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Tuesday, 4 March 2025

बूट ( हरा चना ) व काका हाथरसी की कविता ‘चना-चीत्कार’

 बूट ( हरा चना ) व काका हाथरसी की कविता ‘चना-चीत्कार’

पिछले दिनों लाये - हरा चना ! वैसे इसे बूट भी कहते हैं. कच्चे और कोमल हरे चने का स्वाद ही और होता है.

चना के पौधों में जब  बूटे (फलियां) नहीं आये होते हैं, पत्तियां कोमल होती हैं, डंठल कड़े नहीं हुए होते, तब इसे साग के रूप में लहसुन-मिर्चा के नमक के साथ कच्चा खाते हैं. खट्टा सा स्वाद होता है. बचपन में छत पर घमाते हुए खूब चने का साग खाया. हमारे बचपन में चना का साग खूब बिकने आता था, निकटवर्ती गाँवों से लोग डलिया में या साईकिल पर रख कर बेचने आते थे, बाज़ार में सब्ज़ी वालों के पास तो मिल ही जाता था. अब साग कभी दिख गया तो दिख गया.

इन्हीं पौधों में बूटे जाने पर उसे बूट कहते हैं. इसके हरे चने खाये जाते  हैं. पॉश इलाकों में तो यह शायद ही मिलता हो, गाँव से लगी बाज़ारों, सब्ज़ी मण्डी आदि में मिल जाता है. हमारी तरफ, जानकीपुरम में, खूब मिलता है. इधर कुछ सालों से इसे छील कर हरे चने बेचने का चलन भी है. परिवर्तन चौक वाले हिस्से के पास पुल के फुटपाथ पर कई दुकानें हैं जिनमें हरा चना मिलता है. जिनके पास छीलने का समय नहीं या घर ले जाकर छीलने का झञ्झट नहीं करना चाहते किन्तु खाना चाहते हैं, वे इन्हें ले सकते हैं. हम तो सीजन में कम से कम एक बार तो लाते ही हैं मगर हम छिले हुए नहीं बल्कि बूट ( पत्तों, डण्ठल समेत. झाड़ – जिसकी फोटो लगायी है) लाते हैं. हमें तो आनन्द छील कर खाने में आता है.

इसके थोड़ा सूखने पर बूटे व उसमें के चने कड़े होने लगते हैं तब इसे आग में भून कर खाते हैं जिसे होरा/होरहा कहते हैं. शहरों में प्रथम दो अवस्थाओं में तो मिल भी जाता है, होरा दुर्लभ सा ही है.  लौड़ी तैनाती के दौरान खूब होरा खाया. होरा पार्टी होती थी जिसमें होरा के साथ अन्य ग्रामीण व्यञ्जन होते थे.

बूट खाते हुए बचपन में पढ़ी काका हाथरसी की कविता ‘चना-चीत्कार’ याद हो आयी. उसमें अन्नकूट दरबार लगा, सभी अनाजों के बाद चने ने अपनी व्यथा सुनायी. इतने मज़ेदार – चटपटे और मीठे व्यञ्जन कि प्रभु के मुहँ में भी पानी आ गया. कविता है ही इतनी मज़ेदार कि उसका कथ्य और आंशिक रूप से अब तक याद है. अब पूरी तो याद नहीं और वह किताब है नहीं तो नेट की शरण में गया. कविता तो मिल गयी किंतु कहीँ-कहीं वर्तनी से लेकर अन्य अशुद्धियां थीं, कुछ शब्द मिसिंग थे तो कुछ दूसरे ही थे जिनकी संगती कविता से नहीं बैठ रही थी. यथामति सुधार करने के उपरान्त प्रस्तुत कर रहा हूँ. कुछ अशुद्धि हो और जिन्होंने कविता पढ़ी हो और सही याद हो या किताब हो – कृपया सुधार बता दें, पोस्ट में संशोधन कर दूँगा. फिलहाल, जैसी है, आनन्द लें ‘चना-चीत्कार’ का.



अन्नकूट के दिन  लगा,  दीनबन्धु  दरबार,

अन्नदेव  क्यू मे लगे,  मूंग, बाजरा, ज्वार।

मूंग, बाजरा, ज्वार, चना, जौ, अरहर, मक्का

चावल घायल हो गया, दिया गेहूँ ने  धक्का।

मोठ  हुई  घायल,  उरद जी  बचकर भागे,

चटर्-पटर कर  मटर  बढ़ गयी सबसे आगे।

 

सभी केस  सैटिल हुए,  रहा एक ही शेष,

कृपसिंधु ने अंत में,  लिया चने का केस।

लिया चने का केस,  बिचारा खड़ा रो रहा,

भगवन ! मुझ पर भारी अत्याचार हो रहा।

बड़े-बड़े  ग्यानी-ध्यानी  भी  मुझे  सताते,

काट-पीस कर अलग-अलग व्यञ्जन बनाते।

 

इंसान की तो क्या  चली, नहीं बचे हैं  आप,

चने बने व्यञ्जन  प्रभु, खा जाते  चुपचाप।

खा जाते  चुपचाप,   सलोना  सोहनहलुआ,

दालसेव,  नुकती,  ढोली,  बेसन के लडुआ।

होले – छोले - सत्तू   परावठे   मिस्से,

रक्षक ही भक्षक हैं,फरियाद करूँ फिर किससे ?

