चित्रकूट
में राम-भरत भेंट व राम की खड़ाऊँ !
कबि न होउँ नहि चतुर कहावउँ । मति अनुरूप राम गुन गावउँ ॥
***
कबि न होउँ नहि बचन प्रबीनू । सकल कला सब बिद्या हीनू ॥
- बालकाण्ड.
जब बाबा तुलसी ने मानस की शुरुआत में ही ऐसी आत्मस्वीकृति दे दी तो मैं अकिञ्चन उनके पासङ्ग का भी पासङ्ग नहीं हूँ फिर भी राम कथा के जो प्रसङ्ग हैं, स्वल्पमति अनुसार ही उनके बारे में कहता हूँ. यह मान कर ही रामकथा पर मेरी बात सुनें.
पिछली पोस्ट में
एक भाई ने जिज्ञासा की, ‘ भरत ने राम का खड़ाऊँ
क्यों लिया ?’ मेरी मति की जो सीमा है, उसके अनुसार इसका शमन करने की चेष्टा कर रहा हूँ.
यह तो सभी जानते
हैं कि राम को वापस अयोध्या चलकर राज्य संभालने की उनकी प्रार्थना व अन्य वैकल्पिक
प्रस्ताव राम ने पितु वचन के पालन का हवाला देकर अस्वीकार कर दिया तो भरत
राजसिंहासन पर उनके प्रतिनिधि रूप में आरूढ़ करने के लिए उनकी खड़ाऊँ लेकर,
उसे सर पर धर कर लाये.
उनके इस प्रश्न का
उत्तर देने से पूर्व आईए यह देख लें कि क्या भरत ने उनकी खड़ाऊँ ली / राम ने अपनी
खड़ाऊँ दी ? क्या वे जो खड़ाऊँ पहन कर वन गये थे,
जो पहने हुए थे, भरत ने उनकी वही खड़ाऊँ मांगी
और प्रेमवश उन्होंने पहनी हुई वही खड़ाऊँ उतार कर दे दी !
राम कथा के दो
प्रमुख और मान्य स्रोत हैं – एक श्रीमद्वावाल्मीकि
रामायण और श्रीरामचरित मानस. मानस रामयण पर ही आधारित है, अनेक
प्रसङ्ग पूरी तरह रामायण के अनुसार हैं, बस वहाँ भाषा
संस्कृत है, यहाँ अवधी. देशकाल और लोकरंजन को ध्यान में रख
कर मानस में कुछ प्रसङ्गों में विचलन है, कुछ जोड़े गए हैं तो
कुछ छोड़ दिए हैं. मानस जन जन में अधिक पैठी हुई है अतः लोग मानस में किए वर्णन से
अधिक परिचित हैं.
खड़ाऊँ प्रसङ्ग में
मानस में जो वर्णित है, कि भरत ने राम से उनकी
खड़ाऊँ मांगी और राम ने वही दे दी –
“भरत सील गुर सचिव समाजू । सकुच सनेह बिबस रघुराजू ॥
प्रभु करि कृपा पाँवरी दीन्हीं । सादर भरत सीस
धरि लीन्हीं ॥
चरनपीठ करुनानिधान के । जनु जुग जामिक
प्रजा प्रान के ॥“
रामायण में है कि भरत ने राम की पहनी हुई खड़ाऊँ नहीं उतरवाई थी बल्कि वे अयोध्या से ही स्वर्णमण्डित खड़ाऊँ साथ लेकर गये थे. राम जी ने इस प्रस्ताव की स्वीकृति स्वरूप उन पर पैर रखा तो वे खड़ाऊँ राम की खड़ाऊँ के रूप में स्वीकार हो गयीं, उन्हीं को लेकर वे अयोध्या लौटे और वे ही खड़ाऊँ राम की खड़ाऊँ के रूप में सिंहासनारूढ़ हुईं. उन्होंने राम की पहनी हुई खड़ाऊँ नहीं उतरवाईं.
श्रीमद्वाल्मीकि
रामायण में है कि भरत अयोध्या से ही स्वर्णमण्डित खड़ाऊँ साथ लेकर आये थे,
उनकी प्रार्थना पर राम ने अपने चरण उन पर रखे और वही खड़ाऊँ वे लेकर
लौटे न कि वनवास पर जाने के समय पहनी राम की खड़ाऊँ.
