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Tuesday, 17 June 2025

हनुमान जी का विक्रम नाम !




हनुमान जी का विक्रम नाम !

हनुमान जी के अनेक नाम हैं. महावीर, पवनसुत/पवनपुत्र/मारुतनन्दन, बजरंग बली, मारुति, अञ्जनिसुत/ अञ्जनिपुत्र/आञ्जनेय/अञ्जनिनन्दन आदि सर्वाधिक प्रचलित नाम हैं. महावीर जी कोई कहे तो भी जैन  धर्म के महावीर स्वामी नहीं, हनुमान जी ही ध्यान में आते हैं. अन्य कई देवी-देवताओं की तरह ‘हनुमत सहस्त्र नाम’ भी है जाप के लिए जिसमें हनुमान जी के एक हज़ार नाम हैं. कल ‘रामायण यक क़ाफ़िया’ पढ़ रहा था तो उसमें अशोक वटिका प्रसङ्ग में हनुमान जी का विक्रम नाम पढ़ा. इस रामायण में कई जगह हनुमान जी का उल्लेख विक्रम नाम से है.

                                      हनुमान जी का विक्रम नाम मैंने नहीं सुना था ( बाद में याद आया कि सुना है ), यह प्रचलित भी नहीं. कोई उन्हें विक्रम नाम से स्मरण नहीं करता. जानकारी के लिए कुछ और ग्रंथ देखे, ‘हनुमत सहस्त्र नाम’ भी देखा, उसमें भी विक्रम नाम नहीं मिला. नहीं मिला तो न सही, इसी बहाने ‘हनुमत सहस्त्र नाम’ का जप हो गया.

विक्रम नाम के मिस ‘रामायण यक क़ाफ़िया’ का अशोक वाटिका प्रसङ्ग देखें जिसमें हनुमान जी का विक्रम नाम है –

“ … इतने  में  विक्रम ने  फेंकी राम की अंगुश्तरी ।

        जानकी जी की जुदाई का किया क़िस्सा बयां ॥

        जानकी  हैरां  हुई  अंगुश्तरी  को  देख कर ।

        दिल को अन्देशा हुआ, पैदा हुए वहमो गुमां ॥

        ध्यान था अंगुश्तरी ए राम लाया कौन शख़्स ।

        किस में   ऐसा ज़ोर है,  है कौन ऐसा पहलवां ॥

        विक्रम आये सामने सीता को पाया फ़िक्रमन्द ।

        की  बयां  सहरानवर्दाने  अलम  की    दास्तां ॥ … “

वाटिका उजाड़ने की ख़बर पाकर रावण ने अक्षय कुमार को भेजा और पकड़ कर लाने की ताकीद की. हनुमान जी का विक्रम नाम ही बताया –

“… था अछै, रावन का फ़रज़न्द अहले ताकत अहले ज़ोर ।

       उस  से   रावन  ने   कहा  जा  तू   मियाने  बोस्तां ॥

       हिकमतो तदबीर  से  विक्रम बली को  कैद कर ।

       चश्मे  गुलशन  को दिखा  आइनये  अम्नो अमां ॥ …”

अशोक वाटिका उजाड़ी, अक्षय कुमार को मार गिराया. तब रावण ने मेघनाद को भेजा –

“ … कोह की सूरत पवनसुत ने उखाड़ा एक दरख़्त ।

        फ़ौज को मारा, कुचल डाली अछै की अस्तुख़्वां ॥

        वह  राजा ब्रह्मा की शक्ति  था  बराये  अहले ज़ोर ।

         था   परसधर  का  फरसा,  राम  का  तीरे  रवां ॥

         शंभु का त्रिशूल था, वज्र इन्द्र का, अर्जुन का बान ।

         विष्णु जी  का चक्र, काली जी  की  तेग़े ख़ूंफ़िशां ॥

         था श्री नरसिंह का नाखुन, श्री विक्रम का गुर्ज़ ।

         आतिशे    सोज़ां,   बलाये   आस्मां,   बर्क़े   तपां ॥

         यंशे अक़्रब या दमे अज़दर था या दन्दाने मार ।

         ग़ैरते    ख़र्तूमे    फ़ीलो,    पंजए   शेरे    ज़ियां ॥

         मेघनाथ अपने पिशर को फिर दिया रावन ने हुक्म ।

         जा   के   विक्रम  को   करे   पाबन्द  ज़ंजीरे  गिरां ॥ … “

ऐसे ही कई जगह हनुमान जी के अन्य नामों के साथ विक्रम भी कहा गया है. विक्रम नाम स्मरण करते हुए याद आया कि तुलसीदास जी ने भी हनुमान जी को विक्रम कहा है –

“ महावीर   विक्रम   बजरंगी । कुमति निवार सुमति के संगी ॥

                                                            तो हनुमान जी का एक नाम विक्रम भी था.

