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Friday, 26 July 2024

रसगुल्ला !

 आते हैं रसगुल्ला खाने पर, मतलब खाने के तरीके पर.

“तो रसगुल्ला कैसे खाते हैं आप ?”

“कैसे क्या ! अरे भाई, मुहँ से खाते हैं ! और कैसे ?

“अरे वह मतलब नहीं है. मुहँ से तो खाएंगे ही, मुहँ के अलावा भी और कहीं से खाते हैं क्या ?”

यह सवाल इसलिए पूछा कि बहुत पहले, अब से करीब चौथाई सदी पहले एक को रसगुल्ला ऐसे खाते देखा कि सदमा लगा, धिक्कारयुक्त आश्चर्य से आँखे फैल गयीं. कुछ ने तुरन्त टोका और चर्चा तो बाद तक होती रही. खाया ही उसने ऐसे वीभत्स से ढंग से था ! रसगुल्ले व रसगुल्ला प्रेमियों के लिए मानसिक प्रताड़ना थी ! हम एक ट्रेनिंग में औरंगाबाद में थे. लंच में खाने के साथ रसगुल्ला भी था. एक ने बाउल से रसगुल्ला उठाया, उसे बाउल में ही ऐसा निचोड़ा कि सारा रस निकल गया, सिर्फ गुल्ला बचा. वो गुल्ला उसने एक बार में ही मुहँ में रखा और खाया. सबको अजीब लगा, वीभत्स भी क्योंकि किसी को ऐसे रसगुल्ला खाते देखा न था. उस समय लोग इतना डायबिटीज कांसस न थे कि रसगुल्ला खायें किन्तु रस से परहेज करें. सब युवा भी थे और तब युवाओं में आज की जीवनशैली की बीमारियां – शुगर, ब्लड प्रेशर, हार्ट की बीमारियां आदि कॉमन न थीं बल्कि युवाओं को होती ही न थीं. कुछ ने टोका भी कि ये कैसे खाया ? प्रश्न नहीं, धिक्कार कि इस ढंग से खाया, ऐसे भी कोई खाता है ! आपस में कहा भी कि बड़ा गंदा तरीका है. उसने बताया कि रस बहुत मीठा होता है, नुकसान कर सकता है.

भला रस निचोड़ कर जो गुल्ला खाया, उसमें कैसा स्वाद ! वो तो फीका सा, केवल छेना हुआ. सादा छेना तो ऐसा होता नहीं कि मिठाई के तौर पर खाया जाए, भले ही कुछ देर पहले वह रस में डूबा रहा हो.

रसगुल्ला तो तभी रसगुल्ला होता है जब वह रस में डूबा हो और रस सहित ही खाया जाए. बिना रस के वह रसगुल्ला थोड़े न रह जाता है. रसगुल्ला चीज़ ही ऐसी है कि सोच या देख कर ही मिठुआ लोगों के मुहँ मे स्वाद घुलने लगे. रसगुल्ला ! आहा !! रसोगुल्ला ! नाम लेते ही जैसे मुहँ में रस भर आता है – हाँ, मधुमेहियों के मुहँ में भी ! रसगुल्ला तो जानते हैं न आप, पहचान तो गये ना ! नहीं, नहीं ! यह नहीं कह रहा कि आप रसगुल्ला को नहीं जानते ! वो क्या है ना कि कुछ लोग रसगुल्ला और गुलाबजामुन को अलग़-अलग़ न पहचान कर दोनों को रसगुल्ला ही जानते / कहते हैं – रसगुल्ला को सफेद वाला या छेने का रसगुल्ला और गुलाबजामुन को काला वाला रसगुल्ला ! ऐसे बंधु – बांधवियों के लिए स्पष्ट किया जाता है कि रसगुल्ला तो सफेद या छेने वाला ही होता है, वो खोया वाला, काला–भूरा-सुनहरा सा, गुलाबजामुन होता है. काला वाला काला-जाम होता है पर रसगुल्ला नहीं होता, भले ही वह भी गुल्ला होता है और रस में डूबा होता है. छेना का ही और उसी आकृति का. जो वह बड़ा सा, पीले रंग का जो होता है, वह ‘राजभोग’ कहाता है, रसगुल्ला नहीं. राजभोग हो या जनभोग – वह इतना बड़ा होता है कि कुछ ही लोग उसे समूचा मुहँ में रख कर, बिना गले में फंसे, चुभला कर खा सकते हैं, अन्यथा तो चम्मच से काट कर ( चम्मच से काटने के बाद भी काटना दांत से ही होता है ) खाना उचित और सुविधाजनक होता है. जो समूचा मुहँ में रख कर आसानी से खा लेते हैं, वे सम्भवतः बताशे ( गोलगप्पे या कुछ लोग पानीपूरी तो अब कहने लगे हैं, हम तो पुराने समय से बताशा कहते हैं ) खाने के अभ्यस्त होते हैं, उसमें भी कहते हैं, ‘भईया, ये क्या छोटे-छोटे, पिचके – पिचके दे रहे हो ! फूले – फूले और बड़े – बड़े खिलाओ !’ ऐसे लोग राजभोग भी आसानी से एक बार में समूचा खा लेते हैं. रसगुल्ला तो वही है, मध्यम आकार का, एक बार में, समूचा मुहँ में रखने वाला. वैसे छोटे – छोटे से रसगुल्ले भी आते हैं जो उनके लिए हैं जिनका मुहँ नहीं खुलता. रसगुल्ला खाने वाले उन्हें पसंद नहीं करते क्योंकि वे गुल्ला तो होते हैं पर उनमें उतना रस नहीं होता जितना मानक रसगुल्लों में, फिर भी वे उन्हें खाते हैं. सोफिकेस्टेड / टेबल मैनर्स का पालन करने वाले तो नफासत से, चम्मच में एक लेकर, खाते हैं और एक ही खाते हैं पर कुछ लोग एक बार में तीन – चार भी खा लेते हैं. छोटे / मिनी रसगुल्ले रसगुल्ला के नाम पर धोखा हैं, इनमें वो बात नहीं होती जो रसगुल्ला में. रसगुल्ला के नाम पर कलंक हैं मिनी रसगुल्ले – मरघिल्ले, सूखे-सूखे !

