Followers

Friday, 29 August 2025

शादी-बारातों में नाऊ

सहालग चल रही है, लगभग रोज ही किसी न किसी शादी में जाना होता है. अब जाते हैं तो खाली खाना खाने और यथायोग्य देने ही थोड़े न जाते हैं, बारात आने के पूर्वकाल से लेकर अपनी वापसी तक बहुत कुछ देखते भी हैं. शादियों का पुराना दौर, अनेक व्यवस्थाएँ, रीति-रिवाज़ याद आते हैं जो अब की शादियों में नहीं दिखते.

पहले, करीब चालीस साल पहले तक, लड़की वालों की तरफ से जनवासे में नाऊ, धोबी और मोची की व्यवस्था ज़रूर होती थी. वैसे तो नाऊ दोनों तरफ से होता है मगर वह नाऊ 'नाऊ ठाकुर' होता है. वह ऐपनवारी/तेलवारा ले जाने व अन्य नेगचार के लिए होता है, बहुत पहले नाऊ दूर दराज से लेकर निकट के गाँवों में शादी का न्योता लेकर भी जाते थे. वे लोटा-डोर लेकर, खाने का कुछ सामान साथ लेकर प्रायः पैदल ही जाते थे. पुराना समय था, बाग़-बगीचे, अमराई आदि खूब थे, वे दोपहर में आराम के लिए व रात हो जाने पर उन्हीं में ठहर जाते थे. कुंआ भी होता था तो स्नान, पानी पीना कुंवे पर होता था. प्रायः कुंआ पर सार्वजनिक प्रयोग के लिए बाल्टी रखी रहती थी, रस्सी होती थी तो नहाना, धोती छांटना हो जाता था. सत्तू, चबेना वगैरह खा लिया, कुछ सामान हुआ तो रसोई कर ली. लकड़ी बाग़ से बीन लाये, ईंटों का चूल्हा बनाया और दो-चार टिक्कड़ सेंक लिए, हो गया खाना ! खाने के बाद तान कर सो रहे. सुबह या शाम फिर चल पड़े. जब जजमान ( जिसे निमन्त्रण देना हो ) के घर पहुँचे तो खाने ठहरने की व्यवस्था जजमान करता था या कच्चा सामान दे देता था, जगह बता देता था, नाऊ ठाकुर ख़ुद रसोई करते थे. दूसरे दिन विदाई मिलती थी, जवाबी संदेशा हो तो वह भी मिलता था, फिर चल पड़े अगले जजमान के यहाँ. ज़ाहिर है, इस तरह निमन्त्रण देने में नहीं महीनों तो पखवारा तो लग ही जाता था. एक ही जजमान को निमन्त्रण देना हो तो भी तीन दिन लग सकते थे. नाऊ बिचौलिया भी होता था. नाऊ की पत्नी नाऊन कही जाती थी. शादी का वह भी एक मुख्य पात्र होती थी. रस्मों में उसका काम और नेग होता था, अब भी होता है. वह बुलौआ देने, न्योता बांटने ( शादी के बाद लड़की के मायके से आये पकवान घर-घर बांटने ) भी जाती थी. इसके लिए भी उसे घरों से नेग मिलता था. अब डाक से कार्ड बांटने, ख़ुद जाकर देने और व्हाट्स ऐप पर स्कैन करके कार्ड व  इस हेतु बनवाया वीडियो भेज देने से नाऊ के यह परम्परागत कार्य लुप्त हो गये हैं, वैसे नाऊ भी अब नहीं होते, कोई भेजे भी तो अब वे भी अब बाईक से तय की जाने वाली दूरी तक बाईक से ही जायेंगे.   


कलाकार, नाटककार, भोजपुरी के सेक्सपियर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर जात से भी नाऊ थे, गाँव में नाऊगिरी ( दाढ़ी बनाना, बाल काटना आदि ) भी करते थे और इस तरह की निमंत्रण देने वाली नाऊगिरी भी. उन पर आधारित  संजीव के उपन्यास, 'सूत्रधार' में इसका वर्णन है.
    
 ऐसा नाऊ नाऊगिरी के के अन्य कार्य, जैसे दाढ़ी बनाना, बाल काटना आदि, उस समय नहीं करता और जनवासे में भी तैनात नही होता. जनवासे में एक अलग नाऊ होता था जो इच्छुक बरातियों की दाढ़ी बनाता था, बाल वगैरह न वह काटता था, न ही कोई बाराती कटाते थे. ऐसे ही धोबी केवल प्रेस करता था और मोची केवल पॉलिश करता था. बारात चाहे बाहर से आ रही हो या लोकल, ये तीन ज़रूर जनवासे में तैनात किए जाते थे.

बाहर से आने वाली बारातों के लिए तो यह निहायत ज़रूरी था, लोकल के लिए भी ज़रूरी था. बाराती सुबह या दोपहर में चले होते थे, दाढ़ी तब तक फिर से बनाने लायक हो चुकी होती थी. कुछ बाराती ऐसे होते थे कि कल तो बारात आना ही है तो आज क्यों बनवाएँ/बनाएँ, वहीं बनवाएँगे. ऐसे ही बारात के समय पहनने वाले कपड़े अटैची/बैग में मुस जाते थे तो उन्हें वहीं प्रेस कराना होता, जूते/चप्पल धूलमण्डित हो चुके होते, उन्हें भी वहीं पॉलिश कराना होता. एक बार तो ऐसे जड़ियल बाराती मिले जिन्होंने सगर्व बताया कि जूता तो हम बस बरातन मा पालिस कराइत है ! अब कौन दूसरे शहर/गाँव जाकर कपड़ा-जूता उठाए नौव्वा, धोबी और मोची ढूँढे और उससे बड़ी बात कि क्यों ढूँढे - बरात जा रहे हैं कि बात ! नशा-पत्ती वगैरह आत्मनिर्भर लोग ख़ुद लेकर आते थे, बहुधा तो वर का बाप/बड़ा भाई या वर करता था. यह व्यवस्था आज की अधिकांश बारातों में होती है, वैसे हमने एक बारात में बारात जनवासे में उतरने और जलपान के बीच लड़की वालों को देखा है जो बारातियों को भांग के लिए पूछ रहे थे और बहुतेरे ग्रहण कर रहे थे. बहुत नहीं, बस चालीस साल पुरानी बात है यह, हम बाराती थे, सहकर्मी की शादी थी, हमसे भी पूछा गया पर भांग में हमारी रुचि न थी और बाक़ी इस मामले में हम 'आत्मनिर्भर' थे. यह सब 'स्वागत बारात' का पूर्वाङ्ग होता था.

