चाय नाश्ता वगैरह करके कम्प्यूटर खोला ही था कि घण्टी बजी, देखा तो छबीले थे. ऊपर बुलाया, आये और बैठे. बैठे तो मगर चैन से नहीं बैठे. बार-बार पहलू बदल रहे थे, लगा कि कुछ है जिसने उन्हें परेशान कर रखा है. मुखमुद्रा से लग रहा था जैसे कोई शंका बार–बार सर उठा कर उन्हें उद्विग्न कर रही हो, शंका भी लघु अथवा दीर्घ प्रकृति की नहीं, उससे भी बड़ी, वो होती तो अपने घर पर या रस्ते में ही कहीं उसका समाधान कर लिए होते, मेरे पास आये तो निश्चित ही मामला इससे कुछ ऊपर का था. ऐसा इसलिए भी लगा कि चाय पूछने पर बिल्कुल मना कर दिया. बोले, “एक बात पूछनी थी, कल से परेशान किये हुए है.” “पूछो, लग रहा है कि कोई खास बात है. “ “ नहीं, खास तो कुछ नहीं, एक शब्द अटक गया. ये गम्भु क्या होता है ?” “गम्भु !?!” “ये तो कभी सुना या पढ़ा नहीं. तुमने कहाँ पढ़ या सुन लिया ?” “वो सब बाद में बतायेंगे, अभी बहुत ज़ल्दी में हैं, काम पर जाना है. रात भर खौलन मची रही तो काम पर जाने से पहले आ गये नहीं तो रात में आते आराम से ! आप देख कर रखिये.” इतना कहते न कहते नीचे से आवाज़ आ गयी कि चलो भाई, देर हो रही है. उनके साथ काम करने वाला बुला रहा था. जाते-जाते कहते गये कि रात को आराम से आते हैं, आप इसका मतलब ढूँढ कर रखिये नहीं तो खाना हजम न होगा.
वो तो गये मगर
मुझे उलझन में डाल गये. इनसे मेरा पढ़ने का नाता है. मिस्त्री हैं मगर गजब के पढ़ाकू
भी हैं. पिछले बरस कुछ मरम्मत का काम लगवाया था तो मैं देखभाल के लिए और इसलिए भी
कि कोई चीज़ कम पड़े तो इंतज़ाम करूँ, इस मतलब
से इनके पास ही बैठा रहता था. अब मरम्मत में मेरा क्या दखल
सो बैठा कोई किताब पढ़ता रहता था, तभी इन्होंने बताया कि ये
भी पढ़ने के बहुत शौक़ीन हैं और झोले से एक किताब भी निकाल कर दिखाई कि रात में पढ़ते
हैं और काम से लौटते हुए बदल कर दूसरी लेते हुए जाते हैं. वे किराये पर किताब लाते
थे. मुझे बहुत अच्छा लगा कि एक तो पढ़ने के शौक़ीन, दूसरे यह
कि अभी भी ऐसी लाईब्रेरियां हैं जो किताब दैनिक किराये पर देती हैं. मेरे और उनके
पढ़ाकूपन में अन्तर यह था कि वे केवल जासूसी उपन्यास पढ़ने के शौक़ीन थे जबकि मैं सभी
तरह की किताबें पढ़ता हूँ. मिलते हुए शौक़ के चलते वो गाहे-बगाहे आ जाते हैं और कभी
कभार मुझसे किताब ले जाते हैं तो देने भी आते हैं और जासूसी उपन्यासों के पात्रों
पर या प्लॉट पर बात होती है.
खैर,
वे गये तो मगर मुझे उलझन में डाल गये. अब ‘गम्भु’
न कभी सुना, न पढ़ा. शब्द विन्यास देखते हुए
लगा कि संस्कृत का कोई शब्द हो सकता है मगर उनकी पाठकीय अभिरुचि देखते हुए कोई
चलताऊ या भदेस या लोक भाषा का शब्द होने की सम्भावना भी थी. सब तलाशा. शब्दकोश
देखे, वामन शिवराम आप्टे का ‘संस्कृत
हिन्दी शब्दकोश’ भी देखा और उसमें न मिला तो ‘उर्दू हिन्दी शब्दकोश’ भी देखा और वहाँ से भी निराश
होकर अजित बडनेरकर के ‘शब्दों का सफर’ के
भी दो खण्ड देख डाले. यह भी विचार आया कि गम्भु शम्भु से मिलता-जुलता शब्द है,
कहीं शिव जी से सम्बन्धित कोई लोक कथा तो नहीं. ध्यान आया कि शिव जी कथा सुनने काकभुसुन्डि
जी के आश्रम गए थे, अब मुझ से पामर जन वहाँ कहाँ
जा पाते तो यह रास्ता छोड़ दिया फिर भी कुछ वैसे लोगों से चर्चा की पर कुछ हल
न मिला. एक ने किसी किसान के पास जाने की सलाह दी क्योंकि उसके पास हल होता है मगर
मैंने यह सलाह न मानी. किसी नेता के पास ख़ुद ही न गया, जाता तो वह ऐसा घुमा देता कि
निकल ही न पाता .
