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Saturday, 13 December 2025

कैब वाला कवि !

 

कैब वाला कवि !



कैब वाला कवि !

11 दिसम्बर को राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह, कैसरबाग, लखनऊ में 'अवधी समारोह -2025' का आयोजन हुआ. वृहद आयोजन था, पूरे प्रदेश व नेपाल से अवधी प्रेमी और साहित्यकारों ने भागीदारी की. दिन भर का आयोजन था, 11:00 बजे से होना था किन्तु पंजीकरण आदि में समय लगता अतः आगन्तुकों से 10:00 बजे आने का अनुरोध किया गया. मैं भी घर से करीब 9:45 पर निकला. कैब बुक की. जो कैब आयी उसके ड्राईवर महोदय बड़े बातूनी और रोचक थे, घर से थोड़ी दूर निकलने पर पता चला कि वे कवि भी हैं. शायद यह भी उनके बातूनी होने का कारण था. बातें तो कैब स्टार्ट करने के पाँच मिनट के अन्दर ही शुरू कर दीं. 

पूछा, 'राय उमानाथ बली वही ना जिसमें नाटक वगैरह होते हैं ?'

'हाँ वही !'

'तो नाटक तो शाम को होते हैं, अभी से क्यों जा रहे हैं ?' उन्होंने कौतूहल व्यक्त किया.

             कोई भुन्नहा होता तो कह देता कि आपसे मतलब ? मैं चाहे जिस समय जाऊँ, आपको क्या ! आप गाड़ी चलायें बस ! लेकिन एक तो मैं भुन्नहा नहीं, दूसरे उनका लहजा बहुत नर्म, शिष्ट था, लग रहा था कि सहज जिज्ञासा है बस. सो बताया,

'नाटक नहीं, आज एक दूसरा कार्यक्रम है, 'अवधी समारोह' उसमें दस बजे पहुँचना है.'

'इसमें क्या होगा ? कैसा कार्यक्रम होगा ?'

'इसमें अवधी भाषी लोग, लेखक और कवि इकट्ठा होंगे. एक किताब का विमोचन होगा, अवधी पर चर्चा और फिर अवधी कवि सम्मेलन होगा.'

'अवधी वही भाषा ना जो हमारी अम्मा, दादा और बूढ़ पुरनिया बोलत रहें.'

'हाँ वही. अवधी तो हम लोगों की मातृभाषा है. लखनऊ के आस पास रायबरेली, उन्नाव, बैसवारा, बाराबंकी, गोण्डा, फैज़ाबाद, लखीमपुर वगैरह की भाषा अवधी है और अवधी तो नेपाल में भी बोली जाती है.'

'हैं नेपाल में भी !' उसने आश्चर्य से कहा.

'हाँ, वहाँ तो अवधी माध्यम से पढ़ाई भी होती है. आख़िर सीता जी का मायका है और राम जी तो अवध के हैं.'

'आप पहाड़ी टोपी लगाए हैं, उधर के हैं क्या !'

'नहीं, हम तो लखनऊ के ही हैं. टोपी तो इसलिए लगाए हैं कि ठण्ड है और भाभी नहीं रहीं तो बाल बनवाए थे.'

         फिर कुछ प्रसङ्ग चलने पर उसे कुमाऊंनी, गढ़वाली और नेपाली टोपी का फर्क बताया. इतनी बातें इसलिए भी कि वह शिष्ट और दिलचस्प था, मैं भी बातें कर रहा था और रास्ते में ट्रैफिक बहुत था सो डण्डइया तक में इतनी बातें हो गयीं.

अचानक उन्होंने पूछा, 'आप भी कवि हैं?'

'नहीं, मैं कवि नहीं पर लिखने पढ़ने का शौक़ है.'

'किस विधा में लिखते हैं ?'

'यही, लेख और कहानी वगैरह.'

              अब उन्होंने उजागर किया,

'मैं भी लिखता हूँ.'

'अरे वाह ! किस विधा में.' उन्हें उकसाया.

'मैं कविता लिखता हूँ लेकिन हास्य कविता, प्रेम पर और थोड़ा राजनीति, समाज, देश प्रेम पर भी.'

        फिर थोड़ी इस पर बात हुई कि आज के दौर में हास्य और प्रेम की अधिक ज़रूरत है. बताया कि कई कवि सम्मेलनों में पढ़ चुके हैं, दूरदर्शन पर भी कई बार पढ़ीं, पुरस्कार भी मिले. इसी क्रम में यह व्यथा भी कही कि लोग सोचते हैं कि यह कैब ड्राईवर है, साहित्य से क्या मतलब ! इतनी समझ कहाँ होगी. बात सही है, लोग पेशे और सामाजिक स्तर से भी आंकते हैं. दिलासा दिया, कुछ उदाहरण भी दिए.

              अब हम आई.टी. पार कर रहे थे. रिजर्व पुलिस लाईन के पास बोले, 'मंज़िल आने वाली है, ज़ल्दी से आपको कुछ सुनाता हूँ.' और कई दोहे, एक मुक्तक वगैरह सुनाया. सच कह रहा हूँ कि झेला नहीं रहे थे. दोहे कथ्य की और छन्द शास्त्र की दृष्टि से सही थे, आनन्द आ रहा था. लखनऊ पर एक नज़्म भी सुनाई जिसमें पुराना और नया लखनऊ (लुलु, पलासियो आदि ) भी था. समय कम था और बातें रोचक सो  कहते-कहते भी रौ में उन्होंने गाड़ी प्रेक्षागृह के गेट से थोड़ा आगे रोकी. पैसे देने के साथ फोन नम्बर लिए-दिए, फेसबुक पर रिक्वेस्ट भेजी. पता चला कि वर्मा हूँ तो और ख़ुश हुए, पूछ ही लिया, 'सर, कौन से वर्मा हैं ? हम तो ... वाले हैं. हमने अपना बताया. बड़ा बढ़िया, रोचक और दोस्ताना सफर कटा. और भी बातें हुईं और ताज्जुब यह कि इतने संक्षिप्त समय में, ड्राईविंग के दौरान.

              ********

ऐसा ही वाकया एक बार पहले भी हुआ कि पेशे से ऑटो ड्राईवर की किताबों में रुचि देखी.

लखनऊ विश्वविद्यालय में NBT के 'गोमती पुस्तक मेला' की तैयारी चल रही थी. उद्घाटन की पूर्व संध्या पर हम दोनों बुक किए ऑटो में अमीनाबाद से घर (जानकीपुरम) जा रहे थे. युनिवर्सिटी के पास पहुँचने पर हमने श्रीमती जी से कहा कि कल के लिए मेले की तैयारी आख़िरी दौर में है. ऑटो वाले ने जिज्ञासा प्रकट की,

'यह कैसा मेला है ?'

'पुस्तक मेला है, किताबों का मेला. सौ से ज़्यादा स्टॉल लगे हैं जिनमें प्रकाशक और विक्रेता किताबें लेकर आये हैं. लाखों किताबें होंगी.'

'किताबें खाली देखने को होंगी या बिक्री के लिए भी.'

'बिक्री के लिए भी मगर देखने पर कोई रोक नहीं, ज़रूरी नहीं कि खरीदें भी.'

'कैसी किताबें होती हैं ?'

'सब तरह की ! कविता, कहानी, उपन्यास, धार्मिक, राजनीतिक - सब तरह की.'

'मेडिकल की भी ?'

           अब मैं चौंका. वही बात कि कौतूहल तक तो ठीक ! मेडिकल की किताबों में ऑटो वाले की रुचि ! ये और मेडिकल ! बताया,

'हाँ होंगी ! कोर्स की भी होती हैं, कम्पटेटिव एक्ज़ाम की भी.'