 

मेरा बुरा है हाल,  दिया चक्की मे  डाल,

फिर पीसा मुझे तो, बनी  चने की  दाल।

बनी चने की दाल, फिर से  मुझको पीसा,

पीड़ा से  चिल्लाया, मिमियाया बकरी सा।

फिर भी  बेदर्दी इंसान को  दया न आयी,

गरम तेल में  तला, पकौड़े कुगत बनायी।

 

मुझे  भाड़ में  भून कर  चिल्लाते  मक्कार,

चने   खाईये   कुरमुरे,   गरम  मसालेदार।

गरम  मसालेदार  प्रभु  सुधि  भूले  तन की,

सुनी करुण यह कथा, लार टपकी भगवन की।

छोड़  यह मीठी  बातें, स्वाद आ रहा  मुझको,

भाग यहाँ  से  अन्यथा  खा जाऊँगा  तुझको।

Friday, 28 February 2025

मोहल्ले में रामायण और कुछ यादें

 

मोहल्ले में रामायण और कुछ यादें


शिवरात्रि के अवसर पर मोहल्ले ( कॉलोनी ) के एक घर में रामायण बैठी. घर , मन्दिर या सार्वजनिक स्थान पर रामचरित मानस के अखण्ड पाठ को रामायण बैठना/ बिठाना या अखण्ड रामायण बिठाना ही कहते हैं. अखण्ड के अलावा शनिवार या मंगलवार या दैनिक या ऐसे ही केवल सुन्दरकाण्ड का भी पाठ होता है, इसे अखण्ड रामायण नहीं कहते. तो रामायण बैठी, जैसा कि प्रथा है, लाउडस्पीकर लगा कर इसका पाठ होता है. अब तो बड़े स्पीकर / साउण्ड बॉक्स होते हैं, पहले भोंपूनुमा होते थे जिन्हे हॉर्न भी कहा जाता था. यह बहुधा छज्जे पर बाहर की ओर मुह किए हुए बांधे जाते हैं और दोनों दिशाओं में लगाए जाते हैं ताकि लोग घर पर लेटे – बैठे – काम करते भी पाठ सुन सकें, यहाँ भी व्यवस्था परिपाटी के अनुसार ही थी. बहुधा आवाज़ फुल ही रहती है, यहाँ भी थी. धार्मिक आयोजन होने के कारण प्रायः कोई आपत्ति नहीं करता. कुछ भद्रजन रात से सुबह तक आवाज़ बंद कर देते हैं या कम कर देते हैं, यहाँ भी ऐसा ही किया गया. नियमित पाठ करने वाले, जैसे कि मैं, दो-तीन चौपाईयां सुन कर जान जाते हैं कि कौन सा काण्ड और उसका कौन सा प्रसङ्ग चल रहा है किंतु जो नहीं जान पाते वे भी ‘आरति श्री रामायन जी की। कीरति कलित ललित सिय पी की॥‘ सुन कर समझ जाते हैं कि पाठ संपूर्ण हो गया है, आरती हो रही है. अब (सम्भवतः) आवाज़ बन्द हो जाएगी, बहुधा हो भी जाती है, बहुत बार नहीं भी होती. प्रायः चौबीस घण्टा में रामायण सम्पन्न हो जाती है. हवन आदि का प्रसारण भी उसी पर होता रहता है, कभी –कभी बातें भी. कभी उसके बाद भी बंद नहीं होती, लाइव भजन, रिकॉर्डेड भजन, फ़िल्मी धुनों पर भजन, भोजपुरी गाने, अन्य फ़िल्मी गाने बजते रहते हैं. बहुधा ऐसी जगह संध्याकाल में भोज होता है. यहाँ भोज का तो नहीं पता किंतु लाउडस्पीकर पर शिव भजन, ‘लोकप्रिय’ भोजपुरी गाने चालू हैं. ख़ैर, यह भी शाम तक का ही है (सोचा यही था पर रात के ग्यारह बज रहे हैं और धम-धम इफेक्ट के साथ गाने चालू हैं )

रामायण का यह आयोजन प्राचीन काल से चला आ रहा है, बचपन और उसके पूर्व से तो मुझे पक्का मालूम है, तुलसी बाबा के समय से ही रहा होगा. गाँव में चौपाल पर, होता था. शहर में श्रमिक वर्ग रात में भजन, बिरहा, आल्हा, कजरी, सावन आदि ऋतु व लोकगीत, होली के अवसर पर फाग व रामायण गाया करता था. मण्डियों में पल्लेदार (बोझा उठाने वाले) रात में नियमित रूप से यह करते थे. गिरमिटिया मज़दूरों के पास मानस का गुटका भी होता था, जहाँ भी वे गये, बसे – रामायण गाया करते थे. कारागार में भी कुछ बंदी नियमित रूप से रामायण, भजन व पूजा-पाठ करते हैं. बहुधा कारागार में मन्दिर भी होता है.

रामायण पाठ हुआ तो यादों की पोटली खुली. हमारे बचपन से युवावस्था तक रामायण में लोग बुलौआ का रास्ता नहीं देखते थे या परिचित – अपरिचित का भेद नहीं करते थे. जब्‌-जहाँ रामायण बैठी और लाउडस्पीकर की ध्वनि कान में पड़ी, नहा कर जाना कर्तव्य मान कर जाते थे, घण्टा – दो घण्टा या अधिक पाठ में शामिल होते और हाथ जोड़ कर चले आते. कुछ तो क्ई बार जाते थे, जब सुनते कि पाठ करने वाले कम हो गए हैं, ध्वनि थकी – थकी सी आ रही है, पहुँच कर मोर्चा संभाल लेते. कुछ तो रात में रुकते. कुछ ‘रामायणियों’ की इसमें प्रसिद्धि भी थी, वे आग्रह पर या स्वेच्छा से यह निर्वहन करते थे. नितान्त अपरिचित, राह चलते भी पाठ कर जाते थे, ऐसे घर में कोई रोक न होती थी. मैं स्वयं कई जगह जाया करता था, मोहल्ले या मन्दिर में तो अवश्य ही. पिता जी निर्देशित कर जाते थे कि रामायण पढ़ने चले जाना. बचपन से ही नित्य रामायण पाठ का अभ्यास है, अब कभी – कभी क्रम भंग हो जाता है. प्रातः नास्ते के बाद मैं और पिता जी रामायण लेकर बैठते, एक चौपाई वे पढ़ते, एक मैं, ऐसे करीब आधा घण्टा तो पढ़ते. इसके बाद हम भोजन करते, वे ऑफिस जाते और मैं स्कूल, लंच ले जाने की प्रथा हमारे यहाँ न थी, नौ-सवा नौ तक भरपूर भोजन कर लेने से लंच की ज़रूरत भी न पड़ती.