लोकल बारात में भी जनवासे में नाऊ, धोबी, मोची की व्यवस्था होती थी, काहे से कि बहुत से बाराती (निकट सम्बन्धी व मित्र) रात रुकते व दुल्हन विदा करा कर ही आते थे तो दो सेट कपड़े लाते थे, कुछ रात में लौटने वाले भी बारातयोग्य कपड़े वहीं बदलते हैं, दाढ़ी वहीं/फिर से बनवाते, जूता चमकवाते हैं - कारण वही, बाराती हैं कि बात !

अब जनवासे में बारात के लिए ये सब नहीं होते. लोग तैयार होकर ही आते हैं. अधिकांश लोग अपने साधन से आते हैं तो कपड़े खराब भी नहीं होते या कार में ही हैंगर मे सूट टांग कर लाते हैं. लड़कों को चेन्ज करने में न उतना समय लगता है, न कोई खास आड़ चाहिए, जब लघुशंका आदि से कहीं भी निवृत्त हो लेते हैं तो कपड़े बदलने में कैसी आड़. लड़कियां/औरतें तो तैयार होकर ही आती हैं, अगर वहाँ तैयार होने की सोचें तो बारात आधी रात के बाद या भोर पहर ही उठ पाये.
नाऊ की ज़रूरत तो अब होती नहीं, काहे से कि पहले क्लीन शेव्ड/पतली मूंछों वाले, चाकलेटी चेहरे वाले, झेंपे-झेंपे से दूल्हे परम्परा में थे , अब कई सालों से दढ़ियल दूल्हे परम्परा में हैं. सौ में लगभग नब्बे दूल्हे (लगभग इसलिए कि गाँव के व बाल विवाह वाले दूल्हे छोड़ दिए ) ऐसे ही होते हैं, दाढ़ी अलबत्ता करीने से सेट होती है. बाबा छाप दाढ़ी में अभी समय है.
दूल्हा ही नहीं, लगभग सारे ही पुरुष बाराती दाढ़ी रखाए होते हैं. बच्चों को ज़रूरत नहीं और जो दो-चार बड़ी उमर के या रूढ़िवादी बाराती क्लीन शेव्ड या दाढ़ी बनाये होते हैं तो उनके लिए क्या ये झण्झट पालना.

वैसे एक पोस्ट पर दढ़ियल दूल्हों के दाढ़ी बनवा कर आने की शर्त रखने की बात की गयी तो एक ने जनवासे में इस काम के लिए नाऊ तैनात करने का सुझाव दिया, वो बहुमत से खारिज़ हो गया पर जनवासे में नाऊ रखा जा सकता है, बल्कि अब और उपयोगी होगा - दाढ़ी बनाने नहीं बल्कि सेट करने के लिए ! वैसे तो सब सुबह या दोपहर या शाम को सेट करा कर ही आये होते हैं पर सुबह या दोपहर को सेट करा कर आने वालों को ज़रूरत हो सकती है -

... देखों, मेन दाढ़ी के अलावा बाक़ी पर ज़ीरो नम्बर चला दो, चिन के आस-पास एक नम्बर, दोनों साईड और नीचे ब्लेड लगेगा, गुद्दी पर भी ब्लेड लगा दो. कान के ऊपर वैसे तो अभी सही है, मगर तीन या चार नम्बर चला दो और जो इधर-उधर हो रहे हैं, उन्हें कैंची से ठीक कर दो. बाक़ी और कुछ मत करना, दोपहर को सेट तो करा ही चुके हैं ...

तो देखा, पड़ सकती है ना जनवासे में नाऊ की ज़रूरत ! दढ़ियल दूल्हे और बारातियों के बावजूद ! 

Monday, 4 August 2025

“देवी सरस्वती की कैद, स्मृतिलोप - पारलौकिक कथाएँ"

 

“देवी सरस्वती की कैद, स्मृतिलोप - पारलौकिक कथाएँ"

'बिभूतिभूषण की पारलौकिक कथाएँ' पढ़ी. जैसा कि शीर्षक से स्पष्ट है, यह बांग्ला के प्रसिद्ध लेखक, बिभूतिभूषण बंद्योपाध्याय की पारलौकिक कथाओं का संकलन है. यह खण्ड 1 है अर्थात उन्होंने ऐसी और भी कथाएँ लिखीं हैं जो आगे दूसरे खण्ड में प्रकाशित जी जाएंगी. बांग्ला से हिन्दी में अनुवाद जयदीप शेखर ने किया है, किताब 'साहित्य विमर्श प्रकाशन' से प्रकाशित है.
                 पारलौकिक से आशय इस लोक, पृथ्वी लोक, से इतर लोक से है. यह देवलोक भी हो सकता है और पृथ्वी और देवलोक से अलग कोई लोक भी जहाँ वे लोग रहते हैं जिनकी मृत्यु हो चुकी है पर वे मुक्त नहीं हुए या पुर्नजन्म नहीं हुआ, आत्मा रूप में हैं. मृतकात्मा के अतिरिक्त वे भी हो सकते हैं जो कभी मनुष्य थे ही नहीं, प्रारम्भ से ही अन्य योनि में थे. 
पारलौकिक क्या है ? इसे एक कहानी की शुरुआत में बताया गया है –

“जीवन में बहुत कुछ ऐसा घटता है, जिसका कोई तर्कसंगत कारण नहीं खोजा जा सकता - उन्हें हम लोग पारलौकिक नाम देते हैं. कह नहीं सकता, लेकिन खोजने पर शायद उनके पीछे सहज एवं सम्पूर्ण स्वाभाविक कारण का पता चले. क्या पता, मनुष्य के विचार, बुद्धि एवं अभिज्ञता के दायरे के बाहर का कोई कारण मौजूद हो - इसे लेकर मैं तर्क नहीं करूँगा, सिर्फ इतना कहूँगा कि ऐसा कोई कारण यदि हो, तो हम जैसे सामान्य मनुष्यों द्वारा उनका पता लगा पाना चूँकि सम्भव नहीं है, इसलिए ही उन्हें पारलौकिक कहा जाता है."
   