अब सब चीज़ों की तरह इसमें भी प्रयोग होते हैं, फ्यूजन के चक्कर में दो चीज़ों का मज़ा बेमज़ा कर देते हैं. न इसका स्वाद मिलता है, न उसका. गुड़ के रसगुल्ले (गुलाबजामुन) बनते हैं तो छेना के बजाय चावल के रसगुल्ले भी और ब्रेड के भी. ब्रेड का पकौड़ा तो ठीक है, पर रसगुल्ला ! वैसे बनाने वाले तो ब्रेड का दही बड़ा भी बनाते हैं और्फ शाही टुकड़ा भी. मुझे तो इसके नाम पर ऐतराज है, एक तरफ शाही दूसरी तरफ टुकड़ा. शाही लोग क्या टुकड़खोर हो गए !
खैर, रसगुल्ले पर ही रहता हूँ और एक वाकया बयान करके ‘अपनी वाणी को विराम’ और आपकी वाणी को आमन्त्रण देता हूँ. रसगुल्ला को ठण्डा खाने का आनन्द है जबकि गुलाबजामुन को गरमागरम. वैसे बनने के तुरन्त बाद और काफी देर बाद तक दोनों गरम रहते हैं मगर हलवाई दोनों का समुचित उपचार करता है. रसगुल्ले की कढ़ाही या परात को धीमी आँच पर रखता है तो रसगुल्लों के बड़े बाउल को ‘ठण्डे वाले काउण्टर’ ( उसका कोई तकनीकी नाम होता है जो मुझे नहीं मालूम) में और ग्राहक को केवड़ा या और कोई ख़ुश्बू-वुश्बू छिड़क कर देता है. विडम्बना कि एक दिन मुझे गरम रसगुल्ले खाने पड़े और कुछ देर के अन्तराल से फिर से ! हुआ यह कि मुझे एक जगह जाना हुआ. अब कुछ लोग ऐसे हैं जिनके यहाँ खाली हाथ नहीं जाते, कुछ मीठा ले जाते हैं. हमारी तरफ ( जानकीपुरम में ) ‘देहाती रसगुल्ले’ नाम से एक दुकान है जो बड़े – बड़े रसगुल्ले बनाता है. वहाँ से दस पैक कराए और दो वहीं खाने के लिए लिए. अब वो बिल्कुल ताज़ा थे, कड़ाही में ही पड़े थे सो गरम थे. अब रसगुल्ला के खवैया समझ सकते हैं कि मैंने कैसे खाये होंगे, खाये क्या, ज़हरमार किया, ज़ुबान को धोखा दिया, बहलाया ! फिर उनके घर गया. सलीका है कि बैठने पर चाय वगैरह से पहले पानी पेश किया जाय और सूखा नहीं, कुछ मीठे के साथ. उस दिन उनके घर में मीठा न रहा होगा सो मेरे लाये हुए में से दो पीस पेश किए. ऐसे ढ़ीठ रसगुल्ले कि अब भी गरम थे. मैंने बहाना किया कि अब मीठा नहीं खाता, इसे हटा लीजिए. उन्होंने इसरार कि या कि अरे लीजिए ! इतने से कुछ नहीं होता. फिर से मना करने पर उन्होंने एक निकाल लिया कि अच्छा एक तो लीजिए ही. अब क्या करता ! फिर से गरम रसगुल्ला खाना पड़ा. उसके कुछ दिन बाद तक रसगुल्लों से जी हटा रहा.