पुष्टिस्वरूप
रामायण के अयोध्याकाण्ड से यह श्लोक देखें –
“
अधिरोहार्य पादाभ्यां पादुके
हेमभूषिते ।
ऐते हि सर्वलोकस्य योगक्षेम्यं विधास्यतः ॥
(आर्य ! ये
दो स्वर्णभूषित पादुकाएँ आपके चरणों में अर्पित हैं, आप इन
पर अपने चरण रखें. ये ही सम्पूर्ण जगत् के योगक्षेम का निर्वाह करेंगी.)
“
स पादुके ते भरतः स्वलंकृते
महोज्ज्वले सम्परिगृह्य धर्मवित् ।
प्रदक्षिणं चैव चकार राघवं
चकार चैवोत्तमनागमूर्धनि ॥
( धर्मज्ञ
भरत ने भलीभाँति अलंकृत ही हुई उन उज्ज्वल चरण पादुकाओं को लेकर श्रीरामचन्द्र जी
की परिक्रमा की तथा उन पादुकाओं को राजा की सवारी में आने वाले सर्वश्रेष्ठ गजराज
के मस्तक पर स्थापित किया.)
अब प्रश्न यह कि
भरत अयोध्या से खड़ाऊँ साथ लेकर क्यों चले ? क्या
वशिष्ठ, माताओं व अन्य गुरुजनों कि भी यही सम्मति थी ?
तो इसका उत्तर है हाँ ! सबकी सम्मति थी. भरत अच्छि तरह जानते थे कि
राम दृढ़ प्रतिज्ञ हैं, वे कदापि पितु वचन के प्रतिकूल वापस
लौटना, राज्य करना स्वीकार न करेंगे. तब ! राम ने अस्वीकार
किया, जैसा कि विश्लेषण था, तो विकल्प
रूप में पहले से खड़ाऊँ लेकर चले अकि रज सिंहासन रिक्त न रहे. यहाँ केवल
तत्संबम्बन्धित श्लोक व उनके चित्र चस्पा हैं, अधिक जानकारी
/ पुष्टि के लिए वाल्मीकि रामायण के अयोध्याकाण्ड का यह प्रस्ङ्ग देखें.
मानस में भरत के
अयोध्या से खड़ाऊँ साथ लेकर जाने का कोई संकेत/वर्णन नहीं है,
खड़ाऊँ का विचार विकल्प रूप में वहीं बना तो वे उनकी पहनी हुई खड़ाऊँ
लेकर लौटे.
किन्तु यहाँ भी
कुछ विचलन / विरोधाभास है. सम्भवतः पूर्ण रूप से वनवासी वेश का पालन करने के लिए राम नंगे पांव ही वन में
गये थे और वैसे ही रहे.
तापस
बेष बिशेष उदासी । चौदह बरिस रामु बनबासी ॥
तभी तो उनके कोमल
तलवों का स्पर्श पाकर पृथ्वी संकोच से भर उठती है
परसत
मृदुल चरन अरुनारे । सकुचति महि जिमि ह्रदय हमारे ॥
यदि खड़ाऊँ या
पदत्राण/ पनही पहने होते तो पृथ्वी को तलुओं का स्पर्श न मिलता,
मार्ग के स्त्री-पुरुषों ने भी उन्हें नंगे पांव/ बिना जूते-चप्पल
के चलते देखा
ए
बिचरहिं मग बिनु पदत्राना । रचे बादि बिधि बाहन नाना ॥
एक ओर तो यह संकेत
कि राम नंगे पांव ही थे तो दूसरी ओर यह कि वे भरत को पांवरी देना चाह्ते हैं और
अन्ततः दे भी दीं.
प्रभु
करि कृपा पाँवरी दीन्हीं । सादर भरत सीस धरि लीन्हीं ॥
सम्भवतः तुलसीदास
जी ने इस स्थान पर लोकरंजन और भाव के वशीभूत होकर खड़ाऊँ को राम की बता दिया अन्यथा
वे पहले स्थापित कर चुके हैं कि राम जी नंगे पांव थे. ऐसा विचलन बाबा तुलसी ने
अन्य प्रसङ्ग में ( लक्ष्मण रेखा के सन्दर्भ में ) भी किया है.
तुलसी भक्त और कवि
शिरोमणि हैं, उनकी महिमा वे ही जानें. हम उनके
प्रयोजन पर कुछ कहने के लिए अत्यल्पमति हैं.
*****
अब
कुछ विचार इस पर कि खड़ाऊँ मांगने / देने की क्या आवश्यकता थी.
