एक लड़की है मध्यवर्गीय परिवार की. जैसी आर्थिक स्थिति, वैसी परिवार की सोच. तीन लड़कियां और एक लड़का, कुछ भी लीक से हट कर सोचो भी तो माँ कहती कि जो करना है, अपने घर जाकर करना ! अपने घर यानि ससुराल. बाक़ी दो अपने मन का करने के लिए शादी करके अपने घर चली गयीं, भाई भी शादी करके अलग रहने लगा, रह गयी यह. शायद इसलिए भी कि रंग रूप, शक़्ल साधारण थी, अनाकर्षक की सीमा तक. होते-होते 35 की हो गयी तो रहे सहे रिश्ते आने भी बन्द हो गए. वह एक ऑफिस में काम करती थी. अब उसका सपना एक घर खरीदना और किसी लड़की को गोद लेकर शेष जीवन बिता देना भर था.
एक दिन माँ ने उसे एक रिश्ते के बारे में बताया, प्रस्तावित वर, देवेन्द्र, उनको देखते सम्पन्न था, बस लंगड़ापन था. कहा भी, 'लंगड़ापन ऐसा कोई बड़ा ऐब नहीं है, दो-दो दुकानें उसकी अपनी हैं. अपने छोटे से हीनत्व से पीड़ित वह तुझे हमेशा सिर आँखों पर रखेगा.' वह फफक उठी, रिश्ता आया गया हो गया.
जीवन यूँ ही चल रहा था कि ऑफिस में सिन्हा सरनेमधारी एक व्यक्ति का आगमन हुआ, उसने स्वयं परिचय का हाथ बढ़ाया. फिर तो परिचय प्रगाढ़ होता गया. हर तरफ स्र उपेक्षित वह खिल उठी, बात शादी तक पहुँच गयी. माता-पिता भी सहमत थे. सगाई वगैरह के आयोजन को उसने सादगी व फिजूलखर्ची के नाम पर मना कर दिया. लड़की ने अपनी बचत से एक फ्लैट बुक करा दिया.
वह ख़ुशियों के झूले में झूल रही थी कि एक दिन सिन्हा की एक और से बातचीत सुन ली. दूसरा कह रहा था, 'जिसके साथ कोई चाय पीना पसन्द नहीं करता, उससे शादी करना क्यों स्वीकार कर लिया ? एकदम तालीवाला तो है .' उत्तर में सिन्हा ने जो जो कहा उसका सार यही कि तालीवाला ही सही. उसने शादी करना उसकी नौकरी और मकान के लिए स्वीकार किया. वह मकान ले रही है और हर महीने की तनख़्वाह आती रहेगी.
वह सुन कर बिल्कुल टूट गयी. नौकरी से इस्तीफा दिया, रिश्ता तोड़ कर घर आयी. कुछ बात हुई, वह फफक पड़ी, आवेश में कहा, 'मैं देवेन्द्र से शादी के लिए तैयार हूँ, तुम भानू बेन से कह दो.'
माँ अवाक सी उसकी पीठ को सहलाती रही. कैसे कहें, 'देवेन्द्र की सगाई हो चुकी है, शादी आठ-दस दिन बाद है ... '
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कल, 28 सितम्बर, 2025 को चित्रा मुद्गल की यह कहानी 'हिन्दुस्तान' के रविवासरीय अंक 'फुरसत' में पढ़ी. 'हिन्दुस्तान' हर रविवार इस अंक में 'कादम्बिनी' के पुराने अंकों से कुछ सामग्री प्रकाशित करता है. यह कहानी वर्ष 2002 के अंक में प्रकाशित हुई थी, यानि कहानी 23 वर्ष पुरानी है.
कहानी स्तब्ध कर गयी, इसलिए भी कि लगभग एक चौथाई सदी बाद भी इस मोर्चे पर कुछ खास बदलाव नहीं हुआ जबकि जब कहानी लिखी गयी, तब व पहले तो स्थिति और विकट रही होगी. कहानी में तो लड़की नौकरी कर रही है, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर तो है. वास्तव में तब भी लड़कियों का नौकरी करना कोई अजूबा नहीं रह गया था. उससे पहले की लड़कियों की सोचें जब वे आत्मनिर्भर भी नहीं थीं तब दबे रंग वाली/अनाकर्षक लड़कियों को शादी के मोर्चे पर कितनी दुश्वारी होती होगी, हो गयी तो किसी कमी वाले या दुहाजू वर से और उसमें भी जीवन भर सुनना/दबना पड़ता होगा.
