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Saturday 20 April 2024

शहतूत

हमारी तरफ




 डिवाईडर पर कई पेड़ हैं शहतूत के. ऐसे तो शहतूत के पेड़ नहीं पहचानता मगर डिवाईडर पर बहुत से शहतूत गिरे होते हैं. शहतूत को पहचानता हूँ तो यह पक्का है कि पेड़ शहतूत का ही है. शहतूत गिरे हुए देखने पर अब यह भी पता है कि फला-फलां पेड़ शहतूत का है. डिवाईडर पर और उसके एक तरफ सब्जी बिकती है. कोई ध्यान ही नहीं देता, कोई बटोरता नहीं. गिर कर जो डिवाईडर पर गिरे वे बुहार कर फेंक दिए गये और जो सड़क पर गिरे वे पिच्चा हो गये. गिर कर सूख जाना और बुहार कर फेंक दिये जाना या सड़क पर गिर कर पिच्चा हो जाना, लाल फिर काले धब्बे छोड़ जाना ही इन बेचारों की नियति है. शहतूत को इस तरह पिच्चा होते देख बरबस ही शबीर हका की कविता याद आती है, पढ़ी होगी आपने भी –

 

क्या आपने कभी शहतूत देखा है
जहां गिरता हैउतनी ज़मीन पर 
उसके लाल रस का धब्बा पड़ जाता है
गिरने से ज़्यादा पीड़ादायी कुछ नहीं
मैंने कितने मज़दूरों को देखा है 
इमारतों से गिरते हुए
गिरकर शहतूत बन जाते हुए

 

ऐसे गिर कर पड़े रहते हैं कि गिरे-पड़े वाला मुहावरा लागू होता है इन पर. जाने क्यों कोई इन्हें बटोरता नहीं, न सही बेचने के लिए तो खाने के लिए ही बटोर ले. मेरा मन होता है कि डिवाईडर वाले बटोर लूँ मगर 'सबसे बड़ा रोग, क्या कहेंगे लोग' हावी हो जाता है. देखता हूँ और मन मसोस कर रह जाता हूँ. वो स्वाद याद आता है मीठे शहतूत का. इतने मीठे कि उंगलियां और होंठ चिपचिपाने लगें. शहतूत में औषधीय गुण भी होंगे, आजकल तो हर वनस्पति के औषधीय गुण रेखांकित करने का चलन है किंतु मुझे तो मिठास के कारण ही भाता है.

 

मन मसोस कर इसलिए रह जाता हूँ कि अब शहतूत बिकने आता नहीं. पहले तो खूब आता था, पुरानो मोहल्लों में शायद अब भी आता हो पर कॉलोनियों में तो आता नहीं. सजी-धजी, अभिजात्य दुकानों में भी शहतूत नहीं दिखता. यह बारहमासी फल तो है नहीं, मौसमी और अब की मानसिकता में गँवई फल है. सेव, अनार, संतरा, आम, किवी, केला ड्रैगन फ्रूट (इसे कमलम भी नाम दिया गया पर प्रचलित न हो सका )आदि की तरह इसे फल का दर्ज़ा प्राप्त नहीं हो सका. शहतूत ही क्यों, इसी तरह सिंगड़ी ( जंगल जलेबी ), खिन्नी, फालसा, और बहुत कुछ कैथा और कमरख भी इसी तरह के फल हैं जो ‘मान्य फलों’ की श्रेणी से बाहर हो जाने के कारण नहीं दिखते. कैथा-कमरख तो स्कूलों के बाहर या चूरन वालों के पास मिल भी जाते हैं पर शहतूत नहीं दिखता.  

 

पहले जब आता था तो ठेलों पर या झौवों में बिकने आता था. फेरीवाले इसे आवाज़ लगा कर बेचते थे. हरे शहतूत के अलावा काला शहतूत भी आता था. काला शहतूत हरे की अपेक्षा छोटा और खूब गठा हुआ, स्वाद में कुछ खट्टा सा होता है. तब दोने में मिलता था, फिर कागज पर रख कर दिया जाने लगा. मेरे एक मित्र के घर के बाहर भी शहतूत का पेड़ है, उसमें भी खूब शहतूत आते हैं और गिर कर पिच्चा होने की गति को प्राप्त होते हैं. उनके घर में ही ATM भी है तो जब कभीं शहतूत के सीजन में जाना होता है तो देखता हूँ. वे भी शायद शहतूत तोड़ते न होंगे. आपने कब से नहीं खाये शहतूत !

 

शहतूत पर एक किस्सा सुना लूँ तो चलूँ. एक बार एक बादशाह, मान लीजिए कि अकबर, का सैर करते या शिकार के दौरान एक गाँव से गुज़रना हुआ. थके थे सो एक पेड़ के नीचे बैठे, वह पेड़ शहतूत का था. वह गाँव  बुद्धिमानों / हाज़िरजवाब लोगों के गाँव के नाम से बजता था. कुछ बच्चों ने शहतूत खाने का न्योता दिया, कुबूल करने पर पूछा, “ठण्डे खायेंगे कि गरम ?” अब वे चक्कर में पड़े कि शहतूत ठण्डे और गरम कैसे ! पूछने पर लड़कों ने कहा, “खाकर देखिये” पेड़ के नीचे एक चादर बिछा दी और ऊपर चढ़ कर शहतूत तोड़ कर गिराने लगे, बादशाह उठा कर खाने लगे. थोड़ी देर बाद बच्चों ने कहा कि यह थे ठण्डे शहतूत, अब गरम खाईये. उन्होंने चादर हटा दी तो शहतूत ज़मीन पर गिरने लगे. अब बादशाह का जी न भरा था, उन्हें और खाना था मगर ज़मीन पर गिरने से उनमें मिट्टी लग गयी थी सो हाथ से झाड़ कर, फूंक-फूंक कर खाने लगे. शहतूत वैसे ही थे जैसे ‘ठण्डे’ वाले खाये थे. पूछा कि यह तो वैसे ही हैं, तुम तो कह रहे थे कि गरम हैं ? बच्चों ने कहा कि गरम हैं तभी तो आप फूंक – फूंक कर, ठण्डे कर के खा रहे हैं. बच्चों की हाज़िरजवाबी पर बादशाह दंग रह गये, ख़ुश भी हुए और जी भर ठण्डे शहतूत खाये.

                            

                       वे तब के राजा थे, प्रजा से घुलने – मिलने में यकीन रखने वाले. आज के राजा होते तो ऐसे सहज भाव से, पेड़ के नीचे बैठ कर व अपने आप ज़मीन या चादर से उठा कर खाते, बच्चे भी उनके पास न फटक पाते ऐसी चुहुल की बात तो दूर. हाँ चुनाव के दिन चल रहे होते तो बादशाह सलामत ऐसे शहतूत खाते और फोटो / वीडियो भी शूट कराते, तमाम चैनल वाले होते जो राजा की सरलता का अगले स्टण्ट तक खूब प्रसारण करते. खैर, छोड़िए तब और अब के राजाओं को, मिल जाएँ तो शहतूत खाईये.  

 

Wednesday 10 April 2024

पुस्तक चर्चाः गूँगी रुलाई का कोरस


पुस्तक चर्चाः गूँगी रुलाई का कोरस


किताब के बारे में कुछ बताऊँ इससे बेहतर किताब के एक अध्याय को संक्षेप में प्रस्तुत कर देता हूँ , यह अंश किताब की विषय-वस्तु को बेहतर ढंग से बताएगा.
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हुदूदे-जात से बाहर निकल के देख ज़रा,
कोई  ग़ैर,  कोई  रक़ीब लगता है॥
- सौदा


ड्राईंग रूम में कमोल और कालिन्दी बहुत देर से अकेले बैठे थे कि सामने के दरवाज़े से गुप्ता साहब और अन्दर की ओर से अब्बू एक साथ तशरीफ़ लाये. जाने अब्बू को कैसे इल्म हुआ कि कमोल और कालिन्दी वहाँ बहुत देर से अकेले हैं और यह तनहाई गुप्ता को खटक सकती है.