एक बार मोहल्ले में सार्वजनिक रामायण बैठी. मन्दिर का जीर्णोद्वार हुआ था. मेरे बचपन से अब तक करीब चार बार जीर्णोद्वार हो चुका है और मन्दिर विस्तृत होता गया है. पुराने मोहल्ले के, अमानीगंज चौराहा, अमीनाबाद, मेरा जन्मस्थान, पर इस शिव मन्दिर की स्थापना हम कुछ बच्चों ने की थी. सम्बन्धित लोगों के अलावा, अब शायद लोगों को यह याद न हो, स्वीकार न करें. उनमें से कुछ तो अब रहे नहीं या तितर-बितर हो गये हैं. तब संकीर्तन मण्डलियों का ज़ोर था. मोहल्ले-मोहल्ले संकीर्तन मण्डलियां थीं. जवाबी कीर्तन भी होते थे. कानपुर व लखनऊ में इनका बोल बाला था. कानपुर की जवाहर जिद्दी की मण्डली बहुत मशहूर व जवाबी कीर्तन में अजेय सी थी. कीर्तन में बंगाल के चैतन्य महाप्रभु की तरह हरिनाम संकीर्तन या आज के ‘इस्कॉन’ की तरह ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ या मठ / आश्रम की तरह कीर्तन नहीं बल्कि फ़िल्मी धुनों पर कोई धार्मिक प्रसङ्ग गाये जाते थे. जवाबी कीर्तन में एक मण्डली जिस धुन पर जो प्रसङ्ग गाती, दूसरी जवाब में उसी या दूसरी धुन पर वही प्रसङ्ग गाती. न गा पाने वाली हार जाती, विजेता को शील्ड व घोषित नकद पुरस्कार मिलता, उपविजेता को भी छोटी शील्ड व कम रकम मिलती. कीर्तन के बीच में श्रोता नकद ईनाम की बौछार करते रहते.

कीर्तन मण्डलियों को रामायण मण्डलियों ने, फिर देवी जागरण मण्डलियों ने, अब साईं भजन मण्डली, खाटू श्याम संकीर्तन मण्डली आदि ने विस्थापित कर दिया, उस कीर्तन का तो अब नाम भी न बचा.

हमारे मोहल्ले में था ‘श्री हरि शरण संकीर्तन मण्डल’ उस दल के साथ पिता जी का उठना-बैठना था. वे गाते-बजाते तो नहीं किंतु उत्साह से शामिल होते, साथ जाते. उससे प्रेरित होकर हम बच्चों नें अपनी संकीर्तन मण्डली बनाने की सोची. गायक वगैरह तय हो गये. एक अच्छा गाने वाला लड़का था सुशील. तब प्रायः सबके चिढ़ाने वाले उपनाम होते थे, उसका नाम था सुशील फटही. मैं सुशील फटही की तरफ था. एक थे झब्बू मामा, नाम पता नहीं, झब्बू मामा कहाते थे. उनका छोटा भाई भी दूसरे पक्ष में था. उसने मुझे अपनी तरफ फोड़ने के लिए डराया, ‘तुम सुशील फटली की अलंग से खड़े होइके गइहो ! तुमरे बाप एक … हैं, तुमरी … छांट देहें’ ( … की जगह भदेस शब्द, आज के हिसाब से गाली ) हम डर गये, फूट पड़ गयी, हमने सदस्यता वापस ले ली और कीर्तन मण्डली बनने से पहले भंग हो गयी.

तब दूसरा काम हुआ. हम एक दुकान के बाहर से एक चौकोर पत्थर (जो चबूतरे पर चढ़ने के लिए सीढ़ी की तरह रखा था) उठा लाये, उसे चौराहे पर रखा ( तब इतना आवागमन न था, बच्चे सड़क पर खेला करते थे) उस पर कुछ बटिया (गोल पत्थर) रखे, आधार को खपच्ची, झण्डी से घेरा और बन गया शिव जी का थान. कुछ समय बाद बच्चे भगा दिए गये, बड़ों ने उस मन्दिर को अधिग्रहीत कर लिया, कई बार बनते-बनते अब वह बड़े व भव्य रूप में है. उस पर जन्माष्टमी की झांकी, कीर्तन व अन्य धार्मिक आयोजन होते थे.

जब पहली बार कुछ ढंग का मन्दिर बना, तब बड़े पैमाने पर रामायण बैठी. मैं तब पाँचवे या छठे में पढ़ता था. तब मैं बस नहाने, खाना खाने व देर रात में सोने घर गया, बाक़ी रामायण पढ़ी. तब से रामायण पाठ के प्रति चाव और बढ़ता गया.

फिर यह कम कैसे होकर घर पर पाठ करने तक सिमट गया ? हुआ यह कि पहले तो घर वाले, कुछ घनिष्ट मित्र व रिश्तेदार आदि मोर्चा संभाल लेते थे, रात में डटे रहते थे किन्तु कालान्तर में वे ढीले पड़ कर विमुख होते गये. तब रात में जो एक या दो ‘फंस’ जाते, वे थके/ बेमन से गाते रहते कि रामायण खण्डित न हो जाए, जैसे ही कोई आता, वे प्रणाम करके उठ लेते और वह दूसरे के आने तक ‘फंसा’ रहता. बड़ी विषम स्थिति हो जाती. जो भी हो, ऐसी स्थिति होने पर भी रामायण बिठाना तो छोड़ा न जा सकता था. लोग मानते भी थे कि फलां काम हो जाए तो रामायण करेंगे. तीर्थ आदि से आने, गृह प्रवेश आदि पर रामायण और भोज की परिपाटी अब भी है. तो इसका तोड़ यह निकला कि रामायण मण्डलियां बनी, लोग उन्हें बुलाने लगे. शुरू में वे पेशेवर न थे, कोई फीस वगैरह न थी.बुलाने पर आते थे, बहुधा रात संभाल लेते थे, शुरुआत व समापन भी कराते थे. जो आरती में चढ़ावा आ जाए और यजमान जो स्वेच्छा से अर्पित कर दे, सन्तोषपूर्वक ले लेते थे. वे झांझ, मंजीरा, खड़ताल, ढोलक, हारमोनियम आदि लाते थे और फ़िल्मी सहित कई धुनों में लयपूर्वक और गति में पाठ करते थे फिर भी बोल समझ में आते थे और जो रामायणी नहीं भी होते, वे भी थोड़ा प्रयास करने पर उनके साथ, उनकी लय में गा लेते थे. आकाशवाणी लखनऊ से विभिन्न मधुर धुनों में मानस गान प्रसारित होता जिनमें’ हे हा’ की टेक वाली धुन बहुत लोकप्रिय व मधुर थी. मुकेश का गाया सुन्दरकाण्ड व अन्य काण्ड भी बहुत चलन में था.