   - इसी किताब की कहानी 'रंकिणी देवी का खड्ग' (बांग्ला शीर्षकःरंकिणी देबी'र खड़ग) से.  

यह अंश पारलौकिक को बहुत हद तक व्यक्त कर देता है. यह अंश प्रकारान्तर से इस धारणा की पुष्टि करता है कि पारलौकिक जगत है, उस जगत के में प्राणी भी हैं जो आकार-प्रकार में लौकिक जगत के प्राणियों से भिन्न किन्तु अत्याधिक शक्तिसम्पन्न होने हैं. वे रहस्यमय, डरावने, मानव की अपेक्षा दूने-तिगुने और विचित्र/भयंकर, कभी अशरीरी - मात्र आवाज़ या गतिविधि से उपस्थिति का आभास कराने वाले और अनिष्ट करने वाले, जान तक ले लेने वाले हो सकते हैं त्क कुछ सामान्य और परिचित व्यक्तियों के रूप में और आसन्न घटनाओं की सूचना देने वाले, संकट के प्रति सचेत करने वाले हो सकते हैं. इन्हें आत्मा, भूत-प्रेत, जिन्न, पिशाच आदि का नाम दिया जाता है. बहुधा इनका प्रार्दुभाव रात्रि में और श्मशान, निर्जन स्थान, निर्जन घर/खण्डहर, वृक्ष आदि पर होता है. ये दिख भी सकते हैं और नहीं भी. कभी ये अपने क्षेत्र में अतिक्रमण करने वालों पर प्रतिक्रिया करते हैं तो कभी तान्त्रिक अनुष्ठान आदि द्वारा आमन्त्रित किए जाने पर आते हैं. अशरीरी होते हुए भी खून पीते हो सकते हैं ( 03 अगस्त, 2025 को) 'हिन्दुस्तान' में मनोहर शर्मा 'माया' की एक आपबीती 'लौट आई थी माया' पढ़ी जिसमें लेखक की पूर्वपत्नी माया उसकी वर्तमान पत्नी के शरीर पर कब्ज़ा किए है और बताती है कि वह प्रेत योनि में है और लता, उसकी वर्तमान पत्नी के शरीर में रह कर उसका रक्त पीती है. कुछ माह और इसके साथ रही तो यह मर जायेगी, अतः उसे प्रेत योनि से मुक्त करने की व्यवस्था करें.)

लख चौरासी योनियों में यह सब अशरीरी योनियां भी आती हैं. मज़े की बात यह कि भले ही ऐसा साहित्य संस्मरण/आपबीती न होकर काल्पनिक कथा साहित्य हो, बताते/स्थापित करते सभी यह हैं कि यह सब सत्य घटनाएं हैं जो उनके या किसी के साथ वास्तव में घटी हैं, बस रोचकता के लिए कल्पना और संवादों की छौंक लगा दी है. प्रकान्तर से यह स्थापित करना हुआ कि भले अधिकांश लोग इन पर विश्वास न करें, विज्ञान प्रमाणित न कर सके, कार्य-कारण सम्बन्ध न हो, सब है और होता है, जब तुम पर पड़ेगी तब जानोगे !
              ************
इस संकलन में ऐसी ही कहानियाँ हैं. लेखक स्वयं इन सबमें विश्वास करते थे. उन्हें कई पारलौकिक अनुभव भी हुए. उन्होंने अपने पुत्र को अपनी आयु देकर बचाया, आयुदान के छह माह बाद उनकी मृत्यु हो गयी. इसके अतिरिक्त उन्होंने जाग्रत किन्तु मोहाविष्टावस्था में अपनी मृत देह भी देखी. इस किताब में तारानाथ तान्त्रिक की दो कहानियां वस्तुतः उनके स्वसुर, षौड़सीकान्त चट्टोपाध्याय की कहानी है जो तन्त्र साधना करते थे. तन्त्र साधना द्वारा उन्होंने अलौकिक योनियों के लोगों को प्रकट किया. कहा जा सकता है कि अन्य कहानियाँ भी गल्प होते हुए वास्तविक अनुभवों पर आधारित हैं. वे तो मानते ही थे, पाठक भी मान सकते हैं कि यह सब होता है/हुआ है.

कहानियों में तरह तरह के पारलौकिक योनियों के लोग, भूत आदि हैं, घटनाएँ हैं. 'विरजा होम में बाधा' का पात्र वैद्य है,वह औषधि के साथ हवन व तन्त्र से भी उपचार करता है. एक गाँव में एक लड़के को विरजा होम के द्वारा स्वस्थ करने जाता है. एक रहस्यमयी महिला (आत्मा) उसे उपचार व हवन करने को मना करती है कि लड़का बचेगा नहीं. वह तब भी हवन को उद्धत होता है तो दोमंज़िले मकान के आकार जितनी भयंकर आकृति उसे आगाह करती है. लड़का मर जाता है.
एक अन्य कहानी 'काशी कविराज की कहानी' में भी वैद्य एक जमींदार के पुत्र का उपचार करने जाते हैं तो जमींदार की पहली पत्नी का प्रेत (वह सौम्य रूप में आती है ) उन्हें निर्देश देता है, बात करता है.
'भूत बसेरा' में एक मकान भुतहा है जिसमें भूत लीला होती है तो 'भुतहा पलंग' में एक चीनी पलंग भूतग्रस्त है जो खरीदार को मरणासन्न कर देता है. 'रंकिणी देवी का खड्ग' में एक भयंकर देवी का खड्ग महामारी से पूर्व रक्तरंजित हो जाता है.
कई कहानियाँ हैं. रोमाञ्च तो है पर हॉरर नहीं, जुगुप्सा नहीं या कह सकते हैं मुझे महसूस न हुआ.
इस प्रकार की कहानियों में रुचि है तो यह किताब पढ़ें.
               *********
मुझे आपत्ति है इस किताब की एक कहानी 'मेघ मल्हार' पर.  क्यों है ? यह आगे स्पष्ट किया है. आप देखें कि क्या यह कहानी वास्तव में आपत्तिजनक है या मुझे ही ऐसा लगा.

