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Monday, 8 April 2024
पुस्तक चर्चा – तितली उड़ी
पुस्तक चर्चा – तितली उड़ीकोरोना एक बड़ी महामारी थी, विभीषिका थी जिसके साथ आयी महीनों की तालाबन्दी, जिसे लॉकडाउन नाम से अधिक जाना गया. लॉकडाउन में घर से निकलने पर पाबन्दी, कोई आवा-जाही तो दूर, घर से निकलने पर भी पाबन्दी. कोई निकलए तो पुलिस की प्रताड़ना और 14 दिनों के लिए कोरोनटाईन किया जाना. निकलना दण्डनीय अपराध बन गया था. पुलिस के डर को छोड़ भी दें तो कोरोना का डर सबसे बड़ा था. यह घोर संक्रामक था. कोरोनाग्रस्त व्यक्ति के संपर्क में आने पर कोरोना हो सकता था जिसका परिणाम मौत भी था तो लोग एक दूसरे को देखने तक से डर रहे थे, छूने की कौन कहे. केवल आवश्यक सेवाओं वाले ( पुलिस, स्वास्थ्य कर्मी, बैंक, दवा की दुकानें खुली थीं और राशन आदि की दुकानें भी पूरी सुरक्षा व्यवस्था के साथ और सोशल डिस्टेंस ( एक दूसरे से छह फुट की दूरी रखना ) के साथ खुली थीं, बाद में शराब को भी आवश्यक मानते हुए सरकार ने इन्हें भी खोलने की छूट दी. निकलने पर रोक, तो काम धंधा बन्द. जिनकी सरकारी नौकरी थी, उन्हें तो आर्थिक दिक्कत नहीं हुई किंतु जो रोज कमाने – खाने वाला वर्ग था, उसकी मरन थी. धंधा नहीं तो चूल्हा नहीं जल सकता. चूल्हे में आग हो न हो, पेट में तो आग जलती ही है जो खाने से शांत होती है. काम नही तो इस आग को शांत करने का उपाय नहीं. ऐसे में अगर कोई कोरोनाग्रस्त हो जाए तो ईलाज मुश्किल क्योंकि उसके लिए पैसा नहीं. कोरोना ने उन्हें तो पीड़ित किया ही जिन्हें कोरोना हुआ, उन्हें और भी अधिक पीड़ित किया जो काम धन्धा बंद होने के कारं घर में बन्द थे.
ऐसे ही लोगों में थीं धन्धे वालियां/ सेक्स वर्कर्स. इनमें शरीर बेच कर जीवन यापन करने वाली तो थीं ही, उन पर आश्रित दलाल व अन्य बच्चे-बच्चियां, बूढ़ी औरतें भी थीं. कोरोना के कारण उनके ग्राहक भी नहीं आ रहे थे – पुलिस से अधिक कोरोना का डर. समाज के अन्य वर्गों पर तो खूब लिख गया, रोज कमाने – खाने वालों की व्यथा, पलायन करते श्रमिकों की व्यथा तो अख़बार, टी.वी. व अन्य माध्यम से सामने आयी, सरकर व अनेक स्वयं सेवी संस्थाओं ने उनकी सुध ली, खाने – पीने से लेकर दवा व अन्य ज़रूरत की चीज़ें बांटी किंतु सेक्स वर्कर्स लगभग उपेक्षित ही रहे. न सरकार ने इन पर समुचित ध्यान दिया, न NGO’s ने. अख़बार, चैनल और तत्कालीन साहित्य में भी ये अछूत ही रहे. पलायन करके श्रमिकों पर उपन्यास भी आये, डाक्यूमेण्टरी भी बनी किंतु सेक्स वर्कर्स की दिक्कतों पर साहित्य जगत भी चुप्पी साधे रहा. ऐसे में इनकी मुसीबतों पर कल्याण आर. गिरि. ने उपन्यास लिखा, ‘तितली उड़ी’. यह उपन्यास सेक्स वर्कर्स की दिक्कतों के साथ एक अन्य वर्ग की दिक्कतों पर भी मानवीय दृष्टिकोण से प्रकाश डालता है जो काम बंद होने व पैसा आने के रास्ते बंद होने के कारण मज़बूरी में ढके छुपे रूप से देह व्यापार के धंधे में उतर पड़ा जिसका शोषण नये बने दलालों ने भी किया. यह वर्ग था प्राईवेट सेक्टर में काम करने या पढ़ाई के लिए महानगरों में रह रही लड़कियों का. प्राईवेट सेक्टर में अधिकांश का काम छूट गया. काम बंद तो आय बंद किंतु मकान का महँगा किराया तो चढ़ ही रहा था, रोज खाने के लिए भी पैसे न थे. घर वापस जाना भी मुश्किल, एक तो कोई साधन नहीं और जो थे भी उन्होंने किराया इतना बढ़ा दिया कि देना मुश्किल. ऐसे में लड़कियों के सामने एक यह रास्ता नज़र आया कि वे दबे छुपे ढंग से देह व्यापार से पैसा इकट्ठा करें ताकि किराया दे सकें, रोज का खाना चले या घर जाने को पैसा हो सके. कुछ मकान मालिकों ने भी उनकी मज़बूरी का फायदा उठाया. इस वर्ग की समस्या को भी ‘तितली उड़ी’ मे व्यक्त किया गया है.
