पुस्तक चर्चाः गूँगी रुलाई का कोरस
किताब के बारे में कुछ बताऊँ इससे बेहतर किताब के एक अध्याय को संक्षेप में प्रस्तुत कर देता हूँ , यह अंश किताब की विषय-वस्तु को बेहतर ढंग से बताएगा.
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हुदूदे-जात से बाहर निकल के देख ज़रा,
न कोई ग़ैर, न कोई रक़ीब लगता है॥
- सौदा
ड्राईंग रूम में कमोल और कालिन्दी बहुत देर से अकेले बैठे थे कि सामने के दरवाज़े से गुप्ता साहब और अन्दर की ओर से अब्बू एक साथ तशरीफ़ लाये. न जाने अब्बू को कैसे इल्म हुआ कि कमोल और कालिन्दी वहाँ बहुत देर से अकेले हैं और यह तनहाई गुप्ता को खटक सकती है.
अध्याय पोस्ट के हिसाब से लम्बा है सो संक्षेप करने की नियत से बता दूँ कि कमोल बाउल परम्परा का निष्णात गायक है और अब्बू जोगी परम्परा के विख्यात गायक, उस्ताद ख़ुर्शीद शाह जोगी, हैं. कमोल उनका जामाता है और पूरा घराना ही विख्यात संगीतज्ञों का है. कमोल के पिता, मदन बाउल, भी बाउल परम्परा के गायक हैं. अब्बू के घर का नाम ‘मौसिक़ी-मंज़िल’, जो अब ‘उस्ताद महताबुद्दीन ख़ान संगीत आश्रम’ है जहाँ तमाम यतीम बच्चों को आश्रम परम्परा के अनुसार संगीत शिक्षा और कम्प्यूटर सहित अकादमिक शिक्षा भी दी जाती है. कमोल और कालिन्दी में प्रेम और विवाह होते-होते रह गया जिसकी कसक कालिन्दी में है. कालिन्दी का विवाह गुप्ता जी से हुआ जो एक घाघ व्यापारी हैं, ‘सुआर्यन कम्प्यूटर ट्रेनिंग अकादमी’ के मालिक हैं जिसकी शाखाएं देश भर में हैं. गुप्ता जी ‘राष्ट्रवादी’ धर्म और हिन्दुत्व के रक्षक भी हैं. वे अन्य दूरगामी व्यावसायिक उद्देश्यों से पधारे, पूर्वपीठिका के रूप में आश्रम के बच्चों में से कुछ को अपनी अकादमी में फ्री ट्रेनिंग का प्रस्ताव लेकर पधारे.
“ … बात कालिन्दी नें आगे बढ़ाई कि बिजनेस अपनी जगह ठीक ही है, किन्तु हम भी आप लोगों की तरह कुछ पुण्य कमाना चाहते हैं. आश्रम के इन यतीम बच्चों में से सीनियर्स को फ्री कम्प्यूटर ट्रेनिंग देना चाहते हैं ताकि कल इन्हें अपने पैरों पर खड़े होने में थोड़ी मदद मिल सके … लेकिन …।
कालिन्दी का यह ‘लेकिन’ थोड़ा ज़्यादा ही लम्बा खिंच गया तो गुप्ता नें बात की डोर थाम ली, कि एक ट्रस्ट जो हमारी एकेडमी को संचालित करता है वह थोड़ा धार्मिक किसम का है. क्षमा चाहूँगा कि हम आप लोगों की तरह विशाल ह्रदय-उदार लोग नहीं हैं. हमारे ट्रस्ट के नियम-कायदे थोड़े बँधे-बँधे से हैं. अब कैसे कहूँ … हमारी शर्त आप लोगों को थोड़ी छोटी-हल्की लग सकती है … लेकिन हम अपने ही धर्म के बच्चों को एडमिशन देते हैं और फ्री ट्रेनिंग भी उन्हें ही देनें की शर्त से हम बँधे हैं.
ड्राइंग रूम में एकदम सन्नाटा छा गया … अब्बू की तो जैसे साँसें रुक गई हों. कितना बेशर्म था यह शख़्स … इसके चेहरे पर तो पश्चाताप का कोई निशान भी नहीं था …
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“ … मैनें तो कालिन्दी को पहले ही कहा था कि ट्रस्ट की शर्तें आप लोगों को पसन्द नहीं आएंगी लेकिन इसे ही पुण्य कमाने की बड़ी हड़बड़ी थी. क्षमा कीजिएगा ! हमारा उद्देश्य आप लोगों के ह्रदय को पीड़ा पहुँचाने का कदापि नहीं था. उस बात को भूल जाइए … कुछ दूसरी बात करते हैं … ख़ुर्शीद साहब … आप मुसलमान होकर गेरुआ वस्त्र क्यों पहनते हैं ?