           
                    पुस्तक परिचय बहुत हो गया, अब आते हैं पोस्ट के मुख्य बिन्दु/ शीर्षक 'देवी सरस्वती की कैद, स्मृतिलोप' पर ! इन पारलौकिक शक्तियों पर विश्वास करें न करें, भगवान और देवी-देवताओं पर तो विश्व भर में विश्वास किया जाता है, यहाँ तक कि नास्तिकों में से भी कुछ 'संदेहभक्त' होते हैं,'अगर भगवान होता है तो !' तब आस्तिक और आस्थावान धर्मप्राणों का कहना ही क्या ! भगवान व देवी देवता अनादि, अनन्त, मन-बुद्धि-इन्द्रियों से परे, सर्वशक्तिमान, घट-घट व्यापी, सबके मन की जानने वाले, देश काल से परे, 'नेति-नेति' (इतना ही नहीं, और भी है !) होते हैं. मानवों से तो वे परे और महाशक्तिमान होते हैं. मानव उनका कुछ (अनिष्ट) कर नहीं सकता. भगवान भगत के वश में होते हैं पर ऐसा होते हुए भी हर क्षण स्वतन्त्र और सजग, समर्थ होते हैं, जब चाहे मायाजाल समेट सकते हैं.
        ऐसे में इस संग्रह की 'स्टार' कहानी 'मेघ-मल्हार' (बांग्ला शीर्षकःमेघमल्लार) इस पर प्रश्न खड़े करती है, अविश्वसनीय और हास्यास्पद है. कहानी गल्प/काल्पनिक हो सकती है जो इस जॉनर में मनोरंजन के लिए लिखी गयी या फिर रोचकता के लिए कल्पना-संवाद की छौंक लगा कर प्रस्तुत की वास्तविक घटना - पर दोनों ही स्थितियों में अनुचित, अविश्वसनीय, हास्यास्पद और भगवान / देवी-देवताओं की मानसिक व शारीरिक शक्ति को मानव से बहुत कम होने के रूप में प्रस्तुत करती है. गल्प हो तो यह ईशनिंदा के समान है वैसे प्रकारान्तर से इसे भी सत्याधारित कहने की चेष्टा है.
             **********
कहानी सार कुछ यह है कि दो तान्त्रिक देवी सरस्वती को जाग्रत/शरीरी रूप में प्रकट करने का अनुष्ठान करते हैं. देवी प्रकट होती हैं. वे अतीव सुन्दरी, अलौकिक/दिव्य आभा से युक्त, मोहक देहयष्टि वाली तरुणी हैं. उनमें से एक साधक,सूरदास ने तो माँ सरस्वती से देश के संगीतज्ञों के मध्य श्रेष्ठ स्थान प्राप्त होने का वर मांगा, देवी ने तथास्तु कहा किन्तु दूसरा साधक, गुणाढ्य, उनके रूप पर लुब्ध होकर उन्हें ही मांग बैठा.
यह मानने वाली बात तो थी नहीं अतः देवी इसे असम्भव बता कर अंर्तध्यान हो गयीं.
              वह तान्त्रिक निराश न हुआ बल्कि प्रयास करता रहा. कालान्तर में उसने एक तरुण गायक, प्रद्युम्न, को फांसा जिसे राग मेघ मल्हार सिद्ध था और साधन की अन्य पात्रता के अनुपालन में अविवाहित भी था. साधना की गयी जो सफल रही. देवी उसी रूप के साथ प्रकट हुईं और  स्मृतिलोप होकर बंध गयीं, अपना देवत्व खो/भूल कर उसके वश में हो गयीं. इसका प्रद्युम्न को पता न चला. साधना के उपरान्त लौटते हुए उसने वन में देवी को छटपटाते देखा जैसे वे किसी के चंगुल से निकलने का प्रयास कर रही हों पर निकल न पा रही हों. साधना सफल होने पर देवी के प्रकट होने और इस दृश्य का सम्बन्ध वह जोड़ न सका, इसे दृष्टिभ्रम माना.



         देवी अपना देवत्व भूल कर एक वन में गुणाढ्य के साथ रहने लगीं. साधारण निष्ठावान गृहिणी की भांति वे खाना पकातीं, नीचे सरोवर से जल लातीं, अन्य गृहकार्य करतीं. रूपमती वे अब भी वैसी ही थीं पर देवी जैसी अलौकिक व देदीप्यमान न थीं. एक दिन प्रद्युम्न ने उन्हें देखा, सम्पर्क किया, उनके द्वारा बनाया भोजन किया, गुणाढ्य वहाँ न था. प्रद्युम्न के मन में ग्लानि थी कि देवी की यह अधोगति उसके कारण हुई है. एक दिन गुणाढ्य भी आया, वह भी पश्चाताप से दग्ध था. उसने बताया कि वह देवी को मुक्त कर सकता है, मन्त्रपूत जल उन पर छिड़कना होगा किन्तु जल छिड़कने वाला पत्थर का हो जाएगा, फिर कभी जीवित न हो सकेगा. उसे जीवन से मोह है इसलिए वह ऐसा नहीं कर सकता. प्रद्युम्न इसके लिए तैयार हो जाता है, मन्त्रपूत जल छिड़कता है, देवी मुक्त होकर पुनः अपने स्वरूप में आ जाती हैं, प्रद्युम्न पत्थर की मूर्ति में बदल जाता है. देवी सरस्वती पुनः देवत्व पाकर भी बिना अपने उद्धारकर्ता, प्रद्युम्न को जीवित किए और उन्हें इस स्थिति में बन्धक किए गुणाढ्य को दण्डित किए अपने लोक चली जाती हैं.
               प्रद्युम्न के गुरु और उसकी प्रेमिका के भी प्रसङ्ग हैं, उन्हें कथा सार में नहीं दे रहा हूँ.
               ************