उपन्यास का केंद्र है कमाठीपुरा जो सेक्स व्यापार की सबसे बड़ी मण्डी है. एक NGO है जो इस इलाके में राशन, दवाएं व अन्य सामान बांटता है. नायक उसी NGO में है और कुछ और लड़के लड़कियों के साथ कमाठीपुरा में यह सामग्री बांटने जाता है. इसी के दौरान ऐसे ऐसे करुण अनुभव हुए जिन पर बस विवश होकर रह जाना ही पड़ा. राशन के लिए छीना झपटी, सबको एक बड़े कुनबे की ज़रूरत का सामन मिल नहीं पाता तो सेक्स वर्कर का राशन के बदले ‘कुछ भी कर लेने’ का विवश और बेशर्म ऑफर, बूढ़ी या यौन रोग से पीड़ित सेक्स वर्कर्स का उन्हीं के समुदाय द्वारा बहिष्कार आदि दिल दहलाने वाला है. है तो यह उपन्यास किंतु सहज ही अनुभव किया जा सकता है कि इन सेक्स वर्कर्स के सामने यह समस्या और भी भीषण रूप में रही होगी क्योंकि लोग इन्हें उपेक्षित किए रहते हैं. ऐसे में भी कुछ ग्राहक जोखिम उठा कर आते हैं और मज़बूरी का फायदा उठा कर कम रेट देते हैं. येह वर्कर्स NGO वालों से दवाओं के साथ कण्डोम की भी मांग करती हैं, ग्राहक आते हैं तो धंधा तो करना ही है.
समानान्तर भी व्यथा कथाएं चलती हैं. पैसे की किल्लत से जूझ रही कामकाजी लड़कियां ‘आपदा में अवसर’ तलाश लेने वाले एक के माधयम से अपनी तस्वीरें उसे देती हैं जिन्हें मोबाईल पर ही परिचितों को भेज कर उनकी बुकिंग करता है. सब्जी तक उधार ले रही लड़कियों पर सब्जी वाले की भी नियत है और वह उधारी के बदले सेक्स चाहता है. ऐसी ही एक लड़की की मज़बुरी का नायक फायदा तो नहीं उठाता किंतु उसे अपने रूम पर रहने देता है क्योंकि उसके मकान मालिक ने उसे किराया न देने पर निकाल दिया और उसके पास घर जाने के पैसे नहीं. NGO संचालिका की अलग व्यथा कथा है और इसी में है कमाठीपुरा में बेचने के लिए लायी गयी एक नाबालिग लड़की की जिसकी पहचान बस रूपा नाम और नाभि के नीचे तितली का टैटू है. वह लड़की बचा ली जाती है.
ऐसी कई कहानियों और घटनाओं को समेटे है यह उपन्यास. चूंकि इसमे कथा, बल्कि कथाएं, हैं सो यह कोरोना के दौरान राहत और बचाव कार्य की रपट भर न होकर रोचक उपन्यास हो गया है.
कल्याण आर. गिरि का यह दूसरा उपन्यास है. उनसे kalyangiri555@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. कोरोना काल के इस उपेक्षित वर्ग की व्यथा का दस्तावेज है यह उपन्यास.
पुस्तक – तितली उड़ी
लेखक – कल्याण आर. गिरि
विधा – उपन्यास
प्रकाशक – हिन्दीनामा
पेपरबैक, 112 पृष्ठ, दाम 175/-
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