कैब वाला कवि !
कैब वाला कवि !
11 दिसम्बर को राय उमानाथ बली
प्रेक्षागृह, कैसरबाग, लखनऊ में 'अवधी समारोह -2025' का आयोजन हुआ. वृहद आयोजन था,
पूरे प्रदेश व नेपाल से अवधी प्रेमी और साहित्यकारों ने भागीदारी
की. दिन भर का आयोजन था, 11:00 बजे से होना था किन्तु
पंजीकरण आदि में समय लगता अतः आगन्तुकों से 10:00 बजे आने का
अनुरोध किया गया. मैं भी घर से करीब 9:45 पर निकला. कैब बुक
की. जो कैब आयी उसके ड्राईवर महोदय बड़े बातूनी और रोचक थे, घर
से थोड़ी दूर निकलने पर पता चला कि वे कवि भी हैं. शायद यह भी उनके बातूनी होने का
कारण था. बातें तो कैब स्टार्ट करने के पाँच मिनट के अन्दर ही शुरू कर दीं.
पूछा, 'राय
उमानाथ बली वही ना जिसमें नाटक वगैरह होते हैं ?'
'हाँ वही !'
'तो नाटक तो शाम को होते हैं, अभी से क्यों जा रहे हैं ?' उन्होंने कौतूहल व्यक्त
किया.
कोई भुन्नहा होता तो कह देता कि
आपसे मतलब ? मैं चाहे जिस समय जाऊँ, आपको क्या ! आप गाड़ी चलायें बस ! लेकिन एक तो मैं भुन्नहा नहीं, दूसरे उनका लहजा बहुत नर्म, शिष्ट था, लग रहा था कि सहज जिज्ञासा है बस. सो बताया,
'नाटक नहीं, आज एक
दूसरा कार्यक्रम है, 'अवधी समारोह' उसमें
दस बजे पहुँचना है.'
'इसमें क्या होगा ? कैसा कार्यक्रम होगा ?'
'इसमें अवधी भाषी लोग, लेखक और कवि इकट्ठा होंगे. एक किताब का विमोचन होगा, अवधी पर चर्चा और फिर अवधी कवि सम्मेलन होगा.'
'अवधी वही भाषा ना जो हमारी अम्मा,
दादा और बूढ़ पुरनिया बोलत रहें.'
'हाँ वही. अवधी तो हम लोगों की मातृभाषा
है. लखनऊ के आस पास रायबरेली, उन्नाव, बैसवारा,
बाराबंकी, गोण्डा, फैज़ाबाद,
लखीमपुर वगैरह की भाषा अवधी है और अवधी तो नेपाल में भी बोली जाती
है.'
'हैं नेपाल में भी !' उसने आश्चर्य से कहा.
'हाँ, वहाँ तो अवधी
माध्यम से पढ़ाई भी होती है. आख़िर सीता जी का मायका है और राम जी तो अवध के हैं.'
'आप पहाड़ी टोपी लगाए हैं, उधर के हैं क्या !'
'नहीं, हम तो लखनऊ
के ही हैं. टोपी तो इसलिए लगाए हैं कि ठण्ड है और भाभी नहीं रहीं तो बाल बनवाए थे.'
फिर कुछ प्रसङ्ग चलने पर उसे कुमाऊंनी, गढ़वाली
और नेपाली टोपी का फर्क बताया. इतनी बातें इसलिए भी कि वह शिष्ट और दिलचस्प था,
मैं भी बातें कर रहा था और रास्ते में ट्रैफिक बहुत था सो डण्डइया
तक में इतनी बातें हो गयीं.
अचानक उन्होंने पूछा,
'आप भी कवि हैं?'
'नहीं, मैं कवि
नहीं पर लिखने पढ़ने का शौक़ है.'
'किस विधा में लिखते हैं ?'
'यही, लेख और कहानी
वगैरह.'
अब उन्होंने उजागर किया,
'मैं भी लिखता हूँ.'
'अरे वाह ! किस विधा में.' उन्हें उकसाया.
'मैं कविता लिखता हूँ लेकिन हास्य कविता,
प्रेम पर और थोड़ा राजनीति, समाज, देश प्रेम पर भी.'
फिर थोड़ी इस पर बात हुई कि आज के दौर में हास्य और प्रेम की अधिक ज़रूरत है.
बताया कि कई कवि सम्मेलनों में पढ़ चुके हैं, दूरदर्शन
पर भी कई बार पढ़ीं, पुरस्कार भी मिले. इसी क्रम में यह व्यथा
भी कही कि लोग सोचते हैं कि यह कैब ड्राईवर है, साहित्य से
क्या मतलब ! इतनी समझ कहाँ होगी. बात सही है, लोग पेशे और
सामाजिक स्तर से भी आंकते हैं. दिलासा दिया, कुछ उदाहरण भी
दिए.
अब हम आई.टी. पार कर रहे थे.
रिजर्व पुलिस लाईन के पास बोले, 'मंज़िल आने वाली है,
ज़ल्दी से आपको कुछ सुनाता हूँ.' और कई दोहे,
एक मुक्तक वगैरह सुनाया. सच कह रहा हूँ कि झेला नहीं रहे थे. दोहे
कथ्य की और छन्द शास्त्र की दृष्टि से सही थे, आनन्द आ रहा
था. लखनऊ पर एक नज़्म भी सुनाई जिसमें पुराना और नया लखनऊ (लुलु, पलासियो आदि ) भी था. समय कम था और बातें रोचक सो कहते-कहते भी रौ में उन्होंने गाड़ी प्रेक्षागृह
के गेट से थोड़ा आगे रोकी. पैसे देने के साथ फोन नम्बर लिए-दिए, फेसबुक पर रिक्वेस्ट भेजी. पता चला कि वर्मा हूँ तो और ख़ुश हुए, पूछ ही लिया, 'सर, कौन से
वर्मा हैं ? हम तो ... वाले हैं. हमने अपना बताया. बड़ा बढ़िया,
रोचक और दोस्ताना सफर कटा. और भी बातें हुईं और ताज्जुब यह कि इतने
संक्षिप्त समय में, ड्राईविंग के दौरान.