कथा/सत्य घटना आपने जानी. बतायें मेरा क्षोभ और आपत्ति उचित है या वितण्डा ? क्या यह विश्वसनीय और कथा हो तो देवी का ऐसा चरित्र चित्रण उनका अपमान नहीं है. क्या इस रोमाञ्चक कथा ने आपका मनोरंजन किया ? क्या संदेश मिलता है और क्या कथाकार का साहित्यबोध ठीक है ?
                      यहां यह ध्यातव्य है कि गुणाढ्य उन्हें माता, पुत्री, बहन या मित्र के रूप में तो मांग नहीं रहा था, वह उन्हें भोग्या पत्नी या प्रेयसी के रूप में चाहता था.
प्रथम बार प्रकट होने पर देवी ने उसकी उसे इस धृष्टता के लिए कठोर या हल्का दण्ड न दिया, यह भी कथाकार का कुत्सित भाव है कि आगे इस कुत्सित कामना के पूरा होने की सम्भावना बनी रहे.
                    यदि यह एक काल्पनिक कहानी है तो ऐसी चाह घोर निन्दनीय है, ईशनिन्दा है, उन्हें मानव के स्तर पर उतार लाना है. आगे जो हुआ वह और निन्दनीय और अविश्वसनीय है व देवी को साधारण विवश स्त्री के रूप में प्रस्तुत करता है. कहानी के रूप में यह कथाकार का यौनविकृत मानस है. वे उस निर्जन स्थान की कुटी में, जहाँ प्रद्युम्न ने उन्हें देखा, गुणाढ्य की पत्नी/ भोग्या की ही स्थिति में रहती होंगी, और उसने किस रूप में उन्हें पाने की कामना की थी और वश में किया था.
            कथा के अन्त में पुनः देवत्व सम्पन्न होने पर सीधे देवलोक चली गयीं. अब समर्थ होने पर भी कृतघ्न रहीं और अपना निजी अपकार/पतन करने वाले, दासी/भोग्या के रूप में बन्धक रखने वाले पापी का कुछ न करने वाली के रूप में दिखाया कथाकार ने, यदि यह सत्य घटना थी/सत्य का कुछ अंश भी था इसमें तो क्या देवी का स्वभाव और सामर्थ्य ऐसा हो सकता है.
                    पुरानी कथाओं/पुराणों/मिथकों में ऐसे प्रसङ्ग हैं कि भगवान भक्ति के वशीभूत होकर भक्त के यहाँ मानव रूप में रहे. अत्रि पत्नी अनसूया के यहाँ त्रिदेव, ब्रह्मा-विष्णु-महेश, शिशु होकर पालने में लेटे, उनका स्तनपान किया. शिव जी एक भक्त के यहाँ मानव रूप में उसके सेवक, उगना, के रूप में रहे पर तब भी वे भगवान थे, स्वतन्त्र थे, प्रेम/भक्ति से इस रूप में रहे, जब चाहते अपने पूर्व रूप में आ जाते किन्तु इस कथा में देवी होते हुए भी एक मानव की भोग्या बन कर, विवश होकर रहीं. उन्हें अपनी शक्तियों का भान न रहा, स्मृति लोप हो गया. कथाओं में लोगों ने भगवान को पुत्र रूप में (बलि की पुत्री, राजा दशरथ ) व पति रूप में चाहा. भगवान ने उनकी इच्छा पूरी की किन्तु उसी रूप/विवश स्थिति में नहीं, उनके अगले जन्म में, अगले युग में और अवतार लेकर.
इस कथा में ऐसी विवश और अतिसामान्य दासीवत स्त्री कि अपने उद्धार का तरीका उन्हें मालूम न था और उसके लिए भी वह दुष्ट ही समर्थ था. इस स्थिति में बन्धक करने, रखने के लिए उसे को दण्ड न दिया और न ही अपने उद्धारक का भला किया - सत्य हो या कथा, देवी का यह रूप हमें स्वीकार नहीं, अविश्वसनीय है, कथा है तो लेखक निन्दनीय है देवी का ऐसा चित्रण करने के लिए.
         इसे इस संग्रह की सर्वश्रेष्ठ और रोमाञ्चक कथा कहा है, पाठकों ने इसे पसन्द किया, स्टार कहानी है पर हमें कुफ़्र लगी.
            आप क्या कहते हैं इस पर!
+++++++++++++++++++

Tuesday, 29 July 2025

"सिद्धपुरुष"

 जब पढ़ते थे तब मित्र मण्डली में कई ऐसे लोग थे जिनसे हमारी मित्रता किताबों के कारण हुई. सभी बेरोजगार, लगभग समान आर्थिक स्थिति के और विकट पढ़ाकू. अकादमिक नहीं, जासूसी उपन्यास के लती. पैसे सबके पास मतलब भर से कम होते थे, पेट्रोल का खर्चा न था काहे से सब साईकिल वाले थे. कुछ के पास तो साईकिल भी नहीं. तब किराए पर साईकिल खूब मिलती थी और डबल-तिबल सवारी वाली साईकिल खूब दिखती थीं. किताबें भी किराए पर मिलती थीं, किराया चौबीस घण्टे का चार्ज होता था भले किताब तीन घण्टे में निपटा दें. हम सब ऐसे ही थे कि खाना, घर का काम, स्कूल का होम वर्क आदि करते हुए चार-पाँच घण्टे में निपटा देते थे, बिना व्यावधान के लग कर पढ़ें तो दो ही घण्टे में. उसके बाद आपस में किताब बदलना होता था तो बैठकी भी जमती थी. उसी दौर में हमारी मित्र मण्डली में शामिल हुए एक शुक्ला जी (पूरा नाम अब याद नहीं आ रहा ) वे भी विकट 'पढ़ाकू'. गाँव से लखनऊ भेजे गये थे पढ़ने के लिए. हम अमानीगंज चौराहा, अमीनाबाद में रहते थे और वे घर के पास, जूते वाली गली में कमरा लेकर रहते थे. तब एक दो किलोमीटर भी घर के पास ही होता था. उनका कमरा कॉर्नर का था, ऊपर का था, नीचे एक दुकान थी. जीना अलग, मकान मालिक रहता न था तो मण्डली जमाने के लिए आदर्श स्थान था. बड़े बातूनी, लफाड़िया और हद दर्ज़े के मुरहे. अमीनाबाद में रहने तक खूब दोस्ती रही, लगभग रोज ही मिलना-बैठना होता था, किताबें अदला-बदली होतीं और बैठकी होती. फिर हम अमीनाबाद से दूर अलीगंज में रहने लगे तो उधर के ही हो गये. आना-जाना तो रहा पर अड्डेबाज़ी का समय न रहा तो दोस्ती भी रोज की न रही.

अमीनाबाद के ही दौरान श्रीमती जी की एक सहेली बनी. वह डांस टीचर थी, नाटक व दूरदर्शन की कलाकार थी, बाद में फ़िल्मों में गयी. हम तब अलीगंज में रहते थे.
उसकी कुछ पारिवारिक और प्रेम प्रसङ्ग सम्बन्धी समस्याएँ थीं. उसने पूजा-पाठ, तन्त्र-मन्त्र का भी सहारा लिया. उसे पता चला कि एक देवी उपासक हैं, सिद्ध पुरुष हैं और उनका किया धरा कभी खाली नहीं जाता. जूते वाली गली में उनका देवी पीठ है, वहीं बैठते हैं. उसने मुझसे साथ चलने को कहा. मुझे आश्चर्य और कौतूहल हुआ कि जूता वाली गली में कौन सा सिद्ध पीठ और सिद्ध पुरुष है जिसके बारे में हमें नहीं मालूम ! बताशे वाली गली में ज़रूर एक प्रकाण्ड ज्योतिषी हैं, साधारण लोगों की उनके यहाँ पैठ नहीं, धनी-मानी ही आते हैं किन्तु वे करने-धरने का काम नहीं करते. हमने उनकी बैठक बाहर से ही देखी, तब AC वगैरह का चलन न था तो गर्मी में बैठक का दरवाज़ा खुला रहता था, आते-जाते थोड़ा जलवा होता था. जूता वाली गली में तो ऐसा कोई न था, ये नये उगे होंगे. इन सब पर विश्वास तब भी न था तो कौतूहलवश साथ गया कि देखें कौन है, कहाँ है, बतर्ज़ 'मेरे हुज़ूर', 'लखनऊ की कौन सी ऐसी फिरदौस है जिसे हम नहीं जानते!' जब उसी कमरे के नीचे पहुँचे जिसमें हम लोगों की बैठकी जमती थी और उसने बताया कि ऊपर बैठते हैं तब भी कोई अन्देशा न हुआ, सोचा कि वह खाली कर गया होगा और यहाँ कोई धन्धेबाज आ गया होगा. जब ऊपर पहुँचे तो देवी माँ का दरबार सजा था, कमरे में धूप अगरु का धुंआ भरा था और एक आसन पर वही लफाड़िया दोस्त बैठा था, बाबोचित धज में. अब उसने तो श्रद्धापूर्वक माथा टेक कर प्रणाम किया और 'सिद्धपुरुष' का चेहरा मुझे देख कर फक ! वह डर रहा होगा कि कहीं पहले वाले लहजे में अबे- तबे से सम्बोधित न करूँ. मैंने भी आँखों और हाथ के इशारे से आश्वस्त किया. हम दोनों ने ही आपसी परिचय प्रकट न किया और न बाद में मैंने उसको बताया. उसका विश्वास डगमगा सकता था, वह बड़े विश्वास से आयी थी. ख़ैर, बाद में उसकी उसी लड़के से शादी हुई .घर वाले दोनों के नहीं माने तो हम दोनों ने आर्य समाज से उनकी शादी करायी. अब पता नहीं निरन्तर चलते प्रेम प्रसङ्ग, घनिष्ठों के दबाव, न इनको और न उनको ठौर के कारण प्रेम परिणिति शादी में हुई या उनके अनुष्ठान/कराने-धराने से, बहरहाल हो गयी. उनकी श्रद्धालु संख्या में निश्चित ही वृद्धि हुई होगी, ऐसे कार्य व्यापार ओरल पब्लिसिटी पर चलते हैं.

बाद में मैं अकेले 'सिद्ध पुरुष' से मिला. तब कोई ग्राहक न था तो पुराने अन्दाज़ से बातें हुई. उसने बताया कि पढ़ाई में मन लग न रहा था, कोई फायदा न था. ट्यूशन कर रहा था मगर उससे कब तक काम चलता. नौकरी मिलती न तो यह शुरू कर दिया. देवी जी की कृपा से काम अच्छा चल रहा है, कुछ लोगों का काम बन जाता है तो वे कन्वेन्सिंग करते हैं. कोई बन्दिश नहीं और नौकरी वालों से अच्छा कमा रहा हूँ.
उसके बाद उससे मिलना न हुआ मगर फल फूल ही रहा होगा. 
Edit
All reactions:
Singh Uttam, Puja Burnwal and 29 others

Saturday, 21 June 2025

अनुवाद किसका हो – किताब का या शीर्षक का भी !

 


अनुवाद किसका हो – सामग्री का या शीर्षक का भी !


मंगा लेने के कई दिन बाद आख़िरकार ’Heart Lamp’ पढ़ना शुरू किया और दो कहानियां पढ़ भी डालीं. मंगा लेने के कई दिन बाद इसे पढ़ना शुरू करने का एक कारण तो यह कि हाथ में जो किताबें थीं उनमें से एक के पूरा हो जाने के बाद ही नयी किताब शुरू करता हूँ, ( अगर वह नयी किताब पाठक जी की न हो ) दूसरा कारण यह कि किताब अंग्रेजी में है. साहित्यिक रुचि के लोग तो जानते ही हैं फिर भी बता दूँ कि मूल रूप से अंग्रेजी में भी नहीं, कन्नड़ में है और इसका कन्नड़ से अंग्रेजी अनुवाद किया गया है. यह बानू मुश्ताक़ का कहानी संग्रह है ’Heart Lamp’ इसे अनुवाद के लिए 2025 का अंर्तराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार दिया गया है. अनुवादित श्रेणी के लिए यह विश्व का प्रतिष्ठित पुरस्कार है जो लेखक व अनुवादक दोनों का साझा होता है, इसकी पुरस्कार राशि, 50,000.00 ब्रिटिश पाउण्ड, भी लेखक और अनुवादक में बराबर – बराबर बांटी जाती है. इसकी अनुवादक हैं दीपा भास्ती जो लेखक और अनुवादक हैं. क्षेत्रीय भाषाओं, उनमें कन्नड़, के लिए यह गौरव की बात है.

अंग्रेजी अमूमन मैं पढ़ता नहीं, अंग्रेजी बोलने में शर्म आने वाले बयान से पहले से नहीं ! अंग्रेजी में मेरा हाथ बचपन से ही तंग है. अंग्रेजी ( पढ़ना-लिखना-बोलना ) मेरे लिए सहज नहीं, साहित्य तो कतई नहीं. अंग्रेजी का कुछ पढ़ने में मुझे दोहरकम लगता है, एक साथ ही पढ़ो और उसका मन ही मन हिन्दी अनुवाद करते चलो. फिर भी भीष्म प्रतिज्ञा नहीं है. कुछ किताबें जिन्हें पढ़ने की उत्कट इच्छा होती है पर उनका हिन्दी अनुवाद नहीं हुआ होता/ उपलब्ध नहीं होता तो अंग्रेजी में ही पढ़ लेता हूँ. भोजन के मामले में जो ज़हरमार करना/ पेट को धोखा देना होता है, वैसा ही है अंग्रेजी में पढ़ना मेरे लिए !

तो इसे भी ऐसे ही पढ़ना शुरू किया. सरल अंग्रेजी है, जब मैं पढ़ ले रहा हूँ तो कोई भी पढ़ सकता है. इसके पढ़ने के पीछे भी वही कारण था – पुरस्कृत कृति के प्रति उत्सुकता और कुछ उसके बारे में पढ़ा होना. ‘रेत समाधि’ तो हिन्दी में भी उपलब्ध है किन्तु यह नहीं, बाद में शायद हो किन्तु’कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक’ सो अभी ले लिया और पढ़ा.

कहानियों पर अभी कुछ नहीं कह रहा हूँ, अनुवाद के बारे में कुछ विचार आये. नहीं, नहीं – अनुवाद की गुणवत्ता आदि के बारे में नहीं. उस पर तो तब कह सकता था जब मैंने मूल पढ़ा होता या फिर अनुवाद बेकार होता, ‘मक्षिकास्थाने मक्षिका’ जैसा, यान्त्रिक सा होता, कथा में रस न मिलता. अभी तो यह कि क्या अनुवाद में किताब के शीर्षक या कहानी संग्रह है तो हर कहानी के शीर्षक का भी अनुवाद किया जाना अनावश्यक नहीं ! लेखक ने जो शीर्षक दिया, उसे वैसा का वैसा न देने से क्या उसकी आत्मा खण्डित नहीं हो जाती ! मूल भाव तिरोहित सा नहीं हो जाता ! आख़िर अनुवादक नाम का अनुवाद तो करता नहीं, उसे वैसा का वैसा ही लिखता है. कोई लेखक चन्द्र प्रकाश हो तो अंग्रेजी अनुवाद करते समय उसे Moon Light तो नहीं लिखता ! उपन्यास या कहानी का शीर्षक भी तो नाम ही है, उसे क्यों नहीं वैसा का वैसा रहने देते. हाँ अंग्रेजीदां लोगों के लिए ब्रैकेट में मूल नाम का भावार्थ दे सकते हैं. शीर्षक में ही लेखक बहुत कुछ कह देता है, कभी – कभी तो शीर्षक ही विषय वस्तु का संकेत दे देता है तो उसे वैसा का वैसा ही रखना उचित है. Stone Slabs for Shaista Mahal या Fire Rain … सभी कहानियों का शीर्षक भी अंग्रेजी में अनूदित कर दिया गया है. बानू जी ने किताब का व कहानियों का यह शीर्षक तो न रखा होगा. मूल शीर्षक होता तो बात, कम से कम मेरे विचार से, और होती.

अन्य भाषा से अंग्रेजी अनुवाद करते समय यह अपेक्षित है. हिन्दी व अन्य भारतीय भाषा भाषियों के लिए यह उससे तादात्म्य स्थापित करेगा, बिना अधिक प्रयास के मालूम हो जाएगा कि हम कौन सी रचना पढ़ने वाले हैं. भारतीय साहित्य प्रेमी बहुधा अन्य भारतीय भाषओं के बहुतेरे शब्द आसानी से समझ लेते हैं तो मूल भी समझ लेंगे. ‘गीतांजलि’ का अंग्रेजी अनुवाद भी गीतांजलि नाम से ही है न कि शीर्षक का अंग्रेजी अनुवाद कर दिया गया/ इसका अर्थ यह हुआ कि पहले अनुवादकों के ध्यान में यह बिन्दु रहता था, उसे मानते थे. तब मानते थे तो अब भी मानें ना !

बहुत सी अंग्रेजी व अन्य भाषाओं की किताबों का अनुवाद हिन्दी में हुआ है. उसमें भी शीर्षकों तक को अनूदित कर दिया गया है. ‘आख़िरी शब के हमसफ़र’ को ‘निशान्त के सहयात्री’ कर दिया गया, अच्छा अनुवाद है किंतु शीर्षक अगर ‘आख़िरी शब के हमसफ़र’ ही रहता तो किताब उठाते ही पता चल जाता कि किस किताब का अनुवाद है. ऐसे ही ‘ए सुटेबल ब्वाय’ को ‘एक अच्छा सा लड़का’, ‘वार एण्ड पीस’ को ‘युद्ध और शान्ति’, ‘फेयरवेल टू आर्म्स’ को ‘शस्त्र विदाई’, … कर दिया गया. सुधी पाठक तो पहचान लेगा किंतु जो बिना जाने किताब उठा रहा है वह मूल नाम से अधिक तादात्म्य स्थापित करेगा.

आपका क्या विचार है !
**************************
किताब - ’Heart Lamp’
लेखक – बानू मुश्ताक़, अनुवादक दीपा भास्ती
मूल भाषा - कन्नड़
विधा - कहानी
प्रकाशक – पेंगुइन बुक्स
पेपरबैक संस्करण, दाम 399/-, 12 कहानियां

Tuesday, 17 June 2025

हनुमान जी का विक्रम नाम !




हनुमान जी का विक्रम नाम !