फिर दौर शुरू हुआ पेशेवर रामायणियों का. ये शुल्क लेते थे और नयी नयी फ़िल्मी धुनों पर बहुत फास्ट गाते थे, इतना फास्ट की बोल पकड़ में न आते थे, गाना ही सुनाई पड़ता था. आम रामायणी भी इनके साथ न गा पाता. वैसा ही समझिये जैसे मिट्टी के अखाड़े में लड़ने वाला पहलवान और रिंग में पेशेवर फाईट वाला रेसलर. दम खम होते हुए भी पुराना या आम भक्त इनके सामने टिक ही न पाता. ये आते ही रामायण कैप्चर कर लगते, आरकेस्ट्रा वालों की तरह सलामी धुन/ ताल-वाद्य्-कचहरी जैसा बजाते और एक गायक सुपर फास्ट स्पीड में आरम्भिक श्लोक व चौपाईयां पढ़ता, दोहा तक आते न आते ग्रुप धुन में गाना शुरू कर देता. हर वाद्य के सामने माईक, दो गायकों के सामने माईक, मार मोहल्ला गुंजा देते. ्बैठे लोग उनका साथ पकड़ ही न पाते, प्रणाम करके उठ जाते. गाने की लय के लिए चौपाईयों के बीच रामा, जय हो, सिया राम या कुछ अन्य शब्द फिट करते हैं. कोई प्रसङ्ग हो, राम वन गमन हो, दशरथ मरण हो, सीता हरण हो, लक्ष्मण शक्ति व राम विलाप हो … फास्ट फ़िल्मी गाना ही सुनाई पड़ता है.

अब ज़माना और बढ़ गया है. दल के साथ समुचित वेशभूषा में पुरोहित भी होते हैं, दो तो होते ही हैं. साज –सज्जा से लेकर सामग्री का ठेका लेते हैं, पूजा कराते, समापन पर हवन कराते हैं, यजमान की इच्छानुसार चौबीस से तीस घण्टों तक में पूर्ण कराते हैं व घर वालों तथा सामान्य लोगों के साथ दे सकने लायक धुन में भी गाते हैं. फीस ग्यारह हज़ार से इक्यावन हज़ार तक होती है.

रामायण की प्रस्तुति में स्थान के अनुसार अन्तर होता है. कानपुर व कुछ जगह (अब लखनऊ में भी) हर काण्ड के बाद लय में आरती होती है, दल के एक-दो सदस्य धीमे स्वर व लय में रामायण पढ़ते रहते हैं ताकि रामायण खण्डित न हो. कुछ रामायणी बीच में झांकी/ लीला भी करते हैं. सजे – धजे लोग प्रसङ्गानुसार अभिनय करते हैं, यथा शिव-विवाह प्रसङ्ग, जन्म प्रसङ्ग, राम विवाह प्रसङ्ग, बारात अवध आने के प्रसङ्ग, लङ्का विजय के उपरान्त अयोध्या आगमन प्रसङ्ग … पर लीला होती है. समय बढ़ जाता है, रोचकता/ मनोरंजन बढ़ता है व मण्डली को चढ़ावा भी आता है.

रामायन सत कोटि अपारा ! अब रामायण बिठाना भी बदल गया है, कई तरह का होता है. आपका क्या अनुभव है और आपके क्षेत्र में कुछ अलग तरह का होता है तो अवश्य बताएँ.  

 

 

Wednesday, 26 February 2025

*महादेव के उन्नीस अवतार*







*महादेव के उन्नीस अवतार*

शिव महापुराण में भगवान शिव के अनेक अवतारों का वर्णन मिलता है, शिव महापुराण का अध्ययन करने वालों के अलावा कम ही लोग इन अवतारों के बारे में जानते हैं। धर्म ग्रंथों  के अनुसार भगवान शिव के 19 अवतार हुए थे। इन अवतारों को अंशावतार कहा जा सकता है जो किसी न किसी विशेष उद्देश्य के लिए हुए और उद्देश्य पूर्ण होने के पश्चात लुप्त हो गये. कुछ मन्दिरों में, चित्रों में इन अवतारों के दर्शन होते हैं. एक अवतार, नन्दी अवतार, ही ऐसा है जो शिव के साथ उनके गण और वाहन के रूप में है. आज हम भगवान शिव के 19 अवतारों का वर्णन कर रहे हैं -

1.
वीरभद्र अवतार भगवान शिव का यह अवतार तब हुआ था, जब दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में माता सती ने अपनी देह का त्याग किया था। जब भगवान शिव को यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने क्रोध में अपने सिर से एक जटा उखाड़ी और उसे रोषपूर्वक पर्वत के ऊपर पटक दिया। उस जटा के पूर्वभाग से महाभंयकर वीरभद्र प्रगट हुए। शिव के इस अवतार ने दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर दिया और दक्ष का सिर काटकर उसे मृत्युदंड दिया।

2.
पिप्पलाद अवतार  मानव जीवन में भगवान शिव के पिप्पलाद अवतार का बड़ा महत्व है। शनि पीड़ा का निवारण पिप्पलाद की कृपा से ही संभव हो सका। कथा है कि पिप्पलाद ने देवताओं से पूछा- क्या कारण है कि मेरे पिता दधीचि जन्म से पूर्व ही मुझे छोड़कर चले गए? देवताओं ने बताया शनिग्रह की दृष्टि के कारण ही ऐसा कुयोग बना।

पिप्पलाद यह सुनकर बड़े क्रोधित हुए। उन्होंने शनि को नक्षत्र मंडल से गिरने का श्राप दे दिया।श्राप के प्रभाव से शनि उसी समय आकाश से गिरने लगे। देवताओं की प्रार्थना पर पिप्पलाद ने शनि को इस बात पर क्षमा किया कि शनि जन्म से लेकर 16 साल तक की आयु तक किसी को कष्ट नहीं देंगे।