                                                  *************

कुछ ‘रामायण यक क़ाफ़िया’ मन्ज़ूमए ‘उफ़ुक़’ के बारे में !

‘रामायण यक क़ाफ़िया’ मन्ज़ूमए ‘उफ़ुक़’ के रचनाकार मलिकुश्शुअरा द्वारका प्रसाद ‘उफ़ुक़’ लखनवी हैं और मूल रूप से यह रचना उर्दू में है. यह वाल्मीकि रामायण व रामचरित मानस पर आधारित है पर अनुवाद न होकर स्वतन्त्र रचना है. यह पहली बार 1885 में प्रकाशित हुई और बाद मे प्रतिष्ठित मुंशी नवल किशोर प्रेस , लखनऊ से 1914 में पुनः प्रकशित हुई. रचनाकार का जन्म लखनऊ के नौबस्ता में 13 जुलाई, 1864 को एक साहित्य सेवी परिवार में हुआ. इनके परदादा, दादा, पिता एवं माता उर्दू के शायर, गद्यकार एवं सम्पादक थे. इन्होंने 1888 से 1894 तक उर्दू पद्य में 12 पृष्ठों का पाक्षिक ‘ नज़्म अख़बार’ प्रकाशित किया व 30 से अधिक पुस्तकों की रचना की. 1913 में आपका निधन हुआ.

मुंशी नवल किशोर प्रेस , लखनऊ से प्रकाशन के बाद अयोध्या शोध संस्थान, संस्कृति विभाग उत्तर प्रदेश ने इसके प्रकाशन का बीड़ा उठाया और यह 2021 में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई. यह द्विभाषी है, एक ओर उर्दू में तथा एक ओर हिन्दी में दिया हुआ है. अन्त में कुछ पेण्टिंग्स भी हैं. हर पृष्ठ पर कठिन शब्दों के अर्थ व अंत में रामायण व रामकथा के पात्र व प्रसङ्गों के बारे में परिशिष्ट भी है.  

Saturday, 14 June 2025

टेलर का लेबल और धोबी का मार्का

 पुलिस को सड़क किनारे झाड़ियों में एक लाश की सूचना मिली. एक आदमी बाईक से कहीं जा रहा था, उसे हल्के होने की ज़रूरत महसूस हुई. बाईक रोकी, सड़क से उतर कर झाड़ियों तक गया. निवृत होकर चेन बन्द कर रहा था कि एक पैर दिखा, झाड़ी के अन्दर तक घुसने पर पूरी लाश दिखी. ज़िम्मेदार नागरिक था सो पुलिस को फोन किया और पुलिस आने तक वहीं रुका भी रहा. लाश करीब चालीस साल के आदमी की थी. हत्या किसी धारदार चीज़ से गला रेत कर की गयी थी. हत्या कहीं और की गयी, लाश वहाँ लाकर फेंकी गयी क्योंकि न खून बिखरा था, न संघर्ष के कोई चिन्ह थे और न मर्डर वेपन बरामद हुआ. पहचान के लिए मोबाईल, पर्स या कोई कार्ड, कोई कागज, बिल, रसीद, कोई टैटू/गोदना, कोई बर्थ मार्क, घड़ी आदि कुछ न था. चप्पल, कपड़े साधारण थे, जेब में रुमाल, कुछ नोट और सिक्के मिले - उनसे पहचान में कोई मदद होनी न थी. लाश की फोटो, चेहरे का क्लोज अप लिया गया, लाश पोस्टमार्टम के लिए भिजवायी गयी और क्लोज अप के पोस्टर जगह जगह चस्पा कर दिए गए. फोटो दिखा कर आस पास पूछताछ की गयी पर पहचान न हुई और न ही किसी ने पोस्टर देख कर सम्पर्क किया. आस पास के थानों में भी किसी चालीस साल के आस पास के आदमी की गुमशुदगी की रिपोर्ट हुई थी, न इस थाने में.