हनुमान जी के अनेक नाम हैं. महावीर, पवनसुत/पवनपुत्र/मारुतनन्दन, बजरंग बली, मारुति, अञ्जनिसुत/ अञ्जनिपुत्र/आञ्जनेय/अञ्जनिनन्दन आदि सर्वाधिक प्रचलित नाम हैं. महावीर जी कोई कहे तो भी जैन  धर्म के महावीर स्वामी नहीं, हनुमान जी ही ध्यान में आते हैं. अन्य कई देवी-देवताओं की तरह ‘हनुमत सहस्त्र नाम’ भी है जाप के लिए जिसमें हनुमान जी के एक हज़ार नाम हैं. कल ‘रामायण यक क़ाफ़िया’ पढ़ रहा था तो उसमें अशोक वटिका प्रसङ्ग में हनुमान जी का विक्रम नाम पढ़ा. इस रामायण में कई जगह हनुमान जी का उल्लेख विक्रम नाम से है.

                                      हनुमान जी का विक्रम नाम मैंने नहीं सुना था ( बाद में याद आया कि सुना है ), यह प्रचलित भी नहीं. कोई उन्हें विक्रम नाम से स्मरण नहीं करता. जानकारी के लिए कुछ और ग्रंथ देखे, ‘हनुमत सहस्त्र नाम’ भी देखा, उसमें भी विक्रम नाम नहीं मिला. नहीं मिला तो न सही, इसी बहाने ‘हनुमत सहस्त्र नाम’ का जप हो गया.

विक्रम नाम के मिस ‘रामायण यक क़ाफ़िया’ का अशोक वाटिका प्रसङ्ग देखें जिसमें हनुमान जी का विक्रम नाम है –

“ … इतने  में  विक्रम ने  फेंकी राम की अंगुश्तरी ।

        जानकी जी की जुदाई का किया क़िस्सा बयां ॥

        जानकी  हैरां  हुई  अंगुश्तरी  को  देख कर ।

        दिल को अन्देशा हुआ, पैदा हुए वहमो गुमां ॥

        ध्यान था अंगुश्तरी ए राम लाया कौन शख़्स ।

        किस में   ऐसा ज़ोर है,  है कौन ऐसा पहलवां ॥

        विक्रम आये सामने सीता को पाया फ़िक्रमन्द ।

        की  बयां  सहरानवर्दाने  अलम  की    दास्तां ॥ … “

वाटिका उजाड़ने की ख़बर पाकर रावण ने अक्षय कुमार को भेजा और पकड़ कर लाने की ताकीद की. हनुमान जी का विक्रम नाम ही बताया –

“… था अछै, रावन का फ़रज़न्द अहले ताकत अहले ज़ोर ।

       उस  से   रावन  ने   कहा  जा  तू   मियाने  बोस्तां ॥

       हिकमतो तदबीर  से  विक्रम बली को  कैद कर ।

       चश्मे  गुलशन  को दिखा  आइनये  अम्नो अमां ॥ …”

अशोक वाटिका उजाड़ी, अक्षय कुमार को मार गिराया. तब रावण ने मेघनाद को भेजा –

“ … कोह की सूरत पवनसुत ने उखाड़ा एक दरख़्त ।

        फ़ौज को मारा, कुचल डाली अछै की अस्तुख़्वां ॥

        वह  राजा ब्रह्मा की शक्ति  था  बराये  अहले ज़ोर ।

         था   परसधर  का  फरसा,  राम  का  तीरे  रवां ॥

         शंभु का त्रिशूल था, वज्र इन्द्र का, अर्जुन का बान ।

         विष्णु जी  का चक्र, काली जी  की  तेग़े ख़ूंफ़िशां ॥

         था श्री नरसिंह का नाखुन, श्री विक्रम का गुर्ज़ ।

         आतिशे    सोज़ां,   बलाये   आस्मां,   बर्क़े   तपां ॥

         यंशे अक़्रब या दमे अज़दर था या दन्दाने मार ।

         ग़ैरते    ख़र्तूमे    फ़ीलो,    पंजए   शेरे    ज़ियां ॥

         मेघनाथ अपने पिशर को फिर दिया रावन ने हुक्म ।

         जा   के   विक्रम  को   करे   पाबन्द  ज़ंजीरे  गिरां ॥ … “

ऐसे ही कई जगह हनुमान जी के अन्य नामों के साथ विक्रम भी कहा गया है. विक्रम नाम स्मरण करते हुए याद आया कि तुलसीदास जी ने भी हनुमान जी को विक्रम कहा है –

“ महावीर   विक्रम   बजरंगी । कुमति निवार सुमति के संगी ॥

                                                            तो हनुमान जी का एक नाम विक्रम भी था.

                                                  *************

कुछ ‘रामायण यक क़ाफ़िया’ मन्ज़ूमए ‘उफ़ुक़’ के बारे में !

‘रामायण यक क़ाफ़िया’ मन्ज़ूमए ‘उफ़ुक़’ के रचनाकार मलिकुश्शुअरा द्वारका प्रसाद ‘उफ़ुक़’ लखनवी हैं और मूल रूप से यह रचना उर्दू में है. यह वाल्मीकि रामायण व रामचरित मानस पर आधारित है पर अनुवाद न होकर स्वतन्त्र रचना है. यह पहली बार 1885 में प्रकाशित हुई और बाद मे प्रतिष्ठित मुंशी नवल किशोर प्रेस , लखनऊ से 1914 में पुनः प्रकशित हुई. रचनाकार का जन्म लखनऊ के नौबस्ता में 13 जुलाई, 1864 को एक साहित्य सेवी परिवार में हुआ. इनके परदादा, दादा, पिता एवं माता उर्दू के शायर, गद्यकार एवं सम्पादक थे. इन्होंने 1888 से 1894 तक उर्दू पद्य में 12 पृष्ठों का पाक्षिक ‘ नज़्म अख़बार’ प्रकाशित किया व 30 से अधिक पुस्तकों की रचना की. 1913 में आपका निधन हुआ.

मुंशी नवल किशोर प्रेस , लखनऊ से प्रकाशन के बाद अयोध्या शोध संस्थान, संस्कृति विभाग उत्तर प्रदेश ने इसके प्रकाशन का बीड़ा उठाया और यह 2021 में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई. यह द्विभाषी है, एक ओर उर्दू में तथा एक ओर हिन्दी में दिया हुआ है. अन्त में कुछ पेण्टिंग्स भी हैं. हर पृष्ठ पर कठिन शब्दों के अर्थ व अंत में रामायण व रामकथा के पात्र व प्रसङ्गों के बारे में परिशिष्ट भी है.