अध्याय पोस्ट के हिसाब से लम्बा है सो संक्षेप करने की नियत से बता दूँ कि कमोल बाउल परम्परा का निष्णात गायक है और अब्बू  जोगी परम्परा के विख्यात गायक, उस्ताद ख़ुर्शीद शाह जोगी, हैं. कमोल उनका जामाता है और पूरा घराना ही विख्यात संगीतज्ञों का है. कमोल के पिता, मदन बाउल, भी बाउल परम्परा के गायक हैं. अब्बू के घर का नाममौसिक़ी-मंज़िल’, जो अबउस्ताद महताबुद्दीन ख़ान संगीत आश्रमहै जहाँ तमाम यतीम बच्चों को आश्रम परम्परा के अनुसार संगीत शिक्षा और कम्प्यूटर सहित अकादमिक शिक्षा भी दी जाती है. कमोल और कालिन्दी में प्रेम और विवाह होते-होते रह गया जिसकी कसक कालिन्दी में है. कालिन्दी का विवाह गुप्ता जी से हुआ जो एक घाघ व्यापारी हैं, ‘सुआर्यन कम्प्यूटर ट्रेनिंग अकादमीके मालिक हैं जिसकी शाखाएं देश भर में हैं. गुप्ता जीराष्ट्रवादीधर्म और हिन्दुत्व के रक्षक भी हैं. वे अन्य दूरगामी व्यावसायिक उद्देश्यों से पधारे, पूर्वपीठिका के रूप में आश्रम के बच्चों में से कुछ को अपनी अकादमी में फ्री ट्रेनिंग का प्रस्ताव लेकर पधारे.

“ … बात कालिन्दी नें आगे बढ़ाई कि बिजनेस अपनी जगह ठीक ही है, किन्तु हम भी आप लोगों की तरह कुछ पुण्य कमाना चाहते हैं. आश्रम के इन यतीम बच्चों में से सीनियर्स को फ्री कम्प्यूटर ट्रेनिंग देना चाहते हैं ताकि कल इन्हें अपने पैरों पर खड़े होने में थोड़ी मदद मिल सकेलेकिन


कालिन्दी का यहलेकिनथोड़ा ज़्यादा ही लम्बा खिंच गया तो गुप्ता नें बात की डोर थाम ली, कि एक ट्रस्ट जो हमारी एकेडमी को संचालित करता है वह थोड़ा धार्मिक किसम का है. क्षमा चाहूँगा कि हम आप लोगों की तरह विशाल ह्रदय-उदार लोग नहीं हैं. हमारे ट्रस्ट के नियम-कायदे थोड़े बँधे-बँधे से हैं. अब कैसे कहूँहमारी शर्त आप लोगों को थोड़ी छोटी-हल्की लग सकती हैलेकिन हम अपने ही धर्म के बच्चों को एडमिशन देते हैं और फ्री ट्रेनिंग भी उन्हें ही देनें की शर्त से हम बँधे हैं.

ड्राइंग रूम में एकदम सन्नाटा छा गयाअब्बू की तो जैसे साँसें रुक गई हों. कितना बेशर्म था यह शख़्सइसके चेहरे पर तो पश्चाताप का कोई निशान भी नहीं था
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“ … मैनें तो कालिन्दी को पहले ही कहा था कि ट्रस्ट की शर्तें आप लोगों को पसन्द नहीं आएंगी लेकिन इसे ही पुण्य कमाने की बड़ी हड़बड़ी थी. क्षमा कीजिएगा ! हमारा उद्देश्य आप लोगों के ह्रदय को पीड़ा पहुँचाने का कदापि नहीं था. उस बात को भूल जाइएकुछ दूसरी बात करते हैंख़ुर्शीद साहबआप मुसलमान होकर गेरुआ वस्त्र क्यों पहनते हैं ?


ख़ुर्शीद साहब … ? कमोल क्यालगा पूरा आश्रम ही चौंक पड़ा हो. अब्बू को आज तक किसी ने इस तरह नाम से पुकारा हो, कमोल को याद नही रहा था. मौसीक़ी की दुनिया में वे उस्ताद जोगी साहब के नाम से जाने जाते थे


