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Tuesday, 5 November 2024

फ़िल्म चर्चाः शॉर्ट फ़िल्म "आठ आना"

 





आठ आना

कल यू ट्यूब पर एक शॉर्ट फ़िल्म देखी, “आठ आना’’ करीब 16 मिनट की फ़िल्म है और आज के व्हाट्स ऐपिया साहित्यकारों का सटीक आकलन करती है, वैसे फ़िल्म उस समय को दिखाती है जब व्हाट्सऐप तो क्या, मोबाईल भी नहीं थे और गाँवों मे चिट्ठी आने में भी महीनों लग जाते थे.  

1980 के दौर का, एक गाँव का स्कूल है जिसमें तीन अध्यापक हैं और प्रधानाचार्या. मद्रास युनिवर्सिटी से डिग्री पूरी करके एक 26 वर्षीय नौजवान, सतीश साहू, की गणित अध्यापक़ के पद पर नियुक्ति होती है. स्टाफ रूम में सतीश आता है तो एक अध्यापक उसका परिचय वहाँ प्हले से मौजूद, विज्ञान विषय के अध्यापक, धनञ्जय से परिचय कराते हैं तब तक एक अन्य अध्यापक, निर्मल ओझा जी – हिन्दी विषय के अध्यापक आते हैं, उनसे भी परिचय होता है. धनञ्जय जी सबसे अधिक वय के हैं व ओझा जी मध्य वय के. ओझा जी सतीश के आने से ख़ुश नहीं दिखते, उसके युवा होने के कारण. उनका कहना है कि ये नये लड़के, जिन्हें कुछ आता – जाता नहीं, पढ़ाएंगे ! वे उसका उपहास करते हैं. चूँकि ओझा जी हिन्दी के अध्यापक और कविता के मूड में रहते हैं तो धनञ्जय जी कहते हैं, “ओझा जी, ‘सतीश बाबू के लिए कुछ हो जाए” ओझा जी लय में कविता वाचन शुरू कर देते हैं. 

“नौजवान आओ रे, नौजवान गाओ रे, लो कदम बढ़ाओ रे, लो कदम मिलाओ रे, ऐ वतन के नौजवां, इस चमन के बागवां … “

सब वाह, वाह करते हैं, ओझा जी फूल उठते हैं और कहते हैं, “धनञ्जय जी, ‘कवि आते हैं, कवि जाते हैं लेकिन राष्ट्रकवि दिनकर जैसा, वैसा कवि कभी नहीं आयेगा” वे दिनकर के भक्त हैं.

“बात आपकी एकदम ठीक पर अभी जो कविता आप सुनाए हैं, वह दिनकर जी की नहीं है.” सतीश ने टोका.

अब ओझा जी आगबबूला हो उठते हैं. उन्हें यह बहुत नागवार गुज़रता है कि एक नया आया लड़का, वह भी गणित का अध्यापक, और वह हिन्दी के अध्यापक को उनकी हिन्दी कविता की जानकारी को ग़लत ठहराए, उन्हें टोके. वह चिढ़ कर कहते हैं कि यह कविता दिनकर जी की ही है. मैं उनका भक्त हूँ और आप मुझे ग़लत कह रहे हैं. 

सतीश प्रतिवाद करता है, “दिनकर जी की शैली ही और है, उनका तरीका ही कुछ और है, यह दिनकर जी की नहीं है.” 

“सतीश जी, यह दिनकर जी की ही है.”

सतीश कहता है कि यह दुष्यन्त कुमार की कविता है.

सतीश को पूरी कविता कण्ठस्थ है तो वह सुनाता है तो ओझा जी और चिढ़ जाते हैं. बात बढ़ती जाती है, ओझा जी उग्र होते जाते हैं. उन्हें यह सहन नहीं होता कि नया लड़का और गणित का अध्यापक उनके हिन्दी ज्ञान को चुनौती दे. सतीश आठ आने की, इतने ही उसके पास थे, की शर्त लगाता है. बात प्रधानाचार्या तक पहुँचती है और वे सतीश से सहमत होती हैं पर श्योर नहीं और कोई प्रमाण नहीं. अब 1980 का समय और गाँव, आज की तरह नेट, गूगल या कविता कोश या हिन्दवी जैसी साइट नहीं और न ही समृद्ध लाईब्रेरी या बुक स्टोर कि बात की पुष्टि की जा सके. प्रधानाचार्या जी कहती हैं कि उंनका बेटा दिल्ली में लाईब्रेरियन है, उसे पत्र लिख कर पूछती हैं. 

छह माह हो जाते हैं कि दिल्ली से पत्र आता है. अब दोनों के ही मान का प्रश्न है, दोनों ही अपने दावे पर मज़बूत. अब ओझा जी भी आठ आने धरते हैं और लिफाफा खोला जाता है. दोनों की ही बात ग़लत साबित होती है, यह कविता बालकवि वैरागी की है. 

दोनों खिसियानी हँसी हँसते हैं और अपना-अपना आठ आना उठा लेते हैं. न कोई हारा, न कोई जीता. ओझा जी ग़लत सिद्ध होते हैं मगर उन्हें ख़ुशी है कि अगर यह कविता दिनकर की नहीं तो सतीश जो दावा कर रहे थे, दुष्यन्त कुमार की भी नहीं.

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बिल्कुल ऐसी ही स्थिति अध्ययन न करने किंतु ‘थोथा चना बाजे घना’ के व्हाट्स ऐप और फेसबुक की कूछ पोस्ट्स के आधार साहित्य ज्ञानियों की है. आज महाश्वेता देवी और महादेवी जी के नाम से कुछ कविताएँ जब – तब आती रहती हैं. जाने किस आधार पर और कुछ गूगल करके लोग उन्हें महाश्वेता देवी और महादेवी वर्मा की मानने पर अटल रहते हैं, सप्रमाण बताने पर भी नहीं मानते और ओझा जी की तरह लड़ने ही नहीं, अपशब्द कहने पर भी उतारू हो जाते हैं. इनके लिए व्हाट्स ऐप ही अन्तिम सत्य है. फ़िल्म के ओझा जी तो किताबें पढ़े होंगे क्योंकि उनकी जानकारी / ज्ञान का वही स्रोत्र था किंतु अब के व्हाट्स ऐपियों को किताबों से कोई मतलब ही नहीं. ऐसे ही प्रेमचंद की कविताएँ भी घूमती हैं, बच्चन जी की भी और ग़ालिब के नाम से तो न जाने कितनी हैं. इनसे बहस या इन्हें प्रमाण देने का कोई फायदा नहीं. 

बहरहाल, इन व्हाट्स ऐपीय अतिआत्मविश्वासी साहित्यज्ञाताओं को पूरी तरह इस फ़िल्म के ओझा जी ने सजीव किया है. मज़ेदार है, सोलह मिनट से कम की है, यू ट्यूब पर देखें, “आठ आना”. 

Wednesday, 23 October 2024

पुस्तक चर्चाः अन्दाज़-ए-बयाँ उर्फ़ रवि कथा

 


पुस्तक चर्चाः अन्दाज़--बयाँ उर्फ़ रवि कथा

किताब ममता कालिया के संस्मरण है., साथी, प्रेमी, पति, लेखक, व्यवसायी, सम्पादकजाने कितने रूप धारे रवीन्द्र कालिया के. मगर ठहरिये, यह संस्मरण केवल रवीन्द्र कालिया के या रवीन्द्रममता कालिया भर के नहीं हैं, वस्तुतः कोई भी संस्मरण, जीवनी, आत्मकथा या फिर डायरी उसी व्यक्ति की नहीं होती जो उसे लिख रहा है या जिसके बारे में लिखा जा रहा है बल्कि उस दौर के परिवेश के बारे में होती हैउसमें वो शहर भी होते हैं जहाँ-जहाँ वो रहा और काम किया, वे संस्थान भी होते हैं जिनमें काम किया, उनकी बाहरी से लेकर अन्दरूनी बातें होती हैं, वे सब काम होते हैं जो उसने किये, उन सब लोगों के बारे में होता है जिनसे उसका कैसा भी साबका पड़ा, उस दौर की संस्कृति, परम्परा, रीति-रिवाज --- गरज ये कि क्या-क्या नहीं होता एक ऐसी किताब में. यह संस्मरण भी मात्र रवीन्द्र कालिया-ममता कालिया का नहीं है, मुम्बई (तब बम्बई), इलाहाबाद और कई शहरों का है, रवीन्द्र के प्रिण्टिंग प्रेस व्यवसाय का है, मात्र साहित्यिक रिश्तों का नहीं नितान्त घरेलू रिश्तों की बात भी है, रवि की अच्छी-बुरी बातों / आदतों का हैएक बड़े फलक को समेटे हुए है जो एक किताब में शायद सिमट नहीं पायाइसी का सिलसिला है ममता कालिया की इसके बाद की संस्मरणात्मक किताब, “ जीते जी इलाहाबाद”. बहरहाल इस चर्चा में बात सिर्फ़ अन्दाज़--बयाँ उर्फ़ रवि कथा की.

किताब रवि की बीमारी से शुरू होती है और बीमारी के भी इस स्तर तक पहुँच जाने के कि उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ा और 9 जनवरी, 2016 की रात को उनकी मृत्यु हुई. संस्मरण रवि कथा के अन्तिम अध्याय से शुरू होता है, एक प्रकार से संस्मरण फ्लैश बैक में चलते हैं. रवि के जिगर में फोड़ा हो गया था, इसे उनकी मयनोशी से भी जोड़ना असंगत होगा. मयनोशी की चर्चा विस्तार से रवीन्द्र कालिया नें संस्मरणात्मक पुस्तकग़ालिब छुटी शराबमें यत्र-तत्र की है
रवीन्द्र के पेट में फोड़ा था, इलाज एलोपैथिक चल रहा था किन्तु बीमारी की वजह से / के दौरान उनकी रुचि होम्योपैथी में बहुत हो गयी. उन्होंने इसका विशद अध्ययन किया और छोटे-मोटे डॉक्टर से हो गये. अपने पर भी प्रयोग करते और मिलने वालों को भी उपचार बताते, दवाईयाँ देते. उनके होम्योपैथी अध्ययन और प्रयोग के बारे में ममता जी ने लिखा है,

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मयनोशी तो अगस्त 2011 से ही छूट गयी थी जब पेट दर्द रहने लगा. अब उनकी शामें होम्योपैथी चिकित्सा के अध्ययन में डूबी रहतीं. कमाल की बात यह कि उन्होंने हर एलोपैथिक दवा का होम्योपैथिक विकल्प ढूँढ लिया था. होम्योपैथी और ज्योतिष शास्त्र में उनकी पुरानी दिलचस्पी थी. होम्योपैथिक दवाओं की अनिवार्यता हमारे जीवन में हमेशा बनी रही… “
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“ …
दो नवम्बर से ग्यारह नवम्बर 2011 में जब उनकी YYY90  रेडियो सर्जरी हुई तब भी होम्योपैथिक दवाओं का डिब्बा और किताब उनके साथ अपोलो हॉस्पिटल गयी. होश आने पर वहाँ की नर्सों और वार्ड ब्वॉय आदि से उनके मर्ज़ पूछकर किताब से अध्ययन करके मीठी गोलियाँ देना रवि का सबसे प्रिय काम था. बड़ा बेटा अनिरुद्ध कहता, ‘पापा अपनी आँखों को आराम दीजिए, ये सब अस्पताल के लोग हैं, इन्हें अच्छे से अच्छा इलाज मिल जाता होगा.’
          
रवि कहते, ‘मेरी दवा से इनकी बीमारी जड़ से मिट जायेगी यह तो सोच.’ … “

होम्योपैथी विषयक ये अंश इसलिये दिये कि अन्य साहित्यिक विवरण तो अन्यत्र मिल जायेंगे, ये विवरण ममता जी या घर वाले ही दे सकते थे

संस्मरणों में 30 जनवरी, 1965 को रवीन्द्र कालिया से चण्डीगढ़ मेंकहानी सवेराकी गोष्ठी में परिचय के हैं जिसकी परिणिति 12 दिसम्बर, 1965 को  शादी में हुई. उसके बाद रवि कथा के कई प्रसङ्ग जिनमें धर्मयुग की नौकरी, प्रिण्टिंग प्रेस , लेखन, गोष्ग्ठियाँ, सम्मेलन और सम्पादन के संस्मरण हैं. संस्मरण तो लगभग सभी साहित्यकारों / आलोचकों, सम्पादक-सह-लेखकों के साथ हैं किन्तु सर्वाधिक रोचक / रोमाञ्चक और  स्तब्ध करने वाला संस्मरण कृष्णा सोबती का है. पढ़ कर यही विचार आता है कि साहित्य में उदात्त सोच रखने वाला व्यवहार में ऐसा भी हो सकता है.

“ …
वर्ष 1990 मेंवर्तमान साहित्यके सम्पादक विभूति नारायण राय ने कहानी विशेषांक का प्रस्ताव रखा था उनका विचार था कि पन्द्रह-बीस कहानियों में हिन्दी के सशक्त कथालेखन को प्रतिनिधित्व मिल सकता है. उन्होंने रवि से कहा, “ कालिया जी इसका सम्पादन आप कीजिए.” …
रवीन्द्र कालिया प्राणपण से जुट गये, देश भर में लेखकों को कहानी मंगवाने के लिए फोन खटखटाने शुरू किये. जब कोई खास अंक निकलने वाला होता है तो कुछ रचनाकार तो इतने भले और भोले होते हैं कि सम्पादक के एक फोन पर कहानी लिखने बैठ जाते हैं और पूरी होते ही, बिना नाज़-नखरे के उसे पोस्ट कर देते हैं. इक्का-दुक्का लेखक-लेखिकाएँ चाहती हैं कि सम्पादक रोज़ फोन कर उनकी और कहानी की तबियत और ख़ैरियत पूछता रहे. रवि हर लेखक-लेखिका की नब्ज़ जानते थे. उन्होंने यह फर्ज़ नियम से निभाया.
                  
हशमत ने कहा कि वे इसके लिए ख़ासतौर पर कहानी लिख कर देंगी, पर हाँ, कालिया उन्हें चार्ज्ड ( Charged) रखे. हशमत पसंद करती थीं सम्पादक उन्हें तवज्जो दे और विशिष्टतम माने.
        
रवि को इसमें कोई एतराज़ नहीं था क्योंकि वे तो सन 1963 से ही हशमत के प्रशंसक रहे थे … “

बहरहाल उन्होंने हशमत ( कृष्णा सोबती ) से रोज फोन कर करके उन्हें चार्ज रखा. वे भी कहानी की नोक पलक सँवरवाने के लिए फोन करतीं एक बार रात के पौने एक बजे फोन किया. अन्ततः कहानी मिली किन्तु बिना नाम, शीर्षक के. रवि ने फोन करके पुष्टि की. कहानी थी लड़की’.  रवि ने फोन पर कहानी दुरुस्त करायी और उसकी तारीफ में तीन पत्र उपेन्द्रनाथ अश्क़, मार्कण्डेय और दूधनाथ सिंह से अग्रिम लिखवा लिए ( पत्रों के अंश और कृष्णा सोबती की कहानियों के बारे में ममता जी के विचार आप किताब में ही पढ़ें ) कहानी और वह अंक खूब चर्चित हुआ.
                                 
बाद में रवि ने कृष्णा जी पर एक लम्बा संस्मरण लिखाहमारी कृष्णा जीपूरा संस्मरण उन्हें फोन पर सुना कर उनकी अनापत्ति और प्रकाशन की समति ली और वहतद्भवमें भेज दिया. ‘तद्भवके सम्पादक, अखिलेश जी, ने भी कृष्णा जी को पूरा संस्मरण फोन पर सुनाया और पूछा कि यदि उन्हें किसी अंश पर एतराज़ हो तो सम्पादित कर दें. उन्होंने कालिया को समझदार कहते हुये संस्मरण छापने की अनुमति दी. संस्मरणतद्भवके अप्रैल 2006 के अंक में छपा. 2007 में कॄष्णा जी दिल्ली में कालिया आदि से मिलीं. जिन, वोदका और व्हिस्की आदि के दौर भी चले और एक सुबहजनसत्तामें कालिया और संस्मरण पर हमला जैसा लेख लिखामेरे छह फुटिया एडिटर साहबऔरकथादेशमेंसंस्मरण देवकीनन्दन खत्री का फिक्शन नहीं होतासंस्मरण के् लेखक, रवीन्द्र कालिया और छापने वाले सम्पादक, अखिलेश द्वारा पूरा संस्मरण सुनाने और अनापत्ति जैसा प्रकाशन की अनुमति लेने के बाद उनसे कोई बात किये बिना अकस्मात लगभग साल भर बाद इस तरह का हमला स्तब्धकारी है. विस्तार भय से पूरा नहीं दे रहा हूँ, यदि किताब में रुचि जाग्रत हो रही हो तो सम्पूर्ण विवरण किताब में पढ़ें.

हर अध्याय के प्रारम्भ में एक शेर दिया है, अधिकांश शेर ग़ालिब के हैं. किताब पेपरबैक है छपाई त्रुटिहीन है किन्तु आज के चलन के हिसाब से कागज लुगदी से कुछ ही बेहतर है. अच्छा हो कि प्रकाशक दाम कुछ बढ़ा दिया करें किन्तु कागज बढ़िया (सफेद और चिकना ) प्रयोग करें. यह दूसरा संस्करण है और किताब के अन्त में फ़ोटो एलबम भी है.
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पुस्तकअन्दाज़--बयाँ उर्फ़ रवि कथा
विधासंस्मरण
लेखकममता कालिया
प्रकाशकवाणी प्रकाशन ( पेपरबैक्स )
अन्यप्रथम संस्करण सितम्बर 2020, द्वितीय संस्करण नवम्बर 2020
         
किंडल में भी उपलब्ध
         
पृष्ठ 196, मूल्य
299/-