'नहीं, वो नहीं. मतलब, आयुर्वेदिक इलाज, घरेलू नुस्खे की भी होंगी.'

'हाँ, क्यों नहीं ! ये भी होती हैं.'

'जाएंगे किसी दिन.'

               तब तक घर आ गया था तो बात खतम हुई.

            **********

कैब ड्राईवर की बातों में पेशे और सामाजिक स्तर के आधार पर आकलन किए जाने की जो पीड़ा व्यक्त हुई वह सही ही है. हममें से अधिकांश लोग यही धारणा रखते हैं. इससे भी बढ़कर क्षुब्ध करने वाली बात यह कि बात करने, साहित्य या कला सम्बन्धी काम देख कर, सुन कर कायल होते हुए भी विश्वास नहीं कर पाते. इतना उच्चताबोध और ऐसे वर्ग के लिए हिकारत भरी है कि कहते हैं, ' ... होते हुए भी यह खूबी !' यह जो '... होते हुए भी ' पूर्वार्ध है वह बिना नग्न रूप में कहे हुए भी कह जाता है कि यह तो हमारे वर्ग का अधिकार और योग्यता है, इसकी नहीं. इसमें कैसे ?

       खास बात यह कि 'उस वर्ग' की काबलियत से हैरत उसे अधिक होती है जो समान पेशे/क्षेत्र में होता है. एक मज़दूर, सब्ज़ी वाले, कबाड़ी, छोटे दुकानदार, रिक्शावाले की साहित्य/कला में प्रतिभा से अन्य लोगों को उतनी दिक्कत नहीं होती जितनी साहित्यकार/कलाकार को. और लोग उतने स्तब्ध नहीं होते जितने ये उथले कलाकार/साहित्यकार. कोई दुधहा अगर पहलवान हो तो वह इन्हें स्वीकार्य है पर वह कवि, लेखक या पेण्टर (माने चित्रकार) है तो इन्हें दिक्कत हो जाती है. घोसी, पानवाला, लुहार ... कुछ हो मगर साहित्यकार/कलाकार कैसे हो सकता है.

यह उच्चताबोध/दम्भ केवल पेशे के आधार पर ही नहीं, जाति के आधार पर भी होता है. जाति व्यवस्था में चौथे व उससे भी नीचे स्थान में जन्मा कोई साहित्य में, कला में, खेल में, शारीरिक दक्षता में कैसे 'हमसे' आगे या बराबर है ? यह कटु यथार्थ स्वदेश दीपक के नाटक 'कोर्ट मार्शल' में नग्न रूप में व्यक्त है. यह तो यह, 'इन्हें' इस वर्ग का मूंछ रखाना, बुलेट पर चलना, घोड़ी पर बारात ले जाना, चारपाई पर बैठना ... स्वीकार नहीं होता. यह कोई गुज़रे ज़माने की बात नहीं, अब की भी है. अक्सर अख़बार में निकलता रहता है. लगता है यह सिर्फ कहने, पढ़ने भर की बात है, गुनने की नहीं -

'तुलसी या संसार में सबसे मिलिए धाय । ना जाने किस भेष में नारायण मिल जाँय ||'

(चित्र AI से बना है, जान कर उनकी असली फोटो नहीं लगाई मगर बातचीत बिल्कुल असली है, बल्कि कुछ बातें छूट गयी हैं. आपकी तरह मुझे भी लग रहा कि लगभग दस किलोमीटर के सफर और करीब पैतालिस मिनट में विमर्श सहित इतनी बातें कैसे हुईं, मगर हुईं !)


Tuesday, 21 October 2025

गम्भु !


चाय नाश्ता वगैरह करके कम्प्यूटर खोला ही था कि घण्टी बजी, देखा तो छबीले थे. ऊपर बुलाया, आये और बैठे. बैठे तो मगर चैन से नहीं बैठे. बार-बार पहलू बदल रहे थे, लगा कि कुछ है जिसने उन्हें परेशान कर रखा है.  मुखमुद्रा से लग रहा था जैसे कोई शंका बारबार सर उठा कर उन्हें उद्विग्न कर रही हो, शंका भी लघु अथवा दीर्घ प्रकृति की नहीं, उससे भी बड़ी, वो होती तो अपने घर पर या रस्ते में ही कहीं उसका समाधान कर लिए होते, मेरे पास आये तो निश्चित ही मामला इससे कुछ ऊपर का था.  ऐसा इसलिए भी लगा कि चाय पूछने पर बिल्कुल मना कर दिया. बोले, “एक बात पूछनी थी, कल से परेशान किये हुए है.” “पूछो, लग रहा है कि कोई खास बात है. “ “ नहीं, खास तो कुछ नहीं, एक शब्द अटक गया. ये गम्भु क्या होता है ?” “गम्भु !?!” “ये तो कभी सुना या पढ़ा नहीं. तुमने कहाँ पढ़ या सुन लिया ?” “वो सब बाद में बतायेंगे, अभी बहुत ज़ल्दी में हैं, काम पर जाना है. रात भर खौलन मची रही तो काम पर जाने से पहले आ गये नहीं तो रात में आते आराम से ! आप देख कर रखिये.इतना कहते न कहते नीचे से आवाज़ आ गयी कि चलो भाई, देर हो रही है. उनके साथ काम करने वाला बुला रहा था. जाते-जाते कहते गये कि रात को आराम से आते हैं, आप इसका मतलब ढूँढ कर रखिये नहीं तो खाना हजम न होगा.

वो तो गये मगर मुझे उलझन में डाल गये. इनसे मेरा पढ़ने का नाता है. मिस्त्री हैं मगर गजब के पढ़ाकू भी हैं. पिछले बरस कुछ मरम्मत का काम लगवाया था तो मैं देखभाल के लिए और इसलिए भी कि कोई चीज़ कम पड़े तो इंतज़ाम करूँ, इस मतलब से इनके पास ही बैठा रहता था. अब मरम्मत में मेरा क्या दखल सो बैठा कोई किताब पढ़ता रहता था, तभी इन्होंने बताया कि ये भी पढ़ने के बहुत शौक़ीन हैं और झोले से एक किताब भी निकाल कर दिखाई कि रात में पढ़ते हैं और काम से लौटते हुए बदल कर दूसरी लेते हुए जाते हैं. वे किराये पर किताब लाते थे. मुझे बहुत अच्छा लगा कि एक तो पढ़ने के शौक़ीन, दूसरे यह कि अभी भी ऐसी लाईब्रेरियां हैं जो किताब दैनिक किराये पर देती हैं. मेरे और उनके पढ़ाकूपन में अन्तर यह था कि वे केवल जासूसी उपन्यास पढ़ने के शौक़ीन थे जबकि मैं सभी तरह की किताबें पढ़ता हूँ. मिलते हुए शौक़ के चलते वो गाहे-बगाहे आ जाते हैं और कभी कभार मुझसे किताब ले जाते हैं तो देने भी आते हैं और जासूसी उपन्यासों के पात्रों पर या प्लॉट पर बात होती है.