… ख़ुर्शीद साहब … ? कमोल क्या … लगा पूरा आश्रम ही चौंक पड़ा हो. अब्बू को आज तक किसी ने इस तरह नाम से पुकारा हो, कमोल को याद नही आ रहा था. मौसीक़ी की दुनिया में वे उस्ताद जोगी साहब के नाम से जाने जाते थे…
लेकिन गुप्ता का सवाल दरअसल बदले हुए माहौल का सवाल था जो हज़ार हज़ार बार अलग-अलग जगह जोगियों को घेरकर पूछा जा रहा था. अब्बू को सब ख़बर थी फिर भी वैसे ही मुस्कुराते हुए मुख़ातिब हुए, “ लगता है, अपने मुल्क और पाक कल्चर की रवायतों से आप पूरी तरफ वाक़िफ़ नहीं हैं बरख़ुरदार. हम जोगी हैंऔर बेटा कमोल, बाउल. जोगी और बाउल न हिन्दू होते हैं न मुसलमाँ. वे बस जोगी और बाउल ही होते हैं. हम जोगियों के गुरु गोरखनाथ और दादा मछ्न्दरनाथ नें न पूजा करने से मना किया और न नमाज पढ़ने से. वही सीख बाउलों को लालन शाह फ़क़ीर ने दी…
… अब आप ही तय कर दिजिए कि हम अपने गुरु गोरखनाथ की रवायत का गेरुआ बाना पहनें कि नहीं … अपना इकतारा बजाते भरथरी के गीत के साथ सुरसती-शिव-विष्णु के भजन गायें कि नहीं ? … सुरों पर सवारी कर मौला को पुकारें कि नहीं… “
और बातें भी कहीं मगर उनका असर न गुप्ता (व इस मानसिकता के लोगों) पर हुआ, न अब्बू, कमोल और इन जैसों पर. इस अध्याय का अंत यही हुआ कि गुप्ता एकेडमी के उद्घाटन का कार्ड थमा कर आने की औपचारिक प्रार्थना करके चल दिए.
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यह एक अध्याय है जिससे किताब की विषय-वस्तु स्पष्ट हो जाती है. संगीत को समर्पित एक घराने की कथा है जो धर्म- समुदाय आदि से परे बस इन्सानियत और संगीत में लीन है तो दूसरी तरफ सभी जगह माहौल बदल रहा है. लोग उनमें कलाकार नहीं हिन्दू-मुसलमान देख रहे हैं. आग दुहू घर लागी है. कुछ हिन्दू और कट्टर हिन्दू हो रहे तो मुसलमान भी और कट्टर होते जा रहे. उन्हे पसन्द नहीं कि मुसलमान हमारे राम –कृष्ण के गीत गाये, हमारी राग-रागिनियाँ गाये तो मुसलमानों को भी यह नहीं पसन्द, बल्कि कट्टर को तो मुसलमान का गाना-बजाना-नाचना भी गवारा नहीं. यह कट्टरता जान लेकर भी खतम नही होती. घराने के अधिकांश लोग मॉब लिंचिंग में मारे जाते हैं. अब जो हमसे सहमत नहीं या जिसे हम नहीं चाहते – उसे जीवित रहने का अधिकार नहीं, हम विचार की नहीं उसकी हत्या कर देंगे. कुछ की हत्या होगी ति बाक़ी ऐसे ही सहम कर पाँव खींच लेंगे.
जो स्थिति अब हो रही है, उसका चित्रण इस घराने के माध्यम से किया है.कथा इतिहास और कल्पना का मिश्रण है. भाषा-शैली प्रवाही और प्रभावी है और इससे भी बढ़कर है कि संगीत घराने की दारुण कथा कहने में संगीत परिवेश को अच्छी तरह उभारा है. लगता है हम संगीत गाथा ही पढ़ रहे हैं. राग-रागिनियों, रियाज़, परम्परा, संगीत सम्मेलन … सब ऐसा कि मानों संगीत सभा में हों या उस घराने में रह कर सब देख-सुन रहे हों. हर अध्याय के पूर्व किसी शायर, कवि या चिन्तक की पंक्तियां जो अध्याय का सार बताती हैं. संगीत तो है किन्तु मुख्य स्वर बदलता परिवेश, फिज़ा में घुलता ज़हर और असहमति के स्वर के साथ उस स्वर को उठाने वाले को ही खत्म कर देने की प्रवृत्ति … बहुत हद इस प्रवृत्ति को बहुसंख्यक, शासन, सत्ता और व्यवस्था का कहीं खुला तो कहीं मौन समर्थन. संवेदनशील विषय को उठाती प्रभावी किताब है.
किताब शोधपरक है, इतिहासाधारित है किन्तु बोझिल नहीं. झकझोरने वाली किताब है.
किताबः गूँगी रुलाई का कोरस
लेखकः रणेन्द्र
विधाः उपन्यास
प्रकाशकः राजकमल पेपरबैक्स
प्रकाशन वर्षः 2021, पहला संस्करण
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