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ऐसा ही वाकया एक बार पहले भी हुआ कि पेशे
से ऑटो ड्राईवर की किताबों में रुचि देखी.
लखनऊ विश्वविद्यालय में NBT
के 'गोमती पुस्तक मेला' की
तैयारी चल रही थी. उद्घाटन की पूर्व संध्या पर हम दोनों बुक किए ऑटो में अमीनाबाद
से घर (जानकीपुरम) जा रहे थे. युनिवर्सिटी के पास पहुँचने पर हमने श्रीमती जी से
कहा कि कल के लिए मेले की तैयारी आख़िरी दौर में है. ऑटो वाले ने जिज्ञासा प्रकट की,
'यह कैसा मेला है ?'
'पुस्तक मेला है, किताबों
का मेला. सौ से ज़्यादा स्टॉल लगे हैं जिनमें प्रकाशक और विक्रेता किताबें लेकर आये
हैं. लाखों किताबें होंगी.'
'किताबें खाली देखने को होंगी या बिक्री
के लिए भी.'
'बिक्री के लिए भी मगर देखने पर कोई रोक
नहीं, ज़रूरी नहीं कि खरीदें भी.'
'कैसी किताबें होती हैं ?'
'सब तरह की ! कविता, कहानी, उपन्यास, धार्मिक,
राजनीतिक - सब तरह की.'
'मेडिकल की भी ?'
अब मैं चौंका. वही बात कि कौतूहल तक तो ठीक ! मेडिकल की किताबों में ऑटो
वाले की रुचि ! ये और मेडिकल ! बताया,
'हाँ होंगी ! कोर्स की भी होती हैं,
कम्पटेटिव एक्ज़ाम की भी.'
'नहीं, वो नहीं.
मतलब, आयुर्वेदिक इलाज, घरेलू नुस्खे
की भी होंगी.'
'हाँ, क्यों नहीं !
ये भी होती हैं.'
'जाएंगे किसी दिन.'
तब तक घर आ गया था तो बात खतम
हुई.
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कैब ड्राईवर की बातों में पेशे और सामाजिक
स्तर के आधार पर आकलन किए जाने की जो पीड़ा व्यक्त हुई वह सही ही है. हममें से
अधिकांश लोग यही धारणा रखते हैं. इससे भी बढ़कर क्षुब्ध करने वाली बात यह कि बात
करने,
साहित्य या कला सम्बन्धी काम देख कर, सुन कर
कायल होते हुए भी विश्वास नहीं कर पाते. इतना उच्चताबोध और ऐसे वर्ग के लिए हिकारत
भरी है कि कहते हैं, ' ... होते हुए भी यह खूबी !' यह जो '... होते हुए भी ' पूर्वार्ध
है वह बिना नग्न रूप में कहे हुए भी कह जाता है कि यह तो हमारे वर्ग का अधिकार और
योग्यता है, इसकी नहीं. इसमें कैसे ?
खास बात यह कि 'उस वर्ग' की काबलियत से हैरत उसे अधिक होती है जो समान पेशे/क्षेत्र में होता है.
एक मज़दूर, सब्ज़ी वाले, कबाड़ी, छोटे दुकानदार, रिक्शावाले की साहित्य/कला में
प्रतिभा से अन्य लोगों को उतनी दिक्कत नहीं होती जितनी साहित्यकार/कलाकार को. और
लोग उतने स्तब्ध नहीं होते जितने ये उथले कलाकार/साहित्यकार. कोई दुधहा अगर पहलवान
हो तो वह इन्हें स्वीकार्य है पर वह कवि, लेखक या पेण्टर
(माने चित्रकार) है तो इन्हें दिक्कत हो जाती है. घोसी, पानवाला,
लुहार ... कुछ हो मगर साहित्यकार/कलाकार कैसे हो सकता है.
यह उच्चताबोध/दम्भ केवल पेशे के आधार पर ही
नहीं,
जाति के आधार पर भी होता है. जाति व्यवस्था में चौथे व उससे भी नीचे
स्थान में जन्मा कोई साहित्य में, कला में, खेल में, शारीरिक दक्षता में कैसे 'हमसे' आगे या बराबर है ? यह
कटु यथार्थ स्वदेश दीपक के नाटक 'कोर्ट मार्शल' में नग्न रूप में व्यक्त है. यह तो यह, 'इन्हें'
इस वर्ग का मूंछ रखाना, बुलेट पर चलना,
घोड़ी पर बारात ले जाना, चारपाई पर बैठना ...
स्वीकार नहीं होता. यह कोई गुज़रे ज़माने की बात नहीं, अब की
भी है. अक्सर अख़बार में निकलता रहता है. लगता है यह सिर्फ कहने, पढ़ने भर की बात है, गुनने की नहीं -
'तुलसी या संसार में सबसे मिलिए धाय । ना
जाने किस भेष में नारायण मिल जाँय ||'
(चित्र AI से बना
है, जान कर उनकी असली फोटो नहीं लगाई मगर बातचीत बिल्कुल
असली है, बल्कि कुछ बातें छूट गयी हैं. आपकी तरह मुझे भी लग
रहा कि लगभग दस किलोमीटर के सफर और करीब पैतालिस मिनट में विमर्श सहित इतनी बातें
कैसे हुईं, मगर हुईं !)


