खैर, वे गये तो मगर मुझे उलझन में डाल गये. अब गम्भुन कभी सुना, न पढ़ा. शब्द विन्यास देखते हुए लगा कि संस्कृत का कोई शब्द हो सकता है मगर उनकी पाठकीय अभिरुचि देखते हुए कोई चलताऊ या भदेस या लोक भाषा का शब्द होने की सम्भावना भी थी. सब तलाशा. शब्दकोश देखे, वामन शिवराम आप्टे का संस्कृत हिन्दी शब्दकोशभी देखा और उसमें न मिला तो उर्दू हिन्दी शब्दकोशभी देखा और वहाँ से भी निराश होकर अजित बडनेरकर के शब्दों का सफरके भी दो खण्ड देख डाले. यह भी विचार आया कि गम्भु शम्भु से मिलता-जुलता शब्द है, कहीं शिव जी से सम्बन्धित कोई लोक कथा तो नहीं. ध्यान आया कि शिव जी कथा सुनने काकभुसुन्डि जी के आश्रम गए थे, अब मुझ से पामर जन वहाँ कहाँ  जा पाते तो यह रास्ता छोड़ दिया फिर भी कुछ वैसे लोगों से चर्चा की पर कुछ हल न मिला. एक ने किसी किसान के पास जाने की सलाह दी क्योंकि उसके पास हल होता है मगर मैंने यह सलाह न मानी. किसी नेता के पास ख़ुद ही न गया, जाता तो वह ऐसा घुमा देता कि निकल ही न पाता .

एक अपना व्हाट्स ऐप ग्रुप है, उसमें भी एक से एक पढ़ाकू लोग हैं, उसमें भी पूछा किंतु वहाँ भी कोई न बता पाया. फेसबुक पर पूछना रह गया, वहाँ तो कोई न कोई बता ही देता, एक से एक धुरन्धर भरे हैं फेसबुक पर. न भी बताता तो भी मनोरञ्जन तो होता ही ! कैसी भी पोस्ट हो,  उस पर रायता फैला कर उसे दूसरी दिशा में ले जाने में माहिर हैं कुछ फेसबुकिये ! कुछ में हम भी हैं, एक दो गम्भीर या ललित किस्म की पोस्ट्स पर हमने ऐसा रायता फैलाया कि मूल पोस्ट दरकिनार हो गयी, पोस्टक भी भूल गया होगा कि ये पोस्ट थी काहे पर और उसने की थी या इन लोगों ने, जो मार गदर मचाये पड़े हैं. खैर, ‘गम्भुन मिला. खीझ भी हो रही थी और शर्मिंदगी भी हो रही थी कि वह आकर कहेगा कि वैसे तो मार तमाम किताबें पढ़ते रहते हैं कथेतर, आलोचना, ये विमर्श- वो विमर्श, आयोजनों में भी पिले रहते हैं मगर ज़रा सा ये न बता पाये. फिर हमारे आपमें क्या फर्क रहा !

शाम को वह आया. काम से लौट कर घर नहीं गया, सीधे यहीं आ गया. आते ही पूछा, “मिला गम्भु का मतलब ? ये गम्भु होता क्या है ? किस काम आता है ? कहाँ मिलता है ?” “भई मिला तो नहीं मगर दम तो लो. चाय-शाय पियो और  बताओ कि तुमने कहाँ पढ़ा ? कुछ सन्दर्भ मिले तो बताना आसान हो.” “साहब ! पढ़ा नहीं, सुना है.” “ऐं ! सुना है ! कहाँ सुना, किसने कहा ?” एक साथ कई सवाल पूछ डाले. अरे सुनना कहाँ था, हम कौन सा गोष्ठी ऊष्ठी में जाते हैं, रेडियो पर सुना.” “रेडियो पर ! कोई वार्ता-आर्ता थी क्या लोकायतनया कृषि दर्शनमें ?”

अरे नहीं ! हम ऊ सब नहीं सुनते, बस गाने सुनते हैं. कल एक किताब पढ़ रहे थे और रेडियो भी बज रहा था. सुनील भाई मुलतानी खुलासा करने ही वाले थे कि स्टडी बंद की बंद, लॉक से कोई छेड़छाड़ नहीं तो बिना खिड़की-रोशनदान वाली स्टडी में कैसे खून हो गया कि गाना बजा, ‘मुझे पीने का शौख नहीं पीता हूँ गम्भु लाने कोअब ये गम्भु क्या है और क्या ऐसी जरूरी चीज है कि पीने का शौख न होते हुए भी गम्भु लाने को पीना पड़े. बस तबसे इसी उलझन में पड़े हैं कि क्या होता है ये औ किस काम आता है, कहाँ मिलता है ? काम का हो और बहुत महँगा न मिले तो हम भी लाकर रख लें थोड़ा !

 धत्त तेरे की !मैनें कपार ठोक लिया. अरे घामड़ ! ये गम्भु लाने कोनहीं ग़म भुलाने कोहै. वह ग़म भुलाने के लिए पीता है न कि गम्भु कोई चीज़ है जिसे लाने को पीता है. खामख़्वाह सर घुमा दिया, ठीक से सुना करो.

ओह ! तो ये था ! तो ठीक से गाया करें ना ! आप भी सुनिए, सुनाई न पडे गम्भु तो कहिएगा.   हम भी खामखाँ मार परेशान हो गये. अच्छा चलता हूँ. अब नींद अच्छी आयेगी.

हमने तो कपार ठोक लिया, अब आप भी ठोक रहे होंगे ये पढ़ कर. खोदा पहाड़, निकला चूहा ! वाह रे गम्भु !

Friday, 17 October 2025

संक्षिप्तीकरण


इन दिनों विनोद कुमार शुक्ल चर्चा में हैं किन्तु हम आकर्षित और चिंतित उस वजह से नहीं हुए जिस वजह से वे चर्चा में हैं बल्कि उनके नाम के संक्षिप्तीकरण से हुए ! अधिकतर जगहों पर उन्हें 'विकुशु' लिखा जा रहा है. हमने भी कई जगह उन्हें विकुशु ही लिखा.

                             अब ऐसा भी क्या आलस, संक्षिप्तीकरण और ज़रूरत कि उन्हें विकुशु बना दो. क्या पता, लिखते-लिखते यार-दोस्त, प्रकाशक, मोहल्ले वाले, घरवाले उन्हें विकुशु ही पुकारने लगे हों. कोई आगन्तुक, पान वाले से पूछे, 'भाई, ये विकुशु जी का घर कहाँ है ?' और वो कहे, 'इधर तो कोई विकुशु-उकुशु नहीं ते और ये कैसा नाम हुआ ?' वैसे कोई उमेश कुमार शुक्ल ‘उकुशु’ भी होंगे.

           पहले भी संक्षिप्तीकरण होता था पर वह केवल नाम का था, वि.कु. शुक्ल या अंग्रेजी में V.K.Shukla. यद्यपि इस संक्षिप्तीकरण में भी पूरा नाम न जानने वालों को संशय होता, विभा कुमारी शुक्ला हैं, विमल कुमार शुक्ला, विद्या करन शुक्ला हैं कि विजय कुमार शुक्ला ... ! भई दो शब्दों का तो नाम है जिसमें शुक्ल लगा है तो पूरा विनोद कुमार शुक्ल कहों ना ! काहे अपरिचित को कयास लगाना पड़े. अब सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय जैसा लम्बा नाम तो है नहीं. अब रॉयल्टी का चेक विकुशु के नाम काटा गया होता तो बैंक वापस कर देता.

            नाम के साथ तो सहनीय, कुछ संक्षिप्तीकरण तो विचित्र हैं. जिला पंचायत सदस्य को समाचार में 'जिपंस' पढ़ा तो सोच में पड़ गए कि यह कोई रसायन है या खोजी गयी लुप्तप्राय प्रजाति. Lucknow University Teachers Association और Kanpur University Teachers Association क्रमशः 'लूटा' और 'कूटा' कही लिखी जाती हैं. लेसना एक क्रिया है, किसी को कुछ लेस दो/लसेट दो तो लेसा हुआ मगर लखनऊ विद्युत विभाग 'लेसा' है, कानपुर का 'केसा'. नरेन्द्र मोदी 'नमो' हैं तो राहुल गांधी 'रागां'.  नाम के दो शब्द पूरे नहीं लिखे/उचारे जाते लोगों से ! 'सरिता' में एक विज्ञापन/अभियान जैसा आता था इस पर. उसमें नामों के संक्षिप्तीकरण को लेकर एक नाम होता था, आई.एम.दास.