अब मेरी वाणी को विराम और आपकी को शुरू ! बताएं अपने अनुभव, न हों तो प्रतिक्रिया ( इमोज़ी के साथ टिप्पणी भी) तो दीजिए ही दीजिए.

( 'मीठी-मीठी बातें' मेरे इसी ब्लॉग ' पर हैं. 27 फरवरी, 2023 की पोस्ट 'मीठी-मीठी बातें' भी देख लें.







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Thursday, 11 July 2024

चचा चटपटे !

शाम का चाय – नाश्ता करके लैपटॉप पर कुछ करने बैठा था (बात न पकड़िएगा, लैपटॉप पर नहीं बैठा था. बैठा तो हस्बेमामूल और आम लोगों की तरह कुर्सी पर था, लैपटॉप मेज पर था और जैसे सब की बोर्ड और माउस से कुछ लिखते/चैटियाते/रीलियाते/फेसबुकियाते हैं … वैसे ही) कि ज़ोर की हांक सी सुनाई पड़ी,

“घर में हो भई कि कहीं गये हो?”

“घर में ही हूँ चचा, आ जाईए !” प्रत्युत्तर में वैसा ही हांकनुमा आमन्त्रण दिया.

चचा के गेट खोलने और सीढ़ियां चढ़ने की आवाज़ सुनाई दी. चचा को तो जानते ही होंगे आप लोग, कई बार मिल चुके हैं. चचा जगतचचा हैं, मतलब मेरे पिताजी की वय के लोग भी इन्हें चचा कहते हैं, मेरी वय के भी और मेरी बेटी की वय के भी और स्कूल जाने वाले बच्चे भी. और तो और, चची भी इन्हें चचा ही कहती हैं, चचा की अम्मी भी और सास भी. जगतचचा हैं तो चचा की लोकप्रियता का अनुमान लगा सकते हैं. चचा की तीन श्रेणियों में मेरे लिए हैं तो चचा बुजुर्गवार की श्रेणी के, किन्तु हमसे नाता चचा यार श्रेणी का रखते हैं. चचा वो हैं जो आ जायें तो कोई वो काम नहीं कर सकता जो कर रहा होता है. चचा कॉल बेल वगैरह के चक्कर में नहीं पड़ते, आवाज़ देते हैं और मोबाईल रखते तो हैं पर कॉल करके कभी नहीं आते, काहे से कि, ‘शहर में कोई एक तुम्ही थोड़े न हो, हर घर में दो – तीन भतीजे तो होंगे ही, ये न मिले तो उससे मिल लेंगे मगर जिसके यहाँ पहले गये हैं वो मिल जाय तो बेहतर.’

                    चचा कमरे में आये. तशरीफ रखी तो सौ बार पूछा सवाल पूछा जिसका हर बार एक ही जवाब मिला. कहा,

“चचा, घण्टी बजा लिया कीजिए ! काहे गले को इतनी तकलीफ देते हैं. आपके बैठने से पहले वह बैठ गया या पड़ गया तो आगे क्या करेंगे ?”


ये घण्टी-घण्टा के चक्कर में हम नहीं पड़ते. कौन सा तुम बादशाह जहांगीर हो जो घण्टा लटकाए हो और हम कौन सा फरियादी हैं जो घण्टा बजाएं.”

“फिर भी ! ऐसी हांक लगाने से इर्द गिर्द के दस घरों तक आवाज़ जाती है, सब जान जाते हैं कि किसके यहाँ कौन आया है.”

“तो ! जान जायं ! कोई चोरी है क्या ? वो तो हम एक और वजह से बजाय घण्टी बजा कर आने के इस तरह मुनादी सी करके आते हैं. बहू-बेटियों वाला घर है. जाने कैसे लेटी-बैठी हों, क्या पहने हों, क्या कर रही हों. ऐसे आने से पता चल जाता है, जिसको पर्दा-उर्दा करना हो कर सकती हैं, कपड़े बदलने हो तो बदल सकती हैं, ठीक से बैठ सकती हैं या अन्दर जा सकती हैं. चचा हैं हम ! बहू-बेटियों कि बेहुरमती न हो, ये ख़्याल तो हमें ही रखना होगा ना !”

“हाँ, यह तो है. कायल हो गया आपके तरीके का.”

