पुलिस को सड़क किनारे झाड़ियों में एक लाश की सूचना मिली. एक आदमी बाईक से कहीं जा रहा था, उसे हल्के होने की ज़रूरत महसूस हुई. बाईक रोकी, सड़क से उतर कर झाड़ियों तक गया. निवृत होकर चेन बन्द कर रहा था कि एक पैर दिखा, झाड़ी के अन्दर तक घुसने पर पूरी लाश दिखी. ज़िम्मेदार नागरिक था सो पुलिस को फोन किया और पुलिस आने तक वहीं रुका भी रहा. लाश करीब चालीस साल के आदमी की थी. हत्या किसी धारदार चीज़ से गला रेत कर की गयी थी. हत्या कहीं और की गयी, लाश वहाँ लाकर फेंकी गयी क्योंकि न खून बिखरा था, न संघर्ष के कोई चिन्ह थे और न मर्डर वेपन बरामद हुआ. पहचान के लिए मोबाईल, पर्स या कोई कार्ड, कोई कागज, बिल, रसीद, कोई टैटू/गोदना, कोई बर्थ मार्क, घड़ी आदि कुछ न था. चप्पल, कपड़े साधारण थे, जेब में रुमाल, कुछ नोट और सिक्के मिले - उनसे पहचान में कोई मदद होनी न थी. लाश की फोटो, चेहरे का क्लोज अप लिया गया, लाश पोस्टमार्टम के लिए भिजवायी गयी और क्लोज अप के पोस्टर जगह जगह चस्पा कर दिए गए. फोटो दिखा कर आस पास पूछताछ की गयी पर पहचान न हुई और न ही किसी ने पोस्टर देख कर सम्पर्क किया. आस पास के थानों में भी किसी चालीस साल के आस पास के आदमी की गुमशुदगी की रिपोर्ट हुई थी, न इस थाने में.
ऐसे में लाश की पहचान नहीं हो पा रही थी तब पुलिस को उसके कपड़ों का ख़याल आया. शर्ट पर दर्ज़ी का लेबल लगा था जिस पर टेलर का नाम (दुकान का नहीं ) और इलाके व शहर का नाम लिखा था. इतने सुराग के सहारे पुलिस उसकी शिनाख़्त के लिए निकली. लेबल पर दर्ज़ शहर का वह इलाका तो जैसे दर्ज़ीबाड़ा था, लाईन से टेलर ही टेलर थे (है ना आश्चर्यजनक इलाका ) कुछ दुकानों पर पूछताछ के बाद पुलिस को अहसास हुआ कि यह तो बड़ा टाईमखाऊ और ऊबाऊ तरीका है. तब उन्होंने इलाके बड़े और अच्छे टेलर, मंझोले टेलर, छोटे टेलर और घफ से काम करने वाले टेलर के अनुसार बांटा (एक और संयोग, पुलिस की सुविधा के लिए उस इलाके में टेलर इसी तरह बसे थे, एक उप इलाके में एक स्तर के टेलर ) यह तरीका कारगर रहा और एक छोटे टेलर की दुकान से पता चला कि मोहन टेलर (लेबल पर यही नाम था ) घर से काम करता है. पुलिस वहाँ पहुँची तो मोहन ने शर्ट अपने यहाँ से सिली होने को स्वीकारा और लेबल पर लिखे नम्बर से रसीद बुक देख कर बताया कि यह कोई रेगुलर ग्राहक नहीं. पहली बार आया, इसका नाम-पता, फोन नम्बर भी रसीद पर नहीं लिखा. टेलर तक पहुँचने के बाद भी कोई सूत्र न मिलने पर नाम-पता न लिखने की लापरवाही के लिए समुचित फटकार लगायी. वे जाने को ही थे कि एक पुलिसिए की नज़र लेबल पर लगे काले निशान पर पड़ी. मोहन से पूछने पर उसने कहा कि वह ऐसा कोई निशान नहीं लगाता, ऐसे निशान धोबी लगाते हैं तो यह किसी धोबी का निशान हो सकता है. इस बार टेलर जैसी कवायद की ज़रूरत न थी क्योंकि जब शर्ट घर से काम करने वाले टेलर से सिलवायी तो धुलवायी भी किसी ऐसे ही धोबी से होगी, किसी लाण्ड्री से नहीं. थोड़ी ही पूछताछ के बाद घर से काम करने वाली धोबन का पता चला जिसने अपना निशान पहचाना. यह तो रसीद या रजिस्टर वगैरह भी न रखती थी पर पुलिस की सुविधा के लिए इस ग्राहक का नाम और घर मालूम था. फोटो देख कर भी उसने पहचाना कि इसी आदमी ने यह शर्ट धोने को दी थी. अब पुलिस के पास उसकी पुख़्ता पहचान थी, बस कत़्ल का उद्देश्य, कात़िल और कत़्ल कहाँ और कैसे हुआ, अकेले किया या और लोग भी शामिल थे ... जैसे काम थे.