तभी से पिप्पलाद का स्मरण करने मात्र से शनि की पीड़ा दूर हो जाती है। शिव महापुराण के अनुसार स्वयं ब्रह्मा ने ही शिव के इस अवतार का नामकरण किया था।

3.
नंदी अवतार  भगवान शंकर सभी जीवों का प्रतिनिधित्व करते हैं, उन्हें पशुपतिनाथ भी कहते हैं. भगवान शंकर का नंदीश्वर अवतार भी इसी बात का अनुसरण करते हुए सभी जीवों से प्रेम का संदेश देता है। नंदी (बैल) कर्म का प्रतीक है, जिसका अर्थ है कर्म ही जीवन का मूल मंत्र है। इस अवतार की कथा इस प्रकार है-

शिलाद मुनि ब्रह्मचारी थे। वंश समाप्त होता देख उनके पितरों ने शिलाद से संतान उत्पन्न करने को कहा। शिलाद ने अयोनिज और मृत्युहीन संतान की कामना से भगवान शिव की तपस्या की। तब भगवान शंकर ने स्वयं शिलाद के यहां पुत्र रूप में जन्म लेने का वरदान दिया। कुछ समय बाद भूमि जोतते समय शिलाद को भूमि से उत्पन्न एक बालक मिला।

शिलाद ने उसका नाम नंदी रखा। भगवान शंकर ने नंदी को अपना गणाध्यक्ष बनाया। इस तरह नंदी नंदीश्वर हो गए। मरुतों की पुत्री सुयशा के साथ नंदी का विवाह हुआ।

4.
भैरव अवतार शिव महापुराण में भैरव को परमात्मा शंकर का पूर्ण रूप बताया गया है। एक बार भगवान शंकर की माया से प्रभावित होकर ब्रह्मा विष्णु स्वयं को श्रेष्ठ मानने लगे। तब वहां तेज-पुंज के मध्य एक पुरुषाकृति दिखलाई पड़ी। उन्हें देखकर ब्रह्माजी ने कहा- चंद्रशेखर तुम मेरे पुत्र हो।

अत: मेरी शरण में आओ। ब्रह्मा की ऐसी बात सुनकर भगवान शंकर को क्रोध गया। उन्होंने उस पुरुषाकृति से कहा- काल की भांति शोभित होने के कारण आप साक्षात कालराज हैं। भीषण होने से भैरव हैं। भगवान शंकर से इन वरों को प्राप्त कर कालभैरव ने अपनी अंगुली के नाखून से ब्रह्मा के पांचवे सिर को काट दिया। ब्रह्मा का पांचवा सिर काटने के कारण भैरव ब्रह्महत्या के पाप से दोषी हो गए।

काशी में भैरव को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति मिली। काशीवासियों के लिए भैरव की भक्ति अनिवार्य बताई गई है।

5.
अश्वत्थामा महाभारत के अनुसार पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा काल, क्रोध, यम भगवान शंकर के अंशावतार थे। आचार्य द्रोण ने भगवान शंकर को पुत्र रूप में पाने की लिए घोर तपस्या की थी और भगवान शिव ने उन्हें वरदान दिया था कि वे उनके पुत्र के रूप मे अवतीर्ण होंगे।

समय आने पर सवन्तिक रुद्र ने अपने अंश से द्रोण के बलशाली पुत्र अश्वत्थामा के रूप में अवतार लिया। ऐसी मान्यता है कि अश्वत्थामा अमर हैं तथा वह आज भी धरती पर ही निवास करते हैं। शिवमहापुराण (शतरुद्रसंहिता-37) के अनुसार अश्वत्थामा आज भी जीवित हैं और वे गंगा के किनारे निवास करते हैं किंतु उनका निवास कहां हैं, यह नहीं बताया गया है।

6.
शरभावतार भगवान शंकर का छटा अवतार है शरभावतार। शरभावतार में भगवान शंकर का स्वरूप आधा मृग (हिरण) तथा शेष शरभ पक्षी (पुराणों में वर्णित आठ पैरों वाला जंतु जो शेर से भी शक्तिशाली था) का था। इस अवतार में भगवान शंकर ने नृसिंह भगवान की क्रोधाग्नि को शांत किया था।

लिंगपुराण में शिव के शरभावतार की कथा है, उसके अनुसार-हिरण्यकशिपु का वध करने के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंहावतार लिया था। हिरण्यकशिपु के वध के पश्चात भी जब भगवान नृसिंह का क्रोध शांत नहीं हुआ तो देवता शिवजी के पास पहुंचे।

तब भगवान शिव ने शरभावतार लिया और वे इसी रूप में भगवान नृसिंह के पास पहुंचे तथा उनकी स्तुति की, लेकिन नृसिंह की क्रोधाग्नि शांत नहीं हुई। यह देखकर शरभ रूपी भगवान शिव अपनी पूंछ में नृसिंह को लपेटकर ले उड़े। तब कहीं जाकर भगवान नृसिंह की क्रोधाग्नि शांत हुई। उन्होंने शरभावतार से क्षमा याचना कर अति विनम्र भाव से उनकी स्तुति की।

7.
गृहपति अवतार  भगवान शंकर का सातवां अवतार है गृहपति। इसकी कथा इस प्रकार है- नर्मदा के तट पर धर्मपुर नाम का एक नगर था। वहां विश्वानर नाम के एक मुनि तथा उनकी पत्नी शुचिष्मती रहती थीं। शुचिष्मती ने बहुत काल तक नि:संतान रहने पर एक दिन अपने पति से शिव के समान पुत्र प्राप्ति की इच्छा की।

पत्नी की अभिलाषा पूरी करने के लिए मुनि विश्वनार काशी गए। यहां उन्होंने घोर तप द्वारा भगवान शिव के वीरेश लिंग की आराधना की। एक दिन मुनि को वीरेश लिंग के मध्य एक बालक दिखाई दिया। मुनि ने बालरूपधारी शिव की पूजा की।

उनकी पूजा से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने शुचिष्मति के गर्भ से अवतार लेने का वरदान दिया। कालांतर में शुचिष्मति गर्भवती हुई और भगवान शंकर शुचिष्मती के गर्भ से पुत्ररूप में प्रकट हुए। कहते हैं, पितामह ब्रह्म! ने ही उस बालक का नाम गृहपति रखा था।