                  अगर हम लोग भी समय के साथ चलने लगे तो हम होंगे 'रानाव' या 'राना' या फिर 'राव' (राज नारायण वर्मा/राज नारायण / राज वर्मा ) कोई  औपचारिक आदर में राना साहब या  राव साहब पुकारे तो लोग जाने क्या समझ बैठें. कोई संक्षिप्त नाम लेते हुए ‘राना जी’ पुकारे और बाद में स्थिति स्पष्ट हो कि यह तो राज नारायण हैं, कोई राना नहीं तो असली राना से माफी मांगे, ‘मुझको राना जी माफ करना, ग़लती म्हारे से हो गयी …’, उत्तम सिंह भए 'उसिं', हिमांशु बाजपेयी हुए 'हिबा', दिव्य प्रकाश दुबे 'दिप्रदु', पूजा बरनवाल 'पूब' , लखी बरनवाल 'लब' (यह तो उर्दू में होंठ हो गया ). एक दिवंगत नेता नाम के अंग्रेजी संक्षिप्तीकरण में 'पद्दू' हो जांय तो मायावती जी 'मा' रह जांय. यह संक्षिप्तीकरण तो फिर भी ठीक, अगर जवाहर लाल नेहरू का संक्षिप्तीकरण हो, और वे कहीं जायें तो लोग मेज़बान को बताएं, ‘जलाने पधार रहे हैं.’ वैसे अब नेहरू जी कुछ लोगों को जलाने का काम ही करते हैं. जिया लाल हो जायें ‘जिला’ और देवी शरण हो जाएं ‘देश’. इनके संक्षिप्त नाम भ्रामक तो हैं पर लेते / लिखते तो बनते हैं. सोचिए क्या हो अगर महताब राय नेपाली आयें तो संक्षेप में क्या बताया जाए ! पधारें वे और लोग सोचें कि क्या करने पधारे हैं . ऐसे ही हरि राम मीणा के आने पर क्या बताया जाए कि कौन आये हैं और हर गोविंद के आने पर ! बड़ी ही विकट स्थिति हो जाएगी इन लोगों के संक्षिप्त नाम से, जूतमपैजार की नौबत आ जाएगी.

यह तो यह, अख़बार में हेडिंग देखी, ‘’रो-को’ शायद आख़िरी बार ऑस्ट्रेलिया में खेलें. हम चकरा गए कि ये ‘रो-को’ कौन है. पूरा पढ़ने पर पता चला कि यह एक नहीं दो नामों का संक्षिप्तीकरण है – रो है रोहित शर्मा का ‘रो’ और को है विराट कोहली का ‘को’ ! अब संक्षिप्तीकरण ही करना था तो ‘रोश’ और ‘विको’ होता मगर लोग उससे चकराते कहाँ ! उसे ‘रोको’अर्थात रोकने की क्रिया कैसे समझते ! खेद होता है कि कभी अख़बार भाषा की शुद्धता के लिए भी जाने जाते थे.

             भई ! इतना आलस न करें. नाम तो पूरा रहने दें. कहीं संक्षिप्त नाम से चेक-वेक न काट देना, लौट आएगा.

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Wednesday, 1 October 2025

'इधर रहमान उधर बेईमान' के साथ 'मैं बोरिशाइल्ला' व 'किस्सागोई 1971'

'गोमती पुस्तक मेला' लखनऊ, 20 सितम्बर, 2025 से 28 सितम्बर, 2025 तक में 'नीलम जासूस' के स्टाल से अन्य किताबों के साथ जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा की 'इधर रहमान उधर बेईमान' भी ली जो बांग्ला देश के मुक्ति संग्राम पर आधारित उपन्यास है. पढ़ तो पहले भी चुका हूँ, जब प्रकाशित हुई थी, 1971 या 72 में, फिर पढ़ने की इच्छा थी मगर उपलब्ध नहीं थी. जब 'नीलम जासूस कार्यालय' ने पल्प फिक्शन/लोकप्रिय के दिग्गज लेखकों, यथा जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा, वेद प्रकाश काम्बोज, चंदर आदि की कृतियों का पुर्नप्रकाशन शुरू किया तो अन्य कई किताबों के साथ इसे भी लिया.

                      इस किताब का महत्व इसलिए भी है कि जब बांग्ला देश मुक्ति संग्राम जनता की सेना 'मुक्ति वाहिनी' लड़ रही थी, पाकिस्तान के अमानुषिक दमन के बावजूद 'मुक्ति सैनिक' उनको टक्कर दे रहे थे तो तुरन्त ही, युद्ध के दौरान ही, 1971 के आसपास, ओम प्रकाश शर्मा ने यह उपन्यास लिखा और प्रकाशित होते ही यह छा गया. तत्कालीन घटनाक्रम पर तुरत फुरत यह पहला उपन्यास था. ब्रेकिंग न्यूज जैसा शब्द तब चलन में न आया था, इसी शब्दावली में कहें तो यह 'ब्रेकिंग उपन्यास' था, बेस्ट सेलर था, ब्लॉक बस्टर था. इसका क्रेज वे याद कर सकते हैं जो उस दौर के पढ़ाकू हैं. हर पढ़ाकू के हाथ में यह उपन्यास था, न केवल 'पल्प/लुगदी' साहित्य के पाठकों के हाथ में बल्कि गम्भीर साहित्य के पाठकों और लेखकों तक के हाथ में भी. विख्यात लेखक, अमृत लाल नागर ने भी इसे पढ़ा और इसकी प्रशंसा की (उनका पत्र संलग्न )वे जासूसी उपन्यासों के भी शौक़ीन थे.

                उस दौर में और उसके बाद रपट तो खूब आयीं, इस घटनाक्रम पर कथेतर भी खूब आए पर उपन्यास, वह भी तुरन्त, पहला ही था. बाद में भी मुझे याद नहीं पड़ता कि कोई उपन्यास आया हो. आए होंगे तो मेरी जानकारी में नहीं. जन जन तक पहुँचने वाला यह पहला और लोकप्रिय उपन्यास था, उन्होंने ऐसे ही नहीं अपने नाम के साथ 'जनप्रिय लेखक' लगाया था, वे जनप्रिय थे.

             *****

उपन्यास वैसा प्रमाणिक नहीं है, पल्प होने से उनके स्थायी पात्रों - जगत, जयन्त और राजेश - के साथ है. पाकिस्तानी सेना के दमन चक्र और अमानुषिकता व मुक्ति सेना की बहादुरी व कई मोर्चों पर जीत की बातें सही होते हुए भी तिथियों व वास्तविक घटनाओं से पुष्ट नहीं है (बाद का एक साहित्यिक/गम्भीर उपन्यास, महुआ माजी का 'मैं बोरिशाइल्ला' प्रमाणिक विवरणों से पुष्ट है, उसकी चर्चा भी इसी पोस्ट में आगे कर रहा हूँ )शायद मुक्ति संग्राम में भारत की भूमिका, पाकिस्तानी सेना का आत्मसमर्पण और बांग्ला देश के उदय के पूर्व ही 'इधर रहमान उधर बेईमान' लिखा गया क्योंकि उपन्यास में इनका ज़िक्र नहीं है.