प्राचीन काल से अब
तक यह परम्परा है कि राज सिंहासन कभी रिक्त नहीं छोड़ा जा सकता. राज्य का अधिकारी
किसी कारणवश नहीं है अथवा न रहे तो भी उसके स्थान पर कोई प्रतिनिधि कार्यवाहक राजा
के रूप में पद ग्रहण करता है. वर्तमान में सिंहासन जैसी कोई चीज़ नहीं होती तो भी
पद पर तुरन्त ही किसी न किसी की नियुक्ति की जाती है अथवा कोई कार्यवाहक अस्थायी
रूप से पद भार ग्रहण करता है. ऐसा इसलिए है कि राज्य व प्रशासन में, चाहे
राजतन्त्र हो अथवा गणतन्त्र/लोकतन्त्र अथवा कोई अन्य शासन तन्त्र, व्यवस्था है कि नीतिगत निर्णय
राजा अथवा प्रमुख से पूछ कर, उसकी स्वीकृति से ही लिए जाते
हैं. सिंहासन अथवा पद खाली होने पर आन्तरिक व वाह्य शत्रु सक्रिय हो जाते हैं तब
निर्णय राजा/ प्रमुख का ही वैध होता है. इसलिए राज सिंहासन व राजा पद रिक्त नहीं
रह सकता.
अयोध्या की
स्थिति और भरत के संकल्प के अनुसार वे तो गद्दी पर बैठते नहीं,
जब वे नहीं बैठते तो शत्रुघ्न, माताओं में से
किसी के अथवा अन्य किसी के बैठने का प्रश्न ही नहीं. प्रतिनिधि के रूप में,
राम के प्रतिनिधि के रूप में, भरत और उनके
प्रतिनिधि के रूप में शत्रुघन राज काज तो संभाल रहे थे किन्तु सिंहासन पर कौन आसीन
हो ? तो राजा द्वारा संस्तुत किसी वस्तु को प्रतीक रूप में
बैठाना आवश्यक था ताकि सिंहासन रिक्त न रहे. खड़ाऊँ तो राम द्वारा संस्तुत थीं,
उनकी सम्मति थी, उन्होंने प्रदान की थीं तो
उनका ही सिंहासनारूढ़ होना सर्वथा स्वीकार्य था. प्रश्न यह भी हो सकता है कि
निर्जीव खड़ाऊँ किस काम की ? तो जैसे पत्थर या धातु की देव
प्रतिमा में प्राण प्रतिष्ठा की जाती है
तो वह प्रतिमा देव / भगवान हो जाती है, वैसे ही खड़ाऊँ भी
प्रतिष्ठित होकर राम रूप हो गयी. जैसे राजपूतों में, वर के
किसी कारणवश उपस्थित न रहने पर कटार से विवाह के दृष्टान्त हैं, वैसे ही यह भी राम का स्थानापन्न है. प्रतीकों का आज भी महत्व है, अनुष्ठान में वे स्वीकार्य और पूज्य हैं. हर माङ्गलिक कार्य में गौरी –
गणेश के स्थान पर काठ अथवा गोबर का सिन्दौरा व गोबर के गणेश मान्य
होते हैं वैसे ही खड़ाऊँ भी.
***********************
राम
कथा अन्य ग्रंथों में
‘रामायन सत
कोटि अपारा’ हम व अधिकांश लोग राम कथा को मानस के माध्यम से
जानते हैं, कुछ लोग वाल्मीकि रामायण से भी जानते हैं किन्तु
रामायण केवल यह ही दो नहीं हैं. तीन सौ से अधिक रामायण होने की बात विदित है.
दक्षिण की रामायण व अन्य प्रदेशों की रामायण, विदेश की
रामायण में कथा भेद है. राम वही, घटनाक्रम वही किन्तु कुछ
भेद के साथ. उत्तर भारत में राम का चरित्र प्रधान है, हनुमान
का उल्लेख ऋष्यमूक पर्वत क्षेत्र में राम से भेंट के बाद से है किंतु अन्य
रामायणों में रावण व उसके बन्धु बान्धवों का चरित्र है, हनुमान
का विशद चरित्र है जो मानस के माध्यम से उन्हें जानने वाले हम लोगों के लिए
विस्मयकारी, अविश्वसनीय और कदाचित अस्वीकार्य हो. उदार
दृष्टि से अध्ययन करने पर यह चरित्र खुलते हैं व उन्हें जाना जा सकता है.