8.
ऋषि दुर्वासा भगवान शंकर के विभिन्न अवतारों में ऋषि दुर्वासा का अवतार भी प्रमुख है। धर्म ग्रंथों के अनुसार सती अनुसूइया के पति महर्षि अत्रि ने ब्रह्मा के निर्देशानुसार पत्नी सहित ऋक्षकुल पर्वत पर पुत्रकामना से घोर तप किया। उनके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों उनके आश्रम पर आए।

उन्होंने कहा- हमारे अंश से तुम्हारे तीन पुत्र होंगे, जो त्रिलोकी में विख्यात तथा माता-पिता का यश बढ़ाने वाले होंगे। समय आने पर ब्रह्माजी के अंश से चंद्रमा उत्पन्न हुए। विष्णु के अंश से श्रेष्ठ संन्यास पद्धति को प्रचलित करने वाले दत्तात्रेय उत्पन्न हुए और रुद्र के अंश से मुनिवर दुर्वासा ने जन्म लिया।

9.
हनुमान जी भगवान शिव का हनुमान अवतार सभी अवतारों में श्रेष्ठ माना गया है। इस अवतार में भगवान शंकर ने एक वानर का रूप धरा था। शिवमहापुराण के अनुसार देवताओं और दानवों को अमृत बांटते हुए विष्णुजी के मोहिनी रूप को देखकर लीलावश शिवजी ने कामातुर होकर अपना वीर्यपात कर दिया।

सप्तऋषियों ने उस वीर्य को कुछ पत्तों में संग्रहित कर लिया। समय आने पर सप्तऋषियों ने भगवान शिव के वीर्य को वानरराज केसरी की पत्नी अंजनी के कान के माध्यम से गर्भ में स्थापित कर दिया, जिससे अत्यंत तेजस्वी एवं प्रबल पराक्रमी श्री हनुमानजी उत्पन्न हुए।

10.
वृषभ अवतार  भगवान शंकर ने विशेष परिस्थितियों में वृषभ अवतार लिया था। इस अवतार में भगवान शंकर ने विष्णु पुत्रों का संहार किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार जब भगवान विष्णु दैत्यों को मारने पाताल लोक गए तो उन्हें वहां बहुत सी चंद्रमुखी स्त्रियां दिखाई पड़ी।

विष्णु ने उनके साथ रमण करके बहुत से पुत्र उत्पन्न किए। विष्णु के इन पुत्रों ने पाताल से पृथ्वी तक बड़ा उपद्रव किया। उनसे घबराकर ब्रह्माजी ऋषिमुनियों को लेकर शिवजी के पास गए और रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगे। तब भगवान शंकर ने वृषभ रूप धारण कर विष्णु पुत्रों का संहार किया।

11.
यतिनाथ अवतार  भगवान शंकर ने यतिनाथ अवतार लेकर अतिथि के महत्व का प्रतिपादन किया था। उन्होंने इस अवतार में अतिथि बनकर भील दम्पत्ति की परीक्षा ली थी, जिसके कारण भील दम्पत्ति को अपने प्राण गवाने पड़े। धर्म ग्रंथों के अनुसार अर्बुदाचल पर्वत के समीप शिवभक्त आहुक-आहुका भील दम्पत्ति रहते थे।

एक बार भगवान शंकर यतिनाथ के वेष में उनके घर आए। उन्होंने भील दम्पत्ति के घर रात व्यतीत करने की इच्छा प्रकट की। आहुका ने अपने पति को गृहस्थ की मर्यादा का स्मरण कराते हुए स्वयं धनुषबाण लेकर बाहर रात बिताने और यति को घर में विश्राम करने देने का प्रस्ताव रखा। इस तरह आहुक धनुषबाण लेकर बाहर चला गया।

प्रात:काल आहुका और यति ने देखा कि वन्य प्राणियों ने आहुक का मार डाला है। इस पर यतिनाथ बहुत दु:खी हुए। तब आहुका ने उन्हें शांत करते हुए कहा कि आप शोक करें। अतिथि सेवा में प्राण विसर्जन धर्म है और उसका पालन कर हम धन्य हुए हैं। जब आहुका अपने पति की चिताग्नि में जलने लगी तो शिवजी ने उसे दर्शन देकर अगले जन्म में पुन: अपने पति से मिलने का वरदान दिया।

12.
कृष्णदर्शन अवतार भगवान शिव ने इस अवतार में यज्ञ आदि धार्मिक कार्यों के महत्व को बताया है। इस प्रकार यह अवतार पूर्णत: धर्म का प्रतीक है। धर्म ग्रंथों के अनुसार इक्ष्वाकुवंशीय श्राद्धदेव की नवमी पीढ़ी में राजा नभग का जन्म हुआ।

विद्या-अध्ययन को गुरुकुल गए नभग जब बहुत दिनों तक लौटे तो उनके भाइयों ने राज्य का विभाजन आपस में कर लिया। नभग को जब यह बात ज्ञात हुई तो वह अपने पिता के पास गए। पिता ने नभग से कहा कि वह यज्ञ परायण ब्राह्मणों के मोह को दूर करते हुए उनके यज्ञ को सम्पन्न करके, उनके धन को प्राप्त करे।

तब नभग ने यज्ञभूमि में पहुंचकर वैश्य देव सूक्त के स्पष्ट उच्चारण द्वारा यज्ञ संपन्न कराया। अंगारिक ब्राह्मण यज्ञ अवशिष्ट धन नभग को देकर स्वर्ग को चले गए। उसी समय शिवजी कृष्णदर्शन रूप में प्रकट होकर बोले कि यज्ञ के अवशिष्ट धन पर तो उनका अधिकार है।

विवाद होने पर कृष्णदर्शन रूपधारी शिवजी ने उसे अपने पिता से ही निर्णय कराने को कहा। नभग के पूछने पर श्राद्धदेव ने कहा-वह पुरुष शंकर भगवान हैं। यज्ञ में अवशिष्ट वस्तु उन्हीं की है। पिता की बातों को मानकर नभग ने शिवजी की स्तुति की।