               ***

उपन्यास जगत, जयन्त, राजेश सीरीज है (पुराने पाठक इन पात्रो से परिचित हैं) पर है यह जगत सीरीज ही, राजेश व जयन्त तो जैसे फिलर के तौर पर हैं. इसमें जगत ने राजेश जैसा चरित्र भी निभाया है. पाकिस्तानी सेना का दमन चल रहा है और मुक्ति सैनिकों का सशक्त प्रतिरोध भी. पाक मुक्ति सैनिकों के बीच पैठ के लिए अपना जासूस याकूब भेजता है जो प्रमोद घोष नाम से उनमें पैठ बना लेता है. एक जासूस शीरी नाम से कलकत्ता के धनी वर्ग में पैठ बना लेती है. अंर्तराष्ट्रीय ठग जगत भी मुक्ति सैनिकों की ओर से लड़ने के लिए डॉक्टर के छद्म रूप में, फिर असली पहचान के साथ उनमें पैठ बनाता है. सब पाक सेना के कुछ मंसूबे ध्वस्त करते हैं, सैकड़ों औरतों को कैद से मुक्त कराते हैं. लाखों लोग भारत में शरण पाते हैं. जगत याकूब और शीरी को पहचान कर उनका ह्रदय परिवर्तन करके बांग्ला देश के पक्ष में कर लेता है, यहाँ उसने राजेश जैसा चरित्र दिखाया.

              इसी के साथ एक लघु उपन्यास 'मेजर अली रज़ा की डायरी' भी है जो पाक सेना के थे व उनके अमानुषिक दमन को डायरी के माध्यम से उजागर करता है.

               जब यह उपन्यास पढ़ा था तब बारह-तेरह साल का रहा होऊंगा फिर भी इसकी याद और फिर पढ़ने की इच्छा बनी रही जो अब पूरी हुई.

                   *****

इसके बाद इस घटनाक्रम, भारत का मुक्ति संग्राम में सक्रिय और निर्णायक हस्तक्षेप, पाक सेना का समर्पण और बांग्ला देश के उदय/विश्व द्वारा एक स्वतन्त्र देश के रूप में मान्यता पर कथेतर तो पढ़े किन्तु उतना ही सशक्त, प्रमाणिक और रोचक उपन्यास महुआ माजी का 'मैं बोरिशाइल्ला' पढ़ा. महुआ माजी वर्तमान में, 2024 से, झारखण्ड में झारखण्ड मुक्ति मोर्चा की राज्य सभा सदस्य भी हैं.












                 जो कथेतर में रुचि नहीं रखते किन्तु प्रमाणिक तथ्यों सहित विस्तार से पूरा घटनाक्रम जानने के इच्छुक हैं, वे यह उपन्यास ज़रूर पढ़ें. उपन्यास वर्ष 2006 में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित है और इसमें 1948 से1971तक के कालखण्ड का चित्रण है. यह उनका पहला उपन्यास है जो पुरस्कृत भी हुआ और विवादित भी.

           इस उपन्यास पर 2024 में श्रवण कुमार गोस्वामी (हिन्दी और नागपुरी भाषा के प्रमुख लेखक, रांची विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर, वर्ष 2020 में 82 वर्ष की आयु में निधन ) ने महुआ माजी पर आरोप लगाया कि वे इस उपन्यास की लेखक नहीं हैं बल्कि उनके परिवार के किसी सदस्य ने आधी अधूरी पाण्डुलिपि उन्हें दी जिसे महुआ माजी ने पूरा करके अपने नाम से प्रकाशित करा लिया. इस पर पक्ष विपक्ष से कई लेखक-लेखिकाओं ने लिखा और साहित्यिक पत्रिका 'पाखी' ने 'श्रवण कुमार-महुआ माजी प्रकरण' शीर्षक से सभी पत्रों को छाप कर इसे खूब हवा दी. बहरहाल यह श्रवण कुमार गोस्वामी का वैयक्तिक भावावेश का प्रलाप ही सिद्ध हुआ.

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बांग्लादेश के उदय और इसमें भारत की प्रमुख भूमिका के 50 वर्ष पूरे होने पर वर्ष 2021 में मशहूर दास्तानगो हिमांशु बाजपेयी और प्रज्ञा शर्मा ने कैण्ट लखनऊ में सेना के 'पुनीत दत्त ऑडिटोरियम, गोरखा सेन्टर' में 'किस्सागोई 1971' नाम से प्रभावी दास्तान प्रस्तुत की. उस दास्तान के कुछ चित्र देखें.

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'इधर रहमान उधर बेईमान' के बहाने बांग्लादेश उदय के घटनाक्रम, एक और उपन्यास और उसके साथ विवाद और दास्तानगोई को भी घसीट लाया.  किसी पोस्ट को विस्तार देने का कुटेव मुझमे है, मेरे साथ इसे भी सहन करें किन्तु आशा है, इस विस्तार को पोस्ट से संगति रखने वाला पायेंगे और ऊबे न होंगे.

 

Monday, 29 September 2025

'तालीवाला' - चित्रा मुद्गल की कहानी और उस पर कुछ !