एक अपना व्हाट्स
ऐप ग्रुप है, उसमें भी एक से एक पढ़ाकू लोग हैं,
उसमें भी पूछा किंतु वहाँ भी कोई न बता पाया. फेसबुक पर पूछना रह
गया, वहाँ तो कोई न कोई बता ही देता, एक
से एक धुरन्धर भरे हैं फेसबुक पर. न भी बताता तो भी मनोरञ्जन तो होता ही ! कैसी भी
पोस्ट हो, उस पर
रायता फैला कर उसे दूसरी दिशा में ले जाने में माहिर हैं कुछ फेसबुकिये ! कुछ में
हम भी हैं, एक दो गम्भीर या ललित किस्म की पोस्ट्स पर हमने
ऐसा रायता फैलाया कि मूल पोस्ट दरकिनार हो गयी, पोस्टक भी
भूल गया होगा कि ये पोस्ट थी काहे पर और उसने की थी या इन लोगों ने, जो मार गदर मचाये पड़े हैं. खैर, ‘गम्भु’ न मिला. खीझ भी हो रही थी और शर्मिंदगी भी हो रही थी कि वह आकर कहेगा कि
वैसे तो मार तमाम किताबें पढ़ते रहते हैं – कथेतर, आलोचना, ये विमर्श- वो विमर्श, आयोजनों में भी पिले रहते हैं मगर ज़रा सा ये न बता पाये. फिर हमारे –
आपमें क्या फर्क रहा !
शाम को वह आया.
काम से लौट कर घर नहीं गया, सीधे यहीं आ गया. आते ही
पूछा, “मिला गम्भु का मतलब ? ये गम्भु
होता क्या है ? किस काम आता है ? कहाँ
मिलता है ?” “भई मिला तो नहीं मगर दम तो लो. चाय-शाय पियो
और बताओ कि तुमने कहाँ पढ़ा ? कुछ सन्दर्भ मिले तो बताना आसान हो.” “साहब ! पढ़ा
नहीं, सुना है.” “ऐं ! सुना है ! कहाँ
सुना, किसने कहा ?” एक साथ कई सवाल पूछ
डाले. “अरे सुनना कहाँ था, हम कौन सा
गोष्ठी ऊष्ठी में जाते हैं, रेडियो पर सुना.” “रेडियो पर ! कोई वार्ता-आर्ता थी क्या ‘लोकायतन’
या ‘कृषि दर्शन’ में ?”
“अरे नहीं
! हम ऊ सब नहीं सुनते, बस गाने सुनते हैं. कल एक किताब पढ़
रहे थे और रेडियो भी बज रहा था. सुनील भाई मुलतानी खुलासा करने ही वाले थे कि
स्टडी बंद की बंद, लॉक से कोई छेड़छाड़ नहीं तो बिना
खिड़की-रोशनदान वाली स्टडी में कैसे खून हो गया कि गाना बजा, ‘मुझे पीने का शौख नहीं पीता हूँ गम्भु लाने को’ अब
ये गम्भु क्या है और क्या ऐसी जरूरी चीज है कि पीने का शौख न होते हुए भी गम्भु
लाने को पीना पड़े. बस तबसे इसी उलझन में पड़े हैं कि क्या होता है ये औ किस काम
आता है, कहाँ मिलता है ? काम का हो और बहुत महँगा न मिले तो हम भी लाकर रख लें थोड़ा
!
“धत्त तेरे
की !” मैनें कपार ठोक लिया. “अरे घामड़
! ये ‘गम्भु लाने को’ नहीं “ग़म भुलाने को” है. वह ग़म भुलाने के लिए पीता है न कि
गम्भु कोई चीज़ है जिसे लाने को पीता है. खामख़्वाह सर घुमा दिया, ठीक से सुना करो.”
“ओह ! तो
ये था ! तो ठीक से गाया करें ना ! आप भी सुनिए, सुनाई न पडे गम्भु तो कहिएगा.
हम भी खामखाँ मार परेशान हो गये. अच्छा चलता
हूँ. अब नींद अच्छी आयेगी.”
हमने तो कपार ठोक
लिया,
अब आप भी ठोक रहे होंगे ये पढ़ कर. खोदा पहाड़, निकला
चूहा ! वाह रे गम्भु !


