इस पोस्ट में हम केवल चरण पादुका
प्रसङ्ग तक ही रहेंगे. उन मूल ग्रन्थों का अध्ययन मैंने नहीं किया किन्तु उन पर
आधारित कुछ स्तरीय उपन्यास पढ़े हैं और कुछ आधुनिक उपन्यास भी जो राम कथा को नवीन
सन्दर्भ में प्रस्तुत करते हैं व्यंग्य
उपन्यास भी हैं.
ऐसा ही एक
विचारप्रधान उपन्यास है भगवान सिंह का ‘अपने अपने राम’ उसमें भी
भरत और चरण पादुका प्रसङ्ग का आधार वही है जो वाल्मीकि रामायण में है, बस उपन्यास होने के कारण विस्तार दिया गया है. उसके अनुसार भी भरत अयोध्या
से ही स्वर्णमण्डित अलंकृत चरण पादुकाएं तैयार करा कर इसी आशय से साथ ले गए थे कि
राम वापसी को मानेंगे तो है नहीं तो इस स्थिति में वे उन पादुकाओं पर चरण रख दें,वे पादुकाएं उनकी मानी जाएंगी और उन्हें ही अयोध्या के राजसिहासन पर
प्रतीक / प्रतिनिधि रूप में प्रतिष्ठित किया जाएगा. ऐसा ही हुआ. तो भरत ने न राम
से उनकी पहनी हुई पादुकाएं मांगी, न उन्होंने दीं. वे
पादुकाएं भरत अयोध्या से साथ ले गए थे. ( उपन्यास के उन पृष्ठों के चित्र पेस्ट हैं.
***
एक
और महत्वपूर्ण उपन्यास है मदनमोहन शर्मा ‘शाही’ का ‘लंकेश्वर’ उसमें भी यह प्रसङ्ग तलाश किया
किन्तु यह रावण का आख्यान अधिक है, इसमें वह प्रसङ्ग न मिला
फिर भी इस उपन्यास की चर्चा इसलिए कर रहा हूँ कि इसमें आप हनुमान का विशद वर्णन देखेंगे जिससे आपको झटका भी लग सकता
है. खोल कर इसलिए नहीं बता रहा हूँ कि जिज्ञासुजन उपन्यास पढ़ें. इसमें यह भी है कि
वनवास की योजना विचार विमर्श करके बनायी गयी, राम की इसमें
सहमति थी. यह उपन्यास लेखक की कल्पना नहीं बल्कि अन्य रामायण पर आधारित है
***
बस एक और उपन्यास
की चर्चा और इस आलेख को विराम. एक व्यंग्य उपन्यास है वयंग्य के सशक्त लेखक
ज्ञान चतुर्वेदी का ‘मरीचिका’
इसमें राम के वन गमन के पस्चात अयोध्या की
राजनीति और रावण को परास्त करने के बाद अयोध्या वापसी के पूर्वाभास को आधार बनाया
है. सावधान ! इसमें राम कथा / धार्मिक भावना न देखें अन्यथा आपकी भावना आहत हो
सकती है. यह व्यंग्य उपन्यास है. इसमें वन गमन के बाद अयोध्या की राज्य व्यवस्था
को ‘पादुकाराज’ की संज्ञा प्रदान की गयी है. भरत तो राज
काज से उदासीन थे, पादुका की आड़ में धूर्त मंत्री, सेनापति आदि अपना स्वार्थ सिद्ध करते हुए अव्यवस्था फैलाए थे. सामान्य
प्रजा त्रस्त होकर राम की वापसी की प्रतीक्षा कर रही थी कि राम आयेंगे, राज्य संभालेंगे, इन दुष्टों को दण्डित करेंगे व
चहुँ ओर पुनः आनन्द होगा, रामराज्य होगा. जहाँ एक ओर प्रजा
में ख़ुशी और आशा थी तो दूसरी ओर उन तत्वों में भय का संचार हो रहा था. भक्ति भाव
किनारे रख दें, उदार होकर पढ़ें, यह
व्यंग्य उपन्यास है पौराणिक नहीं – इस भाव से पढ़ें तो यह
पठनीय उपन्यास है.
सन्दर्भित तीनों
उपन्यास पढ़े जाने चाहिएं.
तो राम कथा उतनी ही नहीं जितनी हम जानते हैं / पचा पाते
हैं.
हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता
No comments:
Post a Comment