एक लड़की है मध्यवर्गीय परिवार की. जैसी आर्थिक स्थिति, वैसी परिवार की सोच. तीन लड़कियां और एक लड़का, कुछ भी लीक से हट कर सोचो भी तो माँ कहती कि जो करना है, अपने घर जाकर करना ! अपने घर यानि ससुराल. बाक़ी दो अपने मन का करने के लिए शादी करके अपने घर चली गयीं, भाई भी शादी करके अलग रहने लगा, रह गयी यह. शायद इसलिए भी कि रंग रूप, शक़्ल साधारण थी, अनाकर्षक की सीमा तक. होते-होते 35 की हो गयी तो रहे सहे रिश्ते आने भी बन्द हो गए. वह एक ऑफिस में काम करती थी. अब उसका सपना एक घर खरीदना और किसी लड़की को गोद लेकर शेष जीवन बिता देना भर था.
एक दिन माँ ने उसे एक रिश्ते के बारे में बताया, प्रस्तावित वर, देवेन्द्र, उनको देखते सम्पन्न था, बस लंगड़ापन था. कहा भी, 'लंगड़ापन ऐसा कोई बड़ा ऐब नहीं है, दो-दो दुकानें उसकी अपनी हैं. अपने छोटे से हीनत्व से पीड़ित वह तुझे हमेशा सिर आँखों पर रखेगा.' वह फफक उठी, रिश्ता आया गया हो गया.
जीवन यूँ ही चल रहा था कि ऑफिस में सिन्हा सरनेमधारी एक व्यक्ति का आगमन हुआ, उसने स्वयं परिचय का हाथ बढ़ाया. फिर तो परिचय प्रगाढ़ होता गया. हर तरफ स्र उपेक्षित वह खिल उठी, बात शादी तक पहुँच गयी. माता-पिता भी सहमत थे. सगाई वगैरह के आयोजन को उसने सादगी व फिजूलखर्ची के नाम पर मना कर दिया. लड़की ने अपनी बचत से एक फ्लैट बुक करा दिया.
वह ख़ुशियों के झूले में झूल रही थी कि एक दिन सिन्हा की एक और से बातचीत सुन ली. दूसरा कह रहा था, 'जिसके साथ कोई चाय पीना पसन्द नहीं करता, उससे शादी करना क्यों स्वीकार कर लिया ? एकदम तालीवाला तो है .' उत्तर में सिन्हा ने जो जो कहा उसका सार यही कि तालीवाला ही सही. उसने शादी करना उसकी नौकरी और मकान के लिए स्वीकार किया. वह मकान ले रही है और हर महीने की तनख़्वाह आती रहेगी.
वह सुन कर बिल्कुल टूट गयी. नौकरी से इस्तीफा दिया, रिश्ता तोड़ कर घर आयी. कुछ बात हुई, वह फफक पड़ी, आवेश में कहा, 'मैं देवेन्द्र से शादी के लिए तैयार हूँ, तुम भानू बेन से कह दो.'
माँ अवाक सी उसकी पीठ को सहलाती रही. कैसे कहें, 'देवेन्द्र की सगाई हो चुकी है, शादी आठ-दस दिन बाद है ... '
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कल, 28 सितम्बर, 2025 को चित्रा मुद्गल की यह कहानी 'हिन्दुस्तान' के रविवासरीय अंक 'फुरसत' में पढ़ी. 'हिन्दुस्तान' हर रविवार इस अंक में 'कादम्बिनी' के पुराने अंकों से कुछ सामग्री प्रकाशित करता है. यह कहानी वर्ष 2002 के अंक में प्रकाशित हुई थी, यानि कहानी 23 वर्ष पुरानी है.
कहानी स्तब्ध कर गयी, इसलिए भी कि लगभग एक चौथाई सदी बाद भी इस मोर्चे पर कुछ खास बदलाव नहीं हुआ जबकि जब कहानी लिखी गयी, तब व पहले तो स्थिति और विकट रही होगी. कहानी में तो लड़की नौकरी कर रही है, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर तो है. वास्तव में तब भी लड़कियों का नौकरी करना कोई अजूबा नहीं रह गया था. उससे पहले की लड़कियों की सोचें जब वे आत्मनिर्भर भी नहीं थीं तब दबे रंग वाली/अनाकर्षक लड़कियों को शादी के मोर्चे पर कितनी दुश्वारी होती होगी, हो गयी तो किसी कमी वाले या दुहाजू वर से और उसमें भी जीवन भर सुनना/दबना पड़ता होगा.
आज भी स्थिति बहुत बदली नहीं है. इस तरह की कमी वाली लड़कियों को आज भी दिक्कते हैं, शादी के मोर्चे पर भी और समाज में भी. अब भी उनसे उनकी कमाई, वेतन के रूप में नियमित आने वाली रकम के लिए शादी होती है. अपवाद भी होंगे ही पर वे अपवाद ही हैं.
ऐसी ही दिक्कतें अकेली, तलाकशुदा या अलग रह रही लड़की के लिए हैं. उनके लिए शब्द है 'परित्यक्ता' यानि जिसे पति ने त्याग दिया हो, भले ही आत्माभिमानी, दृढ़ और आत्मनिर्भर लड़की ने पति को त्यागा हो पर कहलाती वह परित्यक्ता है. लोग उसका फायदा उठाना ही चाहते हैं.
स्थिति से परिचित सब हैं पर साहित्य में यह बात उठने से लड़कियों को एक आवाज़ मिलती है, सम्बल मिलता है कि कोई नितान्त अपरिचित भी उनके लिए आवाज़ उठा रहा है, उन्हें व समाज को सच्चाई दिखा कर सचेत कर रहा है. यही इस व इस जैसी कहानी की सार्थकता है. लोकरंजन, मॉरल, 'जैसे उनके दिन फिरे' जैसा भले ऐसे यथार्थवादी साहित्य में न हो पर यह है वह साहित्य जो समाज का दर्पण है. स्वागत है ऐसे साहित्य का और साहित्यकारों का, प्रकाशकों का, पसन्द करने वाले पाठकों का.
कुछ खटकने वाली बात भी लगी इस कहानी में. एक ओर तो लड़की इतनी मज़बूत किन्तु दूसरी ओर ऐसी भावुक और कमज़ोर कि ज़माना देखे हुए होने पर भी, अपने रंग-रूप से परिचित होते हुए भी सिन्हा जैसे के सामने पिघल गयी. चलो स्वाभाविक सा था, इस तरह के सम्बन्ध से दुत्कारी जाती रह कर प्रेम व प्रस्ताव के पीछे का धूर्त चेहरा न देख सकी मगर ऐसा क्या कि वास्तविकता सामने आने/दिल टूटने पर आवेश में उसी से शादी को तैयार हो गयी जिसे उसकी शारीरिक कमी के चलते ठुकरा चुकी थी.
दूसरे जैसे लोग शारीरिक कमी / अनाकर्षक होने के चलते उसे ठुकरा रहे थे, उसने भी शारीरिक कमी के चलते अन्यथा योग्य लड़के को ठुकराया. ऐसे तो वह भी उसी समाज/मानसिकता की प्रतिनिधि बन गयी जिससे वह पीड़ित थी. दूसरे वह क्या सोचती थी, अब तक क्या वह लड़का अविवाहित बैठा होगा जो उसने उससे शादी की हामी भरी, वो भी सोच विचार कर नहीं, आवेश में. क्या ऐसे लड़के से शादी दिल टूटने पर ही की जाती है. फिर वह समाज व उससे अलग कहाँ हुई जो उससे उसकी कमाई के स्वार्थ में शारीरिक कमी के बावजूद शादी कर रहा रहा था! फिर तो दोनों उसी समाज के प्रतिनिधि हुए, स्वार्थी दोनों हुए, एक कमाई के स्वार्थ में तो दूसरा दिल टूटने के मरहम के रूप में उस पर 'उपकार' कर रहा था.
चित्रा मुद्गल जी स्थापित व वरिष्ठ साहित्यकार हैं, फिर भी लड़की के चरित्र चित्रण की कमज़ोरी लगी मुझे, यह साहित्य के संदेश को कमज़ोर करती है भले ही मानवीय स्वभाव का यथार्थ चित्रण हो. शायद इसीलिए मार्मिक होते हुए भी मुझे लड़की के प्रति उतनी सहानुभूति और सिन्हा के प्रति तीव्र आक्रोश नहीं उत्पन्न हुआ.

 

Tuesday, 23 September 2025

चित्रकूट में राम-भरत भेंट व राम की खड़ाऊँ !

 

चित्रकूट में राम-भरत भेंट व राम की खड़ाऊँ !












कबि न होउँ नहि चतुर कहावउँ । मति अनुरूप राम गुन गावउँ ॥

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कबि न होउँ नहि बचन प्रबीनू । सकल कला  सब बिद्या  हीनू ॥

-        बालकाण्ड.

जब बाबा तुलसी ने मानस की शुरुआत में ही ऐसी आत्मस्वीकृति दे दी तो मैं अकिञ्चन  उनके पासङ्ग का भी पासङ्ग नहीं हूँ फिर भी राम कथा के जो प्रसङ्ग हैं, स्वल्पमति अनुसार ही उनके बारे में कहता हूँ. यह मान कर ही रामकथा पर मेरी बात सुनें.

पिछली पोस्ट में एक भाई ने जिज्ञासा की, ‘ भरत ने राम का खड़ाऊँ क्यों लिया ?’ मेरी मति की जो सीमा है, उसके अनुसार इसका शमन करने की चेष्टा कर रहा हूँ.

यह तो सभी जानते हैं कि राम को वापस अयोध्या चलकर राज्य संभालने की उनकी प्रार्थना व अन्य वैकल्पिक प्रस्ताव राम ने पितु वचन के पालन का हवाला देकर अस्वीकार कर दिया तो भरत राजसिंहासन पर उनके प्रतिनिधि रूप में आरूढ़ करने के लिए उनकी खड़ाऊँ लेकर, उसे सर पर धर कर लाये.

उनके इस प्रश्न का उत्तर देने से पूर्व आईए यह देख लें कि क्या भरत ने उनकी खड़ाऊँ ली / राम ने अपनी खड़ाऊँ दी ? क्या वे जो खड़ाऊँ पहन कर वन गये थे, जो पहने हुए थे, भरत ने उनकी वही खड़ाऊँ मांगी और प्रेमवश उन्होंने पहनी हुई वही खड़ाऊँ उतार कर दे दी !