“वो तो होओगे ही. हम न ग़लत कहते हैं, न करते हैं.”

“ग़लत तो करते हैं चचा ! अभी पिछली बार आप बाथरूम में वाश बेसिन पर पैर रख कर धो रहे थे. एक पैर उस पर था, दूसरा ज़मीन पर. पता नहीं किस धुन में थे कि बिना वह पैर उतारे दूसरा उठा दिया और धड़ाम हो गये. वो तो फ्रैक्चर नहीं हुआ. और वो जो चाकू से आम खा रहे थे और होंठ कट गया. इस बार भी ज़रूर कुछ अज़ूबा करके आए होंगे”

“अरे वो तो हो गया ! हमारे अलावा ऐसा कोई और कर सकता है भला ? सब करने लगें तो आम लोगों और चचा में क्या फर्क रह जाए !”

“छोड़िए ये सब, आपसे बातों और हरकतों में कौन जीत सकता है भला ! ये बताईए कि चाय-कॉफी लेंगे या शरबत. पहले ये मीठा खाकर पानी पीजिए, उसके बाद जो कहें, पेश हो.”

“चाय-कॉफी या शरबत या मीठा कुछ नहीं. आज तो कुछ खूब चटपटा, तीखा, खट्टा खिलाओ. न हो कुछ ऐसा तो ये करो कि मुट्ठी भर हरे मिर्चे कटवा कर, खूब खटाई, नमक, अचारी मसाला डाल कर छौंकवा दो, तब साथ में चाय चल जायगी.”

गजब ! ऐसा क्या चचा ! आप तो बड़े मिठुआ हैं पर मीठे को मना कर रहे हैं और मिर्चे चबाने को कह रहे हैं!”

“ तो मीठे के बंधुआ थोड़े न हैं. आज सुबह से ही चटपटा खाने का मन कर रहा था, खूब चटपटा, तीखा, खट्टा ! मन को मारा नहीं, खाया भी. बाहर नहीं घर पर ही और ख़ुद बना कर ! मेरा मन भी ऐसा है कि कभी खूब मीठा खाने को करता है, कभी, खट्टा और कभी तीखा. फीका खाने का उतनी शिद्दत से मन नहीं करता, वो तो वैसे ही खाता हूँ. लौकी, तुरई, बीन्स आदि बिना तेल मसाले की ही बनती है और हम दोनों ही चाव से खाते हैं, गरमी में तो लगभग रोज ही. तो आज खूब चटपटा, तीखा, खट्टा की खवास लगी. नाश्ते तक सबर किया, चाय ( ग्रीन टी ) के साथ नमक – रोटी खाई, रोटी में घी भी था. नाश्ते में नमक रोटी हम अक्सर खाते हैं, बासी ( रात की रखी ) हो तो ठीक, नहीं तो तुरंत की बनी भी खा लेते हैं. नमक कभी लहसुन मिर्चा का होता है, मिर्चा कभी हरा तो कभी लाल, तो कभी खटाई मिला, कभी तेल या घी मिला. कभी कई मसाले मिला कर बनाया हुआ.

               आज खूब चटपटा, तीखा, खट्टा खाने मे नाश्ता के बाद शुरुआत पानी में नींबू और नमक से की, खट्टे की वजह से कुछ सन्तोष मिला. फिर खाने के साथ लच्छेदार कटा महीन प्याज सिरका के साथ मिला कर खाया. नारी का खट्टा साग और घुंईया के कोमल पत्तों के साथ बनी चने की दाल तो थी ही. थोड़ी देर बाद फिर तलब लगी तो सिरके में बना सहजन – हरे मिर्च का अचार खाया, रूखा ही, बिना दाल – चावल –रोटी के. मज़ा आ गया तो कई बार खाया. बेटी के बनाए हुए ‘मिर्चौने आलू’ और ‘मिर्चौने चावल’ की याद आयी, वह कभी-कभी बनाती थी, अब तो शादी हो गयी, ससुराल में है नहीं तो बना देती. नवाबगंजी आलू अब देखने को नहीं मिलता नहीं तो उबले हुए और हरी धनिया के साथ मिर्चौने आलू बनते. घण्टा-खांड़ ठीक रहा फिर खूब चटपटे पापड़ ओवन में भून कर खाये…

“हे भगवान चचा ! आप भी क्या हैं ! इतना तीखा, इतना चटपटा, इतना खट्टा ! कुछ उम्र का तो लिहाज करते !”

          उनका ऐसा खाना और यह वय देखते हुए दहशत और उनके बीमार होने आशङ्का से मैंने बीच में टोका.