आज भी स्थिति बहुत बदली नहीं है. इस तरह की कमी वाली लड़कियों को आज भी दिक्कते हैं, शादी के मोर्चे पर भी और समाज में भी. अब भी उनसे उनकी कमाई, वेतन के रूप में नियमित आने वाली रकम के लिए शादी होती है. अपवाद भी होंगे ही पर वे अपवाद ही हैं.
ऐसी ही दिक्कतें अकेली, तलाकशुदा या अलग रह रही लड़की के लिए हैं. उनके लिए शब्द है 'परित्यक्ता' यानि जिसे पति ने त्याग दिया हो, भले ही आत्माभिमानी, दृढ़ और आत्मनिर्भर लड़की ने पति को त्यागा हो पर कहलाती वह परित्यक्ता है. लोग उसका फायदा उठाना ही चाहते हैं.
स्थिति से परिचित सब हैं पर साहित्य में यह बात उठने से लड़कियों को एक आवाज़ मिलती है, सम्बल मिलता है कि कोई नितान्त अपरिचित भी उनके लिए आवाज़ उठा रहा है, उन्हें व समाज को सच्चाई दिखा कर सचेत कर रहा है. यही इस व इस जैसी कहानी की सार्थकता है. लोकरंजन, मॉरल, 'जैसे उनके दिन फिरे' जैसा भले ऐसे यथार्थवादी साहित्य में न हो पर यह है वह साहित्य जो समाज का दर्पण है. स्वागत है ऐसे साहित्य का और साहित्यकारों का, प्रकाशकों का, पसन्द करने वाले पाठकों का.
कुछ खटकने वाली बात भी लगी इस कहानी में. एक ओर तो लड़की इतनी मज़बूत किन्तु दूसरी ओर ऐसी भावुक और कमज़ोर कि ज़माना देखे हुए होने पर भी, अपने रंग-रूप से परिचित होते हुए भी सिन्हा जैसे के सामने पिघल गयी. चलो स्वाभाविक सा था, इस तरह के सम्बन्ध से दुत्कारी जाती रह कर प्रेम व प्रस्ताव के पीछे का धूर्त चेहरा न देख सकी मगर ऐसा क्या कि वास्तविकता सामने आने/दिल टूटने पर आवेश में उसी से शादी को तैयार हो गयी जिसे उसकी शारीरिक कमी के चलते ठुकरा चुकी थी.
दूसरे जैसे लोग शारीरिक कमी / अनाकर्षक होने के चलते उसे ठुकरा रहे थे, उसने भी शारीरिक कमी के चलते अन्यथा योग्य लड़के को ठुकराया. ऐसे तो वह भी उसी समाज/मानसिकता की प्रतिनिधि बन गयी जिससे वह पीड़ित थी. दूसरे वह क्या सोचती थी, अब तक क्या वह लड़का अविवाहित बैठा होगा जो उसने उससे शादी की हामी भरी, वो भी सोच विचार कर नहीं, आवेश में. क्या ऐसे लड़के से शादी दिल टूटने पर ही की जाती है. फिर वह समाज व उससे अलग कहाँ हुई जो उससे उसकी कमाई के स्वार्थ में शारीरिक कमी के बावजूद शादी कर रहा रहा था! फिर तो दोनों उसी समाज के प्रतिनिधि हुए, स्वार्थी दोनों हुए, एक कमाई के स्वार्थ में तो दूसरा दिल टूटने के मरहम के रूप में उस पर 'उपकार' कर रहा था.
चित्रा मुद्गल जी स्थापित व वरिष्ठ साहित्यकार हैं, फिर भी लड़की के चरित्र चित्रण की कमज़ोरी लगी मुझे, यह साहित्य के संदेश को कमज़ोर करती है भले ही मानवीय स्वभाव का यथार्थ चित्रण हो. शायद इसीलिए मार्मिक होते हुए भी मुझे लड़की के प्रति उतनी सहानुभूति और सिन्हा के प्रति तीव्र आक्रोश नहीं उत्पन्न हुआ.
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