राम कथा के दो प्रमुख और मान्य स्रोत हैं एक श्रीमद्वावाल्मीकि रामायण और श्रीरामचरित मानस. मानस रामयण पर ही आधारित है, अनेक प्रसङ्ग पूरी तरह रामायण के अनुसार हैं, बस वहाँ भाषा संस्कृत है, यहाँ अवधी. देशकाल और लोकरंजन को ध्यान में रख कर मानस में कुछ प्रसङ्गों में विचलन है, कुछ जोड़े गए हैं तो कुछ छोड़ दिए हैं. मानस जन जन में अधिक पैठी हुई है अतः लोग मानस में किए वर्णन से अधिक परिचित हैं.                 

खड़ाऊँ प्रसङ्ग में मानस में जो वर्णित है, कि भरत ने राम से उनकी खड़ाऊँ मांगी और राम ने वही दे दी

भरत सील गुर सचिव समाजू । सकुच सनेह बिबस रघुराजू ॥

 प्रभु करि कृपा पाँवरी दीन्हीं । सादर भरत सीस धरि लीन्हीं ॥

चरनपीठ करुनानिधान के । जनु जुग जामिक प्रजा प्रान के ॥

रामायण में है कि भरत ने राम की पहनी हुई खड़ाऊँ नहीं उतरवाई थी बल्कि वे अयोध्या से ही स्वर्णमण्डित खड़ाऊँ साथ लेकर गये थे. राम जी ने इस प्रस्ताव की स्वीकृति स्वरूप उन पर पैर रखा तो वे खड़ाऊँ राम की खड़ाऊँ के रूप में स्वीकार हो गयीं, उन्हीं को लेकर वे अयोध्या लौटे और वे ही खड़ाऊँ राम की खड़ाऊँ के रूप में सिंहासनारूढ़ हुईं. उन्होंने राम की पहनी हुई खड़ाऊँ नहीं उतरवाईं.

श्रीमद्वाल्मीकि रामायण में है कि भरत अयोध्या से ही स्वर्णमण्डित खड़ाऊँ साथ लेकर आये थे, उनकी प्रार्थना पर राम ने अपने चरण उन पर रखे और वही खड़ाऊँ वे लेकर लौटे न कि वनवास पर जाने के समय पहनी राम की खड़ाऊँ.

पुष्टिस्वरूप रामायण के अयोध्याकाण्ड से यह श्लोक देखें

अधिरोहार्य  पादाभ्यां   पादुके  हेमभूषिते ।

ऐते हि सर्वलोकस्य योगक्षेम्यं विधास्यतः ॥

(आर्य ! ये दो स्वर्णभूषित पादुकाएँ आपके चरणों में अर्पित हैं, आप इन पर अपने चरण रखें. ये ही सम्पूर्ण जगत् के योगक्षेम का निर्वाह करेंगी.)

स पादुके ते भरतः स्वलंकृते

         महोज्ज्वले सम्परिगृह्य धर्मवित् ।

प्रदक्षिणं चैव चकार राघवं

        चकार       चैवोत्तमनागमूर्धनि ॥

( धर्मज्ञ भरत ने भलीभाँति अलंकृत ही हुई उन उज्ज्वल चरण पादुकाओं को लेकर श्रीरामचन्द्र जी की परिक्रमा की तथा उन पादुकाओं को राजा की सवारी में आने वाले सर्वश्रेष्ठ गजराज के मस्तक पर स्थापित किया.)

अब प्रश्न यह कि भरत अयोध्या से खड़ाऊँ साथ लेकर क्यों चले ? क्या वशिष्ठ, माताओं व अन्य गुरुजनों कि भी यही सम्मति थी ? तो इसका उत्तर है हाँ ! सबकी सम्मति थी. भरत अच्छि तरह जानते थे कि राम दृढ़ प्रतिज्ञ हैं, वे कदापि पितु वचन के प्रतिकूल वापस लौटना, राज्य करना स्वीकार न करेंगे. तब ! राम ने अस्वीकार किया, जैसा कि विश्लेषण था, तो विकल्प रूप में पहले से खड़ाऊँ लेकर चले अकि रज सिंहासन रिक्त न रहे. यहाँ केवल तत्संबम्बन्धित श्लोक व उनके चित्र चस्पा हैं, अधिक जानकारी / पुष्टि के लिए वाल्मीकि रामायण के अयोध्याकाण्ड का यह प्रस्ङ्ग देखें. 

मानस में भरत के अयोध्या से खड़ाऊँ साथ लेकर जाने का कोई संकेत/वर्णन नहीं है, खड़ाऊँ का विचार विकल्प रूप में वहीं बना तो वे उनकी पहनी हुई खड़ाऊँ लेकर लौटे.

किन्तु यहाँ भी कुछ विचलन / विरोधाभास है. सम्भवतः पूर्ण रूप से वनवासी वेश  का पालन करने के लिए राम नंगे पांव ही वन में गये थे और वैसे ही रहे.

तापस बेष बिशेष उदासी । चौदह बरिस रामु बनबासी ॥

तभी तो उनके कोमल तलवों का स्पर्श पाकर पृथ्वी संकोच से भर उठती है

परसत मृदुल चरन अरुनारे । सकुचति महि जिमि ह्रदय हमारे ॥

यदि खड़ाऊँ या पदत्राण/ पनही पहने होते तो पृथ्वी को तलुओं का स्पर्श न मिलता, मार्ग के स्त्री-पुरुषों ने भी उन्हें नंगे पांव/ बिना जूते-चप्पल के चलते देखा

ए बिचरहिं मग बिनु पदत्राना । रचे बादि बिधि बाहन नाना ॥

एक ओर तो यह संकेत कि राम नंगे पांव ही थे तो दूसरी ओर यह कि वे भरत को पांवरी देना चाह्ते हैं और अन्ततः दे भी दीं.

प्रभु करि कृपा पाँवरी दीन्हीं । सादर भरत सीस धरि लीन्हीं ॥

सम्भवतः तुलसीदास जी ने इस स्थान पर लोकरंजन और भाव के वशीभूत होकर खड़ाऊँ को राम की बता दिया अन्यथा वे पहले स्थापित कर चुके हैं कि राम जी नंगे पांव थे. ऐसा विचलन बाबा तुलसी ने अन्य प्रसङ्ग में ( लक्ष्मण रेखा के सन्दर्भ में ) भी किया है.

तुलसी भक्त और कवि शिरोमणि हैं, उनकी महिमा वे ही जानें. हम उनके प्रयोजन पर कुछ कहने के लिए अत्यल्पमति हैं.

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अब कुछ विचार इस पर कि खड़ाऊँ मांगने / देने की क्या आवश्यकता थी.

प्राचीन काल से अब तक यह परम्परा है कि राज सिंहासन कभी रिक्त नहीं छोड़ा जा सकता. राज्य का अधिकारी किसी कारणवश नहीं है अथवा न रहे तो भी उसके स्थान पर कोई प्रतिनिधि कार्यवाहक राजा के रूप में पद ग्रहण करता है. वर्तमान में सिंहासन जैसी कोई चीज़ नहीं होती तो भी पद पर तुरन्त ही किसी न किसी की नियुक्ति की जाती है अथवा कोई कार्यवाहक अस्थायी रूप से पद भार ग्रहण करता है. ऐसा इसलिए है कि राज्य व  प्रशासन में, चाहे राजतन्त्र हो अथवा गणतन्त्र/लोकतन्त्र अथवा कोई अन्य शासन तन्त्र,  व्यवस्था है कि नीतिगत निर्णय राजा अथवा प्रमुख से पूछ कर, उसकी स्वीकृति से ही लिए जाते हैं. सिंहासन अथवा पद खाली होने पर आन्तरिक व वाह्य शत्रु सक्रिय हो जाते हैं तब निर्णय राजा/ प्रमुख का ही वैध होता है. इसलिए राज सिंहासन व राजा पद रिक्त नहीं रह सकता.