“उमर का लिहाज ! क्या हुआ हमारी उमर को! माना के अब बाली उमरिया नहीं है और न ही गदह पचीसी मगर अभी अस्सी के भी तो नहीं हुए. बीच में टोक देते हो. बड़ी खराब आदत है, बेसब्रापन है. अब आगे का सुनो हवाल.” और चचा आगे बढ़े.

… शाम को नाश्ते में भुने चने में प्याज छोटा-छोटा कतर कर डाला, एक नींबू निचोड़ा, थोड़ा सिरका, थोड़ा सरसों का तेल, सादा नमक ( साधारण नमक, नमक भी कहीं सादा होता है), थोड़ा मसालेदार नमक डाला. काला नमक डॉक्टर ने मना किया है नहीं तो वह भी डालता. हाथ से अच्छी तरह मिलाया और खाया. चम्मच से मिलाने में वो बात नहीं आती.  तुम्हारी चची ऐसा ज़हर खा न पायीं मगर मुझे मज़ा आ गया. यहाँ आने से पहले फरेंदा को लोटे में डाल कर ऊपर से नमक बुर्राया और अच्छी तरह हिला-हिला कर खूब घुलाया, घुल भी गये और उनमें नमक भी पैबस्त हो गया. इस समय वही खाकर आ रहा हूँ, रात की रात को देखी जाएगी. चचा ही यह सब कर सकते है, नौकरीशुदा या बिजी पेशेवर या व्यापारी या बड़े लोगों के नसीब में कहाँ यह मज़ा !”

“आप ही लें यह मज़ा. हम साधारण आदमी ही भले. अरे माना उम्र कोई बहुत नहीं हुई, अभी अस्सी के नहीं हुए पर यह सब खाने से भयङ्कर एसिडिटी, सीने में जलन होगी. पेट भी खराब होगा, सुबह–शाम जब भी जाएंगे बहुत कष्ट होगा, आगे बवासीर भी हो सकती है. आपको तो यह सब ख़्याल रखना चाहिए. सादा और कम खायें.”

“तुम तो ऐसा खाका खींच रहे हो जैसे हम रोज और आठों याम ऐसा ही खाते हैं. अरे आज खवास लगी तो खा लिया, कल भी लगेगी तो कल भी खा लेंगे मगर रोज ऐसी लगी या आदत बना ली तो खुदै छोड़ देंगे. हम तो सादा जीवन, उच्च विचार के कायल हैं. और फिर एसिडिटी –वेसिडिटी के डर से क्या ज़बान का चटखारा छोड़ दें, मन को मार लें, सधुआ जाएं. ख़ुदा दुश्मन कोप भी ये दिन न दिखाए कि कुछ खाने का मन हो और तकलीफ होगी या आगे चलकर ये हो जाएगा, वो हो जाएगा के डर से खा न सके. कल को मरना ही है तो क्या अभी मर जाएं ! अरे तकलीफ होगी तो डॉक्टर, वैद्य, हकीम काहे के लिए हैं. उनके भी धंधे की फिकर है हमें. दवा ले आएंगे, ठीक हो जाएंगे. फिर सौ बात की एक बात – रोज और आठों याम ऐसा ही नहीं खाते हैं, मन चला तो खा लिया. बात का बतंगड़ बनाते हो. जहाँ फांस न जाय वहाँ बल्ली घुसेड़ने पर लगे हो.

    वो मिर्चे छौंके बहू ने कि हम घर जायं या कोई और घर देखें या अपने घर जाकर खायें ?”

चचा की बात खतम होते न होते बेटी एक ट्रे में चचा की रेसिपी वाले छौंके मिर्चे, भुजिया, पकौड़ियां, चाय और टोकरी भर नसीहतें देकर अन्दर चली गयी.

“सलाम चचा ! नाराज़ न होईए. पापा को तो आपको छेड़ने में मज़ा आता है. वैसे कह तो सही रहे हैं, आपको यह सब इतना और लगातार नहीं खाना चाहिए. मन किया था तो ज़रा सा, मुहँ का जायका बदलने भर को खा लेते. चची नहीं टोकतीं आपको !”  

“येSSSए ल्लो ! काजी घर के चूहे सयाने. बाप सेर तो बेटी सवा सेर ! अब ये भी नसीहत करने लगी. मगर भई, इसकी नसीहत बुरी न लगी, बड़ी प्यारी और जहीन बच्ची है, अल्ला सलामत रखे, खूब पढ़े.” कहते हुए चचा ने मिर्चों की कटोरी उठाई और सी-सी करते हुए खाने लगे. जो खाकर आए थे, वो हल्का रहा होगा, ये निखालिस हरे मिर्चे थे.