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उन्हें आगे का काम करने दें, हम-आप टेलर के लेबल और धोबी के मार्के पर बात करें. जो न जान पाए हों उन्हें बता दूँ कि यह एक अपराध सीरियल 'क्राईम पट्रोल' के एक एपिसोड का सीन है. इसमें टेलर के लेबल और उस पर धोबी के मार्के जैसे सूत्र से लाश की शिनाख़्त हुई. वैसे अब का समय हो, घटनास्थल कोई शहर हो तो यह सूत्र काम ही न करेंगे, बल्कि मिलेंगे ही नहीं. पहले जिस स्तर का भी आदमी हो, अधिकांश लोग स्थानीय टेलर से सिलवाए कपड़े ही पहनते थे, अब तो दशक से ऊपर हुआ, लोग रेडीमेड ही पहनते हैं. जब से तमाम ब्राण्ड्स आ गये, हर जगह छोटे-बड़े ब्राण्ड्स के आउटलेट खुल गये, पहले ही दिन से 40% से 60% या अधिक छूट, दो के साथ चार फ्री के ऑफर आये, मॉल की बहुतायत हुई ... बहुतेरे परम्परागत लोग भी रेडीमेड पहनने लगे. सिलाना महँगा पड़ता है और प्रतीक्षा भी करनी होती है. कई बार तो सिलाई के दाम में सिली सिलाई शर्ट मिल जाती है तो अब किसी की शर्ट पर टेलर का लेबल पाये जाने की सम्भावना अति क्षीण है. तो यह सूत्र तो गया हाथ से !
रेडीमेड का वर्चस्व बढ़ने पर भी लोग सूट, कोट, सदरी, शेरवानी आदि टेलर से सिलवायी हुई ही पहनते थे. शादी में सूट तो ज़रूर ही 'अपने' टेलर से सिलवाते थे, दो बार तो ट्रायल होता था, तीसरी बार में फाईनल होकर मिलता था तो सीधे शादी या रिसेप्शन पर पहना जाता था. रेडीमेड के दौर में भी जेन्ट्स टेलर की वकत थी. वे लेबल तो लगाते थे मगर सीरियलों में लाश की शिनाख़्त के सिलसिले में इन पर टेलर के लेबल का कोई स्कोप नहीं है, काहे से कि सूट, शेरवानी आदि में मर्डर होते ही नहीं. वैसे तो मर्डर के लिए कोई ड्रेस कोड नहीं होता मगर सीरियलों में मर्डर साधारण कपड़ों में ही होता है. क्यों महँगे सूट, शेरवानी को खून और चाकू/गोली वगैरह के निशान से खराब किया जाय, कास्ट्यूम किराए पर आते हैं, वापस भी न होंगे. वैसे अब सूट, सदरी, शेरवानी भी शादी तक में लोग रेडीमेड पहनने लगे हैं.
तो आज के कालखण्ड वाला सीरियल हो तो लाश की शिनाख़्त के लिए टेलर का लेबल आप्रसङ्गिक है, होगा ही नहीं कपड़ों पर. रेडीमेड पर जो लेबल होता है उससे बस ब्राण्ड, कपड़े की किस्म, मिश्रण अनुपात और धुलाई निर्देश आदि पता चलते हैं, कील ठोक कर दुकान का नाम नहीं.
अब आते हैं धोबी के मार्का पर. टेलर के लेबल की तरह आज के दौर में यह भी आप्रसङ्गिक है. हतप्राण ग़रीब हुआ तो हाथ से बालटी/टब में कपड़े धोता होगा. मध्यवर्गीय गृहस्थ हुआ तो घर पर वॉशिंग मशीन होगी. लाण्ड्री से धुलाता होगा तो अब लाण्ड्री वाले मार्का लगाते ही नहीं. नम्बर वगैरह कपड़े पर नहीं लिखते बल्कि पतले बकरम के टुकड़े पर लिख कर कपड़े के साथ कच्चे धागे से नत्थी कर देते हैं जिसे कपड़ा देते समय खोल कर फेंक देते हैं. घर से काम करने वाले धोबी भी अब नहीं लगाते, वैसे भी अब धुलाई का काम एक चौथाई ही रह गया है, प्रेस करने का काम होता है और प्रेस के लिए आये कपड़े पर भी कोई मार्का नहीं लगाते. तो शिनाख़्त का और कोई ज़रिया न होने पर धोबी का मार्का वाला सूत्र भी गया.