                                   अयोध्या की स्थिति और भरत के संकल्प के अनुसार वे तो गद्दी पर बैठते नहीं, जब वे नहीं बैठते तो शत्रुघ्न, माताओं में से किसी के अथवा अन्य किसी के बैठने का प्रश्न ही नहीं. प्रतिनिधि के रूप में, राम के प्रतिनिधि के रूप में, भरत और उनके प्रतिनिधि के रूप में शत्रुघन राज काज तो संभाल रहे थे किन्तु सिंहासन पर कौन आसीन हो ? तो राजा द्वारा संस्तुत किसी वस्तु को प्रतीक रूप में बैठाना आवश्यक था ताकि सिंहासन रिक्त न रहे. खड़ाऊँ तो राम द्वारा संस्तुत थीं, उनकी सम्मति थी, उन्होंने प्रदान की थीं तो उनका ही सिंहासनारूढ़ होना सर्वथा स्वीकार्य था. प्रश्न यह भी हो सकता है कि निर्जीव खड़ाऊँ किस काम की ? तो जैसे पत्थर या धातु की देव प्रतिमा में प्राण  प्रतिष्ठा की जाती है तो वह प्रतिमा देव / भगवान हो जाती है, वैसे ही खड़ाऊँ भी प्रतिष्ठित होकर राम रूप हो गयी. जैसे राजपूतों में, वर के किसी कारणवश उपस्थित न रहने पर कटार से विवाह के दृष्टान्त हैं, वैसे ही यह भी राम का स्थानापन्न है. प्रतीकों का आज भी महत्व है, अनुष्ठान में वे स्वीकार्य और पूज्य हैं. हर माङ्गलिक कार्य में गौरी गणेश के स्थान पर काठ अथवा गोबर का सिन्दौरा व गोबर के गणेश मान्य होते हैं वैसे ही खड़ाऊँ भी.

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राम कथा अन्य ग्रंथों में

रामायन सत कोटि अपाराहम व अधिकांश लोग राम कथा को मानस के माध्यम से जानते हैं, कुछ लोग वाल्मीकि रामायण से भी जानते हैं किन्तु रामायण केवल यह ही दो नहीं हैं. तीन सौ से अधिक रामायण होने की बात विदित है. दक्षिण की रामायण व अन्य प्रदेशों की रामायण, विदेश की रामायण में कथा भेद है. राम वही, घटनाक्रम वही किन्तु कुछ भेद के साथ. उत्तर भारत में राम का चरित्र प्रधान है, हनुमान का उल्लेख ऋष्यमूक पर्वत क्षेत्र में राम से भेंट के बाद से है किंतु अन्य रामायणों में रावण व उसके बन्धु बान्धवों का चरित्र है, हनुमान का विशद चरित्र है जो मानस के माध्यम से उन्हें जानने वाले हम लोगों के लिए विस्मयकारी, अविश्वसनीय और कदाचित अस्वीकार्य हो. उदार दृष्टि से अध्ययन करने पर यह चरित्र खुलते हैं व उन्हें जाना जा सकता है.

                                      इस पोस्ट में हम केवल चरण पादुका प्रसङ्ग तक ही रहेंगे. उन मूल ग्रन्थों का अध्ययन मैंने नहीं किया किन्तु उन पर आधारित कुछ स्तरीय उपन्यास पढ़े हैं और कुछ आधुनिक उपन्यास भी जो राम कथा को नवीन सन्दर्भ में प्रस्तुत करते हैं  व्यंग्य उपन्यास भी हैं.

                                        ऐसा ही एक विचारप्रधान उपन्यास है भगवान सिंह का अपने अपने राम उसमें भी भरत और चरण पादुका प्रसङ्ग का आधार वही है जो वाल्मीकि रामायण में है, बस उपन्यास होने के कारण विस्तार दिया गया है. उसके अनुसार भी भरत अयोध्या से ही स्वर्णमण्डित अलंकृत चरण पादुकाएं तैयार करा कर इसी आशय से साथ ले गए थे कि राम वापसी को मानेंगे तो है नहीं तो इस स्थिति में वे उन पादुकाओं पर चरण रख दें,वे पादुकाएं उनकी मानी जाएंगी और उन्हें ही अयोध्या के राजसिहासन पर प्रतीक / प्रतिनिधि रूप में प्रतिष्ठित किया जाएगा. ऐसा ही हुआ. तो भरत ने न राम से उनकी पहनी हुई पादुकाएं मांगी, न उन्होंने दीं. वे पादुकाएं भरत अयोध्या से साथ ले गए थे. ( उपन्यास के उन पृष्ठों  के चित्र पेस्ट हैं.

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एक और महत्वपूर्ण उपन्यास है मदनमोहन शर्मा शाहीका लंकेश्वर  उसमें भी यह प्रसङ्ग तलाश किया किन्तु यह रावण का आख्यान अधिक है, इसमें वह प्रसङ्ग न मिला फिर भी इस उपन्यास की चर्चा इसलिए कर रहा हूँ कि इसमें आप हनुमान का  विशद वर्णन देखेंगे जिससे आपको झटका भी लग सकता है. खोल कर इसलिए नहीं बता रहा हूँ कि जिज्ञासुजन उपन्यास पढ़ें. इसमें यह भी है कि वनवास की योजना विचार विमर्श करके बनायी गयी, राम की इसमें सहमति थी. यह उपन्यास लेखक की कल्पना नहीं बल्कि अन्य रामायण पर आधारित है

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बस एक और उपन्यास की चर्चा और इस आलेख को विराम. एक व्यंग्य उपन्यास है वयंग्य के सशक्त लेखक ज्ञान चतुर्वेदी का मरीचिकाइसमें राम के वन गमन के पस्चात अयोध्या की राजनीति और रावण को परास्त करने के बाद अयोध्या वापसी के पूर्वाभास को आधार बनाया है. सावधान ! इसमें राम कथा / धार्मिक भावना न देखें अन्यथा आपकी भावना आहत हो सकती है. यह व्यंग्य उपन्यास है. इसमें वन गमन के बाद अयोध्या की राज्य व्यवस्था को पादुकाराजकी संज्ञा प्रदान की गयी है. भरत तो राज काज से उदासीन थे, पादुका की आड़ में धूर्त मंत्री, सेनापति आदि अपना स्वार्थ सिद्ध करते हुए अव्यवस्था फैलाए थे. सामान्य प्रजा त्रस्त होकर राम की वापसी की प्रतीक्षा कर रही थी कि राम आयेंगे, राज्य संभालेंगे, इन दुष्टों को दण्डित करेंगे व चहुँ ओर पुनः आनन्द होगा, रामराज्य होगा. जहाँ एक ओर प्रजा में ख़ुशी और आशा थी तो दूसरी ओर उन तत्वों में भय का संचार हो रहा था. भक्ति भाव किनारे रख दें, उदार होकर पढ़ें, यह व्यंग्य उपन्यास है पौराणिक नहीं इस भाव से पढ़ें तो यह पठनीय उपन्यास है.

सन्दर्भित तीनों उपन्यास पढ़े जाने चाहिएं.

तो राम कथा उतनी ही नहीं जितनी हम जानते हैं / पचा पाते हैं.

हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता