आठ आना
कल यू ट्यूब पर एक शॉर्ट फ़िल्म देखी, “आठ आना’’ करीब 16 मिनट की फ़िल्म है और आज के व्हाट्स ऐपिया साहित्यकारों का सटीक आकलन करती है, वैसे फ़िल्म उस समय को दिखाती है जब व्हाट्सऐप तो क्या, मोबाईल भी नहीं थे और गाँवों मे चिट्ठी आने में भी महीनों लग जाते थे.
1980 के दौर का, एक गाँव का स्कूल है जिसमें तीन अध्यापक हैं और प्रधानाचार्या. मद्रास युनिवर्सिटी से डिग्री पूरी करके एक 26 वर्षीय नौजवान, सतीश साहू, की गणित अध्यापक़ के पद पर नियुक्ति होती है. स्टाफ रूम में सतीश आता है तो एक अध्यापक उसका परिचय वहाँ प्हले से मौजूद, विज्ञान विषय के अध्यापक, धनञ्जय से परिचय कराते हैं तब तक एक अन्य अध्यापक, निर्मल ओझा जी – हिन्दी विषय के अध्यापक आते हैं, उनसे भी परिचय होता है. धनञ्जय जी सबसे अधिक वय के हैं व ओझा जी मध्य वय के. ओझा जी सतीश के आने से ख़ुश नहीं दिखते, उसके युवा होने के कारण. उनका कहना है कि ये नये लड़के, जिन्हें कुछ आता – जाता नहीं, पढ़ाएंगे ! वे उसका उपहास करते हैं. चूँकि ओझा जी हिन्दी के अध्यापक और कविता के मूड में रहते हैं तो धनञ्जय जी कहते हैं, “ओझा जी, ‘सतीश बाबू के लिए कुछ हो जाए” ओझा जी लय में कविता वाचन शुरू कर देते हैं.
“नौजवान आओ रे, नौजवान गाओ रे, लो कदम बढ़ाओ रे, लो कदम मिलाओ रे, ऐ वतन के नौजवां, इस चमन के बागवां … “
सब वाह, वाह करते हैं, ओझा जी फूल उठते हैं और कहते हैं, “धनञ्जय जी, ‘कवि आते हैं, कवि जाते हैं लेकिन राष्ट्रकवि दिनकर जैसा, वैसा कवि कभी नहीं आयेगा” वे दिनकर के भक्त हैं.
“बात आपकी एकदम ठीक पर अभी जो कविता आप सुनाए हैं, वह दिनकर जी की नहीं है.” सतीश ने टोका.
अब ओझा जी आगबबूला हो उठते हैं. उन्हें यह बहुत नागवार गुज़रता है कि एक नया आया लड़का, वह भी गणित का अध्यापक, और वह हिन्दी के अध्यापक को उनकी हिन्दी कविता की जानकारी को ग़लत ठहराए, उन्हें टोके. वह चिढ़ कर कहते हैं कि यह कविता दिनकर जी की ही है. मैं उनका भक्त हूँ और आप मुझे ग़लत कह रहे हैं.
सतीश प्रतिवाद करता है, “दिनकर जी की शैली ही और है, उनका तरीका ही कुछ और है, यह दिनकर जी की नहीं है.”
“सतीश जी, यह दिनकर जी की ही है.”
सतीश कहता है कि यह दुष्यन्त कुमार की कविता है.
सतीश को पूरी कविता कण्ठस्थ है तो वह सुनाता है तो ओझा जी और चिढ़ जाते हैं. बात बढ़ती जाती है, ओझा जी उग्र होते जाते हैं. उन्हें यह सहन नहीं होता कि नया लड़का और गणित का अध्यापक उनके हिन्दी ज्ञान को चुनौती दे. सतीश आठ आने की, इतने ही उसके पास थे, की शर्त लगाता है. बात प्रधानाचार्या तक पहुँचती है और वे सतीश से सहमत होती हैं पर श्योर नहीं और कोई प्रमाण नहीं. अब 1980 का समय और गाँव, आज की तरह नेट, गूगल या कविता कोश या हिन्दवी जैसी साइट नहीं और न ही समृद्ध लाईब्रेरी या बुक स्टोर कि बात की पुष्टि की जा सके. प्रधानाचार्या जी कहती हैं कि उंनका बेटा दिल्ली में लाईब्रेरियन है, उसे पत्र लिख कर पूछती हैं.
छह माह हो जाते हैं कि दिल्ली से पत्र आता है. अब दोनों के ही मान का प्रश्न है, दोनों ही अपने दावे पर मज़बूत. अब ओझा जी भी आठ आने धरते हैं और लिफाफा खोला जाता है. दोनों की ही बात ग़लत साबित होती है, यह कविता बालकवि वैरागी की है.
दोनों खिसियानी हँसी हँसते हैं और अपना-अपना आठ आना उठा लेते हैं. न कोई हारा, न कोई जीता. ओझा जी ग़लत सिद्ध होते हैं मगर उन्हें ख़ुशी है कि अगर यह कविता दिनकर की नहीं तो सतीश जो दावा कर रहे थे, दुष्यन्त कुमार की भी नहीं.
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बिल्कुल ऐसी ही स्थिति अध्ययन न करने किंतु ‘थोथा चना बाजे घना’ के व्हाट्स ऐप और फेसबुक की कूछ पोस्ट्स के आधार साहित्य ज्ञानियों की है. आज महाश्वेता देवी और महादेवी जी के नाम से कुछ कविताएँ जब – तब आती रहती हैं. जाने किस आधार पर और कुछ गूगल करके लोग उन्हें महाश्वेता देवी और महादेवी वर्मा की मानने पर अटल रहते हैं, सप्रमाण बताने पर भी नहीं मानते और ओझा जी की तरह लड़ने ही नहीं, अपशब्द कहने पर भी उतारू हो जाते हैं. इनके लिए व्हाट्स ऐप ही अन्तिम सत्य है. फ़िल्म के ओझा जी तो किताबें पढ़े होंगे क्योंकि उनकी जानकारी / ज्ञान का वही स्रोत्र था किंतु अब के व्हाट्स ऐपियों को किताबों से कोई मतलब ही नहीं. ऐसे ही प्रेमचंद की कविताएँ भी घूमती हैं, बच्चन जी की भी और ग़ालिब के नाम से तो न जाने कितनी हैं. इनसे बहस या इन्हें प्रमाण देने का कोई फायदा नहीं.
बहरहाल, इन व्हाट्स ऐपीय अतिआत्मविश्वासी साहित्यज्ञाताओं को पूरी तरह इस फ़िल्म के ओझा जी ने सजीव किया है. मज़ेदार है, सोलह मिनट से कम की है, यू ट्यूब पर देखें, “आठ आना”.