अब सीरियल में पुलिस की सुविधा के लिए अदबदा कर कोई शर्ट टेलर से सिलवाए, मार्का लगाने वाले धोबी से धुलाए तो बात और है.
अब उन्हें लाश के पास से मोबाईल, पर्स या कोई कार्ड, कोई कागज, बिल, रसीद, कोई टैटू/गोदना, कोई बर्थ मार्क, घड़ी आदि बरामद न हो तो कोई और तरीका दिखायें, ये टेलर का लेबल और धोबी का मार्का अब हजम न होगा.
बात हो ही रही है तो इस पर भी हो जाय कि टेलर लेबल और धोबी मार्का क्यों लगाते होंगे. इसलिए तो नही ही लगाते होंगे कि किसी का खून हो, शिनाख़्त का कोई और पुख़्ता ज़रिया न हो तो इन्ही से शिनाख़्त हो जाय. टेलर तो अपनी दुकान की पहचान, विज्ञापन व इसलिए लगाते होंगे कि ग्राहक के कपड़े देख कर कोई पूछे, 'बड़ी बढ़िया फिटिंग है, कहाँ से सिलवाई ?' तो ग्राहक नाम-पता बता सके. मगर इन सबमें लेबल का तो कोई रोल है ही नहीं. ग्राहक बिना लेबल देखे ही बतायेगा कि शर्ट उतार कर लेबल देख कर/कॉलर पलट कर लेबल दिखाएगा ? लेबल बहुधा ऐसी जगह होता है जो सामने न दिखे, शर्ट में कॉलर के नीचे और पैण्ट में जिप के पास. तो विज्ञापन वाला उद्देश्य भी नहीं, फिर क्यों ? एक उपयोगिता समझ में आती है. बड़े और मंझोले टेलर सारा काम ख़ुद या दुकान के कारीगरों से नहीं सिलवाते. वे नाप लेकर, कपड़ा कटिंग करके घर से काम करने वाले दर्ज़ियों को देते हैं, वह सिल कर देता है. अब उसके पास कई टेलरों का काम आता है तो पहचान के लिए /कपड़े आपस में गबड़ न जाएं, हर टेलर अपना लेबल भी देता है जिसे वह दर्ज़ी उसके कपड़ों पर लगाता है - दोनों को सुविधा. और कोई कारण तो समझ आता नहीं लेबल लगाने का. पुलिस/प्रशासन ने भी अनिवार्य नहीं किया है लेबल लगाना.
ऐसे ही धोबी के मार्का का है. वह तो निश्चित ही ग्राहक की पहचान के लिए, कि किसका कपड़ा धुलने को आया है, मार्का लगाता है. चूंकि बहुत से ग्राहक नियमित रूप से धोबी से ही कपड़े धुलाते हैं. अब हर दूसरे दिन या हफ्ते कपड़ा आये तो हर बार नया तो होगा नहीं. ऐसे हर बार मार्का लगाते रहे तो कुछ ही माह में कपड़े की उस जगह, जहाँ मार्का लगाते हों, जगह ही न बचती होगी तो उन्होंने अलग चिट पर लिख कर नत्थी करना या कोई वैकल्पिक तरीका शुरू किया.
अब आप बताएं - क्या आप टेलर से सिलवा कर पहनते हैं या रेडीमेड और क्यों ? शिफ्ट हुए तो क्यों, नहीं हुए तो क्यों ? कपड़े धोबी से/लाण्ड्री से धुलवाते हैं ? यह मार्का लगाने वाली प्रथा कबसे शुरू हुई होगी ? क्या त्रेता में वह धोबी, जिसने सीता जी के बारे में वह बात कही, कपड़ों पर मार्का लगाता होगा ?
प्रश्न और भी होंगे - करिए और जवाब दीजिए ! वैसे भी यह पोस्ट 'निठल्ला चिंतन' है, खलिहर हों तो, खलिहर नहीं पर खुरपेंची हों तो समय निकाल कर कुछ कहें.
Vivek Shukla and 13 others
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