पेन, स्कूल और हम !
विगत दिनों एक पोस्ट में बीड़ी की बात के
साथ स्कूल गाथा कही और एक पोस्ट में प्रभु
से उन लोगों भी को माफ करने की अरदास की जो जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं किंतु
मानते नहीं. आज की दो यादों में स्कूल है, पेन
और हम तो दोनों में ही हैं.
फाउण्टेन पेन का शौक़ तो हमें विद्यार्थी
जीवन से ही था. अमीनाबाद में रहते थे और विद्यांत कॉलेज में पढ़ते थे ( इण्टर तक
वहीं पढ़े ). अमीनाबाद में पेन की दो मशहूर दुकानें थी –
एक ‘कौशला एण्ड कंपनी’ और
दूसरी ‘अनुपम भारतीय’ ये दोनों पेन
निर्माता भी थे, पेन की मरम्मत / सर्विसिंग आदि भी करते थे और पेन के पार्ट्स ( निब, जीभी, हड्डी आदि ) भी मिल जाते थे. इनके पेन में
गुणवत्ता तो थी ही, बजट के अनुरूप भी होते थे तभी तो मेरे
जैसे लोग भी खरीदते थे.
विद्यांत में वाणिज्य के एक अध्यापक थे,
मैं उनका मुहलगा शिष्य था सो वे अपने कुछ निजी कार्य भी मुझसे
करवाते थे. ये वही गुरू जी थे जिन्होंने मुझसे बीड़ी मंगवाई थी और ब्राण्ड न बताने
के कारण अपनी समझ से मैं गणेश बीड़ी ले गया था जो मँहगी भी होती थी और तंबाकू अच्छी
किंतु हल्की. इस बार उन्होंने मुझे बुलाकर एक फाउण्टेन पेन दिया और कहा ‘कौशला कंपनी’ चले जाओ. वहाँ फलाने ( मालिक का बेटा,
ओ. पी. कौशला जी वृद्ध हो चुके थे, अधिकतर काम
बेटा देखता था ) को मेरा नाम बताना और कहना कि ये पेन ठीक कर दे. मुझे तो अधिकारिक
रूप से निडर होकर मटरगश्ती करने को मिला और एक कुटिल भाव भी जगा. मेरे पेन की निब
भी खरखराती थी, बदलने वाली हो गयी थी सो गेंहू के साथ खर – पतवार भी पानी पा गया. मैंने दोनों पेन दिया और गुरु जी की बात दुहरा दी.
तब लोगों में गुरु जी के प्रति आदर था, उनका कोई काम करना
अहोभाग्य मानते थे ( एक मैं ही गुरुघाती निकला जिसका मुझे आज तक पछतावा है )
उन्होंने दोनों पेन लिये, निब बदली और अच्छी वाली लगायी,
पेन की सफाई की और इंक भर कर दी और कहा, ‘गुरु
जी को प्रणाम कहना.’ गुरु जी के पेन के साथ मेरा पेन भी फ्री
में दुरुस्त हो गया, हाथी के पांव में सबका पांव. उस समय तो
अपनी चतुराई पर अपनी पीठ ठोंक रहा था किंतु अब इस धूर्तता पर शर्म आती है. किसी को
यह पता न चला. मैंने किसी को बताया नहीं ( पाप कौन उजागर करता है भला ! ) और वो तो
उनसे बताते न कि गुरु जी आपके दोनों पेन ठीक कर दिये.
प्रसङ्गवश बता दूँ कि कौशला कंपनी अब भी
है किंतु अब वे पेन नहीं बनाते. पेन भी अब उनके यहाँ कम वैराईटी के हैं,
फाउण्टेन पेन तो नहीं के बराबर और मरम्मत भी नहीं होती. अब स्टेशनरी
की दुकान हो गयी है.
‘अनुपम भारतीय’ ने भी पेन बनाना बंद कर दिया था. उसके मालिक के निधन के बाद उनके पुत्र ने
दुकान संभाली और दुकान का नाम ‘अनुपम पेन स्टोर’ हो गया. पेन उनके यहाँ बहुत वैराईटी के और फाउण्टेन पेन भी ब्राण्डेड से
लेकर साधारण तक मिलते रहे. मरम्मत / सर्विसिंग भी तसल्लीबख़्श होती रही. मैंने कई
ब्राण्डेड पेन और साधारण पेन उनके यहाँ से लिये. पुराने स्टॉक में कुछ उनके
प्रतिष्ठान से निर्मित पेन ( अनुपम भारतीय नाम से ) भी थे उसमें से भी एक लिया.
कोरोना की दूसरी लहर में उनका निधन हो गया. मुझे मालूम न हुआ. दो बार अमीनाबाद गया
तो आदतन उनकी दुकान गया किंतु बंद मिली. तब उन्हें फोन किया तो उनके पुत्र ने
उठाया और यह सूचना दी. दुकान के संदर्भ में उसने बताया कि उसका कोई इरादा दुकान
चलाने का नहीं है. उसे फाउण्टेन पेन वगैरह में न रुचि है, न
जानकारी. ये सब पापा ही देखते थे. अब यह बिजनेस बंद ही होगा. उससे कहा भी कि स्टॉक
निकाल रहा हो तो कुछ मैं खरीद लूँ किन्तु
न मेरा जांना उधर हुआ और न ही फोनालाप. इनकी जानकारी और नाम ऐसा था कि अहमदाबाद
में एक फाउण्टेन पेन प्रदर्शनी लगी थी. मशहूर निर्माताओं के स्टाल व मशहूर ब्राण्ड
भी थे उसमें. मैंने औकातानुसार एक पेन खरीदा किंतु जायजा सबका लिया, बात भी कईयों से की तो वहाँ भी
कुछ पेन निर्माता उनके नाम और दुकान से परिचित थे. मेरा लखनऊ के होने के
ज़िक्र में उनका भी ज़िक्र हुआ. लखनऊ में मेरी जानकारी में फाउण्टेन पेन के बारे में
सही राय के साथ खरीदने का एक ही ठीहा था, वो भी बंद हो गया.
किसी पेन प्रेमी को लखनऊ में ऐसी दुकान और जानकार दुकानदार की जानकारी हो तो
बतायें.
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पेन,
स्कूल और फाउण्टेन पेन से जुड़ी एक और याद !
मेरे एक चचेरे बड़े भाई थे. सत्य नारायण
नाम था उनका किंतु वे सत्तू नाम से मशहूर थे, मशहूर
वे अपने हमपेशा लोगों में थे. अमीनाबाद की ‘शुक्ला बुक डिपो’
में काम करते थे और बहुत अच्छे सेल्समैन थे. उनके सौजन्य से कई
साहित्यिक किताबें पढ़ीं. वैसे तो वहाँ प्रमुखतः पाठ्य पुस्तकें बिकती थीं किंतु
कुछ साहित्यिक किताबें भी रखते थे. गुरुदत्त की ‘ज़माना बदल
गया’ के नौ भाग व अन्य किताबें, देवकीनन्दन
खत्री का साहित्य, कृश्न चंदर की किताबें, ‘वीर दुर्गादास’ और ‘अमरसिंह
राठौर’ नाटक की तो याद है. वे किताबें लाते थे, बहुत करीने से कि गंदी न होने पाएं, कवर चढ़ा कर और
बिना पन्ना मोड़े वे पढ़ते थे, मेरे पिता जी और मैं. इसके बाद
किताब वापस की जाती थी. हम उन्हें सत्तू
दद्दा कहते थे. वे शौक़ीन व्यक्ति थे. बांसुरी बहुत अच्छी बजाते थे और अन्य कई
वाद्य भी. कपड़े, जूते वगैरह उम्दा किस्म के पहनते थे. जाड़ों
में सूट- टाई पहनते थे. शादी की नहीं सो सारा वेतन खुद पर ही खर्च करते थे.
उन्हें पेन का भी शौक़ था. एक पेन उनके पास
था जो आकार में बेंत के बराबर था, जैसा
टहलते समय हाथ में रखा जाता है. उसमें सिरों पर दो फाउण्टेन पेन थे. बीच की जगह
उनके ढक्कन का काम करती थी. फिनिशिंग बहुत अच्छी थी, लकड़ी
जैसी फिनिश और जोड़ मालूम न देते थे तो वह बेंत ही लगता था. मैंने उनसे कुछ दिन के
लिए वह पेन मांगा, लिखने के लिए नहीं, सहपाठियों
को दिखाने / रोब झाड़ने के लिए - लिखने में
तो वह सामान्य से लंबा और मोटा पेन था सो असुविधाजनक था उससे लिखना. उन्होंने दे दिया. अब उतना बड़ा पेन या तो बस्ते
में रखा जा सकता था या हाथ में लिए रहना पड़ता. जाड़ों के दिन थे, कोट पहने था, कोट की बायीं तरफ अंदर की जेब में रखा
जो नीचे लगी होती है, पेन तब भी सीने तक आया. उन्हीं दिनों
चारबाग रेलवे स्टेशन पर एक ट्रेन में
सैन्य प्रदर्शनी लगी थी. ट्रेन एक प्लेटफार्म पर खड़ी रहती थी. वह प्रदर्शनी
शहर – शहर जाती थी. मैं भी स्कूल से ही कुछ मित्रों के साथ प्रदर्शनी देखने गया. पटरी पार करके
प्लेटफार्म पर चढ़ने के उपक्रम में पेट के बल चढ़ा. पेन का ध्यान नहीं दिया. पेन पर
प्लेटफार्म की कांक्रीट की सतह का दबाव पड़ा और पेन चट की आवाज़ के साथ टूट गया. अब
मेरे होश फाख़्ता !अफसोस भी बहुत हुआ और डर भी लगा कि सत्तू दद्दा बहुत गुस्साएंगे
और पिता जी तो पिटाई ही कर देंगे. पसली चटख जाती तो शायद इतना दुख न होता. बुझे मन
से प्रदर्शनी देखी और लौटा. शाम को जब सत्तू दद्दा दुकान से आये तो उन्हें बताया.
वो स्तब्ध रह गये, मुखमुद्रा से लग रहा था कि उन्हें भी बहुत
दुख हुआ है किंतु आशङ्का के विपरीत गुस्सा न हुए और न ही पिता जी से शिकायत की.
मैंने भी किसी और को नहीं बताया. मुझे आज तक उस पेन के टूटने का अफसोस है.
बाद में,
जब स्नातक में आ गया, वैसा पेन बहुत तलाश किया
किंतु न मिला. कौशला कंपनी में वैसे पेन थे किंतु मुझे उसके आगे तनिक न रुचे –
बॉडी प्लास्टिक की और कलर व फिनिशिंग भी बहुत बेकार सी. अहमदाबाद की
‘फाउण्टेन पेन एक्सपो’ में ‘रङ्गा पेन’ के स्टाल पर उसी तरह का पेन देखा,
देखने में गांठदार बांस का टुकड़ा जैसे. वे हैण्डमेड पेन बनाते हैं जो अच्छी फिनिशिंग
वाले होते हैं. उन पेनों की क्वालिटी से तो सन्तुष्ट हुआ किंतु दाम बहुत थे. इतने
कि तब तक मैं ब्राण्डेड / मंहगे पेन खरीदने लगा था फिर भी उसे खरीदने की नियत न
हुई. है कोई दाता – धर्मी जो यह इच्छा पूरी कर दे.
पेन और स्कूल के किस्से और भी हैं,
समय – समय पर सुनाता रहूँगा.
सदा की भांति दिलचस्प क़िस्से 👏👏
ReplyDeleteमेरे परिचितों में एकमात्र आप ही हैं जो फाउन्टेन पेन इस्तेमाल करते हैं। हालांकि आपके फाउन्टेन पेन लवर्स वाले ग्रुप में एक से एक पेन प्रेमी हैं फिर भी मुझे कोई हैरानी नहीं हुई कि अनुपम पेन स्टोर उसके मालिक की मृत्यु के बाद बंद हो गया। आपको पता है फाउन्टेन पेन आजकल आमजन के इस्तेमाल से इस तरह गायब है कि हमारे शहर में पेन तो नहीं ही मिलता है, पर जब मुझे तोहफे में फाउन्टेन पेन मिला (आपने ही भेजा) तो मुझे उसकी स्याही तक न मिली। कुछ महीनों पहले आपने ही एक लेख पढ़वाया था जिससे मैंने जाना कि बॉल पेन से कितना प्रदूषण होता है क्योंकि इसकी रीसाइक्लिंग बहुत कठिन है। तब मैंने तय किया था न सिर्फ मैं अब से हमेशा फाउन्टेन पेन इस्तेमाल करुँगी बल्कि ऑफिस में भी सबको गिफ्ट/प्रेरित करुँगी। पर जब मैंने देखा यहाँ के बाजार से पेन, इंक सब गायब है और बस बॉल और जेल पेन का ही बोलबाला है तो मैं सचमुच हतोत्साहित हो गई। मुझे अपना बचपन याद आया जब दूसरी कक्षा से फाउन्टेन पेन से लिखना अनिवार्य था। बॉल पेन का इस्तेमाल सख्ती से मना था। जेल पेन का तो नाम भी सुना था। फिर छठी सातवीं तक पहुंचते पहुंचते बाजार जेल पेन से भर चुका था और स्कूल में इसे मान्यता मिल गई थी।
टिप्पणी अनावश्यक रूप से लम्बी हो गई। आपके पेन प्रेम और स्कूल के किस्से रोचक होते हैं। हमें पसन्द हैं। जब जो याद आये सुनाते रहिए।
धन्यवाद पूजा ! फाउण्टेन पेन से लिखना लिखने को आनंददायक अनुभव बना देता है किंतु तब ही जब आप इसके अभ्यस्त हों. पेन की रोशनाई ऑनलाईन आराम से मिल जायेगी, अमेज़न पर और फ्लिपकार्ट पर. इसके अलावा इंक/पेन निर्माता रोशनाई भी बनाते हैं किंतु शुरुआत करने वालों के लिए वह बहुत मँहगी पड़ेगी ( लगभग पाँच सौ की ६० एम. एल. ) पार्कर क्विंक हर साईट पर मिल जाती है और अस्सी रुपये की है. रोज एक - दो पेज लिखो तो आदत पड़ जायेगी और लिखना आनंददायक लगने लगेगा. टिप्पणी कोई लंबी नहीं हुई बल्कि यह उत्साहवर्धक है. अभी एक पेन और मँगाया है जिसे ऊपर से ट्विस्ट करने पर निब बाहर आती है. जब आ जायेगा तो इसका वीडियो भी दिखाऊँगा और कुछ लिख कर भी.
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