ऐसे में लाश की पहचान नहीं हो पा रही थी तब पुलिस को उसके कपड़ों का ख़याल आया. शर्ट पर दर्ज़ी का लेबल लगा था जिस पर टेलर का नाम (दुकान का नहीं ) और इलाके व शहर का नाम लिखा था. इतने सुराग के सहारे पुलिस उसकी शिनाख़्त के लिए निकली. लेबल पर दर्ज़ शहर का वह इलाका तो जैसे दर्ज़ीबाड़ा था, लाईन से टेलर ही टेलर थे (है ना आश्चर्यजनक इलाका ) कुछ दुकानों पर पूछताछ के बाद पुलिस को अहसास हुआ कि यह तो बड़ा टाईमखाऊ और ऊबाऊ तरीका है. तब उन्होंने इलाके बड़े और अच्छे टेलर, मंझोले टेलर, छोटे टेलर और घफ से काम करने वाले टेलर के अनुसार बांटा (एक और संयोग, पुलिस की सुविधा के लिए उस इलाके में टेलर इसी तरह बसे थे, एक उप इलाके में एक स्तर के टेलर ) यह तरीका कारगर रहा और एक छोटे टेलर की दुकान से पता चला कि मोहन टेलर (लेबल पर यही नाम था ) घर से काम करता है. पुलिस वहाँ पहुँची तो मोहन ने शर्ट अपने यहाँ से सिली होने को स्वीकारा और लेबल पर लिखे नम्बर से रसीद बुक देख कर बताया कि यह कोई रेगुलर ग्राहक नहीं. पहली बार आया, इसका नाम-पता, फोन नम्बर भी रसीद पर नहीं लिखा. टेलर तक पहुँचने के बाद भी कोई सूत्र न मिलने पर नाम-पता न लिखने की लापरवाही के लिए समुचित फटकार लगायी. वे जाने को ही थे कि एक पुलिसिए की नज़र लेबल पर लगे काले निशान पर पड़ी. मोहन से पूछने पर उसने कहा कि वह ऐसा कोई निशान नहीं लगाता, ऐसे निशान धोबी लगाते हैं तो यह किसी धोबी का निशान हो सकता है. इस बार टेलर जैसी कवायद की ज़रूरत न थी क्योंकि जब शर्ट घर से काम करने वाले टेलर से सिलवायी तो धुलवायी भी किसी ऐसे ही धोबी से होगी, किसी लाण्ड्री से नहीं. थोड़ी ही पूछताछ के बाद घर से काम करने वाली धोबन का पता चला जिसने अपना निशान पहचाना. यह तो रसीद या रजिस्टर वगैरह भी न रखती थी पर पुलिस की सुविधा के लिए इस ग्राहक का नाम और घर मालूम था. फोटो देख कर भी उसने पहचाना कि इसी आदमी ने यह शर्ट धोने को दी थी. अब पुलिस के पास उसकी पुख़्ता पहचान थी, बस कत़्ल का उद्देश्य, कात़िल और कत़्ल कहाँ और कैसे हुआ, अकेले किया या और लोग भी शामिल थे ... जैसे काम थे.  

*****

उन्हें आगे का काम करने दें, हम-आप टेलर के लेबल और धोबी के मार्के पर बात करें. जो न जान पाए हों उन्हें बता दूँ कि यह एक अपराध सीरियल 'क्राईम पट्रोल' के एक एपिसोड का सीन है. इसमें टेलर के लेबल और उस पर धोबी के मार्के जैसे सूत्र से लाश की शिनाख़्त हुई. वैसे अब का समय हो, घटनास्थल कोई शहर हो तो यह सूत्र काम ही न करेंगे, बल्कि मिलेंगे ही नहीं. पहले जिस स्तर का भी आदमी हो, अधिकांश लोग स्थानीय टेलर से सिलवाए कपड़े ही पहनते थे, अब तो दशक से ऊपर हुआ, लोग रेडीमेड ही पहनते हैं. जब से तमाम ब्राण्ड्स आ गये, हर जगह छोटे-बड़े ब्राण्ड्स के आउटलेट खुल गये, पहले ही दिन से 40% से 60% या अधिक छूट, दो के साथ चार फ्री के ऑफर आये, मॉल की बहुतायत हुई ... बहुतेरे परम्परागत लोग भी रेडीमेड पहनने लगे. सिलाना महँगा पड़ता है और प्रतीक्षा भी करनी होती है. कई बार तो सिलाई के दाम में सिली सिलाई शर्ट मिल जाती है तो अब किसी की शर्ट पर टेलर का लेबल पाये जाने की सम्भावना अति क्षीण है. तो यह सूत्र तो गया हाथ से !
रेडीमेड का वर्चस्व बढ़ने पर भी लोग सूट, कोट, सदरी, शेरवानी आदि टेलर से सिलवायी हुई ही पहनते थे. शादी में सूट तो ज़रूर ही 'अपने' टेलर से सिलवाते थे, दो बार तो ट्रायल होता था, तीसरी बार में फाईनल होकर मिलता था तो सीधे शादी या रिसेप्शन पर पहना जाता था. रेडीमेड के दौर में भी जेन्ट्स टेलर की वकत थी. वे लेबल तो लगाते थे मगर सीरियलों में लाश की शिनाख़्त के सिलसिले में इन पर टेलर के लेबल का कोई स्कोप नहीं है, काहे से कि सूट, शेरवानी आदि में मर्डर होते ही नहीं. वैसे तो मर्डर के लिए कोई ड्रेस कोड नहीं होता मगर सीरियलों में मर्डर साधारण कपड़ों में ही होता है. क्यों महँगे सूट, शेरवानी को खून और चाकू/गोली वगैरह के निशान से खराब किया जाय, कास्ट्यूम किराए पर आते हैं, वापस भी न होंगे. वैसे अब सूट, सदरी, शेरवानी भी शादी तक में लोग रेडीमेड पहनने लगे हैं.
तो आज के कालखण्ड वाला सीरियल हो तो लाश की शिनाख़्त के लिए टेलर का लेबल आप्रसङ्गिक है, होगा ही नहीं कपड़ों पर. रेडीमेड पर जो लेबल होता है उससे बस ब्राण्ड, कपड़े की किस्म, मिश्रण अनुपात और धुलाई निर्देश आदि पता चलते हैं, कील ठोक कर दुकान का नाम नहीं.

अब आते हैं धोबी के मार्का पर. टेलर के लेबल की तरह आज के दौर में यह भी आप्रसङ्गिक है. हतप्राण ग़रीब हुआ तो हाथ से बालटी/टब में कपड़े धोता होगा. मध्यवर्गीय गृहस्थ हुआ तो घर पर वॉशिंग मशीन होगी. लाण्ड्री से धुलाता होगा तो अब लाण्ड्री वाले मार्का लगाते ही नहीं. नम्बर वगैरह कपड़े पर नहीं लिखते बल्कि पतले बकरम के टुकड़े पर लिख कर कपड़े के साथ कच्चे धागे से नत्थी कर देते हैं जिसे कपड़ा देते समय खोल कर फेंक देते हैं. घर से काम करने वाले धोबी भी अब नहीं लगाते, वैसे भी अब धुलाई का काम एक चौथाई ही रह गया है, प्रेस करने का काम होता है और प्रेस के लिए आये कपड़े पर भी कोई मार्का नहीं लगाते. तो शिनाख़्त का और कोई ज़रिया न होने पर धोबी का मार्का वाला सूत्र भी गया.

अब सीरियल में पुलिस की सुविधा के लिए अदबदा कर कोई शर्ट टेलर से सिलवाए, मार्का लगाने वाले धोबी से धुलाए तो बात और है.
अब उन्हें लाश के पास से मोबाईल, पर्स या कोई कार्ड, कोई कागज, बिल, रसीद, कोई टैटू/गोदना, कोई बर्थ मार्क, घड़ी आदि बरामद न हो तो कोई और तरीका दिखायें, ये टेलर का लेबल और धोबी का मार्का अब हजम न होगा.