खाकर, चाय पी. ज़माने के हालात पर तब्सिरा किया और चलने के इरादे को व्यक्त करते हुए बोले,

“मज़ा आ गया ! चोला मगन हुआ, आत्मा तृप्त हो गयी. अब व्रत पूरा हुआ, जाते में निराला नगर पर बताशे खाता जाऊँ तो उद्यापन हो, पूर्णाहुति हो. चलते हो खाने ?”

“आप ही को मुबारक ! मुझे यह शौक़ नहीं. और चचा, बताशों के पानी में स्वाद जानते हैं काहे से आता है ! वह जो कोहनी तक हाथ घड़े में डाल कर बताशा डुबोता है, उसका स्वाद है. पता नहीं हाथ ठीक से धोता है, नाखून काटता है या नहीं, शर्ट धुली होती है या बताशे के पानी से ही धुल जाती है !”

                         हमने चचा को चिढ़ाया. हम जानते हैं कि वह बताशे वाला साफ-सुथरा रहता है, ठेला तीन तरफ से पन्नी से ढका रहता है, पानी के ड्रम ढक कर रखता है और पानी निकालने वाले से पानी निकालता है, कोहनी तक हाथ डुबो कर नहीं.

“फिर छेड़ा हमें ! जलते हो हमारे खाने –पीने से. जाओ हम नहीं आएंगे अब !” कहते हुए चचा जीने से उतर गए. उनका जाना ऐसे ही होता है, किसी न किसी बात पर तुनक कर जाते है मगर इस बार का तुनकना झूठा था. शब्द कुछ थे, आंखें और मुस्कान कुछ और बयां कर रही थी. देखें अब चचा कब आते हैं और क्या नयी बात बताते हैं.

Wednesday, 10 July 2024

पुस्तक परिचयः ‘जो हिन्दुस्तान हम बना रहे हैं’ और ‘भारत की घड़ी’

 पुस्तक परिचयः ‘जो हिन्दुस्तान हम बना रहे हैं’ और ‘भारत की घड़ी’

आज प्रियदर्शन लिखित दो पुस्तकें, ‘जो हिन्दुस्तान हम बना रहे हैं’ और ‘भारत की घड़ी’ मिलीं. दोनों कथेतर हैं और समय – समय पर लिखे लेखों का संकलन हैं.

पहली किताब, ‘जो हिन्दुस्तान हम बना रहे हैं’ के लेख गत कुछ वर्षों में भारत में हुए बदलाव पर गहन और विवेचनात्मक नज़र और चिंता को व्यक्त करते हैं. इसका उपशीर्षक ‘परम्परा के आईने में भारत की पहचान’ है. शीर्षक, उपशीर्षक और प्रियदर्शन को देखते हुए यह लेख निश्चित ही गत कुछ वर्षों में भारत में हुए आर्थिक बदलाव / ‘विकास’ या राजनीतिक सम्बन्धों पर नहीं हैं बल्कि इस राजनीतिक परिदृश्य में जो सामाजिक, सांस्कृतिक बदलाव, बल्कि विचलन, हुए हैं, संस्कृति और राष्ट्रवाद के आवरण में जो सामाजिक विघटन आदि हुआ है, राष्ट्रवाद की एक नयी और एकांगी अवधारणा विकसित की गयी है – उसका लेखा जोखा है. इस किताब में 46 लेख हैं.

दूसरी किताब, ‘भारत की घड़ी’, भी गत वर्षों में हुए उसी विचलन पर विवेचनात्मक दृष्टि डालती है. इसमें हाल की ही घटनाओं के निहितार्थ ही नहीं बल्कि कुछ पुरानी घटनाएं भी ली गयी हैं, दलित और स्त्री प्रश्नों को भी उठाया गया है. इस किताब का उपशीर्षक ‘बदलते भारत का लेखा जोखा’ है. पहली किताब की तरह इसमें भी आर्थिक प्रश्न / ‘विकास’ नहीं है. लेख भी उपशीर्षकों में बांटे गये हैं – ‘दलित होने का मतलब’, इसमें 6 लेख हैं, ‘विचार और विचारहीनता के संकट’ में 8 लेख हैं, ‘स्त्री होने का मतलब’ में 10 लेख हैं और शुरू में 18 लेख हैं जिन्हें किसी उपशीर्षक में नहीं रखा गया है. इस किताब में कुल 32 लेख हैं.

मेरी समझ में ऐसी किताब उपन्यास या कहानी या नाटक की तरह एक बार में / अविकल पढ़े जाने के लिए नहीं होती, अन्य कथेतर की तरह भी एक साथ पढ़ना उचित न होगा. ऐसा करना अरुचि उत्पन्न कर सकता है, अपच या बोरियत जैसा, आप ऊब कर किताब छोड़ भी सकते हैं या सबका प्रभाव गड्डमड्ड होकर मिट सकता है.