लेकिन गुप्ता का सवाल दरअसल बदले हुए माहौल का सवाल था जो हज़ार हज़ार बार अलग-अलग जगह जोगियों को घेरकर पूछा जा रहा था. अब्बू को सब ख़बर थी फिर भी वैसे ही मुस्कुराते हुए मुख़ातिब हुए, “ लगता है, अपने मुल्क और पाक कल्चर की रवायतों से आप पूरी तरफ वाक़िफ़ नहीं हैं बरख़ुरदार. हम जोगी हैंऔर बेटा कमोल, बाउल. जोगी और बाउल हिन्दू होते हैं मुसलमाँ. वे बस जोगी और बाउल ही होते हैं. हम जोगियों के गुरु गोरखनाथ और दादा मछ्न्दरनाथ नें पूजा करने से मना किया और नमाज पढ़ने से. वही सीख बाउलों को लालन शाह फ़क़ीर ने दी

अब आप ही तय कर दिजिए कि हम अपने गुरु गोरखनाथ की रवायत का गेरुआ बाना पहनें कि नहींअपना इकतारा बजाते भरथरी के गीत के साथ सुरसती-शिव-विष्णु के भजन गायें कि नहीं ? … सुरों पर सवारी कर मौला को पुकारें कि नहीं… “


और बातें भी कहीं मगर उनका असर गुप्ता ( इस मानसिकता के लोगों) पर हुआ, अब्बू, कमोल और इन जैसों पर. इस अध्याय का अंत यही हुआ कि गुप्ता एकेडमी के उद्घाटन का कार्ड थमा कर आने की औपचारिक प्रार्थना करके चल दिए.
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यह एक अध्याय है जिससे किताब की विषय-वस्तु स्पष्ट हो जाती है. संगीत को समर्पित एक घराने की कथा है जो धर्म- समुदाय आदि से परे बस इन्सानियत और संगीत में लीन है तो दूसरी तरफ सभी जगह माहौल बदल रहा है. लोग उनमें कलाकार नहीं हिन्दू-मुसलमान देख रहे हैं. आग दुहू घर लागी है. कुछ हिन्दू और कट्टर हिन्दू हो रहे तो मुसलमान भी और कट्टर होते जा रहे. उन्हे पसन्द नहीं कि मुसलमान हमारे रामकृष्ण के गीत गाये, हमारी राग-रागिनियाँ गाये तो मुसलमानों को भी यह नहीं पसन्द, बल्कि कट्टर को तो मुसलमान का गाना-बजाना-नाचना भी गवारा नहीं. यह कट्टरता जान लेकर भी खतम नही होती. घराने के अधिकांश लोग मॉब लिंचिंग में मारे जाते हैं. अब जो हमसे सहमत नहीं या जिसे हम नहीं चाहतेउसे जीवित रहने का अधिकार नहीं, हम विचार की नहीं उसकी हत्या कर देंगे. कुछ की हत्या होगी ति बाक़ी ऐसे ही सहम कर पाँव खींच लेंगे.

जो स्थिति अब हो रही है, उसका चित्रण इस घराने के माध्यम से किया है.कथा इतिहास और कल्पना का मिश्रण है. भाषा-शैली प्रवाही और प्रभावी है और इससे भी बढ़कर है कि संगीत घराने की दारुण कथा कहने में संगीत परिवेश को अच्छी तरह उभारा है. लगता है हम संगीत गाथा ही पढ़ रहे हैं. राग-रागिनियों, रियाज़, परम्परा, संगीत सम्मेलनसब ऐसा कि मानों संगीत सभा में हों या उस घराने में रह कर सब देख-सुन रहे हों. हर अध्याय के पूर्व किसी शायर, कवि या चिन्तक की पंक्तियां जो अध्याय का सार बताती हैं. संगीत तो है किन्तु मुख्य स्वर बदलता परिवेश, फिज़ा में घुलता ज़हर और असहमति के स्वर के साथ उस स्वर को उठाने वाले को ही खत्म कर देने की प्रवृत्तिबहुत हद इस प्रवृत्ति को बहुसंख्यक, शासन, सत्ता और व्यवस्था का कहीं खुला तो कहीं मौन समर्थन. संवेदनशील विषय को उठाती प्रभावी किताब है.

किताब शोधपरक है, इतिहासाधारित है किन्तु बोझिल नहीं. झकझोरने वाली किताब है.
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किताबः गूँगी रुलाई का कोरस
लेखकः रणेन्द्र
विधाः उपन्यास
प्रकाशकः राजकमल पेपरबैक्स
प्रकाशन वर्षः  2021, पहला संस्करण