बात हो ही रही है तो इस पर भी हो जाय कि टेलर लेबल और धोबी मार्का क्यों लगाते होंगे. इसलिए तो नही ही लगाते होंगे कि किसी का खून हो, शिनाख़्त का कोई और पुख़्ता ज़रिया न हो तो इन्ही से शिनाख़्त हो जाय. टेलर तो अपनी दुकान की पहचान, विज्ञापन व इसलिए लगाते होंगे कि ग्राहक के कपड़े देख कर कोई पूछे, 'बड़ी बढ़िया फिटिंग है, कहाँ से सिलवाई ?' तो ग्राहक नाम-पता बता सके. मगर इन सबमें लेबल का तो कोई रोल है ही नहीं. ग्राहक बिना लेबल देखे ही बतायेगा कि शर्ट उतार कर लेबल देख कर/कॉलर पलट कर लेबल दिखाएगा ? लेबल बहुधा ऐसी जगह होता है जो सामने न दिखे, शर्ट में कॉलर के नीचे और पैण्ट में जिप के पास. तो विज्ञापन वाला उद्देश्य भी नहीं, फिर क्यों ? एक उपयोगिता समझ में आती है. बड़े और मंझोले टेलर सारा काम ख़ुद या दुकान के कारीगरों से नहीं सिलवाते. वे नाप लेकर, कपड़ा कटिंग करके घर से काम करने वाले दर्ज़ियों को देते हैं, वह सिल कर देता है. अब उसके पास कई टेलरों का काम आता है तो पहचान के लिए /कपड़े आपस में गबड़ न जाएं, हर टेलर अपना लेबल भी देता है जिसे वह दर्ज़ी उसके कपड़ों पर लगाता है - दोनों को सुविधा. और कोई कारण तो समझ आता नहीं लेबल लगाने का. पुलिस/प्रशासन ने भी अनिवार्य नहीं किया है लेबल लगाना.

ऐसे ही धोबी के मार्का का है. वह तो निश्चित ही ग्राहक की पहचान के लिए, कि किसका कपड़ा धुलने को आया है, मार्का लगाता है. चूंकि बहुत से ग्राहक नियमित रूप से धोबी से ही कपड़े धुलाते हैं. अब हर दूसरे दिन या हफ्ते कपड़ा आये तो हर बार नया तो होगा नहीं. ऐसे हर बार मार्का लगाते रहे तो कुछ ही माह में कपड़े की उस जगह, जहाँ मार्का लगाते हों, जगह ही न बचती होगी तो उन्होंने अलग चिट पर लिख कर नत्थी करना या कोई वैकल्पिक तरीका शुरू किया.

अब आप बताएं - क्या आप टेलर से सिलवा कर पहनते हैं या रेडीमेड और क्यों ? शिफ्ट हुए तो क्यों, नहीं हुए तो क्यों ? कपड़े धोबी से/लाण्ड्री से धुलवाते हैं ? यह मार्का लगाने वाली प्रथा कबसे शुरू हुई होगी ? क्या त्रेता में वह धोबी, जिसने सीता जी के बारे में वह बात कही, कपड़ों पर मार्का लगाता होगा ?
प्रश्न और भी होंगे - करिए और जवाब दीजिए ! वैसे भी यह पोस्ट 'निठल्ला चिंतन' है, खलिहर हों तो, खलिहर नहीं पर खुरपेंची हों तो समय निकाल कर कुछ कहें. 


Vivek Shukla and 13 others

Tuesday, 4 March 2025

बूट ( हरा चना ) व काका हाथरसी की कविता ‘चना-चीत्कार’

 बूट ( हरा चना ) व काका हाथरसी की कविता ‘चना-चीत्कार’

पिछले दिनों लाये - हरा चना ! वैसे इसे बूट भी कहते हैं. कच्चे और कोमल हरे चने का स्वाद ही और होता है.

चना के पौधों में जब  बूटे (फलियां) नहीं आये होते हैं, पत्तियां कोमल होती हैं, डंठल कड़े नहीं हुए होते, तब इसे साग के रूप में लहसुन-मिर्चा के नमक के साथ कच्चा खाते हैं. खट्टा सा स्वाद होता है. बचपन में छत पर घमाते हुए खूब चने का साग खाया. हमारे बचपन में चना का साग खूब बिकने आता था, निकटवर्ती गाँवों से लोग डलिया में या साईकिल पर रख कर बेचने आते थे, बाज़ार में सब्ज़ी वालों के पास तो मिल ही जाता था. अब साग कभी दिख गया तो दिख गया.

इन्हीं पौधों में बूटे जाने पर उसे बूट कहते हैं. इसके हरे चने खाये जाते  हैं. पॉश इलाकों में तो यह शायद ही मिलता हो, गाँव से लगी बाज़ारों, सब्ज़ी मण्डी आदि में मिल जाता है. हमारी तरफ, जानकीपुरम में, खूब मिलता है. इधर कुछ सालों से इसे छील कर हरे चने बेचने का चलन भी है. परिवर्तन चौक वाले हिस्से के पास पुल के फुटपाथ पर कई दुकानें हैं जिनमें हरा चना मिलता है. जिनके पास छीलने का समय नहीं या घर ले जाकर छीलने का झञ्झट नहीं करना चाहते किन्तु खाना चाहते हैं, वे इन्हें ले सकते हैं. हम तो सीजन में कम से कम एक बार तो लाते ही हैं मगर हम छिले हुए नहीं बल्कि बूट ( पत्तों, डण्ठल समेत. झाड़ – जिसकी फोटो लगायी है) लाते हैं. हमें तो आनन्द छील कर खाने में आता है.