                                 आलेख वाली किताब के आलेख रोज या एक दिन छोड़ कर एक या दो पढ़ने चाहिएं, बल्कि एक-दो आलेख के बाद एक दिन का अन्तराल देकर दूसर्री किताब पढ़ना उचित होगा. मेरा तो यह विचार है, अन्य सुधी/ गम्भीर पाठकों का कोई दूसरा भी हो सकता है – आपका क्या है ? किताब उनके लिए आवश्यक सी है जो इस तरह की किताबें पसन्द करते हैं.

दोनों किताबें सम्भावना प्रकाशन से हैं, पेपरबैक हैं. पहली किताब का दाम 300/- और दूसरी का 350/- है, 650/- की दोनों किताबें प्रकाशक से ( अभिषेक अग्रवाल, फोन नम्बर 7017437410 ) से मंगाने पर 400/- (शिपिंग फ्री) में मिलीं.

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लेखों की चर्चा

अश्लीलता की बात पर कुछ !

अपनी बताई विधि से प्रियदर्शन की किताब, ‘जो हिन्दुस्तान हम बना रहे हैं’ को पढ़ना शुरू किया. इस क्रम में लेख, ‘यह अश्लीलता क्या होती है ? इससे कौन डरता है ?’ को पढ़ा. इसमें अश्लीलता को सतही/रूढ़ अर्थों में ही न लेते हुए उसके विभिन्न आयामों पर चिन्तन है कि अंगप्रदर्शन/ नग्नता के अलावा भी क्या-क्या अश्लील हो सकता है या क्या अधिक अश्लील है – अंगप्रदर्शन/ शारीरिक नंगई या अन्य तरह की नंगई !

            लेख पुराने हैं तो उनमें तत्कालीन घटनाओं को लिया गया है इसलिए अश्लीलता के प्रश्न पर रणवीर सिंह के लगभग नग्न / अश्लील फोटोशूट की/ के बहाने चर्चा है. इस फोटो शूट की चर्चा के साथ कुछ अन्य अश्लीलता विमर्श भी हैं. अगर विस्तार में जाते और लेख पुराना न होता तो समाज में पैसे का अथाह और निर्लज्ज प्रदर्शन, अरबों रुपयों की शादियां और उनका मीडिया द्वारा महिमामण्डन जैसा, चारणगान जैसा बखान, राजनीति में रिसॉर्ट अपसंस्कृति में अकूत धन का खुला खेल, जाति – धर्म का आक्रामक उभार … तमाम चीज़ें अश्लीलता / विद्रूप की श्रेणी में ही आती हैं – इन पर भी बात होती. जब देश की बड़ी आबादी अभाव की सीमा पर जीवन – यापन कर रही हो, चिकित्सा, शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय आदि की धरातल वाली स्थिति बदहाल हो, तब तो यह सब और अश्लील लगता है. लेख पुराना है अन्यथा रणवीर सिंह की नंगई के साथ इस समय की, देश की अति चर्चित, बल्कि विदेश में भी चर्चित, शादी में करोड़ों की फीस पर आईटम गर्ल का नाच – गाना, एक सेलिब्रिटी का ड्रेस सेन्स, शादी का कॉर्ड व धन का निर्लज्ज प्रदर्शन की भी चर्चा होती. जो होता, सो होता, अभी लेख के कुछ अंश देखें –

… अभिनेता रणवीर सिंह के बेलिबास फोटो शूट पर शुरू हुआ हंगामा थाने-कचहरी तक पहुँच चुका है. निश्चय ही जिस सांस्कृतिक-सामाजिक माहौल में हम पले-बढ़े हैं, उसमें ऐसी बेलिहाज़-बेलिबास तस्वीरें कुछ खटकती हैं. वे सुरुचिपूर्ण नहीं लगतीं. लेकिन किसी दृश्य का खटकना या उसका सुरुचिपूर्ण न लगना और उसको अश्लील मान लेना दो अलग – अलग बातें हैं. रुचि या सुरुचि काफी कुछ सामाजिक संस्कारों द्वारा निर्मित चीज़ होती है, जिसमें समय के साथ बदलाव भी आते हैं. यही बात अश्लीलता की अवधारणा के बारे में कही जा सकती है. जो चीज़ें कल तक अश्लील लगती थीं आज वे सुरुचिपूर्ण मालूम होती हैं. पचास और साठ के दशकों की जिन फ़िल्मों को तब के बूढ़े-बुजुर्ग नौजवानों को बिगाड़ने वाली बताया करते थे, वे अब क्लासिक का दर्जा पा चुकी हैं. बहुत सारा ऐसा साहित्य जो बीते दिनों अश्लीलता के आरोप में जला दिया गया, अब महान मान लिया गया है.