13.
अवधूत अवतार भगवान शंकर ने अवधूत अवतार लेकर इंद्र के अंहकार को चूर किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार एक समय बृहस्पति और अन्य देवताओं को साथ लेकर इंद्र शंकर जी के दर्शनों  के लिए कैलाश पर्वत पर गए। इंद्र की परीक्षा लेने के लिए शंकरजी ने अवधूत रूप धारण कर उनका मार्ग रोक लिया।

इंद्र ने उस पुरुष से अवज्ञापूर्वक बार-बार उसका परिचय पूछा तो भी वह मौन रहा। इस पर क्रुद्ध होकर इंद्र ने ज्यों ही अवधूत पर प्रहार करने के लिए वज्र छोडऩा चाहा, वैसे ही उनका हाथ स्तंभित हो गया। यह देखकर बृहस्पति ने शिवजी को पहचान कर अवधूत की बहुविधि स्तुति की, जिससे प्रसन्न होकर शिवजी ने इंद्र को क्षमा कर दिया।

14.
भिक्षुवर्य अवतार भगवान शंकर देवों के देव हैं। संसार में जन्म लेने वाले हर प्राणी के जीवन के रक्षक भी हैं। भगवान शंकर का भिक्षुवर्य अवतार यही संदेश देता है। धर्म ग्रंथों के अनुसार विदर्भ नरेश सत्यरथ को शत्रुओं ने मार डाला।

उसकी गर्भवती पत्नी ने शत्रुओं से छिपकर अपने प्राण बचाए। समय आने पर उसने एक पुत्र को जन्म दिया। रानी जब जल पीने के लिए सरोवर गई तो उसे घडिय़ाल ने अपना आहार बना लिया। तब वह बालक भूख-प्यास से तड़पने लगा। इतने में ही शिवजी की प्रेरणा से एक भिखारिन वहां पहुंची। तब शिवजी ने भिक्षुक का रूप धर उस भिखारिन को बालक का परिचय दिया और उसके पालन-पोषण का निर्देश दिया तथा यह भी कहा कि यह बालक विदर्भ नरेश सत्यरथ का पुत्र है।

यह सब कह कर भिक्षुक रूपधारी शिव ने उस भिखारिन को अपना वास्तविक रूप दिखाया। शिव के आदेश अनुसार भिखारिन ने उस बालक का पालन-पोषण किया। बड़ा होकर उस बालक ने शिवजी की कृपा से अपने दुश्मनों को हराकर पुन: अपना राज्य प्राप्त किया।

15.
सुरेश्वर अवतार  भगवान शंकर का सुरेश्वर (इंद्र) अवतार भक्त के प्रति उनकी प्रेमभावना को प्रदर्शित करता है। इस अवतार में भगवान शंकर ने एक छोटे से बालक उपमन्यु की भक्ति से प्रसन्न होकर उसे अपनी परम भक्ति और अमर पद का वरदान दिया।

धर्म ग्रंथों के अनुसार व्याघ्रपाद का पुत्र उपमन्यु अपने मामा के घर पलता था। वह सदा दूध की इच्छा से व्याकुल रहता था। उसकी मां ने उसे अपनी अभिलाषा पूर्ण करने के लिए शिवजी की शरण में जाने को कहा। इस पर उपमन्यु वन में जाकर ऊँ नम: शिवाय का जप करने लगा।

शिवजी ने सुरेश्वर (इंद्र) का रूप धारण कर उसे दर्शन दिया और शिवजी की अनेक प्रकार से निंदा करने लगा। इस पर उपमन्यु क्रोधित होकर इंद्र को मारने के लिए खड़ा हुआ। उपमन्यु को अपने में दृढ़ शक्ति और अटल विश्वास देखकर शिवजी ने उसे अपने वास्तविक रूप के दर्शन कराए तथा क्षीरसागर के समान एक अनश्वर सागर उसे प्रदान किया। उसकी प्रार्थना पर कृपालु शिवजी ने उसे परम भक्ति का पद भी दिया।

16.
किरात अवतार किरात अवतार में भगवान शंकर ने पाण्डुपुत्र अर्जुन की वीरता की परीक्षा ली थी। महाभारत के अनुसार कौरवों ने छल-कपट से पाण्डवों का राज्य हड़प लिया पाण्डवों को वनवास पर जाना पड़ा। वनवास के दौरान जब अर्जुन भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए तपस्या कर रहे थे, तभी दुर्योधन द्वारा भेजा हुआ मूड़ नामक दैत्य अर्जुन को मारने के लिए शूकर( सुअर) का रूप धारण कर वहां पहुंचा।

अर्जुन ने शूकर पर अपने बाण से प्रहार किया, उसी समय भगवान शंकर ने भी किरात वेष धारण कर उसी शूकर पर बाण चलाया। शिव की माया के कारण अर्जुन उन्हें पहचान पाए और शूकर का वध उसके बाण से हुआ है, यह कहने लगे। इस पर दोनों में विवाद हो गया।

अर्जुन ने किरात वेषधारी शिव से युद्ध किया। अर्जुन की वीरता देख भगवान शिव प्रसन्न हो गए और अपने वास्तविक स्वरूप में आकर अर्जुन को कौरवों पर विजय का आशीर्वाद दिया।

17.
सुनटनर्तक अवतार पार्वती के पिता हिमाचल से उनकी पुत्री का हाथ मागंने के लिए शिवजी ने सुनटनर्तक वेष धारण किया था। हाथ में डमरू लेकर शिवजी नट के रूप में हिमाचल के घर पहुंचे और नृत्य करने लगे। नटराज शिवजी ने इतना सुंदर और मनोहर नृत्य किया कि सभी प्रसन्न हो गए। जब हिमाचल ने नटराज को भिक्षा मांगने को कहा तो नटराज शिव ने भिक्षा में पार्वती को मांग लिया।

इस पर हिमाचलराज अति क्रोधित हुए। कुछ देर बाद नटराज वेषधारी शिवजी पार्वती को अपना रूप दिखाकर स्वयं चले गए। उनके जाने पर मैना और हिमाचल को दिव्य ज्ञान हुआ और उन्होंने पार्वती को शिवजी को देने का निश्चय किया।

18.
ब्रह्मचारी अवतार दक्ष के यज्ञ में प्राण त्यागने के बाद जब सती ने हिमालय के घर जन्म लिया तो शिवजी को पति रूप में पाने के लिए घोर तप किया। पार्वती की परीक्षा लेने के लिए शिवजी ब्रह्मचारी का वेष धारण कर उनके पास पहुंचे। पार्वती ने ब्रह्मचारी  को देख उनकी विधिवत पूजा की। जब ब्रह्मचारी ने पार्वती से उसके तप का उद्देश्य पूछा और जानने पर शिव की निंदा करने लगे तथा उन्हें श्मशानवासी कापालिक भी कहा।

यह सुन पार्वती को बहुत क्रोध हुआ। पार्वती की भक्ति प्रेम को देखकर शिव ने उन्हें अपना वास्तविक स्वरूप दिखाया। यह देख पार्वती अति प्रसन्न हुईं।

19.
यक्ष अवतार  यक्ष अवतार शिवजी ने देवताओं के अनुचित और मिथ्या अभिमान को दूर करने के लिए धारण किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार देवता असुर द्वारा किए गए समुद्रमंथन के दौरान जब भयंकर विष निकला तो भगवान शंकर ने उस विष को ग्रहण कर अपने कण्ठ में रोक लिया।

इसके बाद अमृत कलश निकला। अमृतपान करने से सभी देवता अमर तो हो गए साथ ही उनहें अभिमान भी हो गया कि वे सबसे बलशाली हैं। देवताओं के इसी अभिमान को तोडऩे के लिए शिवजी ने यक्ष का रूप धारण किया देवताओं के आगे एक तिनका रखकर उसे काटने को कहा। अपनी पूरी शक्ति लगाने पर भी देवता उस तिनके को काट नहीं पाए।

तभी आकाशवाणी हुई कि यह यक्ष सब गर्वों के विनाशक शंकर भगवान हैं। सभी देवताओं ने भगवान शंकर की स्तुति की तथा अपने अपराध के लिए क्षमा मांगी।

इस प्रकार शिव के अनेक रूप हैं जो विभिन्न ग्रन्थों में वर्णित हैं. हमारा अध्ययन सीमित है अतः उन्ही अवतारों की कथा संक्षेप में कही जिनके बारे में हमने पढ़ा. जैसे अनेक रामायण व राम कथा प्रचलित हैं, उत्तर में प्रचलित कथाओं से उनकी रामकथाएँ कुछ, कुछ क्या पर्याप्त भिन्नता भी रखती हैं, राम – सीता आदि के पारस्परिक / पारिवारिक सम्बन्ध भी उत्तर भारत में प्रचलित कथाओं व विश्वास से मेल नहीं खाते, विवाद भी हो चुके हैं, दशरथ जातक की कथा पर विवाद होता रहता है, लोक में अनेक कथाएँ व गीत प्रचलित हैं, लोक में भी उत्तर भारत की कथाओं से उड़िया लोक कथाओं व गीतों में चित्रण भिन्न है, वैसे ही शिव जी के भी अन्य रूप हो सकते हैं जिन्हें अवतार भी कहा गया हो सकता है. पूर्वोत्तर में अवलोकितेश्वर नाम से बुद्ध भी हैं व रौद्र रूप में शिव भी. लोक में शिव पार्वती का भ्रमणकारी और कौतुकी रूप भी बहुत सुना जाता है. शिव पार्वती भूलोक पर भ्रमण करते रहते हैं, बहुधा पार्वती लोगों के कष्ट देख कर अथवा विधि की विडम्बना के वशीभूत होकर धन आदि होते हुए भी लोगों को उससे अनभिज्ञ रहते, लाभ न उठा पाने को देखती हैं और द्रवित हो जाती हैं, शिव जी से उनके दुःख दूर करने, विधि के विधान में हस्तक्षेप करने को कहती हैं. शिव जी उनकी बात मान कर वैसा करते हैं. कभी तो उनका भाग्य बदल जाता है किंतु बहुधा उन्हें मिली धन – सम्पदा पुनः उनसे दूर हो जाती है, विधि का विधान फलीभूत होकर रहता है.

                    पुराण व अन्य ग्रन्थ तो प्राचीन हैं किन्तु समकालीन और अगम्भीर माने जाने वाले कुछ लेखकों ने शिव लीला सर्वथा नवीन और भिन्न रूप में वर्णित की है. यह पुराणों को विकृत करना भी कहा जा सकता है, मान्यताओं का खण्डन भी और देस काल के अनुसार नवीन चित्रण भी, अधिकांश लोग शिव व अन्य पौराणिक चरित्रों व घटनाओं का वैसा चित्रण सहन नहीं करते, अस्वीकार करते हैं. किशोर व युवा पीढ़ी के अधिकांश लोगों ने पुराणों व लोक का अध्ययन नहीं किया है, वे उनसे अनभिज्ञ हैं, घर पर भी बड़ों-बूढ़ों द्वारा न वे कथाएँ सुनायी जा रही हैं, न ही उन्हें यह पता कि यह पीढ़ी क्या पढ़ रही है. किसी की रुचि ही नहीं है उनमें किन्तु अंग्रेजी में भी होने व फ़िल्म की भांति तेज़ रफ़्तार कथानक व घटनाक्रम होने, आक्रामक प्रचार आदि से ‘कूल डूड’ इन ‘बेस्ट सेलर’ को पढ़ रहे हैं. यह आशङ्का तो है कि कि पुराने से अनभिज्ञ होने व इन्हीं को पढ़ने से कई दशक बाद लोग इन्हीं को प्रामाणिक व ग्रन्थ मानने लगें. बहुतेरों का ज्ञान व जानकारी ऐसी किताबों, फ़िल्मों, सीरियलों, कथावाचकों द्वारा परोसी जा रही जानकारी के आधार पर है, उसे ही वे जानते व मानते हैं. तुलनात्मक अध्ययन व विविधता के लिए तो ठीक किन्तु उसी को एकमात्र मानना न साहित्य के लिए सही है, न आस्था के लिए. इस पर हम सबको सोचना व कार्य करना होगा.

जो भी हो, ‘हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता। कहहिं सुनइ बहुविधि सब सन्ता॥‘ हरि-हर एक ही हैं और अब सब सन्त व कथावाचक. हरि के विविध रूपों का स्मरण करें. बोलें भूतभावन महादेव की जय !