इसके थोड़ा सूखने पर बूटे व उसमें के चने कड़े होने लगते हैं तब इसे आग में भून कर खाते हैं जिसे होरा/होरहा कहते हैं. शहरों में प्रथम दो अवस्थाओं में तो मिल भी जाता है, होरा दुर्लभ सा ही है.  लौड़ी तैनाती के दौरान खूब होरा खाया. होरा पार्टी होती थी जिसमें होरा के साथ अन्य ग्रामीण व्यञ्जन होते थे.

बूट खाते हुए बचपन में पढ़ी काका हाथरसी की कविता ‘चना-चीत्कार’ याद हो आयी. उसमें अन्नकूट दरबार लगा, सभी अनाजों के बाद चने ने अपनी व्यथा सुनायी. इतने मज़ेदार – चटपटे और मीठे व्यञ्जन कि प्रभु के मुहँ में भी पानी आ गया. कविता है ही इतनी मज़ेदार कि उसका कथ्य और आंशिक रूप से अब तक याद है. अब पूरी तो याद नहीं और वह किताब है नहीं तो नेट की शरण में गया. कविता तो मिल गयी किंतु कहीँ-कहीं वर्तनी से लेकर अन्य अशुद्धियां थीं, कुछ शब्द मिसिंग थे तो कुछ दूसरे ही थे जिनकी संगती कविता से नहीं बैठ रही थी. यथामति सुधार करने के उपरान्त प्रस्तुत कर रहा हूँ. कुछ अशुद्धि हो और जिन्होंने कविता पढ़ी हो और सही याद हो या किताब हो – कृपया सुधार बता दें, पोस्ट में संशोधन कर दूँगा. फिलहाल, जैसी है, आनन्द लें ‘चना-चीत्कार’ का.



अन्नकूट के दिन  लगा,  दीनबन्धु  दरबार,

अन्नदेव  क्यू मे लगे,  मूंग, बाजरा, ज्वार।

मूंग, बाजरा, ज्वार, चना, जौ, अरहर, मक्का

चावल घायल हो गया, दिया गेहूँ ने  धक्का।

मोठ  हुई  घायल,  उरद जी  बचकर भागे,

चटर्-पटर कर  मटर  बढ़ गयी सबसे आगे।

 

सभी केस  सैटिल हुए,  रहा एक ही शेष,

कृपसिंधु ने अंत में,  लिया चने का केस।

लिया चने का केस,  बिचारा खड़ा रो रहा,

भगवन ! मुझ पर भारी अत्याचार हो रहा।

बड़े-बड़े  ग्यानी-ध्यानी  भी  मुझे  सताते,

काट-पीस कर अलग-अलग व्यञ्जन बनाते।

 

इंसान की तो क्या  चली, नहीं बचे हैं  आप,

चने बने व्यञ्जन  प्रभु, खा जाते  चुपचाप।

खा जाते  चुपचाप,   सलोना  सोहनहलुआ,

दालसेव,  नुकती,  ढोली,  बेसन के लडुआ।

होले – छोले - सत्तू   परावठे   मिस्से,

रक्षक ही भक्षक हैं,फरियाद करूँ फिर किससे ?

 

मेरा बुरा है हाल,  दिया चक्की मे  डाल,

फिर पीसा मुझे तो, बनी  चने की  दाल।

बनी चने की दाल, फिर से  मुझको पीसा,

पीड़ा से  चिल्लाया, मिमियाया बकरी सा।

फिर भी  बेदर्दी इंसान को  दया न आयी,

गरम तेल में  तला, पकौड़े कुगत बनायी।

 

मुझे  भाड़ में  भून कर  चिल्लाते  मक्कार,

चने   खाईये   कुरमुरे,   गरम  मसालेदार।

गरम  मसालेदार  प्रभु  सुधि  भूले  तन की,

सुनी करुण यह कथा, लार टपकी भगवन की।

छोड़  यह मीठी  बातें, स्वाद आ रहा  मुझको,

भाग यहाँ  से  अन्यथा  खा जाऊँगा  तुझको।