          रणवीर सिंह की तस्वीरों पर कई ऐतराज हैं. यह कहा गया कि वे तस्वीरें अश्लील हैं. यह भी कहा गया कि उनसे महिलाओं की भावनाओं को ठेस पहुँचती है. वे कला का नमूना नहीं हैं. उनसे पैसे कमाने की मंशा है. जहाँ तक अंतिम दो ऐतराजों की बात है, उनका कोई ज़्यादा मतलब नहीं है. जो चीज़ कला का नमूना न हो या पैसे कमाने के लिए की जा रही हो, यह ज़रूरी नहीं कि वह ओछी भी हो और उस पर पाबंदी लगाई जाए…

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… अश्लीलता के सवाल पर आते हैं. अश्लीलता के बारे में कई बातें कही जाती हैं. … कई बार कुछ लोगों की हँसी भी अश्लील हो सकती है और कुछ लोगों की चुप्पी भी. जब लोकसभा में रेणुका चौधरी पर ताना कसते हुए इस देश के प्रधानमंत्री ने शूर्पनखा की हँसी को याद किया था और उनके साथ पूरा सदन ठठा कर हँस पड़ा था तो वह एक अश्लील दृश्य था. जब हस्तिनापुर के दरबार में द्रोपदी का वस्त्रहरण हो रहा था तब सारे महारथियों की चुप्पी अश्लील थी. नकली विरोध भी अश्लील हो सकता है और अंध श्रद्धा भी. कभी देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने बनारस में 500 ब्राह्मणों के पांव धोए थे. डॉ. राममनोहर लोहिया ने इसे अश्लीलता की संज्ञा दी थी. उन्होंने कहा था कि जो समाज जाति के नाम पर किसी के पांव धोता हो, वह उदासी में डूबा समाज ही हो सकता है…

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… रणवीर सिंह के फोटो शूट पर लौटें. अगर कुछ लोगों को यह मर्यादा विरुद्ध लग रहा है तो वे इसे न देखने को स्वतन्त्र हैं. संकट यह है कि मर्यादा का अपना भाष्य वे बाक़ी समाज पर भी थोपना चाहते हैं. और फिर इस तथाकथित मर्यादा की चपेट में सबसे पहले और सबसे ज़्यादा स्त्रियां आती हैं. लगभग हर समाज उनका ‘ड्रेस कोड’ तय करने को तैयार रहता है. हर देश में एक ‘डिज़ाइनर अच्छी लड़की’ बनाने की कोशिश होती है. यह कोशिश इस कदर खतरनाक होती है कि वह लड़कियों के हर कदम को नियन्त्रित करने में लग जाती है.लड़कियों का प्रेम करना तो पाप होता है, बाहर घूमना, किसी से खुल कर बात कर लेना, खिलखिला कर हँस देना या किसी की बात मानने से इन्कार कर देना भी ऐसा अपराध हो सकता है जिसके लिए उन्हें पीटा जाए, जलाया जाए और उनके साथ बलात्कार भी किया जाए.

                    लेकिन अगर मर्यादा की परम्परा स्त्री के साथ इस कदर अन्यायी है तो ख़ुद को आधुनिकता की तरह पेश करने वाली खुलेपन की परम्परा उनके साथ दूसरे छल करती है. दरअसल परम्परा लड़की का घर में गला घोंटती है तो आधुनिकता बाज़ार में उसको बेलिबास कर मारती है. अश्लीलता की किसी भी बहस का फायदा उठाने में बाज़ार सबसे आगे होता है. कभी वह परम्परा के साथ खड़ा होता है और कभी आधुनिकता के साथ. उसे न तो परम्परा से लगाव है और न आधुनिकता से. उसे बस अपने मुनाफे से लगाव है, जो बेशक, खुलेपन से कुछ ज़्यादा सधता है. लेकिन यह सच है कि खुलेपन के नाम पर बाज़ार कई बार अपनी छुपी हुई अश्लीलता पर समाज की मुहर लगाने की कोशिश में लगा रहता है…

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लेखक की रणवीर सिंह के फोटो शूट विषयक मान्यता से लगता है कि वह इसके पक्ष में है, शायद इसे लेखक ने महसूस भी किया और बिना सशक्त पक्ष रखे इसे लपेटने के प्रयास में अंत में कहा, ‘… रणवीर सिंह का फोटो शूट कहीं से भी कलात्मक नहीं है – न वे इसका दावा कर रहे हैं, उनके लिए वह उनकी कारोबारी प्राथमिकताओं का मामला है …