. यह कैसे बता सकती है, बेजान मशीन. जब कोई चलाए तब ही चलती है और आप कहते हैं कि इसने ख़ुद बताया ! स्टार्ट होकर आपको रौंदने को झपटी. ड्रग्स लेते हैं क्या ?'

'आप मेरी बात पर विश्वास क्यों नहीं करते, मेरी इससे बराबर बात होती थी. यह भूत है, अपने आप स्टार्ट होकर जाती है, फिर आकर अपनी जगह उसी पोजीशन में खड़ी हो जाती है. आप अब्दुल से पूछिए ! उसने भी देखा है इसे अपने आप स्टार्ट होकर आते-जाते. औरों ने भी देखा होगा बस आपको ही ख़बर नहीं.'

'लो और सुनो! अब्दुल ने देखा ! बता अब्दुल, तूने देखा इसे जाते-आते ?'

'नहीं तो ! मैंने कब कहा आपसे ऐसा ? मेरी आपसे इतनी बात ही कहाँ होती है. मेरा आपका क्या जोड़ ! आप पढ़े-लिखे वकील और मैं मामूली चाय वाला.' वह उससे मुखातिब था.

                     'पता नहीं यह अब्दुल क्यों मुकर रहा है. मुझे तो एक-दो बार लगा था, अब्दुल ने तो देखा था. कोई वैसे ही मेरी बात पर यकीन नहीं कर रहा और यह भी मुझे झूठा बना रहा. सब मिल कर मुझे पागल बनाने पर तुले हैं.' ... मन में सोचते हुए उसे अब्दुल पर गुस्सा आया. ईंट अभी भी उसके हाथ में थी, उसे लिए हुए ही वह अब्दुल की तरफ झपटा. लोगों ने उसे पकड़ा, ईंट उसके हाथ से छीन कर फेंकी तब भी वह लोगों के शिकंजे में उसे पीटने को छटपटा रहा था. इसी सब में उसके एक दो हाथ भी पड़ गये. लोग और पीटते कि नवाब साहब ने कड़क कर कहा, 'ये क्या कर रहे हैं आप लोग. यह तो पागल है ही, आप भी तमाशा खड़ा कर रहे हैं. मैं कुछ करता हूँ.'

           लोग इकट्ठा होते जा रहे थे और पुलिस बुलाने को कह रहे थे कि किसी ने पुलिस को फोन कर भी दिया और गर्व से बताया भी, 'मैंने पुलिस को फोन कर दिया है.'

नवाब साहब के पास विनोद का नम्बर था. उन्होंने विनोद को फोन करके सब बताया और तुरन्त आने को कहा. विनोद ने घर फोन किया और कुछ और दोस्तों को भी. विनोद और घर वाले, कुछ दोस्त और पुलिस आगे-पीछे ही आये. नवाब साहब पुलिस का लफड़ा नहीं चाहते थे, भीड़ में भी कई ने उसके शरीफ आदमी होने और अपने काम से काम रखने वाला होने की बात कही. नवाब साहब ने भी कार की तोड़ फोड़ के बाबत रिपोर्ट लिखाने से मना कर दिया. पुलिस मौखिक चेतावनी देकर चली गयी और नवाब साहब ने उसे विनोद और घरवालों के हवाले करते हुए दिमाग के किसी अच्छे डॉक्टर को दिखाने को कहा. चैम्बर बन्द करके चाभी नवाब साहब को दे दी. हसीना वैसे ही टूटी फूटी खड़ी थी.चलते वक़्त उसने उधर नज़र डाली तो वह कुटिल मुस्कान से मुस्करायी. इसका मतलब या तो यह अभी खतम नहीं हुई, दम तोड़ रही है.

सब उसे घर ले गए, एक तरह से ज़बरदस्ती, पकड़ कर. एक तो वह वैसे ही निढाल, ऊपर से अब्दुल पर हमला करने के चक्कर में दो – चार हाथ भी पड़ गये, बेइज़्ज़ती के अहसास के साथ शारीरिक चोट व थकान भी फिर भी सन्तोष इस बात का कि उसने भुतही कार को, क़ातिल हसीना को खतम कर दिया, लोगों को उसका शिकार होने से बचा लिया और ख़ुद भी उसके चंगुल से छूटा. छूटा तो ज़रूर मगर अब भी मन कचोट रहा था कि जिससे इतना लगाव, उसी के साथ ऐसा किया, उसे मार डाला. आख़िरी निगाह जो उसने डाली, कितनी कातर, कितनी अविश्वास भरी थी. जैसे उसे यकीन ही न हो रहा हो कि वह भी ऐसा करेगा. मन भारी हो रहा था. चुप लेट कर उसकी मीठी यादों में डूबना चाहता था. वह किसी से बात करना नहीं चाह रहा था पर विनोद व रश्मि थी कि पूछे ही जा रही थी. उनकी चिंता भी अपनी जगह ठीक थी, उसे जवाब देना ही था.  पूछताछ में उसने सारी बात बतायी, कार से बातचीत होने और होते रहने का किस्सा बताया. कुछ ने यकीन किया कुछ ने मनोरोग करार दिया. चुड़ैल कार नवाब साहब की थी अतः झाड़ फूंक करने वाले किसी मौलवी को दिखाने और बाद में  साइक्रियाटिस्ट को दिखाने का तय हुआ. मौलवी या ओझा को दिखाने को प्राथमिकता दी गयी. दूसरे दिन रश्मि, विनोद और उसका एक साला उसी ओझा केद पास गए जिसे उसने घटना की सुबह दिखाया था और अभिमन्त्रित सरसों दिए थे. ओझा ने देखते ही कहा,

 ‘बधाई. दुरात्मा शांत हो गयी. वो तो भैया समय रहते मेरे पास आ गये नहीं तो वह और प्रबल होती जाती, पूरी तरह इन पर कब्जा कर लेती और फिर तुम पर, घर पर.’

‘आपकी बड़ी कृपा महराज ! अब कोई खतरा तो नहीं ?’ रश्मि ने पूछा.

‘ खतम तो वह हो चुकी, अब क्या खतरा ! मगर ऐसी ताकतें फिर सक्रिय हो जाती हैं और अब तो वह इनसे बदला लेने की सोच सकती है.’

‘तो क्या उपाय है महराज ! कुछ कीजिए कि यह टण्टा हमेशा के लिए मिट जाए.’

‘उपाय है ! हर संकट का समाधान है इस विद्या में. प्रेत शान्ति यज्ञ करना होगा. आप ऐसा करिए, यह सामग्री ले आईए और भैया को लेकर आईये. यह अनुष्ठान गुप्त रहेगा, जो लोग यहाँ हैं उनके अलावा किसी को भनक भी न पड़े.’ कहते हुए ओझा जी ने पहले से तैयार एक लिस्ट थमा दी.

‘ठीक है महराज ! मगर हम यह सामग्री लेने जाएंगे या किसी से मंगाएंगे तो कुछ लोगों को तो पता चल ही जाएगा ! इतना सामान घर लाएंगे और फिर आपके यहाँ लेकर आएंगे तो कोई न कोई पड़ोसी या रिश्तेदार देख लेगा, तब कहाँ गुप्त रह जाएगा ? लोग तो अभी इन्हें देखने आ ही रहे हैं. कल तो एक रिपोर्टर भी आया था.’

‘ठीक कहा आपने ! तो ऐसा कीजिए, आप बस पैसे दे दीजिए, मैं सब व्यवस्था कर लूँगा, आप इतने ही लोग आ जाईएगा. मैं तो यह सब लाता ही रहता हूँ तो किसी को भनक न लगेगी कि किसके लिए है और सामान भी सस्ता और शुद्ध मिलेगा.’

‘कितना अर्पण करूँ महराज !’

‘आप बस ग्यारह हज़ार दे दीजिए और दक्षिणा श्रद्धानुसार दे दीजिएगा.’

                                    ओझा जी भी जान चुके थे कि प्रेतात्मा का अंत तो हो ही चुका है. जब यजमान ही संशय कर रहा है, मुंडने को राजी है तो मूंडने में क्या हर्ज है. उनका तो धन्धा ही ठहरा. रश्मि न कहती तो भी वे कुछ न कुछ आशङ्का दिखा कर कुछ झटक ही लेते.

                             नियत समय पर प्रेत शान्ति यज्ञ हुआ जो सफल भी रहा. उसके बाद कोई बाधा न आयी. नवाब साहब ने भी गैरेज वाले को बुला कर कार दिखाई तो उसने लंबा खर्चा बताया. कहा कि करीब पंद्रह हज़ार तो फ्रण्ट ग्लास बदलने और तीन हज़ार हेडलाईट का होगा. और जो सामान लगेगा वह अलग. फिर डेण्टिंग तो करा ही लीजिए. मोटा मोटी तीस पैतीस हज़ार का मानिए.

नवाब साहब ने सोचा कि चलाते तो हैं नहीं, बेकार खड़ी रहती है तो अब खर्चा करने का क्या फायदा. वैसे भी इस हादसे के बाद उनका मन अब इसे रखने का नहीं था. वैसे तो वे यह सब मानते नहीं थे, विनोद से भी वकील साहब को बजाय तांत्रिक के, दिमाग के किसी अच्छे डॉक्टर को दिखाने की राय दी थी. फिर भी मन में आया कहीं सचमुच यह कार भुतही हुई तो ! उसे हटा देना ही बेहतर समझा. गैरेज वाले से कहा,

‘अब तुम्ही ले जाओ. चाहे ठीक करा लो या पुर्जे निकाल कर कबाड़ में कटवा दो, जो ठीक समझना दे देना.’ इस तरह ‘हसीना’ का पूरी तरह खात्मा हुआ.

 प्रेत शान्ति यज्ञ भी हो गया, हसीना का समूल नाश भी हो गया, बाद में कोई हादसा भी न हुआ मगर उसका मन ठीक न हुआ. वो गुमसुम रहता. हसीना का उसे गहरा सदमा लगा था. मन में एक अपराधबोध सा भी था कि जिसने इतना चाहा, उसे ही इस तरह खतम किया जबकि उसने उसका कोई नुकसान तो किया न था. तब देखी हुई कुतील मुस्कान अब उसे कातर दृष्टि सी लगने लगी थी, जैसे शिकवा कर रही हो. उसने यह टीस रश्मि और विनोद से भी कही. मतलब, हसीना भले ही पूरी तरह खतम हो गयी हो पर उसके दिल ओ दिमाग पर अब भी काबिज थी. तब एक जाने – माने साइक्रियाटिस्ट को  दिखाया गया. उसने उससे और घर वालों से तमाम बातें खोद खोद कर पूछीं. कोई बात ऐसी न हुई थी और न ही बचपन में ऐसी कोई बात थी जिसका सम्बन्ध  इस घटनाक्रम से जुड़ पाता कि कार से इस कदर लगाव कि वह उससे बात करने लगे.

 व्यवहार में बदलाव के बारे में रश्मि ने यह तो बताया कि ये इधर कुछ परेशान, कुछ खोए- खोए से रहने लगे थे मगर बताया कुछ नहीं तो सोचा काम का प्रेशर होगा, अब भी गुमसुम रहने की बात बताई.  विनोद ने भी इधर कोई मुलाकात न होने की बात कही जबकि पहले वे नहीं हर हफ्ते तो दस-बारह दिन में तो बैठकी करते ही थे. काम का प्रेशर या कोई विवाहेतर सम्बन्ध या कोई बीमारी न होते हुए भी उसके इस तरह सबसे कटते जाने को डॉक्टर ने मनोरोग बताया जिसमें मरीज़ की कल्पनाशक्ति इतनी प्रबल और एक सब्जेक्ट में केन्द्रित होने लगती है कि वह सब्जेक्ट से मन ही मन जुड़ जाता है. वह उससे बातें करता है और सब्जेक्ट भी उससे बात करता है. यह बात, सवाल और जवाब मन में ही होते हैं. वह जो सवाल करता है वह भी उसके सोचे हुए और जो जवाब मिलता है, वह भी वही जो उसने सोचे हुए होते हैं, उसे मालूम होते हैं और उसके मनभाते होते हैं. सब्जेक्ट उसे सोची हुई हरकतें करता भी दिखता है. इस केस में सब्जेक्ट कार थी. वह उससे सवाल करता, कार उसका सोचा जवाब देती - जवाब क्या देती, उसका सोचा जवाब मन में आता. जैसे कोई अकेले ताश या शतरंज खेलता है, एक चाल ख़ुद चलता है और दूसरी चाल भी दूसरे खिलाड़ी की तरह सोचते हुए उसकी तरफ से चलता है - वैसे ही ! खेल में उसे दूसरी तरफ की चाल या पत्ते मालूम होते हैं वैसे ही इस केस में उसने अपने सवाल व कार के जवाब सोच रखे थे, सोच नहीं रखे बल्कि उसके मन में, अवचेतन में बगैर उसकी जानकारी के आते रहते तो वही जवाब मिलते. कार का नाम हसीना उसका सोचा हुआ था, नवाब साहब ने तो उसका कोई नाम रखा ही न था. अब्दुल से बात में उसने अपने सोचे जवाब गढ़े, वस्तुतः अब्दुल से उसकी इतनी बात ही न होती थी, वह बस चाय देने और बरतन धो कर रख जाने तक सीमित था,  और सामाजिक स्तर का अन्तर भी तो था, वह कैसे इतना घुल मिल सकता था.  अपना सोचा, कि कार कहीं जाती भी है और अपने आप वापस आती है, उसने अब्दुल से बात में रोप दिया. जब कार एक्सीडेण्ट से उसे जोड़ा तो हसीना को खून चाटते भी देख लिया. सरल रूप में समझाने के लिए डॉक्टर ने मुन्ना भाई सीरीज की फ़िल्म,  'लगे रहो मुन्ना भाई' का उदाहरण दिया जिसमें मुरली को गांधी जी दिखते थे, उससे बात करते थे - मगर वही और उतनी जितनी मुरली को पता था. सवाल भी उसके थे और गांधी जी के जवाब भी उसके सोचे हुए.


               डॉक्टर ने दिमाग शांत करने की कुछ दवाएं दीं और कई सेसन किए. बताया कि सेसन अभी और होंगे, दवा अभी और चलेगी. बीच में इलाज छोड़ देने पर रोग फिर से उभर आने का खतरा है. यह भी कहा कि इन्हें बहुत देर अकेला न छोड़ें, कोई न कोई इनसे बात करता रहे तो अब विनोद उससे मिलने लगभग रोज आता है.  उसकी हालत में सुधार हो रहा है, और अब तो वह पिछली बातें याद करके खिसियानी हँसी भी हँसने लगा है.

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2 comments:

  1. अच्छी लिखी। हालांकि जासूसी है या हारर, यह दुविधा रही। कथ्य की कमी बयान की खूबसूरती ने पूरी कर दी। लेकिन लगा कि जल्द रैपअप कर दिया है। कायटस इंटरप्टस वाली फीलिंग।

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    1. धन्यवाद भाई. न जासूसी है न पूरी तरह हॉरर. जब रवानी पर आयी तो यह दुविधा रही कि इसका अंत भूतिया कहानी के तौर पर हो या मनोरोग ग्रस्त नायक की गाथा के तौर पर. मनोरोग वाला अंत जीता. दोनों ही दशाओं में कार को भुतही तो दिखाना ही होता तो हॉरर का पुट आना ही था. ज़ल्दी रैपअप वाली बात सही है. बार-बार यह बाग कोंच रही थी कि बहुत लम्बी हो रही है. फेसबुक के हिसाब से लम्बी थी ही सो एक हिसाब से समेटा ही. यह बोध न कोंचता गो हॉरर